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भक्त सुधन्वा


चम्पकपुरीके राजा हंसध्वज बड़े ही धर्मात्मा, प्रजापालक, शूरवीर और भगवद्भक्त थे। उनके राज्यकी यह विशेषता थी कि राजकुल तथा प्रजाके सभी पुरुष 'एकपत्नीव्रत' का पालन करते थे। जो भगवान्‌का भक्त न होता या जो एकपत्नीव्रती न होता, वह चाहे जितना विद्वान् या शूरवीर हो, उसे राज्यमें आश्रय नहीं मिलता था। पूरी प्रजा सदाचारी, भगवान्‌की भक्त, दानपरायण थी। पाण्डवोंका अश्वमेध-यज्ञका घोड़ा जब चम्पकपुरीके पास पहुँचा, तब महाराज हंसध्वजने सोचा–‘मैं वृद्ध हो गया, पर अबतक मेरे नेत्र श्रीकृष्णचन्द्रके दर्शनसे सफल नहीं हुए। अब इस घोड़ेको रोकनेके बहाने मैं युद्धभूमिमें जाकर भगवान् पुरुषोत्तमके दर्शन करूंगा। मेरा जन्म उन श्यामसुन्दर भुवनमोहनके श्रीचरणोंके दर्शनसे सफल हो जायगा।'

घोड़ेकी रक्षाके लिये गाण्डीवधारी अर्जुन प्रद्युम्नादि महारथियोंके साथ उसके पीछे चल रहे थे, यह सबको पता था; किंतु राजाको पार्थसारथि श्रीकृष्णचन्द्रके दर्शन करने थे। अश्व पकड़कर बाँध लिया गया। राजगुरु शंख तथा लिखितकी आज्ञासे यह घोषणा कर दी गयी कि 'अमुक समयतक सब योद्धा रणक्षेत्रमें उपस्थित हो जायँ । जो ठीक समयपर नहीं पहुँचेगा, उसे उबलते हुए तेलके कड़ाहेमें डाल दिया जायगा।'

राजा हंसध्वजके पाँच पुत्र थे - सुबल, सुरथ, सम, सुदर्शन तथा सुधन्वा । छोटे राजकुमार सुधन्वा अपनी माताके पास आज्ञा लेने पहुँचे। वीरमाताने पुत्रको हृदयसे लगाया और आदेश दिया- 'बेटा! तू युद्धमें जा और विजयी होकर लौट! परंतु मेरे पास चार पैरवाले पशुको मत ले आना। मैं तो मुक्तिदाता - 'हरि' को पाना चाहती हूँ। तू वही कर्म कर, जिससे श्रीकृष्ण प्रसन्न हों। वे भक्तवत्सल हैं। यदि तू अर्जुनको युद्धमें छका सके तो वे पार्थकी रक्षाके लिये अवश्य आयेंगे। अपने भक्तको कभी छोड़ नहीं सकते। देख, तू मेरे दूधको लज्जित मत करना। श्रीकृष्णको देखकर डरना मत। श्रीकृष्णके सामने युद्धमें मरनेवाला मरता नहीं, वह तो अपनी इक्कीस पीढ़ियाँ तार देता है। युद्धमें लड़ते हुए पुरुषोत्तमके सम्मुख तू यदि वीरगति प्राप्त करेगा तो मुझे सच्ची प्रसन्नता होगी। धन्य माता ! वे

सुधन्वाने माताकी आज्ञा स्वीकार की। बहन कुबलासे आज्ञा तथा प्रोत्साहन प्राप्तकर वे अपने अन्तःपुरमें गये। द्वारपर उनकी सती पत्नी प्रभावती पहलेसे पूजाका थाल सजाये पतिकी आरती उतारनेको खड़ी थी। उसने पतिकी पूजा करके प्रार्थना की—'नाथ! आप अर्जुनसे संग्राम करने जा रहे हैं। मैं चाहती हूं कि आपके चले जानेपर एक अंजलि देनेवाला पुत्र रहे ।

सुधन्वाने पत्नीको समझाना चाहा, पर वह पतिव्रता थी। उसने कहा—‘मेरे स्वामी! मैं जानती हूँ कि श्रीकृष्णचन्द्र के समीप जाकर कोई इस संसारमें लौटता नहीं। मैं तो आपकी दासी हूँ। आपकी इच्छा और आपके हितमें ही मेरा हित है। मैं आपके इस मंगल प्रस्थानमें बाधा नहीं देना चाहती। इस दासीकी तो एक तुच्छ प्रार्थना है। आपको वह प्रार्थना पूर्ण करनी चाहिये।'

अनेक प्रकारसे सुधन्वाने समझाना चाहा; किंतु अन्तमें प्रभावतीकी विजय हुई। सती नारीकी धर्मसम्मत प्रार्थना वे अस्वीकार नहीं कर सके । वहाँसे फिर स्नान-प्राणायाम करके वे युद्धके लिये रथपर बैठे।

उधर युद्ध-भूमिमें महाराज हंसध्वज अपने चारों राजकुमारोंके साथ पहुँच गये। सभी शूर एकत्र हो गये; किंतु समय हो जाने पर भी जब सुधन्वा नहीं पहुँचे, तब राजाने उन्हें पकड़ लानेके लिये कुछ सैनिक भेजे। सैनिकोंको सुधन्वा मार्ग में ही मिल गये। पिताके पास पहुँचकर जब उन्होंने विलम्बका कारण बताया, तब क्रोधमें भरकर महाराज कहने लगे – 'तू बड़ा मूर्ख है। यदि पुत्र होनेसे ही सद्गति होती हो तो सभी कूकर-शूकर स्वर्ग ही जायँ तेरे धर्म तथा विचारको धिक्कार है। श्रीकृष्णचन्द्रका नाम सुनकर भी तेरा मन कामके वश हो गया! ऐसा कामी, भगवान्से विमुख कुपुत्रका तो तेलमें उबलकर ही मरना ठीक है। '

राजाने व्यवस्थाके लिये पुरोहितोंके पास दूत भेजा। धर्मके मर्मज्ञ, स्मृतियोंके रचयिता ऋषि शंख और लिखित बड़े क्रोधी थे। उन्होंने दूतसे कहा –‘राजाका मन पुत्रके मोहसे धर्मभ्रष्ट हो गया है। जब सबके लिये एक ही आज्ञा थी, तब व्यवस्था पूछनेकी क्यों आवश्यकता हुई!' जो मन्दबुद्धि लोभ, मोह या भयसे अपने वचनोंका पालन नहीं करता, उसे नरकके दारुण दुःख मिलते हैं। हंसध्वज पुत्रके कारण अपने वचनोंको आज झूठा करना चाहता है। ऐसे अधर्मी राजाके राज्यमें हम नहीं रहना चाहते। इतना कहकर वे दोनों ऋषि चल पड़े।

दूतसे समाचार पाकर राजाने मन्त्रीको आदेश दिया-‘सुधन्वाको उबलते तेलके कड़ाहेमें डाल दो। इतना आदेश देकर वे दोनों पुरोहितोंको मनाने चले गये। मन्त्रीको बड़ा दुःख हुआ; किंतु सुधन्वाने उन्हें कर्तव्यपालनके लिये दृढ़तापूर्वक समझाया। पिताकी आज्ञाका सत्पुत्रको पालन करना ही चाहिये, यह उसने निश्चय किया। उसने तुलसीकी माला गलेमें डाली और हाथ जोड़कर भगवान्से प्रार्थना की— 'प्रभो ! गोविन्द, मुकुन्द ! मुझे मरनेका कोई भय नहीं है । मैं तो आपके चरणोंमें देहत्याग करने ही आया था; परंतु मैं आपका प्रत्यक्ष दर्शन न कर सका, यही मुझे दुःख है। मैंने आपका तिरस्कार करके बीचमें कामकी सेवा की, क्या इसीलिये आप मेरी रक्षाको अपने अभय हाथ नहीं बढ़ाते ? पर मेरे स्वामी! जो लोग कष्टमें पड़कर, भयसे व्याकुल होकर आपकी शरण लेते हैं, उन्हें क्या सुखकी प्राप्ति नहीं होती? मैं आपका ध्यान करते हुए शरीर छोड़ रहा हूँ, अतः आपको अवश्य प्राप्त होऊँगा; किंतु लोग कहेंगे कि सुधन्वा वीर होकर भी कड़ाहेमें जलकर मरा। मैं तो आपके भक्त अर्जुनके बाणोंको अपना शरीर भेंट करना चाहता हूँ। आपने अनेक भक्तोंकी टेक रखी है, अनेकोंकी इच्छा पूर्ण की है, मेरी भी इच्छा पूर्ण कीजिये। अपने इस चरणाश्रितकी टेक भी रखिये। इस अग्निदाहसे बचाकर इस शरीरको अपने चरणोंमें गिरने दीजिये।' इस प्रकार प्रार्थना करके हरे ! गोविन्द ! श्रीकृष्ण !' आदि भगवन्नामोंको पुकारते हुए सुधन्वा कड़ाहेके खौलते तेलमें कूद पड़े।

एक दिन प्रह्लादके लिये अग्निदेव शीतल हो गये थे, एक दिन व्रजबालकोंके लिये मयूरमुकुटीने दावाग्निको पी लिया था, आज सुधन्वाके लिये खौलता तेल शीतल हो गया ! सुधन्वाको तो शरीरका भान ही नहीं था । वे तो अपने श्रीकृष्णको पुकारने, उनका नाम लेनेमें तल्लीन हो गये थे; किंतु देखनेवाले आश्चर्यमूढ़ हो रहे थे। खौलते तेलमें सुधन्वा जैसे तैर रहे हों। उनका एक रोमतक झुलस नहीं रहा था। यह बात सुनकर राजा हंसध्वज भी दोनों पुरोहितोंके साथ वहाँ आये । श्रद्धारहित तार्किक पुरोहित शंखको सन्देह हुआ —'अवश्य इसमें कोई चालाकी है। भला, तेल गरम होता तो उसमें सुधन्वा बचा कैसे रहता! कोई मन्त्र या ओषधिको प्रयोग तो नहीं किया गया?' तेलकी परीक्षाके लिये उन्होंने एक नारियल कड़ाहेमें डाला। उबलते तेलमें पड़ते ही नारियल फूट गया। उसके दो टुकड़े हो गये और उछलकर वे बड़े जोरसे शंख तथा लिखितके सिरमें लगे। अब उनको भगवान्‌के महत्त्वका ज्ञान हुआ। सेवकोंसे उन्होंने पूछा कि—‘सुधन्वाने कोई ओषधि शरीरमें लगायी क्या? अथवा उसने किसी मन्त्रका जप किया था ?' सेवकोंने बताया कि राजकुमारने ऐसा कुछ नहीं किया। वे प्रारम्भसे भगवान्का नाम ले रहे हैं।' अब शंखको अपने अपराधका पता लगा। उन्होंने कहा- 'मुझे धिक्कार है! मैंने भगवान्‌के एक सच्चे भक्तपर सन्देह किया। प्रायश्चित्त करके प्राण त्यागनेका निश्चयकर शंखमुनि उसी उबलते तेलके कड़ाहेमें कूद पड़े; किंतु सुधन्वाके प्रभावसे उनके लिये भी तेल शीतल हो गया। मुनिने सुधन्वाको हृदयसे लगा लिया। उन्होंने कहा - 'कुमार! तुम्हें धन्य है। मैं तो ब्राह्मण होकर शास्त्र पढ़कर भी असाधु हूँ। मूर्ख हूँ मैं। बुद्धिमान् और विद्वान् तो वही है, जो भगवान् श्रीकृष्णका स्मरण करता है। तुम्हारे स्पर्शसे मेरा यह अधम देह भी आज पवित्र हो गया। तुम-जैसे भगवान्के भक्तोंका तो दर्शन ही मनुष्य-जीवनकी परम सफलता है। राजकुमार ! अब तुम इस तेलसे निकलो। अपने पिता, भाइयों और सेनाको पावन करके मेरा भी उद्धार करो! त्रिलोकीके स्वामी श्रीकृष्ण जिनके सारथि बनते हैं, उन धनुर्धर अर्जुनको संग्राममें तुम्हीं सन्तुष्ट कर सकते हो।'

मुनिके साथ सुधन्वा कड़ाहेसे बाहर आये। राजा हंसध्वजने अपने भगवद्भक्त पुत्रका समादर किया और उन्हें आशीर्वाद दिया। पिताकी आज्ञासे सुधन्वा सेनानायक हुए। अर्जुनकी सेनासे उनका संग्राम होने लगा। सुधन्वाके शौर्यके कारण पाण्डवदलमें खलबली मच गयी । वृषकेतु, प्रद्युम्न, कृतवर्मा, सात्यकि आदि वीरोंको उस तेजस्वीने घायल करके पीछे हटनेको विवश कर दिया। अन्तमें अर्जुन सामने आये। अर्जुनको अपनी शूरताका कुछ दर्प भी था; किंतु सुधन्वा तो केवल श्यामसुन्दरके भरोसे युद्ध कर रहे थे। भगवान्‌को अपने भक्तका प्रभाव दिखलाना था। बालक सुधन्वाको अपने सामने देख पार्थको बड़ा आश्चर्य हुआ । सुधन्वाने उनसे कहा- 'विजय! सदा आपके रथपर श्रीकृष्णचन्द्र सारथिके स्थानपर बैठे आपकी रक्षा किया करते थे, इसीसे आप सदा विजयी होते रहे। आज आपने अपने उन समर्थ सारथिको कहाँ छोड़ दिया ? मेरे साथ युद्ध करनेमें श्रीकृष्णने तो आपको नहीं छोड़ दिया? आप अब उन मुकुन्दसे रहित हैं, ऐसी दशामें मुझसे संग्राम कर भी सकेंगे या नहीं?’।

सुधन्वाकी बातोंसे अर्जुन क्रुद्ध हो गये। उन्होंने बाण-वर्षा आरम्भ कर दी। परंतु हँसते हुए सुधन्वाने उनके बाणोंके टुकड़े-टुकड़े उड़ा दिये। अर्जुनके दिव्यास्त्रोंको भी राजकुमारने व्यर्थ कर दिया। स्वयं पार्थ घायल हो गये। उनका सारथि मरकर गिर पड़ा। सुधन्वाने फिर हँसकर कहा–'धनंजय ! मैं तो पहले ही कहता था कि अपने सर्वज्ञ सारथिको छोड़कर आपने अच्छा नहीं किया। आपका सारथि मारा गया। आप मेरे बाणों से घायल हो गये हैं। अब भी शीघ्रतासे अपने उस श्यामरूप सारथिका स्मरण कीजिये |

अर्जुनने बायें हाथसे घोड़ोंकी डोरी पकड़ी। एक हाथसे युद्ध करते हुए वे भगवान्को मन-ही-मन पुकारने लगे। उनके स्मरण करते ही श्रीकृष्णचन्द्र प्रकट हो गये। उन्होंने अर्जुनके हाथसे रथकी रश्मि ले ली। सुधन्वा और अर्जुन दोनों ने भगवान्को प्रणाम किया। सुधन्वाके नेत्र आनन्दसे खिल उठे। जिसके लिये उसने युद्धमें अर्जुनको छकाया था, वह कार्य तो अब पूरा हुआ। कमललोचन श्रीकृष्णचन्द्र आ गये। उनके दर्शन करके वह कृतार्थ हो गया। अब उसे भला और क्या चाहिये। उसने अर्जुनको ललकारा - 'पार्थ! आपके ये सर्वसमर्थ सारथि तो आ गये। अब तो आज मुझपर विजय पानेके लिये कोई प्रतिज्ञा करें ।

अर्जुनको भी आवेश आ गया। उन्होंने तीन बाण निकालकर प्रतिज्ञा की –‘इन तीन बाणोंसे यदि मैं तेरा सुन्दर मस्तक न काट दें तो मेरे पूर्वज पुण्यहीन होकर नरकमें गिर पड़े।'

अर्जुनकी प्रतिज्ञा सुनकर सुधन्वाने हाथ उठाकर कहा- 'ये श्रीकृष्ण साक्षी हैं। इनके सामने ही मैं तुम्हारे इन तीनों बाणोंको काट न दें तो मुझे घोर गति प्राप्त हो।' यह कहकर सुधन्वाने श्रीकृष्ण तथा अर्जुनको बाणों से घायल कर दिया। उनके रथको कुछ तोड़ डाला। बाणोंसे मारकर उनके रथको कुम्हारके चाककी भाँति घुमाने लगा। चार सौ हाथ पीछे हटा दिया उस रथको। भगवान्ने कहा - -'अर्जुन ! सुधन्वा बहुत बाँका वीर है। मुझसे पूछे बिना प्रतिज्ञा करके तुमने अच्छा नहीं किया। जयद्रथ वधके समय तुम्हारी प्रतिज्ञाने कितना संकट उपस्थित किया था, यह तुम भूल कैसे गये! सुधन्वा - ‘एकपत्नीव्रत' के प्रभावसे महान् है और इस विषयमें हम दोनों पिछड़े हुए हैं।

अर्जुनने कहा—‘गोविन्द ! आप आ गये हैं, फिर मुझे चिन्ता ही क्या । जबतक आपके हाथमें मेरे रथकी डोरी है, मुझे कौन संकटमें डाल सकता है? मेरी प्रतिज्ञा अवश्य पूरी होगी।' अर्जुनने एक बाण चढ़ाया। भगवान्ने अपने गोवर्धन-धारणका पुण्य उस बाणको अर्पित किया। बाण छूटा। कालाग्निके समान वह बाण चला। सुधन्वाने गोवर्धनधारी श्रीकृष्णका स्मरण करके बाण मारा और अर्जुनका बाण दो टुकड़े होकर गिर पड़ा। पृथ्वी काँपने लगी। देवता भी आश्चर्यमें पड़ गये। भगवान्‌की आज्ञासे अर्जुनने दूसरा बाण चढ़ाया। भक्तवत्सल प्रभुने उसे अपने बहुत से पुण्य अर्पण किये। सुधन्वाने - 'श्रीकृष्णचन्द्रकी जय !' कहकर अपने बाणसे उसे भी काट दिया। अर्जुन उदास हो गये। रणभूमिमें हाहाकार मच गया। देवता सुधन्वाकी प्रशंसा करने लगे।

अब तीसरे बाणको भगवान्ने अपने रामावतारका पूरा पुण्य दिया। बाणके पिछले भागमें ब्रह्माजीको तथा मध्यमें कालको प्रतिष्ठित करके नोकपर वे स्वयं एक रूपसे बैठे। अर्जुनने वह बाण भगवान्‌के आदेशसे धनुषपर चढ़ाया। सुधन्वाने कहा – 'नाथ! आप मेरा वध करने स्वयं बाणमें स्थित होकर आ रहे हैं, यह मैं जान गया हूँ। मेरे स्वामी! आओ। रणभूमिमें मुझे अपने श्रीचरणोंका आश्रय देकर कृतार्थ करो। अर्जुन ! तुम्हें धन्य है! साक्षात् नारायण तुम्हारे बाणको अपना पुण्य ही नहीं देते, स्वयं बाणमें स्थित भी होते हैं। विजय तो तुम्हारी है ही; किंतु भूलो मत ! मैं इन्हीं श्रीकृष्णकी कृपासे इस बाणको भी अवश्य काट दूंगा!'

बाण छूटा। सुधन्वाने पुकार की - 'भक्तवत्सल गोविन्दकी जय!’ और बाण मार दिया। भक्तके प्रभावको काल देवता रोक लें, यह सम्भव नहीं। अर्जुनका बाण बीचमेंसे कटकर दो टुकड़े हो गया। सुधन्वाकी प्रतिज्ञा पूरी हुई। अब अर्जुनका प्रण पूरा होना था। बाण कट गया, पर उसका अगला भाग गिरा नहीं। उस आधे बाणने ही ऊपर उठकर सुधन्वाका मस्तक काट दिया। मस्तकहीन सुधन्वाके शरीरने पाण्डवसेनाको तहसनहस कर दिया और उसका सिर भगवान्के चरणोंपर जाकर गिरा। श्रीकृष्णचन्द्र- 'गोविन्द, मुकुन्द, हरि कहते उस मस्तकको अपने हाथों में उठा लिया। इसी समय परम भक्त सुधन्वाके मुखसे एक ज्योति निकली और सबके देखते-देखते वह श्रीकृष्णचन्द्रके मुखमें प्रविष्ट हो गयी।

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