रिश्ते… दिल से दिल के - 17 Hemant Sharma “Harshul” द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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रिश्ते… दिल से दिल के - 17

रिश्ते… दिल से दिल के
एपिसोड 17
[सहगल फैमिली की तकलीफ]

गरिमा जी ने प्रदिति का हाथ पकड़कर जबरदस्ती उसे घर से बाहर निकाला लेकिन दरवाज़े की चौखट से टकराने की वजह से वो खुद को संभाल नहीं पाई और गिरने को हुई कि किसी ने उसे थाम लिया जब उसने नज़रें उठाकर देखा तो उसके मुंह से धीरे से निकला, "पापा!"

विनीत जी को प्रदिति को लेकर बहुत चिंता हो रही थी इसलिए वो शिमला से दिल्ली आ गए लेकिन जब वो उस घर में पहुंचे जहां प्रदिति पहले रुकी हुई थी तो उन्हें पता चला कि प्रदिति सहगल मेंशन में रहने के लिए चली गई। विनीत जी ये सब सुनकर बहुत टेंशन में आ गए कि क्या करें, उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि प्रदिति सहगल मेंशन कैसे पहुंच गई! उसके बाद विनीत जी और रश्मि जी तुरंत सहगल मेंशन आ गए लेकिन जब उन्होंने ये सब देखा तो दंग रह गए। गरिमा जी ने जैसे ही प्रदिति को बाहर की तरफ धक्का दिया विनीत जी ने उसे थाम लिया।

विनीत जी ने एक नज़र प्रदिति को और फिर गरिमा जी को देखा जोकि विनीत जी का चहरा देखने के बाद अपना मुंह फेरकर खड़ी हो गई थीं।

पीछे खड़ी दामिनी जी ने अपनी आंखों में जो आंसू बड़ी मुश्किल से रोके थे वो विनीत जी को देखकर तेज़ी से बह गए। कितनी बड़ी दुविधा की स्थिति थी ये उनके लिए, जिस बेटे को देखने के लिए उनकी आंखों बरसों से तरस रही थीं आज उसके सामने होने पर भी गले लगाना तो दूर रहा वो उन्हें बेटा भी नहीं कह सकती थीं।

विनीत जी ने प्रदिति को सीधा खड़ा किया और बोले, "तुम… तुम यहां क्या कर रही हो?"

"पापा! वो… मैं… मैं आपको बाद में सब… सब बता दूंगी।", प्रदिति ने अपनी नजरें झुकाकर बड़ी मुश्किल से बोला।

विनीत जी ने अपनी आंखें बंद कीं और फिर उन्हें खोलकर प्रदिति से बोले, "मैंने तुम्हें दिल्ली आने से मना नहीं किया था लेकिन यहां… यहां आने का क्या मतलब हुआ?"

"पापा! वो…", प्रदिति अभी कुछ बोलने को हुई ही थी कि पीछे से आवाज़ आई, "बस यही आता है ना आपको!"

फोटो में विनीत जी की तस्वीर देखकर और गरिमा जी ने जो कुछ भी बताया उसे सुनकर आकृति गुस्से से लाल हो चुकी थी। गरिमा जी की तरह ही उससे भी विनीत जी वहां बर्दाश्त नहीं हो रहे थे।

वो विनीत जी के पास आई और बोली, "यही सब करना आता है ना आपको, रिश्तों को तोड़ना। पहले मुझसे और मॉम से तोड़ दिया और अब… मेरी दी का इस परिवार से तोड़ना चाहते हैं।"

विनीत जी ने आकृति को ऊपर से नीचे तक निहारा और उसे देखकर उनके चहरे पर एक मुस्कान आ गई नम आंखों से उसके गाल पर हाथ रखकर वो बोले, "मेरी अक्कू इतनी बड़ी हो गई है!"

आकृति ने गुस्से से उनका हाथ झटक दिया और बोली, "खबरदार… जो मुझे अक्कू बोला तो! आपको मुझे अक्कू बुलाने का कोई हक नहीं है। मुझे अक्कू सिर्फ मेरे अपने बुला सकते हैं, ये हक मैने परायों और धोखेबाजों को नहीं दिया है।"

अब तक गरिमा जी से ये सब सुना था विनीत जी ने लेकिन आज उनकी बेटी उन्हें ये सब बोल रही थी तो उनका दिल बार बार ज़ख्मी हो रहा था। यूं तो वो अच्छे से जानते थे कि एक ना एक दिन आकृति को ये सब पता चल ही जाएगा पर फिर भी उनके दिल में एक उम्मीद थी कि शायद वो कभी अपनी अक्कू के मुंह से खुद को प्यार से डैड कहते हुए सुन सकें पर डैड कहना तो दूर रहा वो तो उनकी शक्ल तक नहीं देखना चाहती।

प्रदिति ने आकृति को रोकते हुए कहा, "अक्कू! तुम अभी पूरा सच नहीं जानती हो। पापा ऐसे नहीं हैं जैसा तुम सोच रही हो।"

आकृति ने हैरानी से प्रदिति की तरफ देखा और बोली, "आपकी ये सब पहले से पता था तब भी आप उनको ही सपोर्ट कर रही हैं? अरे, हां… आपको तो करना ही पड़ेगा आफ्टर ऑल आपके लिए ही तो उन्होंने मुझे और मॉम को छोड़ दिया।"

प्रदिति हैरानी से आकृति के कंधों को पकड़कर बोली, "अक्कू! अभी तो तुम मेरे साथ थी तो अब क्या हो गया?"

आकृति ने प्रदिति के हाथों को अपने कंधे से हटाते हुए कहा, "क्योंकि अब तक मुझे लग रहा था कि आप भी मेरी तरह इस सब से अंजान हैं, आपको नहीं पता था कि ये कितने बड़े धोखेबाज हैं पर अब मुझे समझ आया कि मॉम ठीक कह रही थीं, आप… आप भी इनकी जी तरह हैं हमारे इस घर में आकर हमारी फीलिंग्स के साथ खेलने वाली थीं आप, ना जाने क्या प्लैन होगा आपका… वो तो टाइम से पहले आपकी सच्चाई बाहर आ गई नहीं तो आप पता नहीं क्या क्या करतीं।"

प्रदिति ने नम आंखों के साथ कहा, "अक्कू!"

आकृति ने अपना हाथ दिखाकर प्रदिति को रोक दिया और बोली, "मैंने आपको अपना माना था पर आप हमारी अपनी हैं ही नहीं, आप तो अपने पापा की बेटी हैं।"

पीछे खड़ी रश्मि जी अब बोलीं, "आकृति, बेटा! समझने की कोशिश करो ये सब सच नहीं है।"

गरिमा जी बहुत देर से खुद को कंट्रोल करने की कोशिश कर रही थीं पर अब उनका पता सिर से ऊपर चढ़ चुका था तो वो गुस्से में बोलीं, "बस… बहुत सुन लिया मैंने अब कोई कुछ नहीं बोलेगा।"

फिर वो विनीत जी के सामने आकर बोलीं, "मिस्टर विनीत सहगल! बेहतर होगा कि आप अपनी पत्नी और बेटी के साथ अभी के अभी मेरे घर से बाहर निकल जाएं वरना इसका अंजाम बहुत बुरा होगा… गरिमा सहगल बस एक बार वार्निंग देती है उसके बाद जो भी होता है वो खुद गरिमा सहगल नहीं जानती।"

प्रदिति ने गरिमा को मनाने की एक आख़िरी कोशिश में कहा, "मां! एक बार…" वो कुछ कहती उससे पहले ही गरिमा जी ने दहकती हुई नजरों से उसकी तरफ देखा और बोलीं, "तुम्हारी बात सुनूं… मिस्टर विनीत सहगल की नाजायज औलाद की बात सुनूं?"

गरिमा जी के वाक्य ने विनीत जी को आग बबूला कर दिया वो गुस्से में बोले, "खबरदार… जो मेरी बेटी को नाजायज कहा तो!"

गरिमा जी एक टेढ़ी मुस्कान के साथ बोलीं, "सच हमेशा कड़वा होता है, सच तो ये है कि तुम इस दुनिया के सबसे घटिया आदमी हो… ये तुम्हारी नाजायज पत्नी और ये तुम्हारी नाजायज औलाद है।"

अब विनीत जी से सहन नहीं हुआ और उन्होंने गुस्से में गरिमा जी को थप्पड़ लगाने के लिए अपना हाथ उठाया लेकिन वो रुक गए। उनके इस गुस्से को देखकर तो खुद गरिमा जी भी डर गईं। विनीत जी ने अपने हाथ की मुट्ठी बनाकर उसे नीचे कर लिया।

गरिमा जी फीका मुस्कुराईं और बोलीं, "वाह, क्या बात है! इसको कहते हैं परिवार… मेरे साथ जीने मरने की कसमें खाईं और जब साथ देने की बारी आई तो इन्होंने उस औरत का साथ दिया जो इनसे शादी करे बिना ही इनके बच्चे की मां बन गई, जिस बेटी को पूरी दुनिया की सैर कराने की कसमें खाई थीं इन्होंने उसे अपनी उस बच्ची के लिए छोड़ दिया जो इनकी बिन ब्याही प्रेमिका से पैदा हुई थी और आज उसी औरत और बेटी के लिए ये मुझ पर हाथ उठाने वाले थे।", कहते–कहते गरिमा जी की आंखों में नमी आ गई पर खुद को संभालते हुए वो अपने रौब ने बोलीं, "पर अच्छा हुआ जो अपने हाथ को संभाल लिया वरना ऐसा कैसे लगवाती ना कि पूरी जिंदगी जेल में रहना पड़ता।"

विनीत जी तो अब कुछ भी कहने की हालत में नहीं थे। उन्होंने अपनी नज़रें झुका लीं। आकृति भी गुस्से से उन्हें देख रही थी। बाकी सबकी आंखें बुरी तरह से आंसुओं से भरी हुई थीं।

गरिमा जी ने गुस्से में दरवाज़े पर हाथ मारा और उसे बंद करने लगीं। विनीत जी की नज़र जब रोती हुई दामिनी जी पर पड़ी तो उनका दिल चूर चूर हो गया। जितनी बड़ी तकलीफ वो झेल रही थीं इस वक्त वो दर्द विनीत जी के दिल को आकर चुभा पर दोनों इस वक्त कुछ नहीं कह सकते थे इसलिए विनीत जी ने फिर से अपनी नजरें झुका लीं और दामिनी जी रोते हुए विनीत जी को देखती रह गईं और तभी गरिमा जी ने दरवाज़ा बंद कर दिया।

विनीत जी ने अपने आंसुओं को साफ किया और प्रदिति और रश्मि जी को वहां से चलने के लिए कहा तो प्रदिति रोते हुए बोली, "लेकिन, पापा!"

विनीत जी अपने गम को चाहकर भी छुपा नहीं पा रहे थे वो जानते थे कि वो प्रदिति से नॉर्मली बात नहीं कर पायेंगे इसलिए उन्होंने अपने गम को छिपाने के लिए उसके ऊपर गुस्से का नकाब लगाकर तेज़ आवाज़ में कहा, "बस, प्रदिति! अब मुझे और ड्रामा नहीं चाहिए। चलो, यहां से"

प्रदिति और रश्मि जी अच्छे से समझ पा रहे थे कि इस वक्त विनीत जी पर क्या बीत रही होगी पर वो कुछ कर भी नहीं सकते थे इसलिए वो दोनों घर की तरफ देखकर विनीत जी के साथ आगे बढ़ गए।

उधर गरिमा जी अपने कमरे में गईं और दरवाज़ा बंद कर लिया। दामिनी जी अच्छे से जानती थीं कि जब भी गरिमा जी बहुत दुःखी होती थीं तो अपना कमरा बंद करके रोती थीं पर आकृति के सामने तो ये पहली बार था जब उसकी मां के साथ ये सब हुआ था इसलिए वो दरवाज़ा खटखटाकर उन्हें बाहर बुलाने लगी।

गरिमा जी दरवाज़े से टिके हुए ज़ोर–ज़ोर से रो रही थीं। दामिनी जी ने खुद को संभाला और फिर आकृति को सब समझा कर उसके कमरे में ले गईं।

गरिमा जी अपने बेड पर गईं और उस पर बैठकर उन्होंने पास में रखे लैंप को ज़मीन पर पटक दिया, अपने तकियों को बुरी तरह से फाड़ दिया और चादर और कंबल नीचे फेंक दिए।

वो ज़ोर ज़ोर से रोकर बोलीं, "क्यों? क्यों किया ऐसा आपने मेरे साथ? कितना प्यार करती थी मैं आपसे तो फिर क्यों मेरे दिल को इस तरह चकनाचूर कर दिया आपने… क्यों?"

आज तकलीफ में तो हर कोई था, हर किसी को दर्द हो रहा था पर इस दर्द की दवा किसी के पास नहीं थी…

रूठे रूठे से सवेरे, जागे जागे हैं अँधेरे
रूठे रूठे से सवेरे जागे जागे हैं अँधेरे
लहरों को किनारे मिल जायेंगे सारे
पास हैं जो लगता है दूर

के माना दिल दा ही मेरा है कसूर
ऐसे कोई वी ना होवे मजबूर
माना दिल दा ही मेरा है कसूर
ऐसे कोई वी ना होवे मजबूर

उधर विनीत जी कार ड्राइव कर रहे थे पर उनकी आंखों के कोने भी भीगे हुए थे और बार–बार सबकुछ याद करके उनकी आंखें नम हो रही थीं जिन्हें वो चुपके से पोंछ लिया करते। उनकी इस तकलीफ को देखकर प्रदिति और रश्मि जी भी बेहद तड़प रही थीं।

खोया है जो वो मिल जायेगा
टुटा है जो वो जुड़ जायेगा
तेरा मेरा ये सफ़र, जाने ले आया किधर
ख्वाब देखे थे जो हो गए हैं चूर

के माना दिल दा ही मेरा है कसूर
ऐसे कोई वी ना होवे मजबूर
माना दिल दा ही मेरा है कसूर
ऐसे कोई वी ना होवे मजबूर

क्रमशः