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जीवन @ शटडाऊन - 13

सीढ़ियाँ

- नीलम कुलश्रेष्ठ

एपीसोड --1

“मंदा को तुम हाथ भी नहीं लगा सकते,” महेश पूरे ज़ोर से चिल्लाया ।

“आज तो इसे हमारे साथ जाना ही होगा ।”

“घर के अंदर आ कर तो देखो ।”

वे उसे धक्का मारते हुए जबरन घर के अंदर घुस गये । एक ने मंदा की बाँह पकड़ ली । महेश उस आदमी से मंदा की बाँह छुड़ाने लगा, तभी पहले वाले के साथ आये दो आदमियों ने उसे पीछे से पकड़ कर मंदा से अलग किया । उन में से एक ने हाथ में पकड़ी लाठी उस के सिर पर जोर से दे मारी तथा दूसरा अपनी लाठी से लगातार उस के शरीर पर प्रहार करता चला गया ।

महेश बेहोश होते होते हुए भी चिल्लाया, “मंदा को तुम हाथ भी नहीं लगा सकते।”

“काहे को हर समय चिल्लाता रहता है?” पास खड़ी नर्स उसे झिंझोड़ते हुए बोली ।

उसने आँखें खोल कर फिर चिल्लाना चाहा, “मंदा को....” पर सामने चश्मे वाली नकचढ़ी नर्स को देखकर वह चुप हो गया ।

नर्स फिर चिल्लाई, “सिर इधर उधर हिला कर बार बार चिल्लाओगे तो ज़ख्म कैसे भरेंगे ?”

नर्स की डाँट खा कर उस की सारी उत्तेजना ख़त्म हो गई । उसे लगा उस का शरीर निढ़ाल हो गया है । मंदा, कहाँ होगी मंदा ? उसे काले कुचक्र में फंसाने वाली । मन तो होता है वह उस से खूब घृणा करे, उसे अपने दिल के रेशे रेशे से निकाल फेंके, लेकिन कैसी अद्भुत थी उस की शख्सियत, जिसे भुला पाना सहज न था ।

सिर के घावों में दर्द होने का एहसास होने लगा । शरीर भी फोड़े की तरह दुख रहा है, लेकिन इन सब के बावजूद पुरानी स्मृतियाँ ताजा हो आई । उसे लगा, कोई दिवाकर भाई के एस.टी.डी. बूथ पर उसे खींचे ले जा रहा है, जहाँ उस ने मंदा को पहली बार देखा था ।

वह दरवाजे की तरफ पीठ किए हुए बैठी थी । उस ने अपने दुबले पतले शरीर पर कसा हुआ ब्लाउज पहन रखा था । वह समझ नहीं पा रहा था कि वह साँस कैसे लेती होगी ।

दिवाकर भाई ने उसे देखते ही अभिवादन किया, “महेश भाई, कैसे हो?”

“ठीक हूँ,” कहता हुआ वह कनखियों से उस लड़की को देखता हुआ बैठ गया था ।

दिवाकर भाई ने परिचय करवाया, “यह मंदा बेन हैं ।”

उस ने उस लड़की की तरफ सिर हिला कर अभिवादन किया । लड़की ने उसे ऐसे देखा जैसे अंदर बाहर तौल लेना चाहती हो । उस ने मुस्करा कर गर्दन को झटका देते हुए उस के अभिवादन का प्रत्युत्तर दिया । उस के गजरे के सफेद फूलों की पंखुड़ियाँ उस की गर्दन पर आ गिरीं ।

दिवाकर भाई उठते हुए बोले, “दोपहर का समय है, अभी भीड़ भी नहीं है । मैं बाहर सिगरेट पी कर आता हूँ तब तक तुम दोनों आपस में पहचान कर लो ।”

उन के बाहर जाते ही वह लड़की सीधे हो कर उसे ऐसे घूरने लगी, जैसा हर प्रश्न का उत्तर देने के लिये तैयार हो । वह ही कुछ अपने को असहज महसूस कर रहा था । उस ने पेंट की जेब में हाथ डाल कर टटोला पर सिगरेट रखना भूल गया था, नहीं तो सिगरेट जला कर उस के धुएं में अपना तनाव उड़ा देता ।

महेश ने अपनी एक कोहनी मेज पर टिका कर लड़की की तरफ मुड़ते हुए कुछ झिझकते हुए पूछा, “दिवाकर भाई ने मेरी पहली शादी व तलाक के बारे में आप को बता दिया है ?”

लड़की ने सिर हिला कर हामी भरी ।

“अभी मेरी नौकरी कायम भी नहीं हुई है ।”

“हो जायेगी ।”

“तुम इतनी सुंदर हो फिर मुझ से शादी क्यों करना चाहती हो?”

उसे लगा लड़की अपनी सुंदरता की तारीफ सुन कर शर्मायेगी, लेकिन उस ने सपाट लहजे में उत्तर दिया, “दिवाकर भाई की पत्नी कलाबेन हमारी सहेली हैं । इन लोगों से हमारे घरेलू संबंध हैं । उन्होंने आप की बहुत तारीफ की है । मैं भी शादी कर के इसी शहर में रहना चाहती हूँ ।”

महेश ने मंदा से दो चारबातें और पूछ लीं । तभी दो ग्राहक फोन करने चले आये । पीछे पीछे दिवाकर भाई भी आ गये थे ।

दोनों का चेहरा देख कर वह समझ गये थे कि बात जम गई है ।

वह आँखें बंद कर के फिर सोचता है कि उस की शादी तय होते ही पापा का तो जैसे रोम रोम पुलकित हो गया था । वह मिठाई का डब्बा ले कर तुरंत ही दिवाकर भाई के पेट्रोल पंप पर पहुँच गये थे और डब्बा दिवाकर भाई के हाथ में देते हुए उन के पैर छूने के लिये झुके ही थे कि दिवाकर भाई ने उन्हें बीच में ही रोक लिया था ।

पापा की आवाज़ भर्रा गई, “आप का यह एहसान मैं जिंदगी भर नहीं भूलुंगा । महेश कोकिला से तलाक के बाद बहुत उदास रहता था । शादी के लिये उसे कोई लड़की अच्छी नहीं लग रही थी । मंदा उसे पसंद आ गई है ।”

“मंदा को मैं वर्षों से जानता हूँ । उस की विधवा माँ की इच्छा थी कि यहीं पास में शादी हो जाये । चलिये, अच्छा है, मैं आप के काम आ गया ।”

पापा ने अपनी कुर्सी पर बैठ कर रोज की तरह रजिस्टर को हाथ से छू कर, हाथ को सिर से लगाया ।

मंदा के घर पर आने से जैसे हर चीज पर बिछी उदासी की परतें मुस्करा उठी थीं । स्टोर में पड़े पीतल के बर्तनों को उस ने इमली के रस से चमका कर बाहर वाले कमरे में बनी अलमारी पर एक कतार में सजा दिया था । उन के आगे स्टील के छोटे छोटे बरतन सजा दिये थे। कमरे में पड़े पलंग पर हमेशा साफ़  सुथरी चादर बिछी रहती थी । यह सोच कर वह असमंजस में था कि मंदा के बिना कैसे जी रहा था ।

हर महीने मंदा दो तीन दिन माँ के पास रहने के लिये अवश्य जाती, जो उसकी बड़ी बहन के पास रह रही थीं। जैसे ही वहाँ से बुलावा आता वह बिना उस से पूछे अपना बैग तैयार कर लेती, कभी कभी तो उसे लौटने में चार पांच रोज भी लग जाते ।

वह नई नई बीवी से दबी जबान में पूछता, “इतने दिन वहाँ रहने की क्या ज़रूरत थी ?”

“तुम तो जानते हो, माँ मेरे को कितना प्यार करती हैं । इस बार मुझे पांच दिन इसलिये लग गये कि कला बेन ने चिप्स पापड़ बनवाने के लिये बुलवा लिया था । देखो तो उन्होंने मुझे कितने उपहार दिये हैं । मुझे छोटी बहन मानती हैं ।”

कला बेन का नाम आते ही महेश के होंठ सिल जाते थे । दिवाकर भाई का कितना बड़ा एहसान था उस पर । दूसरे, पापा के मालिक थे । मंदा को हर महीने कोई न कोई साड़ी देता रहता । कभी उस की माँ कभी बहन कभी कलाबेन । कभी कभी उसकी माँ उस के लिये भी कपड़े भेजती रहतीं । वह भी ख़ुश रहता कि चलो, अच्छा है, मंदा को साड़ी दिलवाने के झंझट से बचा हुआ है ।

मंदा शादी के बाद पहले से अधिक निखर गई थी । उस के स्वभाव, उस के बनाये स्वादिष्ठ खाने को खा कर पापा भी निहाल रहते थे । वह मंदा के हर महीने अपनी माँ के पास जाने से खीजता, “पापा ! आप क्यों नहीं उसे हर महीने अपनी माँ के पास जाने से रोकते ?”

“कैसे रोकूं उसे ? वह अपनी विधवा माँ के पास दो चार दिन रह आती है तो क्या हुआ ?”

“उस की माँ भी यहाँ रहने को आ सकती हैं । उस के जाने से हमें खाना बनाने में कितनी तकली फ़  होती हैं ?”

“छोटी बेटी के घर आने में हिचकिचाती रहेंगी ,बड़ी बेटी के यहाँ रहने में शर्म नहीं आती ?``

`` हम लोग पहले भी तो खाना बनाते थे ।”

तभी नर्स की आवाज़ आई, “चलो, मुँह खोलो, दवाई पीओ,” सुन कर वह चौंक कर मुँह खोल देता है ।

नर्स दवा पिला कर तीखी आवाज़ में आदेश देती है, “कल सुबह नाश्ता मत करना, तुम्हारा खून टेस्ट होगा ।”

वह सहमति में सर हिला देता है। उस दिन जब जब लाठियों की चोट की बेहोशी समाप्त हुई थी, तब उसे धीरे धीरे एहसास हुआ कि वह अस्पताल के बिस्तर पर लेटा हुआ है । उस ने उठने की कोशिश की तो ऐसा लगा कि सारा शरीर भयंकर दर्द से टीस रहा है । सिर बहुत भारी लग रहा था । उस की आँख खुलते ही पास के स्टूल पर बैठे पापा झुक कर बोले थे, “तुम ठीक हो?”

हाँ ``में उस ने सिर हिलाया और फिर एक बेहद गहरी खामोशी में डूब गया । थोड़ी देर बाद जब चेतना कुलबुलाई तो उस ने सुना था, डाक्टर पापा से कह रहा था, “सिर पर लाठी की बहुत चोट आई है, हम को आठ टांके लगाने पड़े हैं । यह अच्छा हुआ, दिमाग सही सलामत है ।”

महेश अस्पताल के बिस्तर पर करवट बदल कर, दिल की मार से मुक्त हो जाना चाहता था, लेकिन दिल पर जो लाठी पड़ी थी उस से कभी एक क्षण भी वह मुक्त नहीं हो सका । उसे एक घटना याद आ गई । मंदा अपनी माँ के घर थी । उसे अचानक कंपनी के काम से भरूच जाना पड़ा था । वह पेट्रोल पंप पर पापा को खबर करता निकल गया था कि वह अकेले दो दिन के लिये बाहर जा रहा है । उस ने जाते समय पापा से बोला था कि आप को खाने की परेशानी होगी, मंदा को उस की माँ के घर से बुलवा लेना ।

भरूच पहुँचते ही उस ने एक होटल में कमरा ले लिया था । सारा दिन तो अपनी कंपनी के काम से कभी इस कंपनी, कभी उस कंपनी में भटकता रहा था । रात को थका मांदा लौटा था । होटल के नीचे वाले हाल में ही एक कोने में खाना खाने बैठ गया था । तभी ``बाप रे `, बहुत तीखा है ” की आवाज़ सुन कर चौंक पड़ा था । उस ने आवाज़ की तरफ देखा । वहाँ एक औरत बैठी थी जिस की पीठ उस की तरफ थी । वह गिलास से पानी पी रही थी ।

उस ने देखा आवाज़ ही नहीं उस औरत के शरीर की बनावट भी मंदा जैसी लग रही थी ।

वह औरत तभी बड़बड़ाई, “इस बार कौन से होटल में ले कर आ गये हो, मिर्ची से गला जला जा रहा है।” फिर उस ने पानी का गिलास मुँह से लगाया । उस औरत के हाथ की घड़ी पर नजर पड़ते ही वह हड़बड़ा कर उठ बैठा, “मंदा ?”

उस औरत ने चौंक कर पीछे देखा और हड़बड़ा कर बोली, “तुम?”

साथ वाले आदमी ने पूछा, “यह कौन है?”

“ये मेरे पति हैं,” उस ने हकलाते हुए बताया ।

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नीलम कुलश्रेष्ठ

e-mail—kneeli@rediffmail.com

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