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जीवन @ शटडाऊन - 6

चंदन के टीके पर लाल छांव

नीलम कुलश्रेष्ठ

एपीसोड---1

‘टन..न...न...न...न’ रोज़ की तरह सुबह चार बजे उन्हें लगा कि इस कर्कश ध्वनि से उन के कान के चार पर्दे फट जायेंगे । लोग तो अपने को भाग्यवान समझते हैं यदि सुबह सुबह उन की आंख पूजा की घंटी से खुले । लेकिन उन्हें पूजा, मंदिर, मूर्ति पूजा की घंटी के नाम से ही चिढ़ होने लगती थी । कभी कभी उन्हें लगता था यदि भगवान का नाम न होता तो कितना अच्छा होता । न लोग भगवान के नाम पर मंदिर बनाते, न पूजा करते, न घंटी टनटनाते और न ही उन का अपना जीवन उजाड़ रेगिस्तान बनता ।

किस तरह उर्मिला ने अपने व्यक्तित्व के सारे अरमानों के डैने समेट कर अपने पूजा में डुबो कर रख दिया था । उन्हें याद नहीं पड़ता था कि उस के साथ उन्होंने कभी कुछ भावुक क्षण बिताए हों । मीता व मनु उन की ज़बरदस्ती की ही पैदाइश थे । सुना था कि आध्यात्म पूजा से तन मन पवित्र होता है, आत्मा शांत होती है पर उन्हें लग रहा था कि यह घंटी की आवाज़ उन्हें खड्डे में धकेलती जा रही है । वह करवट ले कर तकिये पर अपना सिर दबाते जिस से कि कान के पर्दे पर पर्दा पड़ जाये । फिर वह दूसरे हाथ से दूसरे कान का पर्दा दबा कर सोने का प्रयास करने लगते थे ।

चाय पीते समय रोज़ की तरह उन का सिर भारी हो रहा था । मीता रोज़ की तरह नाश्ता बना कर मेज पर रख गई थी । उर्मिला अपने कमरे में पूजा में मग्न रहती थी । मीता पर मां का दबदबा ऐसा था कि उन से ज़रुरत की बात कर के अपनी किताब ले कर मां के कमरे में ही पढ़ने बैठ जाती थी ।

उन्हें उस नन्ही सी जान पर तरस आता था क्योंकि उसे ही घर का सारा काम करना पड़ता था । मां तो अपने कमरे में ‘हरे राम, सीता राम’ कीर्तन कर रही होती थी और बेटी एक गृहिणी की तरह हांफते, पसीना पोंछते हुए घर के सारे काम कर रही होती थी ।

एक दिन तो नरेन दनदनाते उर्मिला के कमरे में पहुंच गये और ज़ोर से दहाड़े, “बंद करो यह पूजा, यह नाटकबाजी । शर्म नहीं आती, तुम्हारी बेटी पढ़ाई छोड़ कर घर के काम करती है और तुम पूजापाठ में लगी हो?”

उर्मिला भी उतनी ही तेज़ी से ‘हरे राम, सीता राम’ भूल कर दहाड़ी, “तुम्हें मेरा पूजा करना नाटकबाजी लगता है ? तुम्हें ‘नर्क’ में भी जगह नहीं मिलेगी । मेरा जन्म पूजा अर्चना के लिये हुआ है । इस से मैं इस जन्म के बाद तुम से, इस संसार से मुक्ति पा लूंगी । ”

नरेन गुस्से में उस का हाथ पकड़ कर उन्हें मृगचर्म से घसीट ले चले, “तो जा कर किसी भजनाश्रम में क्यों नहीं रहतीं? मेरा घर क्यों बर्बाद कर रही हो ?”

वह इस अपमान से रोने के स्थान पर और ज़ोर से चीख पड़ी, “तुम्हीं तो मुझे सात फेरे ले कर इस घर में लाये थे । निकाल कर तो देखो,” कहने के साथ ही वह अपने दोनों हाथ कमर पर रख कर खड़ी हो गई ।

उसकी इस अकड़ व सात फेरे की धमकी से वह हमेशा पराजित होते आये थे । आज भी वह एक घृणित दृष्टि उस औरत पर डाल कर हमेशा की तरह हार कर घर से बाहर हो गये थे । इधर उधर सड़कों पर घूमते रहे थे ।

घूमते घूमते वह यही सोच रहे थे कि यदि उर्मिला ने रुद्राक्ष माला पहन कर ‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ ही गाना था तो फिर मुझ से शादी कर के मेरी ज़िन्दगी क्यों बर्बाद की ?

ऑफ़िस में कुछ महीनों से इशिता सोच रही थी कि आख़िर सर इतने उदास क्यों रहते हैं ? एक दिन हिम्मत कर उस ने पूछ ही लिया, “सर!सारे ऑफ़िस के लोग आपस में हंसी मजाक करते रहते हैं । बस, एक आप हैं कि हमेशा गुमसुम बने रहते हैं ?”

वह एक फीकी हंसी हंस दिये, “मेरी तो हमेशा से ही चुप रहने की आदत है ।”

“चुप रहना अलग बात है, गुमसुम रहना, उदास रहना दूसरी बात है ।”

“तुम्हें कुछ गलतफहमी हो रही है,” वह टाल गये । उन की परेशानी अपने से आधी उम्र की इशिता को क्या समझ में आयेगी ? भले ही वह ऑफ़िस की अन्य लड़कियों से उम्र में बड़ी हो, गंभीर हो । पता नहीं क्यों उसे देख कर उन के मन में वात्सल्य उमड़ पड़ता था । उन की अपनी मीता भी छः सात वर्ष बाद इसी उम्र की हो जायेगी । उन्हें कभी कभी अपने पर हंसी भी आती थी । जब से बालों में सफेद लकीरें बनने लगी थीं, आंखों के आसपास की त्वचा सिकुड़ने लगी थी, पता नहीं मन भी कैसे अपने आप बदलता जा रहा था । कुछ वर्षों पहले तक इशिता की उम्र की लड़कियों को देख कर उन की आंखों में मस्ती छलकने लगती थी, मन तरंगित होने लगता था ।

अब उन्हें मीता याद आने लगी थी । वह मन ही मन सोच रहे थे कि वह इशिता को क्या बताएं कि उर्मिला से उन की शादी नहीं हुई है बल्कि वह किसी अपराध का प्रायश्चित कर रहे हैं । उन्हें याद आ रहा था कि किस तरह उन्हें व उन के घर वालों को शादी के समय उर्मिला के घर वालों ने अपमानित

किया था । जैसे ही वह स्वागतद्वार पर पहुंचे थे, उन्हें यह देख हैरानी हुई थी कि द्वार पर माला व फूल लिये न उर्मिला के दोनों भाई थे और न ही पापा । दो तीन नौकर व मामूली कपड़े पहने रिश्तेदार बरातियों के लिये फूलमालाएं लिये खड़े थे ।

नरेन के तने हुए तेवर देख कर उन के पापा उन के घोड़े के पास आ कर फुसफुलाये, “नरेन!कोई तमाशा मत खड़ा करना, गुस्से पर काबू रखना ।”

घर के द्वार पर खड़ी कटे बालों वाली उन की फ़ैशनेबुल सास ने गरदन ऊंची अकड़ा कर कुछ इस तरह से उन के माथे पर टीका लगाया था कि जैसे उन पर कोई एहसान जता रही हैं । सभी बराती गुस्सा दबाये खाना खाने लगे थे क्योंकि खाने की मेज पर कलफ़ लगी वर्दी पहने बेयरों के सिवा उन के नाज़ नखरे उठाने वाला कोई नहीं था ।

बाद में शादी की रस्में ऐसे होने लगीं जैसे सरकारी अस्पताल में ताबड़तोड़ मरीज देखे जाते हैं । विवाह वेदी पर तो हद ही हो गई । जब कन्यादान करने के लिये उर्मिला के पापा की पुकार हुई तो पता लगा वह तो अपने कमरे में निश्चिंत सो रहे थे । अजब अपमानित करने वाला माहौल था । कोई उन्हें ज़बरजस्ती जगा कर लाया तो गाउन की डोरियां कसते, जम्हाई लेते आ तो गये लेकिन आंगन के एक कोने में खड़े अपने छोटे भाई से बोले, “तू ही कन्यादान कर देता । तेरे मेरे में फर्क ही क्या है?”

पंडितजी ने बीच में दख़लअंदाजी की, “बाबूजी !कन्यादान तो आप की अपनी शोभा है ।”

“पंडितजी ! आप चुप रहिये । आप अपने मंत्र पढ़िए, दक्षिणा लीजिये । आप को इस से क्या मतलब कि कौन कन्यादान कर रहा है ?”

पंडितजी को इतने बड़े घराने से मोटी दक्षिणा का लालच था सो वह एकाएक चुप हो गये ।

इस अपमान से नरेन का मन तो हुआ कि एकदम से मंड़प को तोड़ताड़ कर ऐसे वाहियात घर की लड़की से बंधने से इनकार कर दें, लेकिन पापा इस अजीब वातावरण को झेल कर उन्हें अनुशासित करने के लिये एक साये कि तरह उन के पास ही बैठे थे । वह स्वयं ही तो इस परिवार के वैभव से दब कर यह रिश्ता तय कर बैठे थे ।

उनकी नई नवेली पत्नी उर्मिला शक्ल सूरत में मामूली थी । उसे बी.ए. करना भी भारी पड़ रहा था । जब उस के पापा को अपने परिवार की टक्कर का परिवार व वर न मिल सका तो उन्होंने नरेन को ही चुन लिया था । सगाई से पहले उर्मिला के एक आई.ए.एस. भाई व डाक्टर भाई ने शोर भी मचाया था कि वे नरेन जैसे क्लर्क के साथ अपनी बहन की शादी नहीं करेंगे । लेकिन पापा निर्णय ले चुके थे ।

उर्मिला ने पहले ही दिन उन के घर में कुछ इस तरह कदम रखा था कि उस का भाई नहीं, वह स्वयं ज़िलाधीश हो । पहली रात जब उन्होंने पुलकते दिल से कमरे में प्रवेश किया तो यह देख कर दंग रह गये थे कि उन्हें घूंघट उठाने की ज़रुरत ही नहीं पड़ी । उर्मिला ‘नाइट गाउन’ में कमरे में इधर से उधर चहलकदमी कर रही थी । उन्होंने अपनी आवाज़ को भरसक मुलायम बनाते हुए कहा, “उर्मि ! कुछ परेशान लग रही हो?”

“लगूंगी क्यों नहीं । मेरे दोनों भाइयों ने अपनी सुहागरातें फ़ाइव स्टार्स होटल्स में मनाई थी । मैं क्या इस पिंजरे से मकान के इस छोटे कमरे में अपनी शादीशुदा ज़िंदगी की शुरूआत करूंगी?”

“यह तो तुम्हें शादी से पहले सोचना था ।”

“मैं क्या आप का घर देख गई थी ?”

“जब तुम एक क्लर्क से शादी कर रही थीं तो उस का घर भी छोटा ही होना था ।तुम्हारे पापा हमारा घर देख गए थे .”

वह ऐसे चौंकी जैसे उसे ज़ोर का करंट लग गया हो, “तो क्या आप क्लर्क हैं, बैंक मैनेजर नहीं?”

“नहीं ।”

“ तो आप ने हमें धोखा क्यों दिया?”

“हमने कोई धोखा नहीं दिया । तुम्हारे पापा को सब बता दिया था ।”

“लेकिन पापाजी ने तो मुझ से यही कहा था कि आप बैंक में सहायक प्रबंधक है ।”

“क्या?” वह भी चौंक उठे थे, पर वह इस रात की मधुरता को खोना नहीं चाहत बोले, “खैर, अब तो शादी तो हो ही गई है । मैं वादा करता हूँ कि पाँच -छः वर्षों में विभागीय परीक्षा पास कर के तुम्हें अफ़सर बन कर दिखा दूंगा ।”

“लेकिन जो सीधे अफ़सर बनते हैं उनकी बात ही कुछ और होती है । पाँच -छः वर्षों तक तो तुम क्लर्क ही रहोगे?” उर्मिला ने घृणा से मुंह सिकोड़ा, “मैं अपने रिश्तेदारों व सहेलियों को क्या मुंह दिखाऊंगी?” कह कर वह फूलों के बिस्तर पर पड़ी रात भर सिसकती रही ।

वह सन्न थे, बदहवास थे । अब उन की समझ में आ रहा था कि उस के पापाजी ने सगाई के दस दिन बाद ही शादी कर के क्यों बेटी को ठिकाने लगाने की जल्दी की थी । क्यों शादी से पहले उर्मिला को घुमाने या फिल्म दिखाने के अनुरोध को टाला था ।

उर्मिला उन में बिलकुल दिलचस्पी नहीं ले रही थी । लेकिन जिस दिन वह विदा हो कर अपनी मां के घर जा रही थी, उस दिन जबरन उन्होंने अपना पति अधिकार दिखा दिया था।

मीता के पैदा होते ही उर्मिला को पीलिया ने कुछ इस कदर जकड़ा कि पूरा वर्ष भर उस की कमजोरी से बिस्तर पर पड़ी रही थी । समय पास करने के लिये उस ने धार्मिक पुस्तकें पढ़नी आरंभ कर दी थीं । नरेन नौकरानी के सहारे मीता को पाल रहे थे । मनु के होने के बाद से तो जैसे उर्मिला को दुनिया से ही विरक्ति हो गई थी । उस ने अपने को अपने पूजा के कमरे में बंद कर लिया था ।

“सर!यह हैं सकलेचा साहब ‘सकलेचा ट्रैवल्स’ के मालिक । इन को लोन दिलवाने के लिये मैं ने आप से बात की थी,” इशिता ने कहा ।

“अरे, हां ।” वह चौंके । बैंक की अपनी कुर्सी पर बैठे बैठे पता नहीं वह कहां खो गये थे ।

फिर लोन के लिये उन का प्रार्थनापत्र देख कर व जायदाद के कागज़ों की जांच करने के बाद वह उन्हें प्रबंधक से मिलवाने ले गये थे । फिर तो कोई न कोई ग्राहक आता ही रहता था । उन्हें न तो फ़ाइलों से सिर उठाने का मौका मिलता था न कुछ सोचने का ।

शाम को थके जब घर आते थे तो वही माहौल मिलता था जिसे वह बरसों से झेलते आ रहे थे । मीता उनके लिये चाय बना कर मेज पर रख मां के कमरे में घुस जाती थी । उर्मिला पलंग पर पड़े पड़े हनुमान चालीसा इतने ध्यान से पढ़ रही होती थी कि मानो कल उस की परीक्षा हो।

नीलम कुलश्रेष्ठ,e-mail ---kneeli@rediffmail.com

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