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जीवन @ शटडाऊन - 5

एपीसोड –2

घावों भरा साल बनाम विटामिन एम.

-नीलम कुलश्रेष्ठ-

महिला शाखा ने वाकई कुछ काम कर दिखाया है । बहुत कड़े परिश्रम व समर्पण से मैंने इसे गढ़ा है । साथ में उसका भी नाम हो रहा है, तो क्या ? कुछ महीनों बाद सकुचाई हुई सदस्याओं की बात सुन स्तब्ध हूँ । “आप लोगों का पेमेंट नही हुआ ? लेकिन मैंने व तृष्णा ने ‘पेमेंट रिपोर्ट’ अपने हस्ताक्षर करके मुख्यालय भेजी है।”

उन लोगों से कुछ और भी अनियमितताएं जानकर मैं अंदर तक हिल गई हूँ । अध्यक्ष खबर करती हैं, “उसके घर कलर हो रहा था । इधर उधर होने के कारण संस्था का रजिस्टर ग़ायब हो गया है । वह ज़िद कर रही है । वह अकेली संस्थापक है, तुम नहीं ।”

“क्या ?”

मुझे लगता है उसने मेरी पीठ में छुरी गढ़ा मेरे दिल को लहूलुहान कर दिया है । वह तो अच्छा है मैं ने अपने संस्थापक होने का दस्तावेज़ मुख्यालय पहुँचा दिया था वर्ना...।

तभी फ़ोन की घंटी बजती है । वही है “नीनाजी ! आपके घर के पास वाले टेलीफ़ोन बूथ पर आप दो रुपये दे दीजिये, आपको बाद में दे दूँगी । बच्चों के हाथ रुपये भेजती हूँ, तो वे बूथ वाले को नहीं देते, टॉफी खाकर भाग आते हैं ।”

फ़्लैश बैक नं. पाँचः

वह बड़े रहस्यमय ढंग से फुसफुसाती है, “मैं तो शाम के सात बजे से आठ बजे तक शाम को ‘वॉक’ के लिये जाती हूँ ।”

“इस बीच तो मेहमान भी आते हैं ।”

“उन्हीं से बचने के लिये तो जाती हूँ ।” वह ढीठ हँसी हँस पड़ती है, “बेकार के चाय बनाने से मुक्ति मिलती है । वैसे भी बचत होती है वह अलग।”

उनकी दी हुई चाय मेरे गले में आगे चलने से इन्कार करती सी लगती है ।

“कल हमारे ब्लॉक में एक दुर्घटना हो गई ।”

“क्या हुआ?”

“आप तीसरी मंज़िल वाली उस गोरी चिट्टी भरे गालों वाली औरत को पहचानती हैं जो चलता फिरता ‘ब्यूटी क्लीनिक’ नज़र आती है ।”

“हाँ, देखा तो है उसे ।”

“उसकी छोटी बेटी ने पंखे से लटक कर आत्महत्या कर ली ।”

“अरे ! लेकिन क्यों?”

“क्योंकि बड़ी बहिन को महँगा सूट दिला दिया था, उसे सस्ता दिला दिया था ।”

इस बार तो चाय ज़मीन पर छलक इधर उधर बह निकलती है ।

फ़्लैश बैक नं. छः –

“जब आप आती हैं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है कुछ पढ़ने लिखने की बात हो जाती है वर्ना सारे दिन लोग अपनी शिकायतें लेकर रोते पीटते चले आते हैं ।”

मैं भी कहना चाहती हूँ अपनी इस आई.पी.एस. मित्र के पास आकर मुझे भी बेहद सुकुन मिलता है । उसके ऑफ़िस के बाहर कठोर चेहरे, मूँछों वाले पुलिस वालों को देखकर जिनसे बचपन में वह ड़रा करती थी । अब इस ऑफ़िस में आते ही एक अकड़ भर जाती है इन पर उसकी बिरादरी की कोई राज्य कर रही है ।

मैं अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाती । “अभी एक वृद्धा आपके ऑफ़िस से रोती हुई निकली है, उससे ठीक से चला भी नहीं जा रहा था उसे क्या हुआ है ?”

“सब तेज़ भागते टी वी व केबल संस्कृति की मेहरबानी है । आज हर युवा को अच्छे से अच्छा कपड़ा जूते चाहिये, तेज़ संगीत चाहिये । इस वृद्धा का बेटा व बहू तो मर चुके हैं । इसका इकलौता पोता इससे मारपीट करके पैसे ऐंठता रहता है ।”

“क्या?”

फ़्लैश बैक नं. सातः

वे दोनों अनूप के ही मित्र हैं उनके परिवार धुरी से हटे हुए हैं या अपनी धुरी को तेज़ रफ़्तार से भगाकर इक्कसवीं सदी में सबसे पहले पहुँचना चाहते थे । पहला दिन भर की नौकरी के बाद अपने निजी व्यवसाय के लिये निजी ऑफ़िस में बैठता है या इधर उधर भागदौड़ करता है । न उसके खाने का ठिकाना है, न नींद का, न आराम का । कभी कभी सगर्व मुझसे शिकायत करता है । “भाभीजी, मुझे रात में चार घंटे भी नींद नहीं आती। बस यही सोचता रहता हूँ कि किसे रुपया देना है, किससे लेना है ।”

“जब आप ठीक से सो नहीं पाते तो रुपये कमाने का क्या फ़ायदा?”

वह नया रहस्य मुझे थमाता है, “ऐसा है जब भारी भरकम चैक हाथ में आता है तो ऐसा लगता है बीस सालों की नींद पूरी हो गई ।”

दूसरा स्वयं नहीं उसकी पत्नी दीवानी है । शौक शौक में आरंभ किया उसका निर्यात व्यापार अनेक देशों की सीमाओं पर दस्तक देने लगता है । महीने के कुछ दिन को किसी न किसी देश में बीतने ही हैं । वह मित्र क्या बोले हमेशा पत्नी को प्रोत्साहित करता है । अपने कैरियर के डैनों को फैलाकर चाहे जितना ऊँचा आसमान छू आये पत्नी टूर पर होती हैं तो सारे दिन के ऑफ़िस के काम के बाद बच्चों के होमवर्क, नौकरों को देखरेख से पस्त हो जाता है । दोनों परिवार शनिवार व रविवार के अर्थ भूल चुके हैं ।

तीन चार वर्ष की प्रगति से दोनों परिवार इक्कीसवीं सदी में इसी सदी जैसे इलाके में जा बसते हैं ।

अलबत्ता होता यह है कि पहले मित्र का दूसरे मित्र का दिल बैठ जाता है । विज्ञान की प्रगति हाथ बढ़ाकर उनकी आत्मा को ऊपर जाने से रोकने के लिये सफल हो जाती है । अस्पताल में उनके दिल से जड़े मॉनीटर के उठते गिरते ग्राफ़ को देखकर दोनों के पलंग के बीच बैठी में सोच रही हूँ क्या दोनों को अभी भी शनिवार इतवार का अर्थ समझ में आयेगा ?

डाँटः

दूसरे शहर के उस घर में जहाँ से मेरे मन की जड़ें आज भी नहीं उखड़ी हैं, हालाँकि मैं उखड़ गई हूँ । मम्मी बड़बड़ाती है, “ तू वहाँ एक भी ऐसा परिवार नहीं जुटा पाई जो तुझे अपने घर जैसा लगता हो । तुम्हारी पीढ़ी अपने में ही मस्त रहती है किसी को अपना बनाना नहीं जानती । चाहे हर महीने में दो तीन ‘गेट टू गेदर’ कर लो । जब किसी को अपना बनाओगे तभी तो वह तुम्हारा बनेगा ।”

मैं उन्हें फ़्लैश बैक नंबर एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः, सात थमाती हूँ, “अब बताइये मम्मी ! अपने पड़ोसी को, साथ काम करने वालों, परिचितों में से किसको अपना समझा जाये और उनके घर को अपना घर?”

उपसंहार

रात के चार बजे(या सुबह के) दरवाज़ा खोला देखा वह पाँच थीं।

“भाभी जी! आपको डिस्टर्ब कर दिया?”

“बिल्कुल, लेकिन तुम्हारे लिये डिस्टर्ब भी हो लेंगे ।” आज उन्होंने उसकी पड़ौस में हो रही शादी के बाद शादी में रिसेप्शन के समय ही फेरे के बाद की बची खुची रात में यहाँ सोने की एडवांस बुकिंग करा ली थी ।

अनूप व मैंने फटाफट अपना डबल बैड खाली कर दिया, बाहर का दीवान भी तैयार था । वे ज़िद करने लगीं, एक ही डबल बैड पर सोयेंगी ।

“ ओफ़्फ़ो, इतनी सी जगह पर पाँचों आ जाओगी?”

“तो क्या हुआ? अलग अलग हमें नींद नही आयेगी ।”

वे पाँचों एक डबल बैड में जा घुसी, हम लोग उनकी इस अदा पर हँसते बच्चों के डबल बैड पर जा समाये ।

सुबह नाश्ते की मेज पर जैसे मेरे कॉलेज के दिन चुलबुले होकर शोर मचा रहे थे ।

नेहा पटेल नाश्ते की प्लेटों में से सिर्फ एक बिस्कुट उठाकर बोली, “आँटी! आप यू पी वाले लोग और पंजाबी लोग नाश्ता करते हो कि ‘सुबो’ ‘सुबो’ ‘दो’ ‘टाइम’ का खाना खाते हो?”

सब हँस पड़ती हैं । मैं चिढ़ने की जगह बात का मज़ा लेती हूँ , “हमारा प्रदेश उपजाऊ ज़मीन का प्रदेश है इसलिये हमारी आदतें ऐसी हैं ।”

“पंजाब में भी कुछ ऐसा होता है ? मेरे किरायेदार पंजाबी आँटी दो मूली के जाड़े (मोटे) पराठे खाकर कहेंगी...” वह गर्दन मटका कर पतली आवाज़ निकालती है.... “अभी तो मेरा ‘सुबो’ का नाश्ता हुआ है। ”

“तुम एक बिस्कुट का नाश्ता करती हो इसीलिये दुबली पतली हो ।”

“मैं तो ठीक हूँ लेकिन मेरी वो आंटी ‘डबल’ पराँठे जैसी है।”

“हो—हो-- हो”, उन पाँच गुना हँसी के ठहाकों से जैसे दीवारें भी गदबदा उठी हैं ।

नेहा किसी को बोलने का मौका नहीं दे रही, “भाभी, आप एक बात बताओ कॉलेज टाइम में आपका कोई ‘ब्वाय फ्रेन्ड’ था ?”

“हो—हो-- हो ।”, इतनी हँसी के बीच फंसी मैं अटपटा जाती हूँ फिर आह निकालती हूँ, “हमारे तुम गुजराती लड़कियों जैसे ठाठ थोड़े ही थे । हमारा ज़माना रुखा सूखा गुज़र गया । तुम लोग ‘ब्वाय फ्रेन्ड्स’ के बिना चलती नहीं हो ।”

“ओ भाभी ! ऐसे हम ब्वॉय फ्रेन्ड्स के साथ चलते ज़रूर हैं । हमें ऐसा वैसा मत समझना । मैं हर समय पर्स में राखी लिये घूमती हूँ । अगर हमारे ग्रुप के लड़कों ने लाइन मारने की कोशिश की तो उसके हाथ पर राखी रख देती हूँ ।”

“तब तो वह तेरा भाई बन जाता होगा?”

“कहाँ रे ? वह कहता है, “जब भगवान ने हमें भाई बहिन पैदा नहीं किया तो अपन क्यों प्रकृति का नियम तोड़ें?” ऐसा कहता दूसरे ग्रुप में घुस जाता है, शायद उधर कोई लड़की फंस जाये ।”

“हो...हो...हो....हो ।”

“तुझे यूनिवर्सिटी में एक भी लड़का शादी के लिये नहीं मिला?”

“कहां रे! डैडी मेरे लिये लड़का देख रहे हैं मैंने उनसे साफ़ कह दिया है जिसके पास ‘विटामिन एम.’ होगा उसी से मैं शादी करूँगी ।” कहते हुए वह गर्दन को झटक देती है ।

“विटामिन एम. क्या?” इस नये विटामिन को मेरा सारा विज्ञान-ज्ञान नहीं पहचान पा रहा ।

“आज के ज़माने में रहकर आपको विटामिन एम. नहीं पता?” विटामिन यानि “मनी”, प्यार व्यार कुछ नहीं होता । ठाठ से रहने के लिये ‘मनी’ चाहिये ‘मनी’, ‘मनी’ नहीं तो ज़िन्दगी बेकार है ।”

“हो...हो...हो... ।”, सब हँस रही हैं । न प्यार की छुअन की चाह, न किसी भावनात्मक लगाव की आंकाक्षा, न विवाह को लेकर कोई सुरमई सी पुलक । मैं समझ नहीं पा रही छोटे बड़े पर्दे पर थिरक रहीं ग्लेमरस लड़कियों का मन इनमें समा गया है या वे उनमें । मुझे उनके उन्मादी ठहाके विटामिन एम. का जयघोष सा करते लग रहे हैं । उनका ये उन्माद आगे के बरसों में न जाने कितने दिलों में बरछे की तरह चुभेगा, यदि वह दिल होगा तो ।

नीलम कुलश्रेष्ठ

e-mail—kneeli@rediffmail.com

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