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जीवन @ शटडाऊन - 11

संन्यास

नीलम कुलश्रेष्ठ

एपीसोड---1

माई ने जैसे ही प्लेटफ़ॉर्म पर लगा नल खोला, उन्हें लगा कि ठंडे पानी से उन का हाथ ठिठुर जायेगा। उन्होंने जल्दी जल्दी पानी पी कर गीले होंठों को आंचल से पोंछ लिया और साथ के एक छोटे से बक्से को हाथ में उठा लिया । बक्से को ले कर चलना उन्हें बहुत भारी पड़ने लगा था । अब तो दिसंबर की ठंड भी उन से सही नहीं जाती थी । ऐसा लगता था कि ठंडी हवा त्वचा काट कर उन के बूढ़े शरीर के रेशे रेशे में भर गई हो ।

डीलक्स से उतरी भीड़ बाहर निकलने वाले द्वार की ओर बढ़ी चली जा रही थी । एक कुली के हलके से धक्के से वह गिरतेगिरते बची थीं ।

“क्या कर रहा है ? देख कर नहीं चल सकता, अभी माई गिर पड़ती ।” सामने से आने वाले कुली ने उन के पीछे वाले कुली को झिड़का ।

पीछे वाला कुली भी खीज कर बोला, “मुझे तो लगता है तुझे ही नहीं दिखाई दे रहा है । फ्रंटियर मेल की तरह दनदनाता चला आ रहा है । जरा धीमे चलता तो मैं क्या माई से टकराता ? ”

माई ने बीच बचाव किया, “भैया, मेरे लिये तुम आपस में क्यों लड़ रहे हो ? मैं कोई गिर थोड़े ही गई हूँ।”

कानपुर की स्मृतियों ने उन का हृदय इतना क्षतविक्षत कर रखा था कि अनजान कुली की वह सहानुभूति उन्हें बहुत भली लग रही थी ।कौन अनजाने लोगों पर ध्यान देता है ?

माई पीछे वाले प्लेटफ़ॉर्म पर आ गई । मथुरा के स्टेशन पर छोटी लाईन पर खड़ी वृंदावन जाने वाली गाड़ी में अभी इंजन नहीं लगा था । एक डिब्बे में उन्होंने अपना बक्सा रख दिया । खिड़की के पास बैठ कर उन्होंने चाय वाले को आवाज़ लगाई । कुल्लड़ की सोंधी सोंधी गरमा गरम चाय से लगा कि उन में एक नई जान आ गई हो ।

तभी एक जोड़ा अपनी एक छोटी बच्ची के साथ आ कर सामने की सीट पर बैठ गया । उन की बातों से माई को पता लगा कि उस स्त्री का नाम तन्वी था । उन की बेटी का नाम टिमी था । थोड़ी देर बाद एक काली दाढ़ी मूंछ वाला साधु आया और तन्वी से सट कर बैठ गया । तन्वी के चेहरे से साफ लग रहा था कि साधू के मैले कपड़ों की दुर्गंध से उस का जी मिचला रहा था । वह कनखियों से जिस तरह लाल आँखों से तन्वी को घूर रहा था, उस से उसे वितृष्णा हो रही थी ।वह उसे घूरता, अपनी उत्तेजना छिपाने का प्रयास नहीं कर रहा था, उसे लाल आँखों से घूरता बार बार बोल रहा था, " की कोरबे ---की कोरबे ?"

माई ने तन्वी की परेशानी पहचान ली, वह उस साधू से बोलीं, "बाबा !तुम इधर मेरे पास आकर बैठो। "

वह साधु कुटिलता से मुसकराया, “न माई, शिव की कृपा से हम इधर ही सुखी हैं ।”

इस बार तन्वी उठ कर खड़ी हो गई, “तुम उठते हो या मैं जाऊं ?”

इस से पहले कि बात आगे बढ़ती, वह साधु उठ कर खिसियाया सा दूसरे डिब्बे में चला गया । तभी गाड़ी चल पड़ी ।

माई शर्म से भर गई, “बेटी ! ऐसे ही साधुओं के कारण असली संतों को भी लोग शंका से देखते हैं ।”

तन्वी माई के चेहरे की शांति व सौम्यता पर मुग्ध सी हो गई । उसे उनके बारे में जानने की बहुत उत्सुकता हो रही थी। उस ने माई से पूछा, “आप कहाँ की रहने वाली हैं ?”

“मैं सीतापुर की रहने वाली हूँ । यदि तुम कभी वहाँ जाओ तो वहाँ का चौधरी का बाड़ा हमारा ही है ।”

"तो वृन्दाबन में आप क्या कर रहीं हैं ? आपने तो वृन्दाबन की बंगाली माइयों जैसी सफ़ेद धोती पहन रक्खी है। माथे पर चंदन लगया हुआ है, गले में तुलसी की माला पहनी हुई है । "

माई की ऑंखें भर आईं, "सब तकदीर का खेल है। ऊपरवाला कब किस को आसमान से ज़मीन पर पटक दे चलता। "

माई के होंठ, उनकी आवाज़ जो बता आ रहे थे तन्वी को लग रहा था वह भी उस चौधरी के बाड़े की गली में माई की ज़िंदगी, जो गुज़र गई, में टहलने निकल पड़ी है।

----माई उसी बाड़े के अपने बड़े मकान के दरवाजे पर घूंघट निकाले, सिर पर पानी का कलश लिये, नई बहू की तरह गृहप्रवेश कर रही हैं । तब सारे बाड़े के किरायेदार नई बहू को देखने के लिये उमड़ पड़े थे । गृहप्रवेश के बाद उन्हें बाहर की बैठक में ही बैठा दिया गया था । वहाँ के लंबे चौड़े लकड़ी के सोफ़े, आदमकद तसवीरें, लम्बे फूलदान, बड़ी बड़ी पीतल की कलात्मक मूर्तियां, वहाँ की सजावट का सामान देख कर वह दंग रह गई थीं ।

यों तो वह भी खाते पीते परिवार की थीं लेकिन उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि शादी के बाद इतने राजसी भोग उन को मिलेंगे ।

सास ने इकलौती किशोरी बहू को अपनी हथेली में भींचे फूल की तरह संभाल लिया था । किशोरी के कमरे में हर समय असली घी के लड्डू व मठरी के डिब्बे भरे रहते थे । मेवों के डिब्बे के मेवे अगर दस दिन में ख़त्म न होते तो उस की सास डिब्बे खोल खोल कर लाड़ में डांटती जातीं, “मेवे नहीं खायेगी तो तंदुरुस्त कैसे रहेगी ? बहू ! कुछ खाती पीती क्यों नहीं हो?”

ज़री की साड़ी और गहनों से लदी किशोरी इस लाड़ से निहाल हो जाती । जब कभी बाड़े के किरायेदार मास्टरजी की बेटी रत्ना या कपड़े की दुकान वाले सिंधी की बेटी उस से मिलने आती तो वह किवाड़ बंद कर के ढेर सा मेवा उन के सामने रख देती या मुट्ठी भर मेवा नौकरानी को ही पकड़ा देती ।

ससुर जब तब नोटों के गद्दी उनके हाथ में रख देते, "बहू ! जाकर बाज़ार से कुछ खरीद लो। "

वह संकोच से कहती, "अभी तो मेरे पास शादी का सामान ही बहुत सा है। "

"तो ये नोट बैंक में जमा करवा दो। "

उन्होंने तो मध्यमवर्गीय परिवारों में ये देखा था कि मुंह दिखाई में मिले रुपये सास ससुर अपने पास रख लेते थे ये कहते हुए कि शादी में बहुत ख़र्च हो गया है।

इस घर में तो ससुर जी स्वयं उन्हें लेकर बैंक गए व अकाऊंट खुलवाकर सारे मुंह दिखाई के रु पये व ऊपर से दस हज़ार और रूपये जमा कर दिए थे।

माई के मुँह से उसांस निकल गई । अब उन के कुम्हलाये झुर्रीदार चेहरे और मामूली धोती को देख कर कौन कहेगा कि उनका बैंक अकाऊंट रुपयों से भरा रहता था व वह दोनों हाथों से मेवा लुटाती, गहनों कपड़ों से लदी रहने वाली किशोरी, वह खुद थीं ।

“माई, आप ने संन्यास कब लिया ?”

तन्वी उत्सुकता से पूछ रही थी ।

“बेटी, संन्यास तो बिरले ही लेते हैं । बाकी को तो जबरन लेना पड़ता है ।”

माई के चेहरे की स्निग्धता जैसे धुल गई । उस के अंदर से वेदना छलक आई . बूढ़ी आंखों से मानो अभी बादल फट पड़ेगा, माई रुंआसी हो तन्वी से कह उठी, " तुम जानो, उस समय होटल में अय्याशी का ज़माना नहीं था। हर शहर में बदनाम गलियाँ या कोठे हुआ करते थे। " तन्वी देखती रही ।

माई के सामने उन के अतीत के पन्ने खुलते जा रहे थे, वे एक एक करके तन्वी को थमाती जा रही थीं। उस किशोरी के पति देवीदत्त उस के जैसे ही मासूम थे। किंतु उस की संगत..तौबा । शादी तो हुई लेकिन दोस्तों से नज़दीकी ज्यादा थी । दोस्तों में सभी तो अच्छे हों यह जरूरी तो नहीं । कुछ दोस्त अपने व्यवसाय में डूबे थे वे कभी कभार मिलते । वे अपनी गृहस्थी में खुश थे । लेकिन कुछ दोस्त बड़े रंगीन शौक रखते थे । उन्हें कोठे पर जाना पसंद आता था । वे देवदत्त को कहते, " भई क्या जोरू के गुलाम बने रहने का ? हमारी तरह चलो कोठे पर, कुछ गाना बजाना हो जाये । अमीर हो, कुछ ऐसी रंगीनियां पाला करो । "

आखिरकार देवदत्त दोस्तों की गिरफ़्त में फंस ही गये । दोस्तों ने उन की एक न सुनी और उन्हें पकड़ कर गौहरजान की गली की तरफ चल दिये ।

नीचे की दुकान से पान का एक बीड़ा ले कर देवीदत्त के मुँह में ठूंस दिया । बेले के फूलों का गजरा खरीद कर उन के एक हाथ में बाँध दिया ।

सीधी, मासूम किशोरी को जानने वाले देवीदत्त गौहरजान का तेज लहराता शरीर देख कर जैसे उस के नृत्य करते, घुँघरू छनकाते चपल कदमों में बिछ गये । उस की नटखट मुद्राओं से रूखे सूखे देवीदत्त भी इतने रसीले हो उठे कि ऊटपटाँग शायरी करने लगे। । दोबारा उन के दोस्तों को उन्हें खींच कर ले जाने की जरूरत ही न रही । उन्होंने सब से पहले उस के लिये सोने के घूंघरू बनवाये, तभी उस के कोठे पर दोबारा कदम रखा ।

एक बार गौहरजान के यहाँ कदम रखना था कि फिर कभी वह उस की कैद से छूट न सके । शाम को उन के घर जाने पर किशोरी इस आस से सजती कि शायद देवीदत्त उस से घूमने चलने के लिये कहेंगे । वह स्वयं नहा धो कर चूड़ीदार पायजामा व चिकन का कुर्ता पहनते । फिर शीशी में से थोड़ा सा इत्र छिड़क कर, बालों को कंधे से देवानंद के अंदाज में फुलाते हुए कहते, “किशोरी! आज तुम्हें अपने साथ नहीं ले जा पाऊंगा, आज एक दोस्त के यहाँ दावत है ।”

 

नीलम कुलश्रेष्ठ

e-mail---kneeli@rediffmail.com

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