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जीवन @ शटडाऊन - 4

जीवन@शटडाऊन ---2

एपीसोड --1

घावों भरा साल बनाम विटामिन एम.

-नीलम कुलश्रेष्ठ-

फ़्लैश बैक नं. एकः

“मैं तो आप के बेटे की कॉपी लेकर आपके घर आया था लेकिन आप लोग कहीं बाहर गये थे घर पर ताला था ।”

“कौन सी कॉपी ?”

“आप के बच्चे की बोर्ड की परीक्षा की अंग्रेजी की कॉपी ।”

“क्या?” फ़ोन पकड़ने वाला हाथ काँप गया, रक्त में जैसे चमकती बिजली ने झटका मारा हो, “मेरे बच्चे की कॉपी आपके पास कैसे आई?”

“शायद आप मुझे ठीक से पहचान नहीं पाई हैं । मैं मिश्रा बोल रहा हूँ, श्याम बिहारी स्कूल का अध्यापक ।”

“ओह !” कहीं वह झाँसा तो नहीं दे रहा । उसने फिर चांस लिया, “लेकिन कॉपी पर तो रोल नंबर होता है । आपको कैसे पता लगा कि वह कॉपी मेरे बेटे की है?”

“प्रश्न पत्र के एक प्रश्न में किसी कम्पनी के मैनेजर को पत्र लिखने के लिये कहा था । पत्र के नीचे आप के बेटे ने अपना नाम व पता भी लिख दिया था ।”

“अच्छा ?”

“हाँ, मैंने सोचा यह तो अपना ही बच्चा है अपनी कॉलोनी का क्यों न मैं इसके लिये कुछ करूं । मैं बोर्ड की यह कॉपी लेकर आपके घर आया था । लेकिन वहाँ ताला बंद था । पड़ौसी से पता लगा कि आप लोग बाहर गये हैं । यदि उस समय होते तो आपके सामने बैठकर गलती सुधरवा लेता ।”

“यह बोर्ड की परीक्षा है या तमाशा?” चिल्लाना तो चाह रही...लेकिन होठों को भींचे रही । मन में इतनी हड़बड़ाहट हो रही थी । मेरे लिये सोचने का वक़्त नहीं था बोर्ड में बच्चे को अच्छे नंबर दिलाने के चक्कर में वह इस हेरा फेरी के लिये तैयार होती या नहीं । बोर्ड की परीक्षा की बात से उसे पसीने छूट रहे थे उसने जल्दी से रिसीवर पटकना चाहा, “सो काइन्ड ऑफ यू, थैंक्स । ओ.के.।”

“मैडम ! फ़ोन मत रखिये मेरी बात तो सुनिये ।”

मेरा हाथ रुक गया ।

“ कॉपी अभी ‘केपिटल’ नहीं पहुँची है । अपने शहर में ही है । आपके बेटे के नम्बर अच्छे नहीं हैं । यदि आप कुछ समय दो तो अब भी उसके नंबर ‘फिफ्टी नाइन’ से ‘सिक्स्टी फाइव’ तक हो सकते हैं ।”

फ़ोन हाथ में झनझनाया था या उसका दिमाग़ , “यह आप क्या कह रहे हैं?”

“देखिए मैडम ! कॉलोनी में इस कॉपी के एग्ज़ामिनर आने वाले हैं मैंने पहले से ही बात करके रखी हैं ।”

“कौन सी बात?”

“आप आठ नौ सौ रूपये उन्हें दे दीजिये . वे लोग बारह सौ रुपये माँग रहे थे । बड़ी मुश्किल से कम रुपयों के लिये` हाँ `की है ।”

मन हुआ वह चीखें “ ओ बेशर्म हो !बोर्ड की कॉपियों का सौदा करते हुए तुझे शर्म नहीं आ रही लेकिन मेरी भी मजबूरी है लेकिन तुझसे कैसे बिगाडूँ अभी तक मेरे बेटे की कॉपी बोर्ड मुख्यालय नहीं पहुँची है ।

“मैडम ! आप सुन रही हैं न । भाई साहब हो तो उन्हें फ़ोन दे दीजिये ।”

मैंने अनूप की तरफ देखकर बहाना बनाया, “ये तो कहीं बाहर गये है । मैं अकेली इतनी बड़ी बात का कैसे निर्णय ले सकती हूँ ?”

“वे कब तक आयेंगे?”

“कह नहीं सकती ।”

“आप चिन्ता मत करिये । वैसे तो मुझे अपने काम से बाहर जाना था लेकिन मैं अपना जाना ‘कैंसिल’ कर रहा हूँ। जैसे ही भाईसाहब वापिस आये, आप मुझे फ़ोन कर दीजिये । आप लोग पड़ौसी हैं आप की खातिर कष्ट उठा लूँगा । रात को ग्यारह बजे भी उस आदमी को बोलकर आऊँगा जो कॉपी ले जायेगा लेकिन आठ सौ रूपये से कम नहीं लगेंगे, हाँ !”

कम्बख्त ! सामने भी होता तब भी उसके सिर पर रिसीवर नहीं पटक पाती। बच्चे के भविष्य के कारण, सामने बैठे हुए अनूप को अपनी उत्तेजित साँसों के साथ सारी बात बताई, “अब हम लोग क्या करेंगे?”

आशु भी पास बैठा सारी बात सुन रहा था, बात सुनते सुनते उसके चेहरे पर सुस्ती व असमंजता फैल गई । पहली बार उसने बोर्ड की परीक्षा दी थी और दुनियाँ उसे ऐसा नीचे नज़ारा दिखा रही थी कि बोर्ड नम्बरों की खरीद फरोख़्त साग भाजी की तरह की जा सकती है ।

अनूप बोले, “मानो रुपये दे भी दिये तो क्या गारंटी है वह नम्बर बढ़वा ही देगा ।”

“नहीं, ऐसे काम के लिये हम रुपये नहीं देंगे ।”

“मम्मी ! कहीं वह मुझे फ़ेल न कर दे ।” आशु के गले से आवाज़ नहीं फुसफुसाहट निकल पाई, चेहरा लाल पड़ा हुआ था ।

बीस दिन के लिये हम लोग बाहर रहकर आये थे, घर का सारा सामान अस्तव्यस्त था, उपर से मिश्रा फ़ोन ब़म फोड़ बैठा ।

अकेले में अनूप बोले, “भाई मिश्रा को रुपये नहीं दिये तो आशु समझेगा कि हम लोग कंजूस हैं, स्वार्थी हैं ।”

“यदि रुपये दिये तो उसका नज़रिया रुपये फेंककर हर चीज़ को ख़रीदने जैसा बन जायेगा । मैं उसे संभाल लूँगी।”

बेटे के एक वर्ष का प्रश्न था किन्तु मन तैयार नहीं हो रहा था कि रुपयों से नम्बर खरीदे जायें ।

बड़ी मुश्किल से मन को कठोर किया फिर आशु को समझाया, “देखो , तुम्हारे नम्बर कम नहीं है तुम फ़ेल नहीं हो । दूसरे परीक्षाफ़ल आने की तैयारी है । कॉपी उसके हाथ से जा चुकी है, अब यह मिश्रा कुछ नहीं कर सकता ।” समझाने को तो मैं उसे समझा गई लेकिन जानती थी क्या कुछ हो नहीं सकता इस युग में ।

रात के दस बजे फ़ोन की फिर घंटी बजी । मिश्रा आखिरी चांस ले रहा था, “मैडम ! सर आ गये ?”

“जी नहीं, यदि आ गये तो आपको फ़ोन कर दूंगी ।” जल्दी से कहकर मैंने फ़ोन काट दिया ।

आशु की मार्क्स शीट आते ही हम सबकी नज़र उसके अंग्रेजी के नम्बरों पर गई ‘फिफ्टी नाइन’ थे । तो मिश्रा कॉपी हाथ से निकल जाने के बाद चांस ले रहा था ! यदि हम उन दिनों घर होते जब वह कॉपी लेकर हमार घर आया था तो अपने असूलों को उसे सौंपने से रुक पाते ?

फ़्लैश बैंक नं. दोः

दरवाज़ा निरुला ने खोला, “आप लोग?”

“भूल गई क्या, हमें ‘डिनर’ पर ‘इनवाइट’ कर आई थी ?”

“ओ, हाँ ।”

चाय पीते हुए कुछ भी सूंघ लेने वाली मेरी नाक कुछ भी न सूंघ पा रही है, अश्विन कहते हैं, “ हम लोग समझते कि आपको दस दिन पहले ‘इनवाइट’ करके आये थे, आप ‘डिनर’ की बात भूल गये होंगे ।”

बच्चों ने उन्हें घूरकर देखा जैसे कह रहे हों आप बार-बार हमारे यहाँ आकर खाना नहीं भूलते रिश्तेदारों को लाकर उन्हें खाना खिलवाना नहीं भूलते तो हम डेढ़ वर्ष बाद मिलने वाले इस डिनर की बात कैसे भूल सकते थे ।

मैं सोच रही थी अश्विन के भाई नर्सिंग होम में दाखिल हुए थे वे हमसे वहाँ की परेड करवाना बार-बार खाना पहुँचवाना नहीं भूले थे तो आज हम कैसे भूल जाते ।

निरुला जल्दबाजी में पकाया खाना मेज पर लगाती है और पूछती है, रोटी में घी लगाऊँ या नहीं ।

मन होता है प्लेट सहित मेज उलट कर चल दूं लेकिन दिमाग़ हाथों को जकड़े रहता है ।

फ़्लैश बैक नं. तीनः

“मम्मी ! आज भी ताई दीदी अपने पचास रुपये मांग रही थीं ।”

मैं मेज पर रखे बर्तन में केक का मिश्रण फेंट रही थी । मैंने अधिक ध्यान नहीं दिया फिर भी आशु जारी है, मैं जब भी उनके घर चक्कर मारने जाता हूँ वे पचास रुपये का तकाजा करती रहती हैं । उन्होंने साफ़ साफ़ कह दिया है वे ‘वैक्यूम क्लीनर’ का बिज़नेस करेंगी ।

मैं आशु को फिर समझाती हूँ, “ ताई दीदी मज़ाक कर रही होंगी उनकी मम्मी ने स्वयं कहा था कि उनके नये ‘वैक्यूम क्लीनर’ से मैं घर साफ करके देखूँ ।”

“मम्मी ! वे ‘सीरियसली’ कह रही थीं कि कोई सारे दिन के लिये उनका ‘वैक्यूम क्लीनर’ बुक करेगा तो उससे सौ रुपये लेंगी । लेकिन क्योंकि हम पड़ौसी हैं इस लिये ‘फिफ्टी परसेंट डिस्काउंट’ देकर हमसे पचास रुपये ही लेंगी ।”

मैं ने आशु की बात को कान से झटक दिया । बरसों के पड़ौसी हैं हम । उनकी बेटी को वह बचपन से अपने गढ़े नाम से ‘ताई दीदी’ पुकारता है । हमने बहुत से सुख दुख बरसों से साथ साथ झेले हैं ।

आशु कान से खिसकी बात को जैसे ज़बरदस्ती उसमें डाल देता है ।

“मम्मी ! आप मानती क्यों नहीं हो? आज तो ताई दीदी आँटी के सामने ही कह रही थीं आशु रुपये निकाल, आँटी भी कहने लगीं तू आशु से बार-बार क्यों कहती हैं ? आँटी, अंकल से रुपये मांग ‘बिज़नेस तो बिज़नेस’ है, इसमें पड़ौसी क्या होता ?”

“क्या?”

फ़्लैश बैक नं. चारः

“नीनाजी ! कल समय निकाल सकेंगी ?” उससे मेरा इतना परिचय भर था कि उसकी शादी में जाने भर की रस्म अदायगी कर आई थी । बाद में सड़क पर आते जाते ‘हलो’ भर हो जाती थी । आज तीन बरस बाद वह याद कर रही है ।

“मैं इतनी जल्दी दूसरा बच्चा नहीं चाहती । कल मेरे साथ अस्पताल चल सकेंगी?”

“मैं ज़रा सोच कर बताती हूँ ”, जहाँ तक हो ‘न’ कहना मेरी फ़ितरक में नहीं है । सारा दिन अस्पताल में निकल जाता है ।

उसी के दिमाग़ की उपज़ थी कि महिला समाज कल्याण केन्द्र की शाखा अपने शहर में खोली जाये । मैं भी नौकरी के साथ ऐसा कुछ ढूँढ रही थी कि कुछ रचनात्मक संतोष मिले इतने वर्षों से जुटाये सम्पर्कों का कुछ उपयोग हो ।

शाखा खोलते ही अक्सर उसके फ़ोन आते थे । “आप बैनर बनवा लेंगी, मेरी तबीयत ठीक नहीं है....खों....खों.....खों...।” वह हाँफती आवाज़ में कहती, मैं पिघल जाती । बेनर बनवाना क्या बहुत से काम मैं कर डालती बिचारी को शादी के कारण अच्छी खासी नौकरी छोड़कर इस शहर में आना पड़ा । पति के ताने व अपनी ही डिग्रियां उसे मुँह चिढ़ाते से लगते ।

मुझे लगता मैं शाखा के बहाने उसके लिये कुछ कर दूँ । उसके कुंठित मरियल व्यक्तित्व में आत्मविश्वास भर दूँ । सच ही शहर में बनती उसकी पहचान से उसकी ढली हुई गर्दन में एक अकड़ आ गई थी । चेहरा सुंदर हो उठा था । वह अक्सर भावविह्वल हो अपना आभार प्रगट करती, “नीनाजी, आप सच ही बहुत महान हैं । आपने मेरे जीवन को नया मकसद दे दिया है ।”

वह घरेलू मामलों में भी मेरी सहायता माँगने लगी, “नीनाजी! इनको रुपयों के लिये दीवानगी बढ़ गई है, मैं घर छोड़कर जा रही हूँ ।”

“ऐसी बेवकूफी मत करना । तुम्हारे बच्चों का भविष्य क्या होगा ?”

घबराकर मैं व अनूप घर के कामों की लिस्ट की थोड़ी देर पैक अप कर उसके घर दौड़ लेते । उसका घर कई बार टूटने को हुआ लेकिन हमारा लगाया प्लास्टर व ईंटे उनके काम आ गया ।

एक दिन में ऑफ़िस से थकी मांदी लौट रही थी, सोनल ने रास्ते में टोका, “तू अकेले ही महिला शाखा के लिये इतनी भागदौड़ करती रहती है ।”

“क्या करूँ तृष्णा बिचारी बीमारी रहती है ।”

“बीमार ! हर तीसरे चौथे दिन उसे ऑटो में बाहर जाते देखती हूँ ।”

“क्या ? ”

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नीलम कुलश्रेष्ठ

e-mail—kneeli@rediffmail.com

 

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