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जीवन @ शटडाऊन - 12

संन्यास

एपीसोड---2

किशोरी हैरान रह जाती कि इन के ऐसे कौन से दोस्त बन गये हैं, जो रोज किसी न किसी के यहाँ दावत होती है । उन की माँ भी हैरान थीं । कभी कभी उन्हें झिड़कती थी, “किशोरी! सारे दिन घर में रह कर तंग हो जाती है । तू उसे अपने साथ क्यों नहीं ले जाता?”

“माँ, आजकल मैं दोस्तों में व्यस्त हूँ । बाद में कभी ले जाऊंगा, ” देवीदत्त उन से जान छुड़ाते हुए कहते ।

कभी कभी दस पंद्रह दिन में जब किशोरी को घुमाने भी ले जाते तो उसे लगता जैसे वह उसे घुमाने की रस्म अदा कर रहे हों । वह कुछ बात करती तो `हाँ, ` हूँ` में उत्तर देते । ऐसा लगता कि उन का ध्यान कहीं और हो । भारी मन से वह घूम कर लौट आती ।

एक दिन मांजी को कहीं से खबर लगी कि उन का इकलौता बेटा गौहरजान के चंगुल में फंस गया है । किशोरी तो सुन कर काठ हो गई । वह घर में पगलाई सी घूमती रहती थी । उसे न खाने का होश रहता था, न संवरने का । उस ने देवीदत्त के सामने कितनी ही लाल साड़ियाँ पहनीं, लेकिन वह उस की आँखों से गौहरजान के लाल दुपट्टे की लाली नहीं निकाल पाई । बस, वह तड़पती रह गई । उसे अपनी बेटी उमा का भी होश नहीं था ।

मांजी व पिताजी ने देवीदत्त को पहले प्यार से समझाया, फिर डांटा भी । लेकिन वह तो जैसे बौरा चुका था । पिताजी तो देवीदत्त की बेशर्मी से सारी बिरादरी में मुँह दिखाने के लायक नहीं रहे थे । यही शर्म उन्हें ले डूबी ।

मांजी ने उन के दुख के कारण दिल पर पत्थर रख लिया था । लेकिन किशोरी का चेहरा देख कर उन का कलेजा मुँह को आ जाता था । वह उस की मैली धोती देख कर दुलारती हुई कहतीं, “जा बेटा, कपड़े बदल ले ।”

किशोरी तड़प कर उत्तर देती, “किस के लिये बदलूं? सब कुछ तो लुट गया मेरा ।”

रत्ना भी उस के पास आने में सहमने लगी थी । अब वह कपड़े जेवर की गिनती नहीं पूछती थी । शायद समझने लगी थी कि इन सब से बढ़ कर नारी के लिये पति का प्यार होता है ।

पिता के मरते ही देवीदत्त और भी आज़ाद हो गये थे । उन्हें न तो व्यापार की सुध थी, न ही अपनी । गौहरजान से वह नये से नये फड़कते गीत की फरमाइश करते और वह उस गीत पर और भी शोख अंदाज में ठुमके लगाते हुए उस की बड़ी कीमत मांगती । उस के इन नृत्यों पर झूमझूम कर वह अपना व्यापार तो चौपट कर ही बैठे थे, शराब ने उन के स्वास्थ्य को भी जर्जर बना दिया था । एक दिन वह गौहरजान के कोठे की सीढ़ियों के नीचे मृत पाये गये ।

माई स्वयं ही नहीं समझ पाई थीं कि सामने बैठी तन्वी को वह कैसे अपना समझ बैठी हैं, जो उन्हें अपनी सारी कहानी सुना बैठीं । उन की आँखें नम हो गई थीं, “मैं तो उन के मरने के बाद जैसे काठ हो गई थी । बड़ी मुश्किल से अपना ध्यान घर बार व उमा को पालने में लगा पाई थी । "

पास में बैठी सफेद मैली धोती व गंजे सिर वाली कलकत्ता से आई तीन विधवा माईयां भी उन की कहानी ध्यान से सुन रही थीं । अचानक वे भी पूछ बैठी, “तुम्हारी बेटी तो सुखी है?”

“हां, खूब सुखी है । मुझे वनवास देकर राजरानी की तरह राज कर रही है ।” वह कसैली आवाज़ में बोलीं ।

तन्वी को बुरी तरह झटका लगा, “आप को वनवास दे कर?”

“हां, तभी तो कहते हैं कि अपने पेट से जाए का भी विश्वास नहीं करना चाहिये ।”

“लेकिन माई! संसार की कुछ माताएं तो एक बेटी की कामना ज़रूर करती हैं, बेटे तो अपनी पत्नी की शक्ल देखते ही पराये हो जाते हैं ।”

“अपने अपने कर्म हैं, बेटी ! इस मां ने तो अपनी ही बेटी से धोखा खाया है ।”

“कैसे?” दूसरे के जीवन में इतनी दखलअंदाज़ी खुद तन्वी को भी अच्छी नहीं लग रही थी, लेकिन वह बिना पूछे भी नहीं रह पा रही थीं ।

माई को लगा जैसे वह फिर कहीं अपने अतीत में खो गई हो।

बेटे की मृत्यु के बाद किशोरी की सास ने वज्र बन कर दुनियादारी से मासूम किशोरी पर अपनी ममता की छांव और भी मजबूत कर दी थी । उमा सहित उन दोनों का सहारा चौधरी जी के बाड़े के मकानों का किराया ही था । उस की सास जब कभी अपनी सफ़ेद लकदक करती साड़ी में किराया वसूल करने चलतीं तो किसी भी किरायेदार को ‘न’ कहते न बनतीं । किशोरी को बेटी को कहां पढ़ाना है, क्या सिखाना है, क्या पहनाना है- सब वही देखतीं । किशोरी को हमेशा ऐसा लगता कि वह किसी पुरुष के सहारे जी रही हो ।

कभी कभी लाड़ में उस की सास उसे ताना भी मार देती थी, “मां से अक्ल वाली तो बेटी ही है । मां तो जैसे सीधी सादी गाय है । मैं मर गई तो तू कैसे निबाहेगी दुनियादारी ?”

वाकई उस की आंखों में गाय जैसी कातरता झलक उठती । वह घबरा कर कहती, “मांजी! ऐसा मत कहीये ।”

“मैं हंसी ठिठोली थोड़े ही कर रही हूं । उमा से ही थोड़ी दुनिया जहान की चालाकी सीख, वर्ना यह दुनिया तुझे जीने भी नहीं देगी ।”

लड़का भी सुदर्शन था व्यापारी परिवार का था। माई को क्या पता था कि उमा की शादी के बाद मांजी के मरते ही उन की बात सच हो जायेगी । मांजी के मरते ही किरायेदारों ने आंखें दिखाना शुरू कर दिया । जिस की जब मर्ज़ी होती, किराया देता, न होती न देता ।

बेटी दामाद भी कानपुर से उन के पास आ कर हाल चाल पूछ जाते । मकान और बाड़े के किरायेदारों के हाल देख कर वे पीछे पड़े रहते कि वह बाड़ा बेच दें और

किशोरी उन के साथ चली चले । कानपुर में वे उन्हें मकान दिलवा देंगे । किशोरी भी सोचती कि उन के सिवा उस का है ही कौन । बाद में दामाद ने आ कर सारी जायदाद बिकवाई और लाखों रूपये उनके हाथ में रख दिए। वह उन्हें कानपुर ले कर आ गया ।

“उस के बाद?” कलकत्ता वाली एक माई ने पूछा ।

“दामादजी तो दूसरे दिन ही काम से शहर से बाहर चले गये । चौथे दिन जैसे ही मैं ने अपने कपड़े निकालने के लिये बक्स का ताला खोला तो देखा कि बक्स में न तो एक भी ज़ेवर है, और न ही एक भी रुपया ।”

“क्या आप की बेटी ने ही वे सब निकाल लिये?”

“उसी का कारनामा था वह । मैं दोड़ कर उस के पास गई । पहले तो वह मानी ही नहीं कि वह उस का काम है । बाद में लापरवाही से बोली, “तू जब सो रही थी तो तेरे पर्स में से चाबी निकालकर मैंने ये सब निकाला है। अब तू बुढ़िया हो गई है । क्या करेगी पैसे और गहनों का ?जा, चुपचाप कोने में बैठ कर भजन कर । मैं अवाक रह गई ।”

उस निर्दयी बेटी के लिये घृणा सी भर आई तन्वी के मन में, “वह पैसा बाद में उसे ही मिलना था । फिर उस ने इतना बड़ा धोखा क्यों किया?”

"मैं बोली कि दामाद जी को आने दे, उनसे शिकायत करूंगी। वह वीभत्स हंसी हंस पड़ी कि उन्होंने ही तो ये योजना बनाई थी कि बुढ़िया का सब कुछ बिकवा कर, उसके पैसे पर हम अपना कब्ज़ा कर लें। "

"ओह !आप पर क्या बीती होगी ?"सोचने में भी तन्वी की रूह काँप रही है।

"मुझे लगा था आसमान घूम रहा है, ज़मीन धंसी जा रही है। मैं एक महीना बीमार रही। उन्होंने मुझे यानि करोड़पति घर की बहू को सरकारी अस्पातल में पटक दिया था। "

आसपास बैठी माइयाँ, तन्वी भी उनके साथ सिसक उठे ।

“यही देख कर दुनियाँदारी से मन उचाट हो गया, बेटी । धीरे धीरे मेरा सामान पीछे की कोठरी में पहुंचा दिया गया । मैं ने खाना खाया है या नहीं, बीमारी में मै ने दवाई ली है या नहीं, वहां कोई देखने वाला नहीं था । इसलिये मैं वृंदावन में आ कर महिला आश्रम में रहने लगी ।” कहते कहते माई की आंखें बरस ही पड़ीं । अपनी धोती के आंचल से उन्हों ने आंसुओं को पोंछा तो थोड़ा सा माथे का चंदन भी पुंछ गया ।

“फिर बेटी के यहां जाती क्यों है ?”

“जब उस के बच्चों के लिये दिल कलपता है तो उस को, बच्चों को देखने साल में एक बार चली ही जाती हूँ। हर बार वह मुश्किल से किराये के पैसे देती है ।”

तन्वी की गोदी में टिमी दुनियाँदारी की बातों से बेखबर खिड़की के बाहर के पीछे भागते हुए पेड़ों को देख कर खुश हो रही थी । तेज हवा के कारण उस के बाल बिखर गये थे । माई के सीने में जैसे कुछ दरक उठा । माई की आप बीती सुनने के बाद भी तन्वी ने कितने प्रेम व विश्वास से टिमी के माथे पर एक चुम्बन जड़कर प्यार किया व खिड़की से इशारा करके बाहर भागते हुए पेड़ों, उड़ते हुए पंछियों को, तालब में पानी पीती गायों को दिखता जा रही थी--- टिमी ऐसे समझदारी दिखा रही थी जैसे सब समझ रही हो।

माई को तन्वी के हवा से उड़ते हये बाल, टिमी की चपलता बेहद भली लग रही थी। वह इन दोनों माँ बेटी के इस प्यार के लिये प्रार्थना करने लगी। अपनी संतानों को पालने में कितनी जी तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। शायद अपनी संतान के लिये इसी प्रेम व विश्वास के कारण दुनिया भर के मांबाप अपनी संतान को प्यार से पालते चले जाते हैं.

 

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नीलम कुलश्रेष्ठ

e-mail---kneeli@rediffmail.com

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