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महिमा मण्डित– सुषमा मुनीन्द्र

महिमा मंडित समीक्षा

‘महिमा मंडित’ कहानी संग्रह सुषमा मुनींद्र का बारह कहानियों का संग्रह है, जो श्री प्रकाशन दुर्ग से प्रकाशित हुआ है। इस कहानी संग्रह से सुषमा मुनींद्र के कहानी संग्रहों की गणना तीन तक जा पहुंची है ।

पहली कहानी ‘महिमा मंडित’ में मास्टर तीरथ प्रसाद प्यासी और पत्नी सिया की दूसरी बेटी वीणा के शरीर पर अपना वास बनाने का सपना देवी ने दिया है। यह खबर गांव में फैलने के साथ ही वीणा का रहन-सहन, बात-व्यवहार बदल जाता है। आसपास के लोग देवी को प्रणाम करने और अपनी पीड़ा तकलीफ  दूर करने की प्रार्थना लेकर आने लगते हैं। देवी की सेवा में उसकी मां और पिता तीरथ प्रसाद जुटे रहते हैं। फिर एक दिन जिले के ही रहने वाले शिक्षा मंत्री भी देवी की सेवा में देर रात हाजिर होते हैं, लेकिन तब तक देवी सो चुकी है। मंत्री के साथ पुलिस सुप्रिन्टेडेंट भी  हैं। मंत्री को आश्वस्त करते हुए पिता तीरथ प्रसाद अपनी पत्नी से कहकर बेटी को जगाते हैं, देवी वाले वस्त्र पहनाते हैं, फिर देवी बाहर आती है।  मंत्री को आशीर्वाद देते रहते वह समाधि में चली जाती है ।इस दौरे में साथ चल रहे मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ. राम कृष्ण एक सफल चिकित्सक हैं और अपने दायित्व के प्रति पूरे समर्पित भी ।  वीणा का चेहरा देखते ही वह समझ जाते हैं कि यह बार-बार मूर्छित हो रही है, दरअसल कम आहार मिलने  की वजह से यह बच्ची कुपोषित हो गई - ‘ उनके चिकित्सकीय दृष्टि दोष को क्या कहें, कि वीणा उन्हें चमत्कारी नहीं वरन् रोगिणी दिखाई दे रही थी। देह क्षीण, त्वचा पीली ,  नाखून सफेद, मुस्कान निष्प्रभ, आंखें गढ़ों में धंसी हुई। निर्जलन और रक्ताल्पता के लक्षण मालूम होते हैं। हाव-भाव से मानसिक रोगी प्रतीत होती है । उनके भीतर ज्वार सा उठा,  इसकी नब्ज पकड़ कर हृदय गति देखें और आंखों में जीभ  की जांच करें। पर चिकित्सा विज्ञान और श्रद्धा के सामने व्यर्थ है। जबकि प्रदेश का मंत्री पूरी तरह से देवी के प्रभाव में दिख रहा है। वे यहाँ  निपट अकेले हैं और भक्त बहु संख्या का तनाव उत्पन्न हो जाएगा।  इस देश में धर्म के नाम पर बहुत मार्केट हो चुकी है। (पृष्ठ 19) अगले दिन पुलिस जाकर बच्ची को अस्पताल ले जाती है, तमाम दर्शनार्थी विरोध करते हैं पर पुलिस व डॉक्टर अपना दायित्व निभाते हैं।

इस कहानी में पात्रों के रूप में वीणा सबसे महत्वपूर्ण पात्र है, जो यूं तो मंदबुद्धि लड़की है, लेकिन उसने मां और पिता के कहे अनुसार देवी का रूप धारण कर भूख प्यास त्याग कर बैठने का नियम बना लिया है और वह उन्हें श्लोक और संवादों को बार-बार बोलती है जो पिता ने रटा दिए हैं। तीरथ प्रसाद प्यासी इस कथा का सबसे महत्वपूर्ण चरित्र है, वे वीणा के पिता हैं जो अध्यापक हैं, उन्होंने सुना था, ‘जरियारी गांव में चंपा नाम की एक स्त्री में संतोषी माता का वास है’ यह सुनकर वीणा को भी दर्शन कराने ले गए थे। वहीं से उन्हें वीणा को देवी बनाने की प्रेरणा मिलती है ।फिर वह किसी भी तरह वीणा को देवी के रूप में स्थापित कर इसी रूप में ही बनाए रखना चाहते हैं, वह यह नहीं चाहते कि वीणा का देवीपन जाए। क्यों की इसी से उनका यश बढ़ रहा है, धन-धान्य बढ़ रहा है और मंदबुद्धि बेटी उनके लिए आमदनी का जरिया भी बन रही है। इसके विवाह के लिए उन्हें जाने कहां-कहां भटकना पड़ता ! कहानी का एक  चरित्र सिया है जो वीणा की मां है, पर उसके संवाद और उसकी एक्टिविटी कम ही नजर आई हैं । एक और महत्वपूर्ण पात्र रामकृष्ण है अन्य पात्रों में एस.पी., सिद्ध मणि भाई, मंत्री जो मुख्यमंत्री बनना चाहता है आदि हैं ।  इस कहानी की भाषा परिनिष्ठत हिन्दी निश्चित है, लेकिन कहीं-कहीं विंध्य की भाषा बघेली भी दिखाई देती  है ।

  इस पूरे दृश्य में और कथानक में ऐसे देवी के संवाद उपयोग  किए गए हैं जो देवी के उपासकों की भाषा है, कहीं-कहीं श्लोक भी उदित किए गए हैं-

 ओम भूर्भुव: स्व:  कुष्मांडे इहाग्च्छ इहमतिष्ठ है।

 कुशमांडेयै नमः कूष्मांडाम आवाहयामी स्थापयामि नमः ।   

बोलचाल की भाषा के अलावा तमाम मुहावरे और कहावतें भी इसमें पात्रों के अनुसार आती हैं, जैसे छठी इंद्रिय (प्रश्न 17) ठगे से खड़े (पृष्ठ 26) अड बंड (पृष्ठ 27) ।

  यह कहानी स्त्री के मनोवैज्ञानिक शोषण की भी कहा कहीं जा सकती है और धार्मिक शोषण की भी।  इसी प्रकार की एक कहानी ‘देवी’ पिछले दिनों एक पत्रिका में ए.असफल की पढ़ी  है और ‘देव शिशु’ स्वदेश दीपक की  हंस में पढ़ने को आई थी।  सब कहानियों के विषय अलग हैं तथ्य अलग हैं लेकिन बच्चों को देवी- देवता बना कर उनके बल पर कमाई करना, यश प्राप्त करना, इन सब  कहानी में बार-बार आया है और हिंदी साहित्य में इस तरह की कहानियों में यह सब पिछले दिनों दृष्टिगोचर हो रहा है।

 संग्रह की एक कहानी ‘चक्षु दर्शी है’, उर्दू में यह शब्द चश्मदीद के नाम से जाना गया है और न्यायालयीन  भाषा में भी यही शब्द है।  यह कहानी बहुत मार्मिक और संवेदनशील है।  कथा यूं है कि बताशा और गोकर्ण किशोरावस्था के भाई-बहन हैं, उनके बीमार पिता ने गुस्से में आकर उनकी मां पर केरोसिन डाल दिया था और स्टॉप से अचानक उसमें आग लग गई थी।  जिसके कारण वह सौ फीसदी  जल गई और अस्पताल में खत्म हो गई फिर मरते समय उसने मृत्यु पूर्व बयान भी दे दिया था कि उसे उसके पति ने जलाया है।  इसकी चक्षदर्शी गवाह है बेटी बताशा! पुलिस बद्रीनारायण यानी बताशा के पिता को गिरफ्तार कर लेती है।  बताशा के ताऊ-ताई आकर इन अनाथ हो गए बच्चों को अपने घर ले जाते हैं, उनसे घर का काम करने लगते हैं और कभी-कभी मारपीट भी होती है । एक बार पेशी पर पिता से मिलने पर बताशा और भाई ताऊ ताई की शिकायत करते हैं तो लौट कर दोनों भाई-बहन घर आ जाते हैं। फिर मौसी जी और मौसा  जी बच्चों के हाल-चाल लेने आते हैं तो लड़के को छोड़कर अकेली लड़की को लेकर मौसी  जी और मौसा  अपने घर चले जाते हैं।  मौसा  की खराब नजरों की वजह से मौसी भी बताशा को घर वापस भेज देती है।  इसके बाद उनका एक बेरोजगार मामा  आकर बद्री नारायण द्वारा चलाए जा रहे चाय के ठेले पर कब्जा जमा लेता है, वह गुण्डों को उधारी देने लगता है और उनसे उधार ले भी लेता है।  गोकर्ण किसी तरह मामा को भगाकर खुद होटल संभालता है । कोर्ट में जब चक्षु दर्शी गवाहों की पेशी नियत  होती है, उसके पहले बताशा बहुत द्वंद्व में है, उसके स्कूल के मास्टर जी ने शिक्षा दी थी कि हमेशा सत्य बोलना चाहिए! वह समझ नहीं पा रही कि मास्टर जी द्वारा सत्य बोलने की शिक्षा पर दृढ़ रहके   पिता को सजा दिलाये  या झूठ बोलकर पिता को बचा ले और अपने घर को एक सफल संरक्षक प्रदान करें।  कहानी के अंत में बताशा पिता के पक्ष में ही बयान देती है और पिता छूट जाता है।  

इस संग्रह की केंद्रीय पात्र बताशा है, भले ही वह किशोरी है, लेकिन कहानी बच्चों और किशोर के लिए नहीं है , बड़ों की दुनिया की समस्याएं ,दिक्कतें, लोगों के चरित्र इस कहानी में जैसे खुलकर आए हैं, वह सराहनीय हैं।  बताशा देश की लाखों किशोरियों की तरह अनकही पीड़ा (छेड़छाड़) भोगती है, भुगतती है,सत्य और झूठ के बीच द्वंद्व को भोगती  है।  गोकर्ण जो  बताशा का छोटा भाई है, वह  पिता के जाने पर जल्दी से बड़ा हो जाता है ,जैसा कि हर बच्चे के साथ होता है।  जब बयान होना  होता है उसके पहले  गोकर्ण सुधीर रूप से कहता है कि माँ  तो चली गई, घर और हम दोनों बच्चों की सुरक्षा के लिए पिता को बचा लेना जरूरी है ! ताई-ताई, मौसी-मौसी और मामा ठीक वैसे ही चरित्र हैं जैसे कि स्वार्थी और चालू होते हैं । मौसा बहुत लंपट चरित्र है,उसके चरित्र और बतासी की माँ से उसके रिश्तों को प्रकट करने के लिए बस कुछ पंक्तियां पर्याप्त हैं, ‘बतसिया बिल्कुल कीमत जैसी सुंदर सलोनी है। बड़ी होकर गजब ढाएगी।‘  बताशा को गोद में बैठा भद्दे  ढंग से उसके गाल सहलाते हुए मौसा कहता । मौसी खिसियानी  बिलारी सी खोखियती –‘ देख रही हूं जब से यह आई है इसकी सुंदरता को बखान रहे हो।  कीमत को तो अपनी बपौती समझते रहे।  लगता है इसका सुंदरापा इसका जंजाल बन जाएगा ।‘

‘इसीलिए कहता हूं इसे यहीं रख, पाल-पोस,।  पढ़ा लिखा,  पुण्य कमा ।मैं  आज ही दो ठो बढ़िया फिराके लिए आता हूं । बढिया पहना उड़ा ! वहां अपने घर में अकेली रहेगी तो सुरक्षित ना बचेगी।  जमाना खराब है । माँ नहीं नहीं रही बाप हत्यारा।  एक भाई है तो वह भी चोर-उचक्का, जेब कतरा,मवाली बनेगा और क्या ? ऐसा न हो इससे भी धंधा-धंधा ... ।‘ (पृष्ठ 38)

संग्रह की एक कहानी ‘विजय स्तंभ’ है। बुजुर्ग सज्जन गदाधर प्रसाद अपने शहीद  पुत्र रोहिणी प्रसाद की स्मृति में कस्बे में बने विजय स्तंभ पर उनकी शहादत दिवस पर सफाई पुताई आदि करने के लिए अपने नाती रामायण प्रसाद यानी शहीद  के बेटे और रोहिणी प्रसाद के साथी जयपाल को साथ लेकर विजय स्तंभ पहुंचते हैं।  वहां तमाशा देखने के लिए कौतूहल पूर्वक इकट्ठा हुए स्कूल के बच्चों को गदाधर प्रसाद अपने सिपाही बेटे की लड़ाई, फौजी मोर्चा और शहीदी दास्तान को विस्तार से सुनते हैं।  इसी युद्ध में अपना पैर गवा चुका जयपाल दिनांक 16-12-71 की घटना को विस्तार से सुनाता है।  अंत में भावुक रामायण प्रसाद कहता है,  मूर्ति में प्राण डालने की तकनीक विकसित हो जाती तो जयपाल और दादा उसे डांटते हैं।  जयपाल कहते हैं कि शहीद हो जाना अच्छा होता है।  युद्ध में अपंग होकर जीना और परिवार पर आश्रित होकर जीना बहुत खराब होता है । जयपाल के खुद के भोगे यथार्थ को उसके संवादों के मारफ्त  बताया गया है ।

 कहानी के चरित्रों में रामायण प्रसाद बहुत प्रैक्टिकल चरित्र है जो शहीद रोहणी  प्रसाद का बेटा है, वह पिता के शहीद होते समय गर्भ में था, बाद में जब अनुकंपा नियुक्ति मांगी गई तो उसे चपरासी करे पद पर भर्ती बहाली मिली ।  इसलिए वह एक अजीब सी कुंठा और बाल्य मनोरोग का शिकार है।  दुसरे पात्र गदाधर शहीद  के पिता हैं तो सहज रूप से अपने बेटे के कारनामों पर कर्तव्य पर हमेशा बलिहारी जाते  रहे और उसे बहुत ऊंचा मानते रहे हैं । तीसरा चरित्र  जयपाल रोहणी के साथ सेना  में रहा है।  रोहिणी की तो जान चली गई थी, लेकिन जयपाल का एक पैर कट गया था।  तब तो वह खुश हो गया था कि चलो जान तो नहीं गई, जान बच गई, लेकिन आज वह बात-बात पर बेटे की डांट अनदेखी और लापरवाही से क्षुब्ध  है और सोचता है कि वह भी फौज में शहीद क्यों नहीं हो गया? गोकुल एक अन्य चरित्र है जो रामायण प्रसाद का चाचा है जो अत्यंत ही चरित्रहीन है।  

कहानी में  शहीदों के आश्रितों की दुर्दशा बताई गई है,  ‘कोई किसी के साथ नहीं होता दादा’ ... रामायण प्रसाद छोटे ब्रश को लाल पेट में डूबा कर विजय स्तंभ में लिखो अक्षरों को गाढ़ा कर रहा है- ‘कोई किसी का नहीं होता... स्वयं के चपरासी होने पर लज्जा आती है।  मैं फौजी का नहीं वरन शहीद  फौजी का बेटा हूं और मुझे लगता है चपरासी गिरी करते हुए मैं अपने पिता का नाम डुबो रहा हूं।  कई बार जिलाधीश को प्रार्थना पत्र लिख कर दिया है कि मुझे प्रमोट कर क्लर्क बनाया जाए।  उत्तर मिला शासकीय अनुकंपा से नियुक्ति मिल गई यही बहुत है।  आजकल नौकरी मिलती कहां है? फौजी बनता तो दद्दा तुमने बनने नहीं दिया।‘

 दादा चुप रहे । रामायण प्रसाद को आज भी आशा है कि उसके पिताजी भी होते तो बेहतर स्थिति में होते । (पृष्ठ 55)

 विंध्य प्रदेश रीवा क्षेत्र की भाषा इस कहानी में खूब आई है, सारे चरित्र बघेली बोलते हैं, पात्रों के नाम स्त्री वाचक हैं, जैसे रोहिणी प्रसाद । रामायण से जुड़े नाम विंध्य  खूब रखे जाते हैं-जैसे रामायण प्रसाद. राम चरित शर्मा , रामानुज शर्मा । इस कथा का मुख्य पात्र रामायण विंध्य प्रदेश के युवाओं का ही एक चरित्र है।  शहीदों और विजय स्तंभों की दुर्दशा को यह कहानी बड़े सशक्त ढंग से प्रकट करती है।

 कहानी ‘रेलगाड़ी’ का  चरित्र ददन जिले के  प्रमुख शहर से बहुत दूर एक गांव में खेती करता है, तब बहुत खुश हो गया है जब उसे पता लगता है कि उसके कस्बे में रेल गाड़ी आ रही है। उसकी खुशी कई गुना बढ़ जाती है जब पता लगता है कि यह रेल इसके गांव में से ही निकलेगी। वह एक बार रेल यात्रा कर चुका है, रेल को देख चुका है, इसलिए अपने बच्चों और पत्नी को रेल के बारे में बहुत कुछ बताता है और कहता है कि मैं तुम लोगों को रेल में जरूर बैठाऊंगा! बाद में दुर्भाग्य होता है कि रेल पटरी का सर्वे गगन के खेत के बीच बीच  से होता है। ददन विरोध में  बहुत चिल्लाता है, गुस्सा होता है, लेकिन अंत में कुछ नहीं कर पाता। इस कहानी के प्रमुख पात्र ददन और उसकी पत्नी धनिया है। ददन इतना दब चुका है,उसका इस हद तक शोषण हो चुका है कि वह कुछ नहीं बोल पाता,बस घर में बो पाता है, देखिए ‘धनिया को स्वप्न दिखाने लगा ‘सुन री छगन की महतारी...तैं कहित रही कबहु रेलगाड़ी मा  नहीं बैठे तो अब बईठिये समझे।  अपने सहर मा रेलगाड़ी आई रही हय।  सुना रे सब कोउ  छगन, लल्लन, केमली सलोनी... ।  चारों बच्चे पूरे घर में उचकते फिरते।  रेलगाड़ी देखना’ उनके लिए किसी आयोजन, अनुष्ठान से कम नहीं होगा। ददन  एक बार रेलगाड़ी में बैठ चुका है।  रैली में भाग लेने राजधानी गया था । (प्रश्न 82/83 ) । लेकिन धनिया खूब बोलती है। वह खुशी में भी साफ  बोलती है, और दुख में भी,  ‘हियन  पटरी बिछाई जई? अइसन कइसन? कोऊ के बाप के राज हय  का हो? हम जिउ दई देवय जो या जाँघा कोऊ हथियाई त !’(प्रश्न 83)

 इस कहानी का सबसे सकारात्मक पक्ष यह है कि जमीन जाने के बाद (जैसा कि आज का पीड़ित किसान  कर रहा है।) ददन आत्महत्या नहीं करता। जब गाड़ी धड़ाधड़ आती है तो लगता है, अब यह दृश्य सामने आएगा कि दद्दन पटरी पर लेट गया है।  वह न ऐसा अहिंसक या हिंसक विरोध करता है और न कोई दूसरा काम करता है।  इस तरह जीवन को उपलब्ध हुए, सामने आए संघर्षों के साथ जीने को तैयार करती यह कहानी सुषमामुनीन्द्र की एक सकारात्मक अंत की कहानी है।

 कहानी ‘कर भला हो भला’ एक बड़ी रोचक और मार्मिक कहानी है।  कहानी में युवती अंबुज अपने भाइयों और पिता के घर आई थी, अब वह मुंबई वापस जा रही है।  पिता, माँ , दोनों भाई-भाभी और घर के सभी बच्चे उसे छोड़ने स्टेशन पर आए हैं। पता लगा कि  मुंबई  जाने वाली ट्रेन ‘महानगरी एक्सप्रेस’  2 घंटे लेट चल रही है।  मुश्किल से वक्त कटता है। ट्रेन आते ही  बड़ा पुत्र  एकनाथ बहन को डिब्बे में भीतर छोड़ने जाता है।  भीड़ जबरदस्त है।  जैसे तैसे सामान चढ़ाए जाने लगता है तो एक बूढ़ा बार-बार इस दरवाजे से घुसना  चाहता है, लेकिन एकनाथ उसे पीछे धकेल देता है और अपना सामान चढ़ता रहता है।  यात्रियों के समान चढ़ते-चढ़ते, अंबुज के बैठ जाने के बाद ट्रेन चल देती है।  चढ़ाने से रह गया वह बूढ़ा व्यक्ति बाहर ही  खड़ा रह जाता है।  परिवार के सब लोग लौटते हैं तो पता चलता है कि एकनाथ का बेटा देव मिल ही नहीं रहा है।  चारों ओर खोजा जाता है।  पुलिस रिपोर्ट कराई जाती है कि अचानक स्टेशन मास्टर के कमरे से घोषणा होती है कि एक लड़का स्टेशन पर मिला है।  सारा परिवार दौड़कर वहीं पहुंचता है।  वही लड़का देव है जो उन बुजुर्ग सज्जन के साथ हैं जिन्हें ट्रेन में एकनाथ में चढ़ने नहीं दिया था।  उन सज्जन ने एक साइकिल सवार द्वारा जबरन पकड़ कर ले जाते देखकर बच्चा छुड़ा लिया था।  सब लोग बुजुर्ग के प्रति भावुक  हो जाते हैं । पूछने पर बुजुर्ग बताते हैं कि उनका बेटा मुंबई में खत्म हो गया है, वे  उसकी लाश लेने मुंबई जा रहे थे,उनका तो इस ट्रेन से जाना जरूरी था।  अब सब दुखी है कि  उन्होंने ही नहीं चढने  दिया । जब यह पता लगता है तो दुखी एकनाथ कहता है ‘आपका बहुत उपकार मानता हूँ , मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं?आपका बहुत-बहुत धन्यवाद!? तब बुजुर्ग सज्जन  कहते हैं कि ‘मेरा उपकार मत मानो पर विश्व में किसी को यो रोकना नहीं।‘

  कहानी के प्रमुख चरित्र पिता हैं, जो परिवार के मुखिया हैं, सबको डांटते  हैं, दूसरा चरित्र माँ  है जो बेटी से अत्यधिक लाड  करती है, सब कुछ दे देने को उत्सुक है, बहू और नातियों को बराबर डांटती है और उन्हें तमीज सिखाने की बात करती है।  एकनाथ बड़ा  भाई है जो सब कुछ संभालता हुआ चलता है। बहन को ट्रेन में चढाता है, सामान रखवाता है और अपने काम के बीच में ठीक एक सामान्य व्यक्ति की तरह बूढ़े सज्जन  को चढ़ने नहीं देता।  अंबुज मां की लाडली बेटी है, मां जो कुछ देती है उस पठौनी को वह प्रसन्नत: स्वीकार करती जाती है, न भीड़ देखी, न सामान ले जाने का झंझट।  ऐसी तमाम लड़कियाँ  हमको आसपास देखने को मिल जाटी  हैं । इसके अन्य स्त्री चरित्रों में स्नेहभरी  दो भाभियां हैं, जो सबको  बहुत प्यार करती हैं और मां पिता के लिहाज में कुछ नहीं बोलती।  इस कहानी का सबसे मार्मिक चरित्र  है वह बूढ़ा, जो अनाम है, और  यद्यपि उसे इस परिवार ने चढ़ाने नहीं दिया, तो भी वह उनके प्रतिवाद  नहीं करता, बुरा नहीं करता, उनके ही बेटे का अपहरण रोक लेता है।

वाताव्र्ण निर्माण में सुषमा बहुत दक्ष हैं ,इस कहानी में स्टेशन पर सारा परिवार इकट्ठा है, बच्चे इधर बिखेर रहे हैं, बहुएं खड़ी हैं, मां डांट रही है, और अम्बुज ठाठ  से  बैठी हुई भाभियों को डांटा जताते हुए देख रही है।  यह दृश्य एक बहुत ही अच्छा दृश्य बन पड़ा है।   बाबूजी मां अम्मा से संबोधित हुए ‘मुंह फाड़े इधर-उधर देखते खड़ी ना रहो, जैसे आज से पहले स्टेशन नहीं देखा है । इस बिस्तर के ऊपर बैठ जाओ और सामान की निगरानी करो।  स्टेशन पर गिरह कट , चोर-उचक्के फिरते रहते हैं। ‘

 ‘हमें ना सिखाओ।’ अम्मा तुनक कर कुशल गणितज्ञ की भांति तर्जनी दिखा-दिखा कर सामान गिनने लगी-‘पूरे नौ  नग हैं । ‘

ग्रीष्मावकाश में आई  ‘अम्मा की पुत्री अंबुज अपने दो बच्चों यशा  और संयोग को लेकर अपने पति के पास लौट रही है।  अम्मा स्नेहावश  सामानों की गिनती बढ़ती गई है ।

‘ट्रेन में इतना सामान चढ़ाना मुश्किल होगा।  आजकल की भीड़ देख ही रहे हैं।  यशा ये टोबू साइकिल बेकार ले जा रही है, फिर कभी भेज देते’ छोटा पुत्र तिलक बोला।

‘ मैं साइकिल ले जाऊंगी यहां ओम और देव चला चला कर तो डालेंगे’ यशा पाँव  पटक कर मचलने लगी है। ( पृष्ठ 149)

कर भला हो भला अंत में सीख देता है, जबकि एकनाथ व ओमकार उसके साथ बुरा बर्ताव कर चुके है।

संग्रह में एक कहानी ‘रेन बसेरा’ भी है।  इस कहानी में मनोचिकित्सा से इलाज ले रही तानी का परीक्षण करके डॉक्टर उसके पति को बताता है की बचपन से होम्यो क्लीनिक में इलाज करते रहने के कारण बचपन से ही तानी का स्वप्न पुरुष वह होम्य्पोपेथ डॉकटर बन गया है।  वह अनजाने में अपने पति यशस्वी को वैसा ही बनना चाहती है।  डॉक्टर कहता है कि ‘एक बार तानी का गुस्सा और मनोभाव क्लाइमेक्स तक बढ़ जाए तो तानी आत्मा पर निर्णय ले लेगी ।तानी का मनोविश्लेषण क्लाइमेक्स पर जाकर उसको पति व बेटे बिट्टू की तरफ मोड़ देता है।  इस कहानी के पात्रों में पानी मनोविश्लेषण में डूबी फंसी एक स्त्री है, यशस्वी  उसका पति है, जो अपनी पत्नी के लिए सब कुछ करने को तैयार है।  डॉक्टर बलभद्र है, जो आता तो नहीं है लेकिन वह मुख्य चरित्र तानी  के सपनों में छाया रहता है।  मनोरोग का चिकित्सक मनोविश्लेषण के बहुत सारे सिद्धांत बताता है और ताज्जुब यह कि वह अनाम  है , कथा में उसका कोई नाम नहीं दिया गया है यानी वह  मनो चिकित्सकों का प्रतिनिधि चरित्र है।शुरुआत देखें -

 ‘जब तक आदमी गड़ा नहीं खाता अकल ठिकाने नहीं आती।  गड़ा खाने का अर्थ कोई ध्वंस या क्षति का होना । सच यह भी है कि बर्फ को पिघलने के लिए एक नियत और निर्धारित तापमान देना होता है या कि  यह कहें कि उफान अपनी हद पार कर लेने के बाद ही बैठता है।  आप समझ रहे हैं ना मेरी बात! सच यह भी है कि तूफान का गुजर जाना अच्छा होता है।  तूफान से गुजरने के बाद शांति का आलम होता है।  जबकि तूफान का उमड़ते –घुमड़ते रहना एक किस्म की बेचैनी, आशंका और भीति जगाता है।  आप समझ रहे हैं ना मेरी बात! आपकी पत्नी तानी के प्रकरण में एक चरम की स्थिति निर्मित करना होगी।  चरम स्थिति आत्मा विवेचना का कारण बनती है, तूफान का आना इस दृष्टि से ठीक होगा।  आप दोनों के मध्य सोच की दिशा खुलेगी, आगे और क्या कैसे करना है। ‘ ( पृष्ठ 86)

 संग्रह की कहानी ‘राखी’ में संख्या अपने राजनीतिक बन चुके भाई को राखी बांधती  है और राजनैतिग्य ल्प्गों द्वारा जिस तरह का प्रदर्शन होता है, वह लेखक ने बड़े विस्तार से वर्णन किया है, ऐसा प्रदर्शन जिसमें और सब तो है बस प्रेम नहीं झांक रहा है।  ‘एक अकेला इस शहर में’ कहानी में अपनी पत्नी व बच्चों की हत्या करने वालों को सजा न दिलवा पाया वकील राजमल लापता होकर एक अनजान मोहल्ले में रहने लगता है और वहां अंत में क्षय रोग  से मरता है।  अपने काम में असफल रहने वाला और अपनी ही पत्नी और बच्चों को सजा न दिला पा ने वाला वकील अपनी वकालत पर और न्याय पर, सब पर संदेह और सवालिया निशान खड़ा करता है।  यह न केवल पलायन की कहानी है, बल्कि यह सारे न्याय तंत्र और अपने पैसे को त्याग देने की बड़ी कहानी है। ‘ लाल साहब’ नाम है संपदा नमक लाडली बेटी का जिसे  मां बाप बहुत लाढ  करते हैं।  भाभियां परेशान हैं। अचानक लाल साहब को प्रेम  हो जाता है।  मुंह भोले मामा  के साथ संपदा यानी लाल साहब प्रेम कर लेती हैं।  पिता नाराज होते हैं, पर अन्त  में मान भी जाते हैं, लाल साहब  में बिगड़ी बेटियों की कहानी कहते-कहते लेखक स्त्री पुरुष और मनुवादी मर्यादाओं से ऊपर जाकर एक ऐसी बात कहता है कि ‘प्रेम का नाता इस संसार में सबसे बड़ा होता है, उसके आगे सबको झुकना ही पड़ता है और वास्तविक पवित्र रिश्ता तो पिता पुत्री या बहन भाई का ही होता है। ‘ ‘फ्रेंड्स गैलरी’  जनरल आइटम की दुकान के मालिक गिरजा शंकर की कहानी है।  

इस संग्रह की कहानियों के चित्र बड़े गंभीर भी हैं और विश्वसनीय भी।  

एक पाठक के रूप में इन कहानियों में  दिलचस्प दास्तानें, सुपरिचित चरित्र और समाज से बार जूझती समस्याएं सामने आती हैं। जिनको प्रस्तुत करने में लेखिका खूब दक्ष है उनसे अभी अच्छी कहानियों की आशा है।

पुस्तक –महिमा मण्डित (कहानी संग्रह _

लेखिका – सुषमा मुनीन्द्र

प्रकाशक –श्री प्रकाशन दुर्ग

पृष्ठ- 160

मूल्य -125   

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