63. सवाल अहम है कच्चे बाबा का आश्रम। बरगद के पेड़ के नीचे बाबा, सूफी फकीर और पं पारिजात शर्मा बैठे हैं। उनके सामने आश्रम के विद्यार्थी । कान्यकुब्ज कुछ ही कोस की दूरी पर है। उसके पतन से तुर्क सैनिकों का आना-जाना बढ़ गया है। कभी कभी वे गाँव भी लूट के शिकार होते हैं जिनके बच्चे इस आश्रम में पढ़ते है। बालकों में उस समय आक्रोश का स्वर उभर उठता है। आज सूफी फकीर ने प्रेम और भाईचारे पर अपना प्रवचन दिया। बच्चे प्रभावित हुए पर जो कुछ सामने घट रहा था, उससे आहत थे। एक बच्चा खड़ा हुआ। पूछ बैठा, 'सन्त प्रवर, क्या प्रेम और भाईचारा एक पक्षीय चल सकता है?"
फ़क़ीर को समझने में कठिनाई हुई । पारिजात शर्मा ने प्रश्न का अर्थ समझाया तो फ़क़ीर ने कहा- 'बेटे तुम्हारा सवाल अहम है। एक तरफा प्यार और भाईचारा कैसे चल सकता है? तुम्हारा इशारा मैं समझ रहा हूँ। तुर्क और अफगान सेनाएँ जो कर रही हैं, मैं उसकी हिमायत नहीं करता। ताकत के बल पर इस्लाम कुबूल कराना भी मैं गलत मानता हूँ, मंदिर तोड़ना तो और भी गलत है।'
' पर जो हो रहा है, उसका निदान ?” एक दूसरा विद्यार्थी बोल पड़ा। पारिजात से प्रश्न समझ कर फकीर ने कहना शुरू किया, 'जो मंजर दरपेश है उसका हल आसान नहीं है । इन्सान कब इसका हल तलाश कर पाएगा, कह नहीं सकता? पर हमें अपनी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए।'
'हमें तत्काल समस्या से जूझना पड़ेगा।' एक बच्चे से न रहा गया।
'तात्कालिक समस्याओं के हल का कोई विकल्प तो ढूँढ़ना ही होगा । हम आशीष से समस्या का निदान नहीं कर सकते। इसके लिए ठोस रणनीति बनानी होगी।' बाबा ने अपनी ओर से उत्तर दिया। मध्याह्न भोजन के लिए सभी उठ गए। भोजन करते समय भी सूफी फकीर की चिन्ता कम नहीं हुई। बच्चे का प्रश्न उनके मस्तिष्क में कौंधता रहा। भोजन के बाद भी कच्चे बाबा, पारिजात और फ़क़ीर एक साथ बैठे।
'इन्सानियत का क्या होगा? कैसे बचेगी यह?' फकीर ने स्वयं प्रश्न कर दिया।
'धार्मिक उन्माद से तो हम युद्ध की ही स्थितियाँ पैदा करेंगे।' बाबा कह उठे ।
'जेहाद के नाम पर कत्ल होगा तो इन्सानियत कैसे पनप सकेगी?” पारिजात ने जोड़ा।
एक समाज की प्रतिक्रिया दूसरे समाज में भी होती है। फिर क्रिया-प्रतिक्रिया की शृंखला.....और..।' बाबा कहते रह गए।
'मजहब के नाम पर गोलबंदी क्या होगा इसका रद्देअमल ? क्या इससे हम कबीलाई समाज की ओर नहीं लौट जाएंगे?" सूफी फकीर ने अपनी बात रखी।
'वर्षों से हम आप विमर्श कर रहे हैं पर उसका नतीजा?" पारिजात के मुख से निकला
'विमर्श जरूरी तो है पर बिना क्रियान्वयन के कोई परिणाम कैसे मिलेगा?" बाबा बताते रहे।
'मैंने तो सुल्तान से भी बात की। पर कोई नतीजा नहीं निकला।'
फकीर ने अपनी बात बताई।
'हम सही हैं, हमारा पंथ ही सही है, दूसरे सभी गलत हैं यह भावना ही हममें जकड़न पैदा कर देती है। हम विचार ही नहीं करते कि कोई दूसरा भी सही हो सकता है। एक मंजिल पाने के कई रास्ते हो सकते हैं।' बाबा की गम्भीर वाणी हवा में तैरती रही।
'होते ही हैं', फकीर ने सहमति जताई।
'विभिन्न पंथों, जातियों के बीच हमें समरसता उगानी होगी। सदियों से लोक सबको देखता रहा है। धार्मिक सौहार्द को बड़ी मेहनत से अवाम ने पाया है। उसे वह खोना नहीं चाहेगी।'
'दुरुस्त ख़याल है', फ़क़ीर की आँखें चमक उठीं।
'जब नफ़रत उगाने वाले घमासान मचाए हुए हैं तो हम मुहब्बत उगाने वालों को दूनी चौगुनी मेहनत करनी ही चाहिए।'
'कौमों और पंथों के बीच प्यार की फसल को सूखने नहीं देना है।' बाबा जैसे कुछ सोच रहे हों।
'पर कैसे, यह तो पता हो', पारिजात बोल पड़े ।
'हाँ, यही असली नुक्ता है', फकीर ने भी जड़ दिया।
'प्रश्न जटिल है और इसका सार्वकालिक निदान भी कठिन । हमें ऐसे तंत्र और सिद्धान्तों की खोज करनी होगी जिसमें आदमी गरिमा के साथ रह सके। कोई किसी को सता न सके। सामाजिक निर्णयों में उसकी भागीदारी हो। सही सिद्धान्तों की तलाश और उसका क्रियान्वयन निरन्तर जनजागरण।' बाबा की निष्कम्प आवाज़ वातावरण में गूँजती रही ।
'लिच्छवि, निर्णयों में सबकी हिस्सेदारी सुनिश्चित करते थे । वहाँ भी आम्रपाली को 'नगर वधू' बनना पड़ा। उसकी आवाज़ नगर की आवाज़ में दब गई।' पारिजात से रहा नहीं गया।
'सच कहते हो पारिजात । स्खलन किसी भी व्यवस्था में हो सकता है। यदि कोई बड़ा लक्ष्य नहीं है तो व्यक्तिगत स्वार्थ ही सामूहिक स्वार्थ बन जाता है। अंधेरे से लड़ने के लिए हमेशा भीतर बाहर दीप जलाना होगा।' 'कितना दुरुस्त ख़याल है? चिराग तो हमेशा जलाना ही पड़ेगा।' फकीर के मुख से निकला ।
'आज के सामाजिक नियम कल के लिए अपर्याप्त हो सकते हैं। हमें निरन्तर उन नियमों को खोजना होगा जिससे समरसता उग सके। निरन्तर परीक्षण के साथ ही ज़रूरी है क्रियान्वयन का साहस ।'
'तात्कालिक कठिनाइयाँ तुरन्त निदान चाहती हैं', पारिजात बोल पड़े।
"हाँ, बाबा के मुख से निकला ही था कि चंचुक दिखाई पड़ा। सभी की नज़रें उसी ओर उठीं। चंचुक अश्व से उतरा। उसे एक पेड़ में बाँध दिया। आगे बढ़कर तीनों को प्रणाम किया। बाबा की दृष्टि चंचुक पर पड़ी दृष्टि में जिज्ञासा का भाव था ।
'बाबा', चंचुक ने कहा ही था कि एक तुर्क अश्वारोही अश्व दौड़ाता दिखा। उसने अपनी गोद में एक किशोरी को बिठा रखा था। बाबा के संकेत पर चंचुक तुरन्त अश्व पर सवार हो तुर्क अश्वारोही के मार्ग में खड़ा हो गया। अश्वारोही देख किशोरी चिल्ला पड़ी 'बचाओ, बचाओ।'
बाबा, पारिजात और फ़क़ीर भी आश्वारोही को घेर कर खड़े हो गए। 'कौन हो तुम, छोड़ दो इसे।' फकीर ने उसे डाटा ।
'तुम कौन हो ? एक फ़कीर को इसमें पड़ने की जरूरत?" तुर्क अश्वारोही भी अकड़ गया।
'मैं फ़कीर हूँ, मेरे साथ ये महात्मा है।'
'मैं भी', चंचुक ने अपना सिर हिलाया ।
'हूँ, तो तुम लोग मुझे घेर रहे हो। मैं शाही घुड़सवार हूँ यह तो तुम्हें जानना चाहिए।' तुर्क ने रोब गालिब करना चाहा।
'शाही घुड़सवार जुल्म के लिए नहीं होता', फ़क़ीर ने कहा । 'उसका काम अवाम की हिफाज़त है। ऐ बेटी, घोड़े से उतर आ।'
"नहीं उतरेगी यह । इन मोम की गुड़िया को मैं चुन कर लाया हूँ। इसे बाँदी बनाऊँगा । यह मेरी परवरिश में रहेगी।' तुर्क ने ऐंठते हुए कहा ।
'यही तो नहीं हो सकेगा।' फ़कीर ने सख्ती से जवाब दिया।
'आदमी की इज्ज़त करना सीखो घुड़सवार।' पारिजात बोल पड़े।
'ऐं, तो तुम भी और सवार तुम भी तुम्हें शायद पता नहीं कि मैं शहंशाह का ख़ास राकिब हूँ । गर वे आ गए तो खोख्खरों की तरह पूरा इलाका नेस्तनाबूद हो जाएगा।'
'घुड़सवार, क्या तुम्हें पता नहीं कि शहंशाह शहाबुद्दीन का कत्ल हो गया है।' चंचुक ने कहा।
‘कत्ल’, सभी चौंक पड़े। तुर्क सैनिक का हाथ ढीला पड़ते ही किशोरी कूद कर बाबा और फ़कीर के बीच में आकर खड़ी हो गई।
'हाँ, झेलम के तट पर खोख्खरों ने रात में उन्हें गोद दिया । "नहीं.........।' तुर्क सैनिक चिल्लाते हुए उड़ चला। 'घुड़सवार, तुम जो कह रहे हो क्या यह हकीकत है?"
फकीर को भी तअज्जुब हो रहा था। 'बिल्कुल सच।’ मैं बाबा से यह बताना चाहता था पर मौका ही नहीं मिला। बीच में यह.....।' चंचुक बोल पड़ा।