55. जब अब्बू ने बुलाया है.. सुल्तान ने कुतुबुद्दीन को सिन्ध बुलाया है। खोख्खरों ने ग़ज़नी जाने वाले मार्ग को छेंक लिया है। भारत से कोई सामग्री ग़ज़नी नहीं पहुँच पा रही। इल्तुतमिश बदायूँ के अपने प्रासाद में पत्नी के साथ बैठे हैं।
सेविका ने आकर आदाब किया?
'हुजूर, कुहराम से कासिद आया है।'
'हाज़िर करो।'
क़ासिद ने आकर सिर झुका आदाब किया। कुतुबुद्दीन की चिट्ठी निकाल कर दी । इल्तुतमिश ने पढ़ा। कासिद को सेविका विश्रामकक्ष में ले गई।
'चिट्ठी में क्या है?"
'मुझे सिन्ध की ओर जाना है। सुल्तान की ओर से बुलाहट है।' 'क्या कोई दिन ऐसा भी है जब हम आराम से रह सकें?' बीवी ने प्रश्न उछाल दिया।
' तुम जिस घर की बेटी हो, उससे यह उम्मीद न थी ।' "क्या इसीलिए मैं आराम की इच्छा नहीं कर सकती ? कैसा समय है? कोई एक दिन भी आराम से बैठ नहीं सकता।'
'सल्तनत चलाना कोई आसान काम नहीं है। चारों ओर बगावतें हो रही हैं। खोख्खरों ने भी बगावत का बिगुल फूँक दिया है। सुल्तान को उनके पर कतरने ही होंगे। सुल्तान की ख्वाहिशें हमारे लिए हुक्म हैं।'
"क्यों कि हम गुलाम हैं।'
"वह तो मेरी किस्मत में लिख गया था।' वे ठठाकर हंस पड़े । 'गुलाम न भी होता तब भी जाना ही होता, बेग़म । मैं कहीं भी रहूँ दिल तो तुम्हारे साथ रहेगा। मेरे दिल की मलिका तो तुम्हीं हो।'
'तसल्ली देने के लिए.... ।' बेग़म से इतना निकला ही था कि उन्हें उल्टी हो गई। बांदी दौड़कर पानी लाई। मुँह धुलाया । बेग़म को बिस्तर पर लिटा दिया । इल्तुतमिश बेगम के मस्तक पर हाथ फेरते रहे। बाँदी ने फर्श साफ की।
‘हकीम को बुला लूँ?”
'कितने अनजान हो तुम?"
"क्यों?"
'इसमें हकीम जी क्या करेंगे? अल्लाह ताला हमारे बीच किसी और को भेज रहे हैं।'
'तुम कितनी दानिशमंद हो!' इल्तुतमिश ने बीवी की हथेली उठाकर चूम लिया ।
' पर आपके साथ गुलाम लफ्ज़ मुझे बहुत खलता है।'
'खते आज़ादी तो मालिक की रज़ा पर ही .... ।'
'मैं अब्बू से कहूँ?"
'इसकी कोई ज़रूरत नहीं। अब्बू हमें कितना प्यार देते हैं।' 'तुम उनके दामाद जो हो।' कहकर बीवी हँस पड़ीं।
'वह तो हूँ ही।'
'तुम कहते हो कि माँ खुत्ता तथा अब्बू इल्बारी तुर्क खानदान से थे और यह गुलामी ।'
'किस्मत जहाँ ले जाए आदमी को जाना ही पड़ता है।'
'पर यह सब कैसे हुआ ?"
'तुम मेरे बचपन के बारे में जानना चाहती हो?"
'हाँ ।'
'बचपन में बहुत खूबसूरत था मैं?"
'वह तो अब भी हो। लड़कियाँ तुम्हें देखती रह जाती हैं।'
'अच्छा! नई ख़बर ।' इल्तुतमिश मुस्करा उठे।
'आगे तो कुछ बताओ।'
'खूबसूरती भी कभी कभी दुःख की वजह बन जाती है।' 'वह तो बनती ही है।'
'मेरी खूबसूरती और दानिशमंदी की वजह से हर कोई मुझे इज्ज़त देता। इससे मेरे चचेरे भाई परीशां होते। मन ही मन वे मुझसे जलने लगे। मुझे इसका पता न था ।'
'तो?"
“एक दिन उन्होंने मुझे घोड़ों का तमाशा दिखाने को कहा। घर वालों से हुक्म मिल गया । मैं गया। घुड़दौड़ और घोड़ों के करतव देखने में मैं मग्न हो गया। मेरे चचेरे भाइयों ने एक सौदागर से मेरा सौदा कर लिया। मुझे सौदागर के हवाले कर चुपके से निकल आए। मैं इन्तज़ार करता रहा। मुझे कुछ पता न था। जब चलने को हुआ तो सौदागार ने बताया कि वह बिक चुका है। मुझे बहुत दुःख हुआ। पर अब क्या कर सकता था?"
'तो तुम बेच दिए गए और तुम्हें पता तक नहीं ।'
'हाँ ।'
'ओह! या अल्लाह ! तुम इतने नादान थे? तुम्हारी उम्र कितनी थी।'
'मैं दस साल का था।'
'फिर क्या हुआ ?"
' सौदागर मुझे लेकर बुखारा चला गया। वहाँ सद्रेजहाँ के एक रिश्तेदार ने मुझे ख़रीद लिया। मेरे मालिक बहुत रहमदिल थे। मुझे अपने बच्चे की तरह प्यार करते। मैं सोचता, चलो मुझे एक अच्छा मालिक मिला। मैं बड़ी मुस्तैदी से काम करता। मालिक मुझ पर बहुत यकीन करते। मेरे काम से वे मुतमईन रहते। मैं भी ख़िदमत में कोई कसर नहीं छोड़ता । मालिक के यहाँ दरवेशों की महफिल लगती । रातभर कव्वाली होती । मुझे मोमबत्ती गुल काटने का काम मिलता। मैं रोशनी करने के लिए रातभर डटा रहता । मालिक बहुत खुश होते।'
'बहुत मेहनत करते थे आप ।'
“हाँ, वह तो करना ही था। एक बात तुम्हें बताऊँ?”
'कौन सी?"
‘मालिक के घर एक सिक्का दिया गया कि बाज़ार से अंगूर ले आओ। मैं बाज़ार चला गया। पर रास्ते में सिक्का कहीं गिर गया। मेरे तो होश उड़ गए। पूरे रास्ते मैंने खोजा पर सिक्का नहीं मिला। अब क्या करूँ बार बार सोचता ? मेरी आँखों से अश्क बहने लगे। एक दरवेश ने मुझे रोते देखा। वह नज़दीक आ गया। पूछा, 'क्यों रो रहे हो?” मैंने वज़ह बताई। उसने मुझे एक सिक्का दिया। मैंने झुककर आदाब किया । चलने लगा तो कहा, 'रुको।' मैं रुक गया। 'आगे से फकीर और दरवेश की इज्जत करोगे । ' मैंने मानते हुए सर झुकाकर फिर आदाब किया। खुशी खुशी अंगूर खरीदा और लौट आया । तभी से दरवेशों को देखकर मेरा मन अकीदत से भर जाता है।'
'पर अब्बू के पास कैसे आ गए?"
' बताता हूँ। बड़ी दिलचस्प कहानी हैं। कुछ दिन यों ही कटे । एक सौदागर थे हाजी बुखारी। उन्होंने मुझे खरीद लिया। हाजी साहब के यहाँ कुछ दिन रहा। जो बन पड़ा, उनकी ख़िदमत की। पर वे सौदागर थे। उन्होंने मुझे जमालुद्दीन चुस्तकबा को बेच दिया । चुस्तकबा एक होशियार सौदागर थे। मुझसे कुछ ज्यादा ही दाम वसूलना चाहते थे । गुलामों के भी भाव चढ़ते उतरते रहते। मेरी खूबसूरती, मेहनत, दानिशमंदी की चर्चा होने लगी। गुलामों में मेरा भाव कुछ ज्यादा ही बढ़ा। गाहक मुझे ख़रीदने के लिए आने लगे।'
'भेड़ बकरी की तरह आपका मोल भाव अच्छा लगता था ? "
'अच्छा बुरा लगने का सवाल कहाँ उठता था?"
'ओह! आपकी तकलीफों का कोई छोर नहीं था।' बेगम की आँखें भर आई ।
'चुस्तकबा मुझे लेकर ग़ज़नी आ गए। गुलाम और बाँदियाँ नख़्ख़ास में ही बिकते। मुझे भी नख़्ख़ास में खड़ा किया गया। बोलियां लगीं पर चुस्तकबा कुछ ज्यादा ही वसूलने के फेर में थे। नहीं बेचा। लोगों ने सुल्तान शहाबुद्दीन गोरी को मेरे बारे में बताया। उन्होंने मुझे खरीदना चाहा। चुस्तकबा को बुलाकर बात की। सुल्तान ने मुझे भी देखा । खुश हुए। सुल्तान ने जो दाम देना चाहा उतने पर चुस्तकबा तैयार नहीं हुए। सुल्तान को गुस्सा आ गया। उन्होंने फर्मान जारी करा दिया कि इस्तुतमिश को ग़ज़नी में कोई नहीं खरीदेगा। सालों चुस्तकबा इन्तज़ार करते रहे पर सुल्तान के डर से ग़ज़नी में कोई मुझे ख़रीदने नहीं आया। मुझे लेकर चुस्तकबा बुखारा चले गए। तीन बरस बाद मुझे लेकर वे फिर ग़ज़नी आए पर अब भी कोई खरीदने के लिए तैयार न होता। मेरी शोहरत बढ़ रही थी पर खरीदार कोई न आता। गुजरात जीतने के बाद अब्बू ग़ज़नी गए। सुल्तान से मिले। उन्हें मेरे बारे में पता चला। उन्होंने ख़रीदना चाहा। सुल्तान से बात की। उन्होंने कहा, 'यहाँ मैंने मना कर रखा है। चुस्तकबा इल्तुतमिश को हिन्द ले जाएँ। वहाँ खरीद सकते हो।' चुस्तकबा ने वैसा ही किया। मुझे लेकर दिल्ली आए । अब्बू ने यहीं मुझे ख़रीद लिया। मैं अब्बू का बहुत शुक्रगुजार हूँ कि वे एक के बाद एक तोहफे देते रहे।'
' पर आपमें काब्लियत थी तभी तो?"
'पर काबिल तो बहुत होते हैं सबको मौका कहाँ मिल पाता है? अब्बू ने जब मुझे सरजानदार (सुल्तान का अंगरक्षक) बनाया, मेरी आँखें भर आई थीं।'
'आपने बहुत मेहनत की । '
‘वह तो मेरी फ़ितरत में था। धीरे धीरे अब्बू की निगाह में मैं चढ़ता गया। उन्होंने मुझे अमीर शिकार बना दिया। ग्वालियर फ़तह से अब्बू बहुत खुश हुए और मुझे वहाँ का अमीर बना दिया। बाद में बरन और आसपास का अक़ताअ दे दिया। आज उन्हीं की नज़रे इनायत से बदायूँ का सूबेदार हूँ और तुम जैसी बेगम का शौहर ।' ' और बेग़म ऐसी जो तरह तरह के सवाल करती है।'
'जरूर, ज़रूर सवाल न हों तो प्यार का पता कैसे चले?"
'और प्यार ही इबादत है न ?” कहते हुए इल्तुतमिश के हाथों को अपनी छाती पर दबा लिया । 'है ही, मुझे हुक्म दे रही हो न ?"
'जब अब्बू ने बुलाया है तो जाना ही है। पर मन थोड़ा....।'
'मैं समझ रहा हूँ । पर......।'
56. प्राण पखेरू उड़ गए
रात में अमीरों से विचार विनिमय हुआ। सभी दुःखी थे। ऐसी जगह आकर फँस गए। जनता की ऐसी एकता कहीं देखी नहीं थी। जंगलों, पहाड़ों से तीर आते थे पर व्यक्ति नहीं दिखता था ऐसा युद्ध ! खाद्य सामग्री जो कुछ थी सैनिकों में बाँटी गई। किसी तरह रात कटी।
सुबह हुई। सामने जली हुईं घासें। परिवेश देखकर सैनिक दहल उठे। ऐसी कष्टकर स्थिति की कल्पना नहीं की थी। घोड़े भूखे थे पर यात्रा शुरू हुई। पहाड़ी रास्तों का चढ़ना-उतरना, पराजय की हताशा सैनिकों को थका देने के लिए पर्याप्त। जो घायल हुए थे उनमें कई अपने प्राण छोड़ गए। कइयों के घाव सड़ने लगे। क्या तीरन्दाज़ों ने तीरों में कुछ लगा रखा था? हो सकता है कोई विष लगा दिया हो ।
यात्रा में खाद्य सामग्री का अभाव बढ़ता गया। घोड़े भी भूख से तड़पते रहे। जब सैनिकों के भोजन के लिए कुछ न रहा तो घोड़ों को ही मारकर खाया जाने लगा । बहुत से सैनिक बीमार हो गए। उनके उपचार की कोई व्यवस्था न हो सकी। आपत्तिकाल में दिनरात ख़ुदा का ही नाम जपते रहे । पन्द्रह दिनों की कठिन यात्रा के बाद बचे खुचे सैनिकों के साथ बख्तियार उस पुल के निकट पहुँचे जिसकी सुरक्षा के लिए दो अधिकारियों को नियुक्त कर गए थे। उन दोनों का पता नहीं। पुल को आसपास के लोगों ने तोड़ दिया था। उन्हें बख्तियार के आक्रमण और लौटने की सूचना मिल चुकी थी। पुल की सुरक्षा में नियुक्त एक खल्जी सैनिक किसी प्रकार बख्तियार से मिला। उसने बताया कि तुर्क और खल्जी अधिकारी आपस में किसी पुरानी बात पर लड़ पड़े। सभी सैनिक दो समूहों तुर्क और खल्जी में बँट गए। आपस में मारपीट की। निकट के लोगों ने सुना तो वे भी आ गए। पहाड़ियों पर छिप कर वार करते। उनके तीर आते पर उनका पता न चलता। दोनों समूह अब लड़ना छोड़कर भाग चले। पुल को ग्रामवासियों ने तोड़ दिया। बख्तियार ने लम्बी साँस खींची। सुना जाता है कि कहीं ऊपर से कोई फर्मान जारी हुआ था ।
सैन्यबल की हताशा के बीच बख्तियार सोच विचार करते रहे। नदी पार करने का कोई साधन नहीं, एक नाव तक उपलब्ध नहीं थी। कहीं शरण लेने की आवश्यकता थी। हिन्दुओं की आबादी। उनका रुख भी आक्रामक। एक मंदिर का पता चला। उसका परिसर काफी बड़ा था। कैसा संयोग ? मंदिर ध्वस्त करने वाला बख्तियार मंदिर में शरण के लिए उपस्थित हुआ। मंदिर में सोने चाँदी की बड़ी मूर्तियाँ थी। बख्तियार ने मंदिर के पुजारी से अपनी कठिनाई बताई। पुजारी दयावान था। कहा, 'जीव ही जीव के काम आता है।' बख्तियार मंदिर परिसर में ही रहकर नदी पार करने के लिए नाव आदि की तैयारी में जुट गया। कामरूप के राजा को बख्तियार के कठिनाइयों की जानकारी थी। उसके बिहार एवं बंग अभियान से भी अवगत था। वह बख्तियार से मित्रवत व्यवहार के पक्ष में था बख्तियार ने अपने अभियान में तलवार की नोक पर इस्लाम कबूल कराने का प्रयास किया था। कामरूप के राजा को जब इसकी जानकारी हुई, वह चिढ़ गया। उसने बख्तियार की सेना को घेरने का आदेश दे दिया। कामरूप के सैनिकों ने मंदिर को घेर लिया। बाँस के भाले बनाकर वे बख्तियार की सेना के चारों ओर दीवार खड़ी करने लगे। बख्तियार के सैनिकों ने देखा। वे घबड़ा गए, बख्तियार से मिलकर बताया। अब एक ओर अगम नदी और दूसरी ओर कामरूप की सेनाएँ एवं जनबल। किसी तरह बख्तियार को भागना ही था। कामरूप का दबाव बढ़ा। नदी पार करने का कोई साधन बन नहीं पाया। अनेक तुर्क एवं खल्जी सैनिक मार दिए गए। जब बचने का कोई उपाय नहीं दिखा तो एक घुड़सवार ने अपने घोड़े को नदी में फँदा दिया। तीर की मार तक वह नदी में चला गया। उसकी देखा देखी अन्य सैनिकों ने भी अश्वों को फँदा दिया। पर कुछ दूर जाने पर नदी गहरी थी, उसका बहाव भी तेज़ था। कामरूप की सेनाओं से बचने के लिए कोई विकल्प भी नहीं था। जो नदी में नहीं कूद सके, वे मार दिए गए। जो कूद गए उसमें से बहुत नदी में बह गए। किसी तरह बड़ी मुश्किल से बख्तियार सौ घुड़सवारों सहित बच सका। जो बचे उन्होंने राहत की सांस ली पर बख्तियार को जैसे साप सूँघ गया हो। जिसने कभी पराजय का स्वाद न चखा हो उसकी इतनी बड़ी दुर्दशा! इस्लाम में दीक्षित कुच और मेज़ लोगों को जब सूचना मिली। वे बख्तियार से आकर मिले। किसी तरह उन्हीं के मार्गदर्शन में वह देवकोट पहुँच सका। अपने प्रासाद में कैद हो गया। जिन सैनिकों ने मौत का आलिंगन किया उनकी पत्नियाँ, बच्चे बख्तियार को बुरा भला कहते। चुपचाप सुन लेने के अतिरिक्त बख्तियार क्या कर सकता था? वह स्वयं आहत था। प्रासाद से बाहर न निकला। बहुत भयंकर आघात लगा था उसे बीमार रहने लगा। किसी से मिलना-जुलना बन्द कर दिया। केवल कुछ खल्जी सेवक ही उससे भेंट कर पाते।
उसे गर्मसीर याद आने लगा। ग़ज़नी और सीस्तान के बीच बसा हुआ। वहीं वह पैदा हुआ था। खुदा ने उसकी शक्ल-सूरत ऐसी बनायी थी कि वह किसी को प्रभावित नहीं कर पाता। वह भागकर भारत आया था। यहाँ भी क्या कम पापड़ बेलने पड़े। यह तो कहो मामू ने उसे काम दिया। फिर उसने मुड़कर नहीं देखा। घोड़े की पीठ पर ही उसने बिहार, बंगभूमि नाप डाली। लक्ष्मण सेन जैसे राजा को नदिया से भागने के लिए विवश किया। लखनौती, देवकोट आबाद किया पर अब? इतनी घोर पराजय की कल्पना भी नहीं की थी उसने असम-तिब्बत अभियान में मारे गए सैनिकों की विधवाएँ, बच्चे उसे शैतान बता रहे हैं। देवदूत और शैतान के बीच की दूरी क्या इतनी कम है? वह सोचता रहा। सीस्तान के ख्वाजा मुईनुद्दीन जैसे सुल्तान का वरद हस्त, तब भी....। कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रहा वह। अली मर्दान खल्जी जो नारकुई का अमीर था, को बख्तियार के दुर्दशा की सूचना मिली। उसकी महत्त्वाकांक्षाएँ बहुत ऊँची थीं। उसने कुछ सोचा। यही समय है। देवकोट आ गया। खल्जी सेवकों से मिला। बख्तियार तीन दिन से किसी से मिला न था । अस्वस्थ था ही, एक चद्दर ओढ़े लेटा था। अली मर्दान अन्दर घुसा। एक नज़र बख्तियार को देखा । क्षण भर ठिठका पर दूसरे क्षण झपट कर कटार बख्तियार के पेट में भोंक दी। वह तड़फड़ाया पर कटार का दबाव बढ़ता गया। कुछ ही क्षण में उसके प्राण पखेरू उड़ गए। जिस तीव्रता से उसने अपना राज फैलाया था उससे अधिक तीव्रता से उसने यह जगत छोड़ दिया।