शाकुनपाॅंखी - 30 - अजयमेरु में दीप जले Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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शाकुनपाॅंखी - 30 - अजयमेरु में दीप जले

42. अजयमेरु में दीप जले
आज अजयमेरु में घर घर दीप जल रहे हैं। चाहमान नरेश हरिराज ने सुल्तान के सैनिकों को भगा दिया है। वीथियाँ और गलियारे जगमगा रहे हैं।
गोविन्द को भागकर रणथम्भौर के किले में शरण लेनी पड़ी जहाँ किमामुल मुल्क रुहुद्दीन हम्ज़ा किले की देखरेख कर रहे हैं। हरिराज और स्कन्द को इतना जन समर्थन मिलेगा इसकी कल्पना भी करना कठिन था । गोविन्द से जुड़े भट उसके साथ चले गए।
हरिराज ने स्वतंत्र होकर कार्य करना प्रारंभ किया। सुल्तान के सैनिकों से त्रस्त समाज राहत का अनुभव करने लगा। घर घर पुनः मंगलगान । स्कन्द ने प्रशासन को व्यवस्थित किया। भय और आतंक के वातावरण से मुक्ति के लिए रक्षकों को नियुक्त किया। सैन्यबल को सुदृढ़ करने का प्रयास किया जाने लगा पर कोष खाली था। जनता लूट से त्रस्त थी। महाराज हरिराज ने आमात्यों सम्भ्रांत जनों, मांडलिकों से विमर्श किया। सैन्यबल जुटाने में कोष रिक्तता की बात रखी। विचार चल ही रहा था कि एक वृद्धा एकमुटरी लिए प्रतोली द्वार पर महाराज से मिलने का आग्रह करने लगी। द्वार पाल ने अध्यक्ष से सम्पर्क किया। अनुमति मिलते ही वृद्धा आनंदित हो उठी । प्रहरी जब तक महाराज से निवेदन करें, वृद्धा सभा मध्य पहुँच गई।
'महाराज, उसने हाथ जोड़कर कहा ।
‘मेरे बेटे को सुल्तान के लोग पकड़ ले गए हैं। बाप पहले ही उनका शिकार हो चुका था। अब मैं यह स्वर्ण आभूषण किसके लिए रखूँ? यह मुटरी रख लीजिए। राजकोष लुट गया है। इस धन से सैन्यबल खड़ा कीजिए जिससे फिर किसी का बेटा पकड़कर न ले जाया जा सके।' कहते वृद्धा रो पड़ी। 'माँ, तेरी इच्छा पूरी होगी।' महाराज हरिराज बोल पड़े। सभी उपस्थित सदस्य कसमसा उठे ।
'चलती हूँ महाराज' माथ नवा वृद्धा लौट पड़ी। सदस्यों को एक नई दृष्टि मिली। जनता लूट से त्रस्त अवश्य है पर वह सुरक्षात्मक सैन्यबल के लिए कुछ भी करने को तैयार है। जन जन में इसकी चर्चा चल पड़ी। जन-जागरण का एक नया रूप विकसित हुआ । नारियाँ अपने आभूषण निकाल कर देने लगीं। 'महाराज आप आगे बढ़ें, जन-धन से हम सहयोग करेंगे, का आह्वान गूंज उठा।
स्वेच्छा से लोग अंशदान करने लगे। हरिराज भी उत्साह से परिपूर्ण थे। हर तंत्र में लाभान्वित होने वालों का एक वर्ग विकसित हो जाता है । गोविन्द के समय में लाभान्वित हो रहे लोग अब छिपकर कुतुबुद्दीन को सूचनाएँ भेजने लगे। कुतुबुद्दीन स्वयं दिल्लिका के विद्रोह को दबाने में लगा था। चारों और विद्रोह की ही ख़बर । जब तक दिल्लिका में शान्ति न हो कुतुबुद्दीन अजयमेरु की और कैसे कूच कर सकता था?
हरिराज और स्कन्द दिन रात एक कर अजयमेरु को सुव्यवस्थित करने में लगे थे । कुतुबुद्दीन को सूचनाएं मिल रही थीं पर वह विवश था। थोड़ी सेना भेजकर वह अप्रीतिकर स्थिति नहीं पैदा करना चाहता था । स्कन्द के संगठन कौशल से वह परिचित था। उसने दिल्लिका को ही व्यवस्थित करने में पूरी शक्ति लगाई |
हरिराज निरन्तर शक्ति अर्जन में लगे रहे। जन सहयोग बढ़ने पर उन्हें दिल्लिका की चिन्ता सताने लगी। पत्नी प्रतापदेवी से उन्होंने चर्चा की। उसने भी उत्साहित किया। यदि दिल्लिका भी अपने अधिकार में आ जाए तो चाहमानों की प्रतिष्ठा पुनः स्थापित होने में देर नहीं लगेगी। महादण्डनायक स्कन्द अजयमेरु के आसपास के क्षेत्रों को एकजुट करने में लगे थे। जैतराव और हरिराज में विचार विमर्श हुआ।
'दिल्लिका के विद्रोह का लाभ लिया जा सकता है', जैतराव ने परामर्श दिया। ' पर किसके नेतृत्व में', जैसे ही हरिराज के मुख से निकला, जैत राव बोल पड़े 'मैं ही इस अभियान की अगुवाई करता हूँ । कुतुबुद्दीन को पता चल जाएगा कि जैतराव से भिड़ने का अर्थ क्या होता है?"



43. राख और चिनगारियाँ

कुतुबुद्दीन को नींद नही आ रही थी। एक किले को अपने कब्जे में कर पाता तो दूसरी ओर से विद्रोह की ख़बर आ जाती। उसे शहाबुद्दीन गोरी का असीम स्नेह मिला। पर वह अब भी सुल्तान का गुलाम था। उसके माता पिता तुर्क थे। बाल्यावस्था में ही उसे गुलाम बनना पड़ा। वह निशापुर लाया गया जहाँ काज़ी फखरुद्दीन अब्दुल अजीज कूफी ने उसे खरीद लिया। काज़ी की मौत के बाद उसे फिर बिकना पड़ा। बिकते बिकते वह शहाबुद्दीन गोरी का गुलाम हुआ। काज़ी के यहाँ उसने कुछ लिखना पढ़ना और घुड़सवारी सीख ली थी । वह बहुत सुन्दर तो नहीं था किन्तु शरीर गठा था। धीरे धीरे सैन्यकला में भी निपुण होता गया । गोरी के यहाँ वह बड़ी निष्ठा से अपना दायित्व निभाता रहा।
शहाबुद्दीन गोरी उसकी कार्य कुशलता, साहस एवं स्वामिभक्ति से बहुत प्रभावित हुआ। उसने कुतुबुद्दीन को एक गुल्म नायक बना दिया। गोरी का विश्वास अर्जित कर वह अस्तबलों का अध्यक्ष बना । तराइन के द्वितीय युद्ध के बाद भारत में सुल्तान का वही प्रतिनिधित्व करता रहा पर गुलामी से मुक्ति नहीं मिली। उसकी स्वामिभक्ति असाधारण थी। गोरी के संकेतों को वह बहुत अच्छी तरह समझता था । वह सोचता रहा, क्या कभी वह स्वतंत्र भी हो सकेगा? दिन रात युद्ध की विभीषिका । उत्थान और पतन । पुनः उत्थान । यही तो उसकी ज़िन्दगी है । किसी राज को बनाने में कितना श्रम करना पड़ता है यह वही जानता है।
अजयमेरु पर हरिराज का अधिकार उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती है। वह सुल्तान को कैसे मुँह दिखा सकेगा? उसके तुर्क और खल्जी सैनिक खपते जा रहे थे । यहाँ के सैनिकों से वह काम तो लेता था किन्तु विश्वास नहीं कर पाता था । उसे सूचना मिली कि हरिराज का एक सेनापति जैतराव दिल्लिका पर आक्रमण की योजना बना रहा है। उसने अपनी सेना के साथ अजयमेरु की ओर प्रस्थान किया। जैतराव यद्यपि अजयमेरु से निकल चुका था किन्तु कुतुबुद्दीन के प्रस्थान की सूचना पाते ही उसने अपनी सेना को अजयमेरु की ओर मोड़ दिया । अजयमेरु के दुर्ग से युद्ध का संचालन उसे उचित लगा। कुतुबुद्दीन की सेनाएं बिना किसी अवरोध के अजयमेरु के निकट पहुँच गईं। हरिराज एवं जैतराव ने दुर्ग के अन्दर अपने सैन्यबल को व्यवस्थित किया। कुतुबुद्दीन के घेरे को तोड़ने के प्रयास चलते रहे। दोनों ओर की सेनाएँ एक दूसरे को पराजित करने के लिए उमड़ीं पर कोई निर्णायक स्थिति नहीं बन पाई। कुतुबुद्दीन के सैनिक हताहत हो रहे थे। उसकी अपेक्षा चाहमान अधिक सुरक्षित थे। कई बार तुर्क सैनिकों ने दुर्ग पर चढ़ाई की पर उन्हें सफलता न मिल सकी । कुतुबुद्दीन की चिन्ता बढ़ी। यदि अजयमेरु निकल गया तो भारत में उसके पैर नहीं जम सकेंगे। दुर्ग पर विजय सम्भव न देख कुतुबुद्दीन ने दुर्ग की आपूर्ति रेखा को काटने का मन बनाया । पर गुप्त द्वारों का पता लगाना सरल नहीं था । अपने भेदिए उसने इस कार्य के लिए लगाए पर वे सफल न हो सके। दुर्ग के अन्दर खाद्य सामग्री और जलापूर्ति में कोई बाधा नहीं पड़ी। चाहमान उत्साहित थे।
कुतुबुद्दीन ने गोविन्द के विश्वासपात्र कर्मियों से सम्पर्क साधा। पर वे भी कुछ सूत्र देने के अलावा कोई सहायता नहीं कर सके। कुतुबुद्दीन का घेरा कसता गया । आपूर्ति को बाधित करने के लिए कुतुबुद्दीन ने अपने विश्वास पात्र सैन्य सरदारों के साथ दुर्ग और आसपास के क्षेत्रों का निरीक्षण किया। उसने कुछ ऐसी जगहों की पहचान की जिनको घेरे में लेने पर संभव है आपूर्ति बाधित हो जाए। उसने तुरन्त निर्णय लिया और कुशल सरदारों को ऐसी संवेदनशील जगहों पर लगा दिया।
परिणाम सकरात्मक हुआ। दुर्ग की आपूर्ति बाधित होते ही हरिराज जैतराव सहित सेनाध्यक्षों की बैठक हुई। अब प्रतीक्षा नहीं की जा सकती। जो सामग्री उपलब्ध है उसी को ध्यान में रखकर रणनीति बनानी है। युद्ध को और टाला नहीं जा सकता था।
जैतराव के नेतृत्व में चाहमान सेना ने मोर्चा सँभाला। दोनों ओर से घमासान होने लगा। दुर्ग के कारण चाहमान अपने को सुरक्षित अनुभव कर रहे थे। पर तुर्क सेना का दबाव बढ़ने पर चाहमान सेना में ही हताहतों की संख्या बढ़ने लगी । कुतुबुद्दीन के सहयोगी इजुद्दीन ने जैतराव को ललकारा। जैतराव ने अपने सैनिकों को दुर्ग से उतार दिया। स्वयं भी वह युद्ध भूमि में उतर गया। उतरते ही चाहमान सेना को तुरुष्क सेना ने घेर लिया। भयंकर युद्ध में अधिकांश चाहमान खप रहे। दुर्ग द्वार पर दोनों ओर की सेनाएँ डटी रहीं। जैतराव यद्यपि अपना रणकौशल दिखाते रहे पर तुर्क सैनिक दूरी बनाकर तीरों से वार करते रहे। सूर्य देव क्षितिज से नीचे उतरने की तैयारी कर रहे थे, जैतराव का शरीर तीरों से छलनी हो चुका था। चाहमान भटों ने उन्हें दुर्ग के अन्दर कर लिया पर वे बच नहीं सके। दुर्ग में सैनिकों की संख्या बहुत कम रह गई थी । कुतुबुद्दीन की सहायता के लिए रणथम्भौर से भी सेना आ गई। तुरुष्कों का मनोबल बढ़ गया।
रात में हरिराज ने अपने सैनिकों से विमर्श किया। अब जीत की संभावना नहीं रह गई थी। प्रतापदेवी ने प्रस्ताव रखा कि महिलाएं किसी तुरुष्क के हाथ न पड़ें इसलिए उन्हें जौहर कर लेना उचित होगा। किसी ने प्रतिवाद नहीं किया।
निश्चित किया गया कि अब शेष सैनिकों के साथ हरिराज के नेतृत्व में अन्तिम प्रयास हो । सैनिकों ने जोश के साथ 'हर हर महादेव' की उद्घोषणा की। । चिताएँ बना दी गईं। नारियों ने श्रृंगार कर चिता के समीप आसन लगा लिया। द्वार पर चाहमान और तुरुष्कों में घमासान प्रारंभ हुआ और इधर चिताएँ जल उठीं।
चाहमान और तुरुष्क आहत हो गिरने लगे। दोपहर तक यही क्रम चलता रहा । भट गिरते रहे और नारियाँ जौहर करती रहीं । हरिराज का कौशल भी कुछ काम नहीं आया। उनके भट बहुत कम रह गए तब उन्हें लगा कि वे बन्दी बनाए जा सकते हैं। यह उन्हें स्वीकार नहीं था। महाराज पृथ्वीराज की स्थिति वे देख चुके थे। उन्होंने अपने अश्व को पुचकारा। उसने उन्हें लेकर छलांग लगाई। वे चिता के पास पहुँचे और 'हर हर महादेव' कहकर चिता में कूद गए। तुरुष्कों ने पुनः अजयमेरु पर अधिकार कर लिया। पर हरिराज उन्हें नहीं मिल सके। मिली केवल आग, चिंगारियां और राख । कुतुबुद्दीन ने तुर्क सैनिकों की एक सभा की बहादुरी के लिए उन्हें सम्मानित किया। अजयमेरु का शासन अपने हाथ में लेते हुए अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया । रणथम्भौर की जागीर गोविन्द को प्रदान करते हुए उसे व्यवस्थित किया ।