27. मस्ज़िद तामीर हो गई
अजयमेरु को शाह के सैनिकों ने जी भर लूटा। सरस्वती मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाने का कार्य चलता रहा। शाह को अजयमेरु में आज तीसरा दिन है। नगर और उसके आसपास भय और आतंक कुलांचे मार रहा हैं। खेल खेल में बहुत से लोग मौत के घाट उतार दिए गए।
शाह अपने सिपहसालारों के साथ बैठक कर रहे थे। इसी बीच पहरेदार से एक सूफी ने पूछा, 'सुल्तान हैं?'
'हाँ हैं', ख़ास लोगों के साथ इजलास कर रहे हैं।......'पहरेदार ने कहा ।
'उन्हें बताओ एक फ़कीर मिलना चाहता है।' पहरेदार ने सुल्तान को सिर नवा तीन बार आदाब कर सूचित किया है कि फ़कीर भेंट करना चाहता है।
'बुला लो', शाह ने कहा ।
'जो हुक्म', कहकर सिर नवा तीन बार आदाब कर लौट पड़ा। फकीर को लेकर पुनःउपस्थित हुआ । फ़क़ीर को देखकर शाह अचम्भे में पड़ गया। यह वही फ़कीर था जो पेशावर में मिला था। शाह ने उसे बाइज्ज़त बैठाया
'आखिर भेंट हो ही गई', शाह ने हँसते हुए कहा ।
'वह तो होना ही था,' फकीर ने भी मुस्कराते हुए उत्तर दिया।
'तुम मुझे रोक रहे थे। देखो मेरी फ़तह हुई । इस्लाम का झंडा बुलन्द हुआ।' शाह ने प्रसन्नतापूर्वक बयान किया।
'आपकी फतह हुई होगी। पर इस्लाम की बुलन्दी का सवाल ही नहीं उठता। इस्लाम को अन्धी खोह में खींचने का यह आपका तरीका इंसानियत का कत्लगाह बन जाएगा। कत्ल करना ही आदमी का फ़र्ज़ नहीं है।' फकीर ने तर्जनी से संकेत करते हुए बात कही। 'इन्सान के दिल में मुहब्बत का चिराग जलाओ सुल्तान, नफ़रत का नहीं ।' 'इसका मतलब, मैं अपनी फतह की हुई रियासतें छोड़ दूँ।' शाह का पारा कुछ गर्म हो गया था । 'छोड़ सको तो छोड़ दो। नफरत पैदा करने वाले कारनामें अल्लाह की ओर नहीं ले जाते।'
फ़क़ीर एक ही रौ में बोलता रहा। 'सुना है तुम मंदिर गिरा कर मस्जिद तामीर करवा रहे हो। मस्जिद तो कहीं भी बन सकती थी। सुल्तान महमूद की तरह तुम भी बुतशिकन कहलाना चाहते हो। पर कौमों के बीच जो नफरत की आग बो रहे हो क्या कभी वह बुझ सकेगी? इन्सानी जिन्दगी तबाह हो जाएगी। तुम देखने को तो न रहोगे, पर आने वाली औलादें इस आग से झुलसती रहेंगी। किसी कौम की इज्ज़त को धूल में मिलाना भाईचारे के उसूल से मेल नहीं खाता। चौहान ने तुम्हें हराया था। पूरी कौम तुम्हारी दुश्मन कैसे हो गई? इस मंदिर ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था ? दुश्मनी की इस खाई को पीढ़ियां भी पाट नहीं पाएंगी। गर इन्सानियत जीती तो एक दिन तुम्हें इन्सान के दुश्मन के तौर पर देखेगी। सुल्तान ज़रा सोचो आखिर महमूद के बनाए हुए सोने चाँदी जवाहरातों से भरे महलों को लोगों ने जला कर खाक कर दिया था या नहीं।' 'तुम सुल्तान से भेंट करने आए हो या तनकीद करने', कुतुबुद्दीन गर्म हो कर बोल पड़े।
'ठीक कहते हो, मुझे इस्लाह देने का कोई हक नहीं क्योंकि सुल्तान उसूल और कानून से ऊपर हैं। पर मैं एक छोटी सी बात कहने के लिए इधर चला आया।' फ़क़ीर कहता गया।
'कौन सी बात?' सुल्तान ने पूछा।
‘छः वर्षों में आपका और चौहानों का कई बार साबिका पड़ चुका है। अपनी हार का बदला लेने के लिए ही आपने यह जंग जीती। हार का बदला तो हो गया। पर चौहान ने कई बार जीत कर आपके सिपहसालारों को छोड़ दिया। आज आप चौहान को छोड़कर इसका भी बदला चुका सकते हैं।'
'तब तो जीत भी हार में बदल जाएगी', सुल्तान हँसते हुए कह उठा।
'फकीर, तुम हो बहुत मज़ेदार आदमी तुम्हारी बातें दिल में छेद कर देती हैं। तुम्हारी अर्ज़ पर गौर करूंगा। अभी तो मैं कोई वादा नहीं कर सकता। सोना, चाँदी जो भी चाहो तुम भी ले जा सकते हो।'
'फकीर के लिए इबादत ही सोना है। यह सोना, चाँदी तुम्हें ही मुबारक हो। मैं चला। " फ़क़ीर इजलास से बाहर हो गया। सिपहसालारों को फक़ीर की बात चेतावनी सी लगी। सुल्तान स्वयं रुचि ले रहा था इसीलिए वे चुप थे अन्यथा उसे इजलास से बाहर ही कर देते।
'हुजूर', कुतुबुद्दीन ने कहा, 'यह फ़कीर चौहान की तरफदारी करता मालूम होता है और आप इसकी बातें बड़े गौर से सुनते हैं।' 'सुनना ही चाहिए', सुल्तान ने कहा । "यह फ़क़ीर कितना पाक दिल है, यह तो देखो। वह इन्सानियत की बात करता है, चौहान की नहीं।'
'पर उसकी बातें तीर सी लगती हैं, कुतुबुद्दीन से न रहा गया।
'सही बातें तीर की तरह चुभती ही हैं', सुल्तान ने बात पूरी की।
इजलास के और लोग केवल सुनते रहे। कुछ मुस्कराते और कुछ रोष में आ जाते, पर सुल्तान का रुख देखकर जब्त कर जाते।
'हुजूर, मस्जिद नमाज़ पढ़ने लायक तामीर हो गई है', ख़बरगीर ने आकर सिर नवाया। सुल्तान सहित सभी खुश हो उठे ।
ढाई दिन बहुत नहीं होते.......। हमारे कारीगरों ने रातदिन मेहनत करके मस्जिद खड़ी कर दी। इबादत के लिए एक तरह का बुलावा है। चलो चलें ।' सुल्तान के उठते ही सभी उठ पड़े।