अपनी आदत के अनुसार ही शर्माजी आज भी सुबह ही घूमने निकल गए। कमर का दर्द अब पहले से काफी कम हो गया था इसलिए अब फिर से उन्होंने धीरे-धीरे अपनी पुरानी दिनचर्या शुरू कर दी थी। करीब महिनाभर के आराम के बाद जब वे पहली बार घर से बाहर निकले तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि पूरा का पूरा मौहल्ला एकदम साफ-सुथरा, बिल्कुल वैसा ही जैसा वो सोचा करते थे कि ऐसा होना चाहिए लेकिन लोग समझते ही नहीं थे। ऐसा कौनसा चमत्कार हो गया मेरे बीमार होते ही लोगों में कहाँ से समझ आ गई यह तो समझ में नहीं आ रहा है। उन्हे बिल्कुल भी नहीं मालुम था कि रवि और उसके दोस्तों ने शर्मा जी तबियत बिगडने के बाद लोगों को समझाना शुरू किया और खुद भी शर्मा की तरह ही साफ-सफाई का काम करते थे।
शर्माजी सोचने लगे चलो कभी तो लोगों को समझ आयी कि मौहल्ला साफ-सुथरा होना चाहिए। वे अपने ही खयालों में चलते जा रहे थे कि अचानक ही एक गली के मोड़ पर भीड़ जमा देखी। तरह-तरह की आवाजे आ रही थी। अपने स्वभाव और उत्सुकता के वश - शर्मा जी उधर चले गए। भीड़ और कोलाहल के कारण पहले तो समझ ही नहीं आ रहा था कि आखिर माजरा क्या है लेकिन भीड़ के अन्दर जाकर देखने से पता चला कि वहाँ पर एक नवजात शिशु नाली के पास कचरे के ढेर में पड़ा है और शायद कुछ सांसें अभी बाकी है। शिशु के जिन्दा होने की बात सुनकर शर्माजी ने कहा बातें बाद में कर लेना पहले इसे अस्पताल पहुंचाते है। सभी ने कहा अरे बड़े दिनों के बाद शर्माजी को देखा है चलो जल्दी से इसे अस्पताल लेकर चलते है। एक रिक्शा का इन्तजाम कर शर्माजी एक दो लोगों के साथ उस शिशु को शहर के बड़े अस्पताल लेकर गए। शर्माजी के आने से पहले न जाने कब से लोग भीड़ जुटाकर खड़े थे लेकिन कोई भी यह तय नहीं कर पा रहा था कि आखिर इस मृतप्रायः शिशु का क्या करें.? सभी उसकी माँ को कोस रहे थे। घोर कलयुग है, माँ के सीने में दिल ही नहीं है तो कोई कह रहा था - जमाना ही खराब है, अरे जब नहीं रहा जाता है तो सरकार ने इतने साधन चला रखे है उनको काम में लेवो। भला यह क्या तरीका हुआ कि बच्चा हो जाए तो उसे फैंक दो। हमारे जमाने में ऐसा नहीं होता था। अब तो सच है भैया कलयुग है ये तो। सरे आम लड़के-लड़कियाँ ऐसे चिपकते है बस पूछो ही मत; हम तो सात फेरों वाली के साथ भी इस तरह नहीं बैठ सकते है। और इनको देखों ना जाने कहाँ-कहाँ, कैसे काला मुँह करते है और पाप को पटक जाते है इस तरह। कोई लड़की के प्रति सहानुभूति भी जगा रहा था। आदमी भी तो कम नहीं होता है, लड़की को धोखा देकर भाग गया होगा। मजे लिए और चला गया। इज्जत बचाने के लिए उसके पास कोई रास्ता नहीं बचा होगा। नहीं तो कोई भी माँ इतनी कठोर नहीं हो सकती है कि अपने ही जिगर के टुकडे को इस तरह से कचरे में फेंक दें। ना-ना यह बात नहीं है, लड़कियों को आजादी मिल गयी है, वो क्या कहते है नारी उन्मुक्ति आन्दोलन चल रहा है ना बस अब तो वो कहती है मेरी मर्जी मैं कुछ भी करूं यह मेरा शरीर है चाहे जिसके पास जाऊँ और चाहे जो करू। इस पर किसी को क्यों ऐतराज हो। जितने मुँह उतनी ही तरह की बातें सुनने को मिल रही थी। भला भीड़ का भी कोई कल्चर होता है क्या। अब इतने लोग है वो कुछ ना कुछ तो बोलना ही पड़ेगा और जब इस तरह का विषय मिल जाए तो चटकारें कौन लेना नहीं चाहेगा। बातों की बहती गंगा में दो बात और सही। वैसे यदि समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से इस विषय पर मंचन किया जाए तो यह विषय शोध का विषय होना चाहिए कि आखिर वे कौन से कारक होते है जो बाध्य करते है कि इस प्रकार की पैदाइस को नाजायज कहते है। विचारणी यह भी है कि सम्बन्ध नाजायज थे या कि औलाद नाजायज़ है। निश्चिय ही औलाद जायज या नाजायज नहीं हो सकती है। पैदा होने का तरीका तो जायज़ ही होता है। सम्बन्ध नाजायज़ हो सकते है। कई मामलों में सुप्रीम कोटै ने भी यही निर्णय दिया है। खैर इस मुद्दे को समाजशास्त्रीयों के लिए ही छोड़ देते है वर्ना वो बेचारे क्या करेंगे।
बस इसी प्रकार की बातचीत के बीच शर्माजी को निराश भाव से आते देखा तो लगा कि कुछ गड़बड़ हो गई है। शर्माजी ने आकर बताया कि वो बच्चा नहीं बच पाया। अस्पताल लेजाने में काफी देर हो गई थी। शायद नियति को यही मंजूर था। मन में कोफ्त होने लगी कि अचानक ही एक बन्दरिया को देखा तो आश्चर्य का ठिकाना न रहा। बदबू आ रही थी, वो बन्दरिया बदहवास सी इधर से उधर चीखती चिल्लाती, उछल-कूद कर रही थी। अपने सीने से अपने मृत शिशु के कंकाल को चिपका रखा था। अपने मृत शिशु कंकाल को वो अपने सीने से लगाए यह आस कर रही थी कि शायद कभी तो उसका ये बच्चा चिर निन्द्रा से जागेगा। माँ का हृदय यह मानने को तैयार ही नहीं था कि उसका वो बच्चा मरे कई दिन बीत गए है और जिसे सीने से चिपका रखा है वह मात्र उस मृत शिशु का कंकाल है जो सड़ान्ध भी मार रहा है पर माँ का मन बावरा कहाँ मानता है इस बात को। उसको सड़ान्ध नहीं आ रही थी। उसको तो आस भी इस कंकाल में से फिर प्राण जागेंगे। मोह है कि छूटता नहीं। बचपन से पढ़ते आए थे कि इंसान के पूर्वज बन्दर थे। विकास क्रम में हम कहीं ना कहीं चिम्पैंजी के या गुरिल्ला के नजदीकी रिश्तेदार बातए जाते है, ऐसा वैज्ञानिकों ने कहा है और विकासवाद के सिद्धान्त में डार्विन बाबा भी यह नजारा देखते तो शायद....शायद अपने विकासवाद के सिद्धान्त पर पुर्नविचार करते। क्योंकि आज के मानव ने अपनी मातृत्व शून्यता के साक्षात हस्ताक्षर कर डार्विन बाबा के सिद्धान्त को पूरी तरह बदल दिया है कि आदमी बन्दर की औलाद है। कैसे हो सकता है, वानर पुत्र मानव, अभी-अभी तो देखा था उसने हस्ताक्षर किए है नए सिद्धान्त पर कि वो वानर पुत्र नहीं है, वो मृत शिशु कंकाल तो क्या जीवित शिशु को भी अपने सीने से नहीं लगा सकता है वो तो उसे कूडे-करकट के ढैर में फैंक सकता है उसके मरने के इन्तजार में।
बस अब मैं यह कह सकता हूँ कि सच में मानव नहीं हो सकता वानर पुत्र। वानर के जितना महान, ममतामयी नहीं हो सकता है आज का मानव। वानर-वानर है और मानव-मानव, जो आगे बढ़ रहा है पूर्वजों के सिद्धान्तों को बदलते हुए, रौंदते हुए और नकारते हुए।