वो लड़का
आज फिर से दीपेश बॉस की डाँट खाकर आया। वो बिल्कुल उखड़ा हुआ था। रोज़-रोज़ की डाँट खाने से तो अच्छा है मैं ही कुछ कर लूँ, ना घर में चैन ना दफ़्तर में सुकून..........वो बस बड़बड़ा रहा था। धीरे से मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा। वो वाकई बिल्कुल टूट सा गया था। मैं सोचने लगा - इतना डाइनेमिक आदमी, दफ़्तर का इतना अच्छा वर्कर, आखिर क्या हो गया है दीपेश को। वक़्त की नज़ाकत समझते हुए मैंने उसे कुछ भी नहीं कहा बस एक ग्लास पानी का उसकी ओर बढ़ा दिया। उसने पानी पिया और धम्म से कुर्सी में गिर सा गया। गुमसुम बस गुमसुम, एकदम खोया सा। हाँ सच ही तो है वो दीपेश कहीं खो गया था, जो पाँच जनों के बराबर अकेला ही दफ़्तर में काम करता था। डाँट का तो सवाल ही पैदा नहीं होता, हम सभी यही सोचते थे कि आखिर इतनी एनर्जी कहाँ से लाता है ये व्यक्ति, जब देखो तब दोड़ता रहेगा, काम-काम बस काम और जितना भी दे दो वो पूरा कर देगा। लगता था जैसे उसके शरीर में कोई जिन्न बैठा हो, जो कहता था मुझें काम चाहिए। मैं भी उस भारी वातावरण में बैठा यही सोच रहा था कि आखिर क्या कारण है, क्या परेशानी है दीपेश के साथ। मैंने हिम्मत कर एक बार फिर से उसके कन्धे पर हाथ रखा, इस बार वो धीरे से उठा और मेरे कन्धे से लग गया। लगभग रोने सा लग गया था वो, उसे पुचकारते हुए मैंने उसे फिलहाल कैंटीन लेकर जाना ही उचित समझा। हम दोनों धीरे-धीरे कैंटीन की ओर आगे बढ़ गये। इत्मिनान के साथ बैठकर चाय पी। मैंने धीरे-धीरे उससे इस हालात का कारण जानने की कोशिश की। पहले तो वो ना-नुकर कर बात को टालने की कोशिश करता रहा, लेकिन मेरे दबाव देने के कारण वो खुला। सारी बातें सुनकर मैं भी सोच में पड़ गया।
दीपेश अपने बेटे की खूब तारीफ करता था। वो हमेशा कहता था कि मैं अपने बेटे को एक दिन बड़ा डॉक्टर बनाऊँगा। वो ग़रीबों का इलाज करेगा, मैं जो खुद नहीं बन पाया, नहीं कर पाया वो सब मेरा बेटा करेगा। इन्हीं खयालों में वो डूबा रहता था। बस इसी उम्मीद के सहारे वो भाग-भाग कर काम करता था। आजकल वो पूरी तरह से टूट गया है। वो कहने लगा - मैं कहीं का नहीं रहा, मेरे सपने मेरे अरमान, मेरी सोच सब कुछ खत्म हो गयी है। बेटे को साइंस-बायो इसलिए दिलवायी थी कि डॉक्टर बने, लेकिन बेटा बायो नहीं लेना चाहता था, मेरी ज़िद के कारण उसने बायोलॉजी में एडमिशन ले लिया। मैं भी बहुत खुश था कि चलो अब तो बेटा डॉक्टर बन ही जाएगा। बेटा सी.ए. बनना चाहता था। मैं नहीं चाहता था कि वो मेरी तरह सारी-सारी रात इन एकाउन्टस में उलझा रहे, फाईलों में ही गुम हो जाए। और डॉक्टर बनकर समाज की सेवा भी तो करेगा। 12वीं का परिणाम आया, बेटा जैसे-तैसे पास हो गया, लेकिन पी.एम.टी. के परिणाम अनुकूल नहीं आए, जितनी जगह पर एग्जाम दिए सभी जगह वो फेल हो गया। बहुत ज़िद्दी और अड़ियल हो गया है। बात-बात में चिल्लाता है। लड़ाई करता है या फिर दो-दो - तीन-तीन दिन तक अब घर में ही नहीं आता है। जब भी उससे बात करने की कोशिश करता हूँ तो बहुत ही बदतमीजी से पेश आता है। मैं कुछ भी नहीं कर पा रहा हूँ। इसी परेशानी में कई दिनों से दफ़्तर में भी मन नहीं लगता है और सारे काम ग़लत हो जाते है।
दीपेश की सारी बातें सुनने के बाद तत्काल मुझें भी कुछ नहीं सूझ रहा था। मैंने उसे तसल्ली देते हुए कहा देख यार अब एक बात तो तू भी समझले कि बच्चे जब बड़े हो जाते है ना तो उनको ज्यादा दबाव में रखना ठीक नहीं है। रही बात पी.एम.टी. के परिणाम की तो अब उसे बदला तो जा नहीं सकता है। हाँ, एक बार मैं तेरे बेटे से ज़रूर मिलकर बात करना चाहता हूँ। दीपेश एकदम चौंक सा गया, नहीं यार वो बहुत ही बदतमीज़ हो गया है, तेरे साथ कोई मिसबिहेव कर दिया तो मैं अपने आप को माफ नहीं कर पाऊगां। मैंने दीपेश को समझाते हुए कहा, देख ऐसा कुछ नहीं होगा, बच्चे अपने ही हैं और अगर हम अपने बच्चों के बारें में ऐसा सोचेगें या उनकी गल्तियों को माफ नहीं करेंगे तो कौन करेगा। भई हम भी तो कभी बच्चे थे ना, तो फिर अब हम बच्चों को ही क्यों दोष दे रहें है। माहौल थोड़ा अनुकूल जान मैंने दीपेश को कह ही डाला कि देख दीपेश - एक बात तो तेरे को भी माननी पड़ेगी कि गलती तेरे बेटे की नहीं है, गलती तो तेरी ही है। जो तू नहीं बन पाया वो तू बेटे को ज़बरदस्ती बनाना चाहता था। तूने अपनी कुण्ठाऐं बेटे पर लाद दी जिसे लेकर वो चल नहीं सकता है। यदि तू ज़िद नहीं करता और उसे कॉमर्स-मैथ्स ही लेने देता तो एक होनहार बालक को इस तरह से उखड़ना नहीं पड़ता। खैर अब भी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है। मैं आज ही तेरे बेटे से मिलना चाहता हूँ।
मैंने दीपेश से बेटे के मोबाईल नम्बर लेकर उसे बात करने की कोशिश करने लगा। कई बार कोशिश के बावजूद भी उसका फोन स्विच ऑफ ही आ रहा था। मेरे मन में भी कई तरह की आशंकाऐं उभरने लगी। शाम को फुरसत मिलते ही मैंने एक बार फिर से दीपेश के बेटे से बात करने की कोशिश की। इस बार घण्टी गई और उसने फोन उठा लिया। मैंने अपना परिचय देते हुए उससे मिलने की इच्छा जताई जो वो बोला अंकल आप मेरे से मिलकर क्या करेंगे, आप तो पापा के दोस्त हैं, आप भी पापा जैसी ही बातें करेंगे, कोई अर्थ नहीं है, आपसे मिलने का। मैंने बात बीच में ही काटते हुए उसे कहा देखो बेटा तुम्हारे पापा का दोस्त जरूर हूँ लेकिन मैं तुम्हारा भी दोस्त बन सकता हूँ। मैं जानता हूँ कि तुम बहुत ही समझदार, होनहार और इन्टेलीजेन्ट बच्चे हो। मैं चाहता हूँ कि हम दोनों दोस्त बन जाएं। मेरी बात सुनकर वो जोर से हंसने लगा, कहा अंकल - आप मजाक तो अच्छी कर लेते है। मैंने कहा बेटा - यह मजाक नहीं है, मैं वाकई तुम्हारा दोस्त बनना चाहता हूँ। कम्प्युटर और इसी से जुड़ी कई बाते तुमसे सीखना चाहता हूँ। क्या अंकल आप भी ना, कहाँ की बात कर रहे है, मुद्दे की बात करो ना, आप क्यों मिलना चाहते है। जरूर पापा ने आपको कहा होगा, मुझें समझाने के लिए। मैं तपाक से बोला, नहीं बेटा - तुम्हारे पापा ने मुझें कुछ भी नहीं कहा है। सिवाय तुम्हारे पी.एम.टी. के परिणाम के, बस मेरा ही मन कर रहा है कि मैं तुमसे मिलूं। अब यह बताओं कि हम लोग कहाँ पर मिल रहें है, अच्छा एक काम करते है, रॉयल रेस्टोरेन्ट में मिलते है। आज-अभी सात बजे, क्यों ठीक है ना! वो बड़े ही बेमन से बोला, ठीक है आप कह रहे है तो आ जाऊंगा, लेकिन एक शर्त है अंकल, आप मुझें समझाने की कोशिश मत करना, वरना मैं क्या कर जाऊंगा यह मैं भी नहीं जानता हूँ।
मैं खुश था कि चलो मेरा मिशन सही दिशा में चल निकला है। ठीक सात बजे मैं रॉयल रेस्टोरेन्ट की एक मेज पर दीपेश के बेटे का इंजतार करने लगा। ज़ल्दबाजी में मैं दीपेश से उसके बेटे का नाम तक नहीं पूछ पाया था और मैं उसे जानता भी नहीं था। सोचा जो भी लड़का सतरह-अठारह साल की उम्र का यहाँ आएगा वही होगा। इसी उधेड़बुन ठीक मेरे सामने वाली कुर्सी पर मझली कद काठी का सुन्दर सा लड़का आकर बैठ गया। अंकल मैं रोबिन, आप पापा के दोस्त है ना! मैं उसे देखकर उसी में खो सा गया। कितना सुन्दर बच्चा है, दीपेश ने कैसी बेवकूफी की है इस बच्चे पर अपनी ज़िद थोप कर। वो फिर से बोला - अंकल मैं रोबिन, इस बार मेरी सोच की डोर झनझनाई, मैंने कहा सॉरी बेटा मैं कुछ सोच रहा था कि तुम्हें कैसे पहचानुगां, तुम्हारा नाम भी तो.........हाँ अंकल लेकिन मैं आपको जानता हूँ, पापा घर पर भी आपका कई बार जिक्र करते है। हम दोनों साथ बैठ गए पहले पनीर टिक्का खाया, एक-एक मसाला डोसा और फिर एक-एक आईसक्रीम खाकर बस यूं ही बातचित करते रहें। रोबिन बहुत खुश था, वो बोला अंकल एक बात बोलूं। मैंने बस हाँ में गर्दन हिला दी। अंकल मैं जानता हूँ कि मेरे पी.एम.टी. के रिजल्ट के कारण सभी घरवाले विशेषकर पापा बहुत ही परेशान है। लेकिन आप ही बताओ, मेरी क्या गलती है। मैंने पूरी कोशिश की थी। मैंने उसके कन्धे पर हाथ रखते हुए कहा, देखो बेटा - मेहनत करना हमारा काम है। परिणाम चाहे कुछ भी रहे घबराना नहीं चाहिए। तुमने अपना हण्ड्रेड परसेन्ट दिया है और फिर भी परिणाम अनुकूल नहीं रहा तो यह मानकर चलो कि ऊपरवाले ने तुम्हारे लिए कोई और अच्छा सोच रखा है। वो बोला - अंकल आप पापा को संभालिए ना, वो बिल्कुल टूट गए हैं। मैं भी अपना आपा खो देता हूँ। वो जब भी कुछ बोलते है मुझें लगता है इन्होंने अपनी ज़िद में मेरे अरमानों का गला घोंट दिया है, बस यही ख़याल आता है और मैं पापा से लड़ाई कर लेता हूँ। बाद में मुझें खुद दुःख होता है, इसलिए आत्मग्लानी के कारण मैं कई बार घर भी नहीं जाता हूँ। मैं जानता हूँ मेरी वजह से मम्मी-पापा, दीदी सभी परेशान होते है। जब मैं घर नहीं जाता हूँ तो वो लोग खाना तक नहीं खाते हैं, लेकिन मैं क्या करूं, मैं अपने आपको रोक ही नहीं पाता हूँ।
देखो बेटा, सब ठीक हो जाएगा। एक काम करो जब भी तुम्हारा मन करे मेरे घर आ जाया करो। मेरी बेटी अभी एम.बी.बी.एस. कर रही है, वो तुम्हें बताएगी कि कैसे तुम.............। वो बीच में ही बात काटते हुए बोला - अंकल इस बार मैं पी.एम.टी. बहुत ही अच्छे नम्बरों से पास करके दिखाऊँगा लेकिन प्लीज आप पापा को समझाइए वो मेरे से बोले नहीं। एक और बात, आपको प्रॉमिस करना होगा कि ये बाते आप पापा को नहीं बतायेंगे। मैं चाहता हूँ कि मैं उनका नालायक बेटा अगली बार अपने पापा को सरप्राईज दूँ, तब तक मैं इसी तरह से रहुंगा। शायद धीरे-धीरे उनको इस तरह के व्यवहार की आदत पड़ जाएगी। अंकल, मैं भी पापा को बहुत प्यार करता हूँ लेकिन मैं उनको अहसास करना चाहता हूँ कि अपनी ज़िद बच्चों पर ना थोपें। बच्चों को अपना रास्ता खुद तय करने दें, बस आप केवल मागदर्शन दीजिए।
मैंने रोबिन से प्रॉमिस किया और हम यूं ही हफ्ता-दस दिन में ज़रूर मिल लेते थे। हर बार रोबिन पापा का ध्यान रखने के लिए मुझसे कहता था। अंकल मम्मी को तो मैंने समझा दिया है बस आप पापा का ध्यान रखिए। मैं सोचता, कितना समझदार बच्चा है। उधर दीपेश सोचता था कि बेटा आवारा हो गया है, वो उसे कोसता रहता था लेकिन एक दिन मैंने उसे अखबार दिखाते हुए कहा - दीपेश आज का अखबार देखा क्या ? वो बोला क्या देखना है अखबार का, कोई कह रहा था - पी.एम.टी. का रिजल्ट आया है, बस मेरे आग लग गई और मैंने अखबार को हाथ भी नहीं लगाया। मैंने उसे ज़बरदस्ती अखबार थमाते हुए कहा - तेरे बेटे की फोटो छपी है इसमें फ्रन्ट पेज पर, उसने पी.एम.टी. टॉप किया है। ये कैसे हो सकता है, वो अवाक सा अखबार देखे जा रहा था और रोए जा रहा था - ठीक उसी समय रोबिन आ गया। उसने पापा के पैर छूकर कहा - पापा आपकी इच्छा मैंने पूरी कर दी है पर मेरा मन अभी भी सी.ए. का ही है, पर हाँ मेरे बच्चों पर कभी भी अपनी इच्छा नहीं थोपंूगा। दीपेश ने रोते हुए बेटे से कहा सॉरी बेटा आई एम प्राउड ऑफ यू।
योगेश कानवा