Kanak Mriga-Puranchand Sharma-Review books and stories free download online pdf in Hindi

कनक मृग-पूरनचंद शर्मा -समीक्षा

कनक मृग
खण्ड काव्य
पूरन चन्द्र शर्मा
समीक्षा- राज बोहरे

राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है -
राम तुम्हारा नाम स्वयं ही काव्य है,
कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है !
ऐसी ही विनम्र टिप्पणी समीक्षित खंडकाव्य 'कनक-मृग' के रचयिता कवि पूरन चंद शर्मा ने पुस्तक के आखरी में व्यक्त की है । वे लिखते हैं -
राम का नाम जगत कल्याण
नेति नेति कहते वेद पुराण
हे राघव मैं हूं मति से मंद ।
काटिए निज जन के भव फंद।
करो निज दासों का कल्याण। दीजिए हो प्रसन्न वरदान ।
कवि की यह विनम्रता बहुत दुर्लभतम गुण है जो आज के रचनाकार के पास खोजे से भी नही मिलता।
इस खंडकाव्य के आरंभ में कवि ने नायक श्री राम की प्रशंसा की है। यह खंड यह खंडकाव्य दो हिस्सों में बांटा है प्रथम सर्ग और द्वितीय सर्ग। प्रथम सर्ग में संक्षेप में राम कथा का वर्णन है और द्वितीय सर्ग में पंचवटी में निवास के बाद की कथा है ।
इस खंडकाव्य का शीर्षक कनक-मृग (मारीच द्वारा सोने की छाल के साथ खुद को स्वर्णमृग के रूप में प्रस्तुत करने की घटना) से संबंधित है । द्वितीय सर्ग के आरंभ में पंचवटी में बनाई गई अपनी कुटिया में विश्राम कर रहे राम और सीता की रखवाली में बैठे लक्ष्मण के सुभग बदन को देखकर रावण की बहन शूर्पणखा प्रणयाकुल हो कर लक्ष्मण के पास पहुंचती है और उन को स्वयं से विवाह कर लेने का प्रस्ताव देती है। इसी समय पंचवटी की अपनी कुटिया से बाहर आए राम को देख वह फिर विकल होती है और उनको भी विवाह का प्रस्ताव दे देती है। राम उसे लक्ष्मण के पास भेजते हैं और लक्ष्मण विनम्रता पूर्वक मना कर देते हैं। अपने प्रस्ताव का तिरस्कार देख शूर्पणखा अपने विकराल रूप में प्रकट होती है और लक्ष्मण सहज भाव से स्त्री को मारने के बजाय उसको कुरूप करने के उद्देश्य से उसके नाक कान काट लेते हैं। शूर्पणखा व्याकुल हो अपने सेनापति खर-दूषण के पास पहुंचती है । उनके द्वारा पंचवटी की कुटिया के पास श्री राम से युद्ध किया जाता है । उनके हार जाने के बाद शूर्पणखा रावण के दरबार में पहुंचती है और उसे शर्मिंदा करते हुए भोग विलास में डूबा हुआ राजा बतलाते हुए प्रेरित करती है कि वह अपनी बहन के अपमान का बदला उन दोनों युवकों से ले जो पंचवटी में कुटिया बनाकर रह रहे हैं। रावण ध्यान लगाकर समझ जाता है कि विष्णु जी ने अवतार ले लिया है। लेकिन बहन के क्रोध को शांत करना जरूरी समझ वह एक साजिश रचता है। जिसके तहत समुद्र पार बास कर रहे मारीच के पास जाकर वह उस से आग्रह करता है कि वह इस साजिश में शामिल होकर पंचवटी की कुटिया तक चले और माया से स्वर्णमृग बनके राम को दूर ले जाए , ताकि वह सीता का हरण कर सके। मारीच बहुत समझाता है, लेकिन रावण नहीं मानता । अंततः मारीच कनकमृग बनकर पंचवटी आता है। सीता जी कनकमृग की छाल के लिए श्रीराम से आग्रह करती हैं। राम जी उस मृग का बध करने के लिए उसके पीछे जाते हैं, मृग उन्हें घने जंगलों में उन्हें दौड़ा ले जाता है। राम तीर चलाते हैं।श्री राम के बाण से व्याकुल मृगरूप धारी मारीच अपने रूप में आता है और साजिश के तहत आरत हो के लक्ष्मण !लक्ष्मण! पुकारता है। यह आवाज सुनकर सीता जी लक्ष्मण को ज़िद पूर्वक अपनी कुटी से उस जंगल की तरफ भेजती हैं जहां से लक्ष्मण लक्ष्मण की आवाज आई थी। क्योंकि सीता जी समझ रहीं थी कि राम किसी विपत्ति में है और वे लक्ष्मण को पुकार रहे हैं। लक्ष्मण कुटिया के आसपास एक सुरक्षा रेखा खींच कर चले जाते हैं। इधर रावण साधु वेश में भिक्षा मांगने आ जाता है और जब लक्ष्मणरेखा पार करते समय उसे आग दिखाई देती है तो वह सीता जी को रेखा के बाहर आकर भिक्षा देने का निवेदन करता है । सीता जी के बाहर आते ही रावण हरण कर ले जाता है।
गिद्धराज जटायु जो पंचवटी में ही निवास करते थे , वे रावण द्वारा सीता हरण करते देख उसका विरोध करते हैं ,तो रावण तीक्ष्ण तलवार से उनके पंख काट देता है और सीता को हर कर लंका में अशोक वन में जाकर रख देता है। लक्ष्मण जंगल में पहुंचते हैं तो राम को सारी साजिश समझ में आ जाती है ,वे तेजी से पंचवटी लौटते हैं ,लेकिन वहां सीता को ना पाकर वे व्याकुल हो जाते हैं ।
वृक्ष व लताओं से पूछते हुए जंगल में आगे बढ़ते हैं तो जटायु घायल मिलता है। जटायु सारी घटना कह सुनाता है कि रावण ने सीता का हरण कर लिया है और वह रथ में बैठा कर उन्हें अपने देश यानी लंका ले गया है। जटायु का विधिवत उपचार करने के बाद भी जटायु प्राण छोड़ देते हैं तो राम उनका विधिवत अंतिम संस्कार करते हैं। इस संग्रह में केवल यहां तक की कथा बताई गई है।
खंडकाव्य में घटना विशेष की ही कथा होती है जिसमें यह खंडकाव्य न्याय निरूपित करता है
इस खंडकाव्य का अगर आलोच्य किए दृष्टि से अवलोकन किया जाए तो इसमें अनेक श्रेष्ठताएँ और कुछ कनिष्ठताएँ भी अवलोकित होती हैं। श्रेष्ठता तो यही है कि कवि केवल भक्ति की दृष्टि से राम कथा का यह ग्रँथ रच रहै हैँ, इसे रचते हुए भी सुखी है, प्रसन्न हैं,र और अपनी कलम को धन्य मान रहे हैं। संग्रह में शामिल किए गए छंद व्याकरण शास्त्र के किसी सुज्ञात छंद की अनुभूति नहीं कराते, बल्कि कवि इसे स्वच्छंद कहते हैं , अर्थात आजाद छंद या कवि का निजी छन्द ! बीच-बीच में कवि ने दोहों का भी प्रयोग किया है, कहीं-कहीं अन्य छन्द प्रयोग में लाया गया है। लेकिन प्रत्येक छंद सिर्फ 2 पंक्तियों का प्रयोग किया गया है
कवि संस्कृत से परास्नातक की डिग्री प्राप्त किए हुए हैं, तो उनका संस्कृत-हिंदी के प्रति सहज ही आकर्षण है। पौराणिक कथा में संस्कृतनिष्ठ हिंदी के अलावा अन्य किसी भाषा का प्रयोग वैसे भी रस में कंकड़ की तरह प्रतीत होता है, इसलिए भाषा को लेकर उनका आग्रह ठीक भी है।
राम जन्म से लेकर पंचवटी के लिए यात्रा करने तक की कथा इतनी विस्तृत है, कि रामचरित मानस के बालकांड और अयोध्या कांड दोनों ही पूरे हो जाते हैं अर्थात लगभग आधी रामचरितमानस पूर्ण हो चुकी होती है। इस पूरे प्रसंग को प्रथम सर्ग में शामिल करना और वह भी संक्षिप्त रूप में कवि की एक दक्षता ही कहा जा सकता है। कवि महत्वपूर्ण प्रसंगों को कथा में शामिल करते हैं, तो जहां उनका मन लग जाता है वहां वे एक घटना को छह और आठ छन्द भी प्रदान करते हैं इस तरह उनके भावुक और भक्त स्वरूप का मूल स्वभाव इस खंडकाव्य में जगह-जगह प्रकट होता है।
इस संग्रह में अनेक विशेषताएं हैं, अनेक गुण हैं, इसके बाद भी मनुष्य रचित किसी भी ग्रंथ और सर्जना में कमियां ना हो तो वह मनुष्य कृत कृति कहां रहेगी? इस संग्रह को हम जब निष्पक्ष नजरिए से देखते हैं तो इसमें तमाम ऐसी अनदेखियाँ रह जाती हैं, जिन पर ध्यान दिया जाता, तो शायद यह और सफल व स्मरणीय खंडकाव्य बन जाता। कवि ने स्वच्छंद छन्द का प्रयोग तो किया है, लेकिन उन सबको भी एक रूप में नहीं लिखा, अगर वह सारा काव्य एक सी मात्राओं वाली पँक्ति में रचते तो एक विशिष्ट छन्द हिंदी साहित्य को प्राप्त होता। लेकिन कवि ने हर पँक्ति में अपने तरीके से मात्राओं की घट बढ़ कर ली है। पाठक को पढ़ते समय जगह-जगह इस कारण अटका महसूस होता है, जहां-जहां कवि ने दोहा लिखे हैं , वहां-वहां उन्होंने संकेत देकर यानि 'दोहा छन्द' लिख के पाठक को सतर्क रहने पर ध्यान नहीं दिया। इसके अलावा कई छन्दों में ऐसा हुआ है कि दो पात्रों के संवाद चल रहे हैं जहाँ एक छन्द में एक पात्र बोलता है , तो दूसरे में दूसरा पात्र बोलता है, लेकिन पाठक समझ ही नहीं पाता कि पहले पात्र ने कब बात बंद की और दूसरे ने कब बात शुरू कर दी। यहां या तो कवि को पात्र का नाम लिखकर उवाच लिखना था , जैसे राम उवाच, सीता उवाच या फिर छंद में ही वह 'राम बोले'या 'सीता बोलीं' जैसी पंक्ति प्रयोग करते कि पाठक समझ जाते कि अब कौन बोला और क्या बोला। इस तरह आपस में उलझते छंद प्रायः पाठक को कभी-कभी दो बार और तीन बार पढ़ने को विवश करते हैं। रामकथा के आरंभिक भाग में प्रथम सर्ग में कवि ने भरत मिलाप के बारे में कुछ नहीं लिखा है । सीधा राम वन गमन, गंगा पार, भरद्वाज, वाल्मीकि से भेंट और सीधा पंचवटी प्रवास बता दिया है। उधर पिता की मृत्यु ,भरत आगमन, भरत का वन आना और भरत मिलाप का प्रसंग कवि ने किसी विशिष्ट योजना के तहत इसमें शामिल नहीं किया है । शायद भरत मिलाप नाम से वे कोई अलग ही खंडकाव्य रचना चाहते होंगे ।
इस संग्रह को हम कवि की श्री राम के प्रति भक्ति और श्रद्धा प्रकट करने का एक उपक्रम कह सकते हैं। क्योंकि कनकमृग शीर्षक से इस खंडकाव्य में जितना समय कनकमृग को दिया जाना था, उतना नहीं दिया गया । कुल चौदह छंदों में ही कनकमृग बनने, सीता जी द्वारा कनक मृग की छाल मांगने, राम जी द्वारा कनकमृग के पीछे जाने और उसका वध कर देने का की घटना समेट दी गई है। मारीच जब रावण को समझाता है तथा पुरानी ताड़का सुबाहु की घटना याद दिलाता है, तब उसे जगह-जगह सुंद सुत या ताड़का तनय कहा गया है , इसका अर्थ है कि कवि ने विभिन्न ग्रंथों का अध्ययन कर मारीच के माता-पिता के बारे में भी विवरण ज्ञात किया था, अगर कवि उसे सुन्द सुत या ताड़का तनय भी लिखने के साथ-साथ कनकमृग बनने वाले मारीच का बचपन, रावण से भेंट, रावण से रिश्ता, ताड़का सुबाहु को समाप्त कर देने के बाद मरीज को सुरक्षित दूर फेंक देने वाले राम के प्रति मारीच के भाव और बाद के दिनों में मरीज का चिंतन, अगर इस खंडकाव्य में विस्तार पाता तो संभवतः यह खंडकाव्य और गहरा और प्रौढ़ और ज्यादा हृदयस्पर्शी होता । रावण को समझता मारीच यूँ तो इसमे आया है, अवतार हो जाने की जानकारी भी कई पात्रों को हो जाती है,पर मानवीय द्वंद्व इस रचना में और गहरा आना था।

संक्षिप्त शब्दों मे यह खंडकाव्य वर्तमान समय के फुटकरबकाव्य सृजन की परंपरा से हटकर महाकाव्य और खंडकाव्य सृजन की पुरानी परंपरा में चलते हुए अपना विशिष्ट स्थान प्राप्त करता है। कवि की कल्पना है कि जो इसे पढ़ेंगे रामजी उस पर कृपा करेंगे ।तो यह पुस्तक काव्य कृति ना होकर कवि की भक्ति को प्रकट करने का एक साधन भी बनकर सामने आई है।
कवि ने बहुत सुंदर वर्णन किया,कनकमृग का, देखिए-
नील मनि से श्रृंग शिखर।
काया कंचन अरु चाल प्रखर।
मुक्ता बिंदु सजे तन पर।
चित चंचल शोभित नेत्र सुघर।
कही कवि दर्शन औऱ विचार भी प्रकट करते हैं-
राजतंत्र शिथिल हो जाए तो सीमा असुरक्षित हो जाती।
नीति राज्य का प्रमुख अंग खो जाए स्वतंत्रता घट जाती।
और
धन बल वैभव का दर्प हुआ,और राजनीति से भटक गया।
राजा कहलाने योग्य नही, जो दरवानो में अटक गया।।
अनेक शब्द व प्रसंग नए से दिखते हैं। उदाहरण केलिए शब्द अघयायन,सरिता स्वामी आदि तथा सुन्द सुत, शनि जिमि पहुँचा चित्रा पास जैसे पौराणिक प्रसंग।
सारांशत : यह खंडकाव्य पूरण चन्द्र शर्मा को एक कवि के रूप में पहचान दिलाएगा ऐसा विश्वास है।
पुस्तक-कनक मृग (खण्ड काव्य)
कवि- पूरण चन्द्र शर्मा
प्रकाशक- संदर्भ प्रकाशन भोपाल
मूल्य-350₹
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