जंगल के ख़िलाफ़-हीरालाल नागर राज बोहरे द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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जंगल के ख़िलाफ़-हीरालाल नागर

अनछुए क्षेत्र में पहुँची कविताएँ “जंगल के खिलाफ“

युवा कवि हीरालाल नागर के नव्यतम कविता संग्रह “जंगल के खिलाफ“ की कविताऐं हमारे आसपास के उपेक्षित संसार पाठकों के समक्ष पूरी शिद्दत, ईमानदारी और साफ नजर के साथ प्रस्तुत करती है। लगभग 65-66 कविताओं का संकलन “जंगल के आसपास“ से गुजरते हुए तथा “बीच यात्रा में“ नामक तीन शीर्षकों में विभक्त है। आज समस्त आलोचक, विचारक और रचनाकर्मी यह बात पूरी गंभीरता से महसूस कर रहे हैं कि वर्तमान में बड़ी आपाधापी है और यह समय मनुष्य की लगातार छीजती संवेदना, घटते लगाव और निष्ठां की कमी के कारण रचनाविहीन समय या अरचनात्मक समय है। लेकिन नागर का रूख दूसरा है-
न लिखने का समय है
और न पढने का
मिलने-जुलने का भी समय नहीं
और न किसी की सुनने का
फिर समय हैं कहाँ
नागर की यह कविता “समय है कहाँ“ वेहद महत्वपूर्ण कविता हैं, जिसे अनिवार्यतः देखा जाना चाहिए।
नागर की दृष्टि केवल विप्लवकारी नहीं है। उनके स्वर में केवल असंतोष नहीं हैं, स्थितियों की जड़ में से ही वे आशा की किरणें उगा लेते हैं और स्थितियों के रोज व रोज के चित्र भी उन्हें अच्छे लगते है। “मजदूर के बच्चे“ नामक कविता में ईंट, गारा, बालू, सीमेंट के बीच प्रसन्न मन से खेलते बच्चों पर दृष्टि ड़ालकर वे प्रसन्न हो उठते हैं और सहज रूप् से सत्य कह देते हैं-
“अपने माँ बा पके बनाए हुए जलकुड़ में
रौंद रहे हैं, बालू और सीमेंट के ढेर
बढना हैं, उन्हें कुछ इसी तरह
दुनिया की ओर बड़ी इमारतें
तैयार करने के लिये।“
अपनी एक कविता “चैतुआ“ में वे बुंदेलखण्ड़ के उन चैतुओं की जिंदगी में उतर जाते हैं, जो फसल पक जाने का आभास कर अपने घर-गांव को रखवालों के भरोसे छोड़कर देख परदेश में खेतों की खड़ी फसल काटने की मजदूरी करने के लिए अंड़ा-बच्चा से निकल पड़ते है।
इस संग्रह की आधी से ज्यादा कविताएँ सैनिकों और उनकी मनः स्थितियों पर आधारित है। इन कविताओं के मार्फत हीरालाल नागर आम पाठक को सैनिक व उसके रहन-सहन, उनके विचार और अनुभूति, उनके परिवार की दिन-व-दिन की मानसिकतास आदि से रूबरू करातें है। इस शुष्क क्षेत्र में पैठकर संवेदना और अनुभूतियों के कीमती माणिक लाकर उन्हें सजाकर प्रस्तुत करने वाले नागर पहले सैनिक कवि है। इस कारण उन्हें ध्यान से पढ़ा-गुना जाना चाहिए। संग्रह की तमाम कविताएँ श्रीलंका में शांति सेना की मौजूदगी के दिनों की अभिव्यक्तियाँ है। ये कविताएँ पढकर यह अहसास होता हैं कि जिन सैनिकों को बेजान पुतले और मशीनी मानव मानकर कहीं भी कूच करने का हुकुमनामा हम जारी कर देते हैं, उनकी भी अपनी संवेदनाएँ हैं, अनुभूतियाँ हैं, भावनाएँ है। आदमी जिंदा हैं, मानक कविता में नागर द्वारा व्यक्त एक दृश्य देखिए-
युद्ध कौशल में निष्णांत
फौज ने रौंदा ड़ाला हैं, शहर को
लेकिन जंगल अभी हरा-भरा हैं
सुनाई पड़ जाते है
दूर से
हवा में झूलते कई शब्द
गोलियों की सख्त बौछार के बावजूद
आदमी अभी जिंदा है।
नागर की भाषा सहज और सरल है। जरूरत के हिसाब से वे शब्दों का प्रयोग कर लेते है। उनकी कविताओं में एक रिदम हैं। लेकिन कई बार के शब्द प्रयोग में अनहोने से प्रयोग कर ड़ालते हैं जैसे एक कविता में आया शब्द “मतलब हीन“ या “चैतुआगीत“ जैसा एक अन्य कविता का शब्द।
प्रस्तुत संग्रह को “जंगल के खिलाफ“ क्यों नाम दिया गया यह समझ में नहीं आता है। उनकी कविता जंगल के खिलाफ भी बहुत सशक्त नहीं है। यदि इसका नामकरण सैनिकों या उनके संसार से सम्बन्धित होता तो शायद ज्यादा मुकम्मिल और आकर्षक होता।
संग्रह का आकार बढ़ाने की महत्वकांक्षा ने नागर के कुछ जल्दबाजी भी करवा ड़ाली है। इस संग्रह में कुछ कविताएँ तो केवल भरती की कविताएँ कही जा सकती है। यदि कवि अपने अंतर्मन में बैठे संपादक की बुद्धि का आदेश मानकर कुछ कविताएँ इसमें से निकाल देते तो संग्रह ओर ज्यादा सुन्दर और ज्यादा प्रभावशाली व सुगठित नजर आता।
बहरहाल हीरालाल नागर के इस संग्रह से काफी उम्मीदें बनती है। परम्परागत कविताओं से पृथक चलकर बिना किसी बड़बोलेपन से लिखी जा रही उनकी कविताएँ उन्हें उचित स्थान दिलाएँगी।
पुस्तक-जंगल के खिलाफ
कवि- हीरालाल नागर
प्रकाशक-प्रवीणप्रकाशन, मेहरौली, दिल्ली
मूल्य- 80रूपये