कहा गुलाब ने-श्यामा सलिल राज बोहरे द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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कहा गुलाब ने-श्यामा सलिल

कहा गुलाब नेः हम उगाएँगे हँसी दुःख की फसल से

हिंदी कविता के साथ एक अजीब सी परम्परा रही है कि जो कवि मंच पर जितना श्रेय प्राप्त करता हैं, मंच से दूर प्रकाशन जगत में उतना ही कम जाना जाता है। लेकिन ‘लीक छोड़ तीनहि चले शायर, सिंह, सपूत’ की परम्परा भी सर्वश्रुत और सर्वग्राहृ है। इसी की अनुगामिनी बनकर कवियत्री श्यामा सलिल ने दोनों क्षेत्रों में अपनी लोकप्रियता बनाए रखी थी। उन्होंने हर प्रकार की कविता लिखी। मुक्त छंद एवं छंद मुक्त कविता से लेकर नवगीत तक वे बड़े मार्मिक ढंग से सफलतापूर्वक लिखती रही। तीस वर्श की काव्य साधना में से छाटकर अपनी 58 कविताओं का प्यारा-सा संकलन उन्होंने तैयार किया था, जिस पराग प्रकाशन दिल्ली ने छापा है। मुद्रित प्रति प्राप्त होने के एक दिन बाद ही एक सडक दुर्घटना में श्यामाजी चल गयी और शोक विहृल उनके पति ड़ॉ जगदीश सलिल जड़वत रह गए।
उनका अंतराल खिंचता रहा। अंततः सहृदय जनों का कहना मानकर कवि हृदय पति जि ने अपनी श्रेयसी पत्नी का यह अधूरा स्मारक पूरा करके प्रकाशित किया जो “कहा जो गुलाब ने“ के नाम से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।
कविताओं को देखने ले लगता हैं कि श्यामाजी किसा वाद-विवाद से नहीं जुड़ी, बल्कि मानवीय संवेदना से जुड़कर उन्होंने रचनाएँ लिखी। मान-बता के हर पक्ष की कविता उन्होनें खूब निकली। संग्रह की कविताएँ तीन भागों में तीन शीशकों से है-कोई आवाज है-जंग न होने देंगे, शब्द-निःशब्द। कवि हृदय अपनी यादों की याद को विस्मृति के सागर में डुबाने चलना चाहता है और कहता है-
चलो चलें विस्मृति के सिंधु में/
यादों की नाव को डुबाए।
समय और प्रकृति का मानवीयस-करण श्यामाजी की कविताओं में एक अनूठे जीवंत रूप से हुआ है। पाठक् रूपक के इस माधुर्य में खो सा जाता है। दस तरह एकाध उदाहरण दृष्टव्य दिवस के है-
धुंधले पड गए दृश्य दिवस के तमाम/
फेर गई कोहरे की कूची-सी शाम।
इसके अलावा कल चलते हुए राह में/
रोककर कहा गुलाब ने
गंधो में जीते तो हो/
फूल मगर तोड़ते नहीं,
प्रकृति तो सबके समक्ष अपने विभिन्न रूपों में उपस्थित रहा ही करती हैं, लेकिन श्यामाजी की नजर प्रकृति के चित्र विशिष्ट कोण से खीचती है। संग्रह के पहले भाग कोई आवाज दे की बहुसंख्यक कविताओं में बोलती, बतियाती, इठलाती प्रकृति हमारे कानों में फुसफुसाती महसूस होती है।
जंग न होनें देंगे, शीर्षक खंड में संग्रहित कविताएँ शांति का सशक्त उद्घोश करती है। देश को एक परिवार मानक अनुरोध संग्रह की ‘मत बाटों ‘ कविता में हैं, जहाँ सागर, सूरज, वायु और धरती को बाटकर न देने जाने की इच्छा कवियत्री ने मन की है। देश की विरासतें साझें हैं उसमें कोई भेदभाव नहीं है। चाहे चे इमारतें हो चाहे कवि और बुद्विजीवी होते हैं हाथ विवश में वे लिखती है-बारी कबीर की तानसेन की स्वर बहरी/मंदिर-मस्जिद का भेद भूल कर जाती है। यह शालीमार निशांत ताजमहल हर तरह मुक्त हैं, सजातीय प्रभावों से।
कवयित्री हटाकर आशा जगाने की बात करती है। यही आकर वे अन्य लोंगो अब कवियों से अलग हो जाती है। बात यह है कि केवल परिस्थितियों भयावहता प्रकट कर देना, हाई-लाईट कर देना ही सब कुछ नहीं हैं, बल्कि मानव की जिजीविशा को जिदा रखना, उसे जगाना, अंधेरे को चीरकर नई किरणों को खोजना ही तो कवियत्री/कवि लेखक को आरम्भ करना चाहिए। यही आशा की बातें वे बड़े पुरजोर तरहके से करती हैं-
आ उजाले की करें बात कि यह रात कटे/
एक दीपक के गले मिलके कई दीप जलें/
जो अंधेरे में कहीं छूट गए साथ चलें।
या कुछ इस तरह-
हम उगाएंगे हंसी, दुःख की फसल से/
हम अमृत का घट बनाएंगे, गरल से।
तीसरे खंड “शब्द-निःशब्द“ में संकलित कविताए छंद मुक्त नई कविता की बिरादरी की है। इस खंड में उन्होंने अपनी सागर-सीमा, अयाचित, मीनाकुमारी के नाम, खाली, सलाइयाँ, नियति जैसी कविताएँ संयोजित की है। इसमें कई कविताए तो मुक्तक की तरह है जसे कम शब्दों में अपना समूचा असर पैदा कर अपनी बात कह जाती हैं और कई कविताएँतीन पृश्ठों तक फैली हैं, फिर भी क्या मंजाल कि उन्हें पढनें पर आपको “झेलने जैसी अनुभूति हो। एक मुक्तक कुछ इस तरह है-
उसने कहा-सत्य एकदम नंगा या/
मैंने उसे ढकने के लिए झूठ की कई-कई पर्तो वाला चश्मा पहन लिया।“
कहा गुलाब ने में कवियत्री की भाषा बरसों में लिखी गई कविताओं के माध्यम से क्रमशः विकसित होती हुई दिखती हैं, और क्रमशः बहुअर्थी, बहुआयामी, संवेदनायुक्त और गहरी होती गई है। श्यामाजी ने बडें सहज और सरल प्रतीक लेकर अपनी बातें कह दी है। उन्होंने जिंदगी का फलसफा कैसी सरलता से प्रस्तुत किया है- जिंदगी गिरबी रखी है। लालची है वक्त का बूढा महाजन/ब्याज दूना हो गया हैं, मूल से।
आज जब छंद हिंदी के अनेक आलोचक छंदों पर चचर्वा के कार्यक्रम आयोजित करने और कराने पर जोर दे रहे हैं, श्यामा सलिल का यह संग्रह प्रासंगिक ही नहीं, बल्कि नया उत्साह प्रदान करता है। संग्रह की लगभग एक तिहाई कविताएँ गीत में छंद बद्व हैं, जिन्हें सस्वर गाया भी जा सकता है। इनकी भाषा और प्रस्तुति बड़ी मधुर एवं प्रभावशाली है।
इस संग्रह को यदि निष्पक्ष दृष्टि से देखा जाए जो इसमें कुछ कविताएँ ऐसी मौजूद मिलती हैं जो संग्रह का प्रभाव नष्ट कर देती हैं, क्योंकि किसी व्यक्ति या घटना विशेष पर तात्कालिक प्रतिक्रिया के रूप् में लिखी कविता हाल में तो प्रभावी तौर पर स्वागत योग्य हो सकती हैं, लेकिन लम्बे समय में जाकर भी वह कविता कालजयी हो यह जरूरी नहीं। संग्रह की कुछ कविताएँ तो महज नारेबाजी बनकर भी सामने आती है। अतः यदि संग्रह में से कुछ कविताएँ जैसे “एक विदा दृश्य“, “मेरे मन तुम कुठ भी न कहो,“ अनुउत्तरित प्रश्न, “प्रेमचंद्र“, “कौन तुलसी आ रहा है“, “विडम्बना“, “यत्र नार्यस्तमु पूज्यते“, “मीनाकुमारी के नाम“ आदि ई स संग्रह से हटा दी जाती तो संग्रह की खूबसूरती और संवेदना और ज्यादा बढ जाती।
पुस्तक-कहा गुलाब ने/कविता संग्रह
लेखक- श्यामा सलिल
प्रकाशक- पराग प्रकाशन दिल्ली
मूल्य-35/-रूपये