बेतवा बहती रही -मैत्रेयी पुष्पा राज बोहरे द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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बेतवा बहती रही -मैत्रेयी पुष्पा

बेतवा बहती रही
मैत्रेयी पुष्पा का नाम हिन्दी कथा साहित्य में आज की सर्वाधिक चर्चित लेखिका के रूप में लिया जाता है।उनकी कथायें गांव की सीधे-सहज सरल लोगों की कहानियाँ हैं, जिनके आस-पास आधुनिक परिवेश अपनी पूरी भयावहता और पूरी प्राण्वत्ता के साथ मौजूद रहता है। बड़े-बडे दावों और नये-बेतुके प्रयोगों से दूर रहकर वृन्दावन लाल वर्मा की कथ्य स्थली बुन्देलखण्ड को अपना सृजन परिवेश बनाने वाली कुशल चितेरी का नाम पाठकों को बांध लेने वाली सहज-सरल शैली और इन सृक्ष्य भावाभिव्यक्ति के लिये जाना जाने लगा है।
’बेतवा बहती रही’ उनका दूसरा उपन्यास हैं जो किताब घर दिल्ली ने छापा है। इस उपन्यास ने मैत्रेयी पुष्पा को स्त्री मन की दुःख भावनाओं की मार्मिक प्रस्तुति में समर्थ लेखिका कें रूप में प्रसिद्ध कर दिया है।
उपन्यास के केन्द्र में मीरा और उर्वशी दो सहेली है। मीना बड़े घर की हैं और उर्वशी एक गरीब घर की। मीरा के नाना ही उर्वशी का ब्याह एक समृद्ध घर में करा देते है। जहाँ अकाल मृत्यु में उर्वशी के पति का देहान्त हो जाता है। उर्वशी के भाई अजीत की कुदृष्टि उर्वशी को बदले में मिल सकने वाली सम्पत्ति पर पहुँचती है। तो वह विधवा बहन को अन्यत्र विदा कराने हेतु उर्वशी जेठ शत्रुजीत पर उर्वशी को रखैल रखने का आरोप लगाकर जबरन अपने घर ले आता है। उर्वशी के पिता के उम्र के व्यक्ति के साथ उनकी विदाई तय होती है। और सबसे बडा हृदय द्रावक तथ्य यह हैं कि वह व्यक्ति हैं मीरा के पिता बरजोर सिंह। बरजोर सिंह एक मध्यम अय्याश और भ्रष्ट सरपंच है जो अपने बराबर के बच्चों की परवाह किये बगैर युवती-पत्नी लाने में शर्म संकोच नहीं करता। घुट-घुट कर जीती उर्वशी को वैद्य की गलत दवा मृत्यु के कगार पर पहुँचाती है। और किड़नी फैल हो जाने के कारण वह मृत्यु शय्या पर पहुँचती है। और अपने पति के घर और बच्चे देवेश को देख लेने की अंतिम इच्छा पूरी होने के पहले ही वह अपनी देह छोड़ देती है।
यह उपन्यास इतना मार्मिक और प्रभावशाली हैं कि एक बार हाथ में आ जाने के बाद छूटता ही नहीं। और पूरा पढ लेने के बाद भी देह तक पाठक इसके प्रभाव मण्डल में जीता रहता है।
इस उपन्यास में मैत्रेयी जी ने बुन्देलखण्ड की स्त्रियों की दुरावस्था गांवों का भ्रष्ट होता जा रहा पंचायत तंत्र, खेतों और पहाड़ों की मौलिकता छीनते पत्थर की धूल का बवण्ड़र, फैलाते गिट्टी क्रेशर, अनिवार्य सुविधा के लिये ग्राम वासियों की नियति तथा गरीबी के कुपरिणामों को विवरण बड़े तथ्य परख ढंग से विस्तार से प्रस्तुत किया हैं। कथा के इर्द-गिर्द रेखांकित किया गया यह यथार्थ चित्रण कहानी का ही एक हिस्सा बनकर उपन्यास में प्रकट हुआ है।
उपन्यास के सभी पात्र वास्तविक है। जिनका अपना चरित्र स्वभाव और प्रकृति है उनके अपने क्रिया कलाप विचार है। पाठक जब उर्वशी शब्द पढ़ता हैं तो अतयंत रूपवती धैर्यवान एक युवती की कल्पना सामने आ जाती हैं और जब अजीत शब्द पढ़ता हैं तो एक क्रूर और मनोरोगी छोटा-मोटा गुंड़ा सामने आकर साकार होता है। बैरागी शब्द पढने पर उसे उस अलमस्त युवक की कल्पना होती हैं जो रहन-सहन और विचारों में पूरा फक्कड़ है। उपन्यास में असहाय और अबला का जीवन जीती उर्वशी की मां मीरा की दादी और नानी हैं। वो खूब दमखम वाली आजी भी इस उपन्यास की प्रभावशाली महिला है। पिता के मौन आज्ञाकारी विजय व्यक्तित्व हीन सुरज मामा हैं जो पिता के विरूद्ध क्रांति सकंलित उदय का चरित्र भी प्रभावशाली होकर उभरा है।
इस उपन्यास में विपरीत परिस्थितियों से लड़ते पात्रों का जीवन ध्यान का केन्द्र होकर आया है। विजय की विधवा से उदय का ब्याह कराती उर्वशी खानदानी दुश्मनी को नकारती आजी और दादी गरीबी-अमीरी का भेद पड़ौसी और स्नेही होने के नाते झुठलाते नाना ऐसे चरित्र है। जो पाठक के मन को नियति व व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़े होने की अपनी क्षमता का संकेत प्रदान करते है।
इस उपन्यास में बुन्देनखण्ड के रीति-रिवाज परम्परायें, लोकाचार और मान्यताओं का परिचय पाठक को सूक्ष्म रूप से करवाती लेखिका कहीं भी भटकती या अटकती नहीं है। भारतीय घरों में व्याप्त शर्म संकोच और पर्दे की दुनियां में सुहागरात का यह दृश्य पाठक को गुदगुदा जाता है।
‘उन्हीं भाभी ने विजय को कोठे में बुलाके बहू को भी कोठे के अंदर धकेल दिया। बहू घबराकर बाहर को लौट आयी।‘
‘ड़री सहमी सी बहू आगे बड़ी और चौखट पर ही टिटकी रह गयी सामने बोरा दिखाई दिया अंदर को पांव रखा ही था कि विजय ने बहू को हाथ पकड़कर भीतर खींच लिया। दरवाजा बंद कर लिया। पड़ोसिन भाभी ताली पीट कर हंस पड़ी ’देखी मीरा’ जाके लाने कोऊ सीधों नहीं होत। सब जानत है-जै सब। अपनी जनी सबको के प्यारी लगत।
मीरा शरामाकर भागने लगी तो एक चपत भाभी ने उसके सिर में लगाई ’निराट पगली’ हो मीरा तुम।‘
इस उपन्यास में एक रसता नहीं है। लगातार रस परिवर्तन और प्रसंग बदलते रहने के कारण पाठक बोरियत महसूस नहीं करता। पाठक हर प्रसंग में अपनी उपस्थिति महसूसता है , वह उर्वशी के ब्याह में भी मौजूद रहता है तो सर्वदमन की मृत्यु में भी। उर्वशी जैसी सजग युवती मात्र अपने भाई के परिवार की आर्थिक स्थिति को दृष्टि गत रखकर भावुकता में अपना जीवन दांव पर लगा देती है और दुगनी उम्र के पति के यहाँ तिलतिल घुटकर मरना स्वीकार कर लेती है, यह बात पाठक को चुभती है ।तो पुलिस और अदालत की धमकी देकर गये दाऊ का खानदान की इज्जत और कीचड़ के छीटों के ड़र से घर बैठ जाना पाठक के गले नहीं उतरता। पात्रों की भावा में बुंदेली-खड़ी बोली का मिश्रण कई बार असहज स्थिति सामने ले आता है। आरम्भ में ’काल्पनिक उपन्यास’ की घोषणा करती लेखिका का उपन्यास की भूमिका में ’प्रगतिवादी समाज से गुजरते हुये’ नामक आत्मकथ्य में उदय और बरजोर सिंह के गांव जाने तथा वहां इन पात्रों के मनोभावों और क्रियाकलापों का उल्लेख करना एक विरोधाभास पैदा करता है, पाठक यह नहीं जान पाता है कि यह कथा सत्य है या सत्याभास अथवा यथार्थ और कल्पना की मनमानी खिचड़ी।
बहरहाल उपन्यास में गज़ब की पठनीयता, किस्सों की विपुलता और चरित्रों की विविधता इसे एक जरूरी उपन्यास बना देती है।
पुस्तक-बेतवा बहती रही
प्रकाशक-किताब घर, नई दिल्ली
मूल्य-60 रूपये