।। पत्र ।।
क्या किसी के भी प्रति पूरी तरह जाने बिना उसके लियें राय बना लेना सही हैं, तुम्हारे लियें यदि कोई ऐसा करें तो क्या तुम्हें ठीक महसूस होयेगा? यदि नहीं तो ऐसा मत करों, हाँ! मुझें पूरा जाननें के लियें बहुत धैर्य चाहियें क्योंकि मैंने मानव मस्तिष्क की हर गहराइयों को छुआ हैं, मन की मूल यानी जागरकता का मन की हर परत से परें होकर स्पष्ट अर्थात् शुद्ध अनुभव किया हैं; मुझें जानना जटिल मस्तिष्क को जाननें या मुझें जाननें के लियें धैर्य रखना यानी शांति बनायें रखना उस मन को पूरा जाननें के लियें धैर्य रखने से कम नहीं होंगा, जिसें की यदि तुम जानती हों तो आसानी से धैर्य यानी सब्र को उपलब्ध हो जाओंगी पर यदि खुदके मन को नहीं जानती तो थोड़ी असुविधा तो होयेगी, पर आखिरकार विश्वास करो मेरा तुम परम् यानी सबसें बड़ी सुविधा को उपलब्ध हों जाओंगी।
माना कि I'm Rudra but you..? How rude you are, माना कि कठोरता की अपनी जरूरत हैं पर इसका मतलब यह तो नहीं कि नम्रता की जरूरत खत्म हों जाती हैं,
कठोरता सुरक्षा हैं उनसें जो सब्र की कमी के कारण बिना समझें अनजानें में ही किसी को हानि पहुँचा सकते हैं पर जो कठोरता की जरूरत के प्रति समझ महसूस होने से इस
लिये शांति/सब्र रखें हैं कि जिसनें कठोरता की जरूरत समझ ली वहाँ समझ सकनें की क्योंकि काबिलियत हैं तो विनम्रता को भी अपनाया जायेंगा यानी मन की ऊपरी परत के बाद अंदर की कोमलता की ओर भी ध्यान लें जायेंगा
उनके प्रति विनम्रता का आभाव सुरक्षा की जगह अशिष्टता नहीं होंगी?
तुम्हें आज तक सब्र के साथ सुना हैं न .. तो मेरे लियें यानी मेरी जिज्ञासा के लियें सब्र का आभाव क्यों?
जिस तरह तुम्हारी हर एक बात में गंभीरता से लियें जानें कि लायक़ता मतलब योग्यता हैं, क्या मेरी जिज्ञासायें नहीं, बताया था न कि, जिज्ञासा या cureosities के लियें किसी भी हद तक जा सकता स्वाभाविकता हैं मेरी, कृपया
इनकी ज्वलन्तता से होने वाली मेरी असुविधाओं का तो खयाल करों, मेरी जगह खुद को मतलब पूरी तरह रख कर तो देखों यदि सही में देख पाओगी तो, इतनी बेसब्र हों तुम तों फिर सब समझ आ जाना हैं तुम्हें, मैं बता दूँ..!
तुम किसी के लियें बड़ी सब्र को अपनाओं, फिर उसके पास जिज्ञासा की राल टपकाते-टपकाते जाओं और वो तुम्हारी जिज्ञासा मतलब की तुमसें भाव ही न दें और मुह पर
दरवाजों को बंद कर बार-बार जायें तो क्या यह नाजायज़ नहीं? तुम्हारा कोई मन नहीं हैं, हैं न .. तो उसके प्रति समानुभूति यानी ज़रूरियत अर्थात् अहमियत का अहसास
तो होना चाहियें न ..? यदि कोई मजबूरी, जायज़ता के साथ उसकी मौजूदगी हैं तो कहना ज़रूरी हैं; ऐसे मुह पर बगैर बतायें चलें नहीं जाया करतें।
आइन्दा ऐसा किया तो ऐसा थप्पड़ लगाऊँगा न कि .. एक तरफ़ तो बड़ा सहयोगी स्वभाव यानी helping nature दिखाती हों और दूसरी और यह कोई बेसब्री के साथ जिज्ञासा लेकर आयें तो बदसलूकी ..!!!
वैसें .. तुम यदि कठोरता/लापरवाही/नर्मी, नम्रता या विनम्रता का आभाव नहीं महसूस कराती तो आज कैसें मैं तुम्हारें उन शब्दों का सही मतलब समझ पाता, तो धन्यवाद!
अब यह तो बोलना ही मत कि लड़कियों की इज्ज़त नहीं करतें भईई! तुम .. तुमकों करनी चाहियें, यह थप्पड़ अप्पड़ क्या, यह क्या लगा रखा हैं?
कोई बड़ा या छोटा नहीं हैं, दोनों ही समान हैं जो किसी भी पुरुष को कर सकनें का अधिकार हैं, हर एक स्त्री को भी करनें का अधिकार हैं और इससें उलट भी यानी जो किसी स्त्री के अधिकार छेत्र में आता हैं, क्योंकि दोनों ही समान हैं यहाँ तक कि हर जातियाँ स्त्री, पुरुष, किन्नर आदि भी समान ही हैं तो जो अधिकार उन सभी को हैं; वह सब पुरुषों को भी करनें का अधिकार हैं; थप्पड़ शब्द उपयोग करके इसका अधिकार तुमनें ही दिया हैं मुझें, तो इसमें कुछ भी नाजायज़ नहीं!
।। लेख ।।
क्या किसी के भी प्रति पूरी तरह जाने बिना उसके लियें राय बना लेना सही हैं, तुम्हारे लियें यदि कोई ऐसा करें तो क्या तुम्हें ठीक महसूस होयेगा? यदि नहीं तो ऐसा मत करों, हाँ! मुझें पूरा जाननें के लियें बहुत धैर्य चाहियें क्योंकि मैंने मानव मस्तिष्क की हर गहराइयों को छुआ हैं, मन की मूल यानी जागरकता का मन की हर परत से परें यानी ऊपर उठ कर या होकर स्पष्ट अर्थात् शुद्ध अनुभव भी किया हैं; मैंने अपने मन और आत्मा यानी मेरे पूरे अस्तित्व को स्वयं से जाना हैं जो मेरे जैसे हर जीव के लियें जरूरत रखता हैं क्योंकि आखिरकार शरीर की बीमारीयों यानी समस्याओं की जड़ हमारा और उन परम् यानी सर्वश्रेष्ठ जागरूकता का मन हैं जिस मन का नगणय अंश या हिस्सा हमारा मन हैं और हमारें मन की और शरीर की हर बीमारियों या समस्याओं की जड़ हमारी और उस सर्वश्रेष्ठ आत्मा या होश का होशा यानी जागरूकता हैं, हमारी जागरूकता जिस समर्थ या परम् जागरूकता का नगण्य भाग या अंश हैं ..!और हमारें तन, मन और जागरूकता से संबंधित बीमारियाँ यानी समस्यायें हैं क्योंकि हम हमारें अस्तित्व यानी तन में रहनें वाले मन और आत्मा यानी जागरूकता के अहसास के प्रति जागरूकता के अहसास को लें जा नहीं रहें, जो कि हमारें शरीर, मन और आत्मा के लियें उस जैसा ईंधन हैं जैसा सूर्य की ऊर्जा और प्राण वायु हमारें शरीर का ईंधन; जिस तरह यदि हम भौतिक शरीर को यदि पोषण नहीं दें तो वह अस्वस्थ हों जायेंगा उसी तरह यदि हमारी आत्मा यानी जागरूकता से उसकी मूल यानी जड़ वाली जागरूकता का तालमेल, सामंजस्य या समान योग/ समान जोड़ अर्थात् तारतम्य नहीं स्थापित रहने दिया तो शरीर से लेकर के जो जागरूकता मन के हर हिस्सों यानी मन के अंदर कल्पना को लें जा रही हैं, कल्पना के अंदर चित्त यानी भाव और विचारों तथा स्मृति यानी सारी कल्पना के संग्रह में हैं और उसे चला रही हैं, जो जागरूकता भावना, विचारना स्मृति यानी सभी को आकार देने की योग्यता को जुटा रही हैं उसके लियें समस्या खड़ी हों जायेंगी और उसके द्वारा समस्या अर्थात् उसकी अस्वस्थता यानी कि भौतिक तथा हर उससे जुड़े मन के दायरे की अस्वस्थता अर्थात् परेशानियाँ ..!
सोचों तुम्हारी भौतिक शरीर की जरूरतें जैसे कि भूख, प्यास, नींद, स्वास्थ्य, शारीरिक या शरीर से सम्बंधित संबंधियों जैसे कि माँ, पिता भाई, बहन या हर एक मित्र सभी की भी सामान्य भौतिक जरूरतें यदि पूरी न हो पायें तो कैसें तुम सुविधा में रह पाओगी, नहीं रह सकतें।
सोचों तुम्हारी भावनात्मक शरीर की जरूरतें जैसे कि आलस की भावना असमय नहीं आने देना, समय पर क्रोध तो जब जरूरत नहीं तब नहीं करना, ईर्ष्या, द्वेष, काम, दया, विनम्रता, घृणा, भावनात्मक स्वास्थ्य यानी संतुलन, भावनात्मक या भावना से से सम्बंधित संबंधियों जैसे कि माँ, पिता भाई, बहन या हर एक मित्र सभी की भी सामान्य भावनात्मक जरूरतें जैसे कि अकारण क्रोध न आने देना, घृणा, द्वेष, आलस, दुर्बलता, अधीरता आदि से खुद को परेशान नहीं होने देना यदि पूरी न हो पायें तो कैसें तुम सुविधा में रह पाओगी, नहीं रह सकतें।
सोचों तुम्हारी विचारात्मक शरीर की जरूरतें जैसे कि असमंझस या कश्मकश से मुक्ति बरकरार रखना, किसी के भी प्रति उसकी समझ की उपलब्धि, अन्य बौद्धिक जरूरतें यानी बौध्दिक शारीरिक या विचारात्मक शरीर से सम्बंधित संबंधियों जैसे कि माँ, पिता भाई, बहन या हर एक मित्र का बौध्दिक दायर या सभी की भी सामान्य बौद्धिक जरूरतें यदि पूरी न हो पायें तो कैसें तुम सुविधा में रह पाओगी, नहीं रह सकतें।
सोचों तुम्हारी काल्पनिक शरीर की जरूरतें जैसे कि किसी भी कल्पना, भावनात्मक कल्पना, विचारात्मक कल्पना, स्मरणात्मक कल्पना या फिर पुरानी भावनाओं विचारणाओं या कल्पनाओं में से किसी भी कल्पना तक उपलब्ध होने को आकार देने या काल्पनिक शरीर से सम्बंधित संबंधियों जैसे कि माँ, पिता भाई, बहन या हर एक मित्र सभी की भी सामान्य काल्पनिक जरूरतें यदि पूरी न हो पायें तो कैसें तुम सुविधा में रह पाओगी, नहीं रह सकतें।
सोचों तुम्हारी हर एक संबंधित जरूरतें या सम्बंधित संबंधियों जैसे कि माँ, पिता भाई, बहन या हर एक मित्र सभी की भी सामान्य हर जरूरतें यदि पूरी न हो पायें तो कैसें तुम सुविधा में रह पाओगी, नहीं रह सकतें।
तो अभी तुम उस पेड़ की जिसकी हर एक जरूरतें छोटे बड़े हिस्सों हैं जो जड़ वाला हिस्सा हैं उस पर ध्यान देने की जगह अन्य हिस्सों पर ध्यान रूपी जल दें रही हों यानी अपने अस्तित्व को अज्ञानता वश असुविधा की दिशा में लें जा रही हों; एक ढंग में नासमझी में खुद से खुद को थप्पड़ मार रही हों, देखो! खुद को रोक लों और जड़ पर ध्यान रूपी जल दों .. अधीरता यानी बेसब्री के कारण पेड़ की टहनी, फूल आदि जैसे हिस्सों पर ध्यान मत दों।
मुझें जानना जटिल मस्तिष्क को जाननें या मुझें जाननें के लियें धैर्य रखना यानी शांति बनायें रखना उस मन को पूरा जाननें के लियें धैर्य रखने से कम नहीं होंगा और जिस जागरूकता या चेतना या आत्मा यानी जागरूकता के अहसास का शुद्ध अहसास मन से अलग अनुभव करनें में जीवों को जन्मों लग जातें हैं वह अनुभव कर रहा हूँ मैं तो मुझें जानना खुद के पूरे अस्तित्व को जाननें के जैसा होगा, पर भौतिक, भावनात्मक, तार्किक या विचारात्मक, स्मरणात्मक, काल्पनिक और आत्मिक यानी खुद से संबंधित हर एक दायरें का ज्ञान यानी अनुभव अर्थात् आत्म ज्ञाप्ति, ज्ञान यानी परिचय; उसे जानने की जरूरत जड़ हैं हमारे अस्तित्व से संबंधित हर हिस्सों के जरूरतों वालें पेड़ की ..! अभी तुम तुम्हारी शरीरिक जरूरतें जैसे कि भूख, प्यास, परिवार आदि उन सभी शरीर से संबंधित की जरूरतें पूरी कर रहें हों जिनका जन्म से लेकर अब तक तुम्हारे भौतिक शरीर से संबंध हैं, पर यह तुम्हारे पूरे अस्तित्व के पेड़ का जड़ से दूर का नगण्य हिस्सा हैं; पूरे अस्तित्व की जरूरतों के पेड़ का एक फूल, टहनी या उन जैसा कोई और भाग; यह अस्तित्व के जरूरत के पेड़ का जड़ वाला हिस्सा तो नहीं तो जो अस्तित्व के जड़ वाला हिस्सा हैं तुम्हारे..! मेरे अस्तित्व के उस हिस्सें पर पर्याप्त ध्यान जिसनें दिया हैं जिससें किसी के भी अस्तित्व की जड़ पर दिया गया जो ध्यान हैं, वो हूँ मैं, मेरे माध्यम् से अस्तित्व की जड़ पर ध्यान रूपी जल यदि दोंगे तब जाकर अस्तित्व से संबंधित हर एक जरूरतों की पूर्ति असलियत में होंगी नहीं तो न घर की रहोंगी न ही घाट की यानी कि क्योंकि अस्तित्व की जरूरत के पेड़ के जिस हिस्सें पर तुम ध्यान दें रहे हों क्योंकि वह जड़ वाला नहीं हैं तो केवल धोका होंगा कि शारीरिक या भौतिक, स्मरणात्म, विचारात्मक, भावनात्मक या फिर काल्पनिक हर हिस्सों की अस्तित्व के पेड़ के पूरी जरूरतें पूरी करी जा रहीं हैं, वास्तविकता में कोई जरूरतें पूरी नहीं होंगी और आखरी में असंतुष्ट ही रहना होंगा।
मैं साफ़ अनुभव कर पा रहा हूँ कि मेरी बातों में तालमेल शब्द पर बाधित या ब्लॉक करनें की धमकी,
मेरे research में या ज्योतिष श्रोध में सहयोगी के पात्र महसूस करनें पर सहयोग करनें का विकल्प देने को हावी होनें या मुझें dominating समझने की गलती,
और अब यह आग के इमोजी पर बेतुकी means illogical टिप्पणी तुम्हारें द्वारा इसको बताना मतलब मज़ाक था यह कहना..!
जो subconsciously मन को समझ आ गया बस उसे ठीक मान लिया, अरें बात कहने वाले का मतलब क्या हैं थोड़ी मतलब पर्याप्त शान्ति रखोंगी तब सटीक/accurate समझ आयेंगा न ...
मैंने अनुभव किया हैं कि मेरी तरह ही तुम्हारा dominating nature/ हावी होनें का स्वभाव नहीं हैं, हम तो किसी पर हावी नहीं हों पर बस कोई और भी हम पर हावी नहीं हों पायें इस लियें अंजाम दी गयी आत्म रक्षा को बेसब्र लोगो के द्वारा dominating nature नाम दें दिया जाता हैं।
तुम चाह कर भी किसी के प्रति हावी नहीं हों सकती क्योंकि कोई तुम पर हावी या तुम्हारे प्रति dominating हों यह तुम्हें अबर्दस्त हैं, भला जो जलता हुआ कोयला कोई खुद हाथ में नहीं लें सकता वह कोई दूसरें को कैसें दें सकता हैं? नहीं! नहीं दें सकता।
मुझें ही देख लों.. कोई मुझ पर हावी होंने के नाकाम प्रयास बार बार करें तो मैं raudra/रौद्र न हों जाऊ ... तो मेरा नाम रुद्र नहीं! ऐसे वक्त पर मूर्खों की अक्ल ठिकाने पर लानें वाला और उनकी औकात दिखाने तथा उनकी सीमा में रहना सिखाने वाला उनके लियें ‛ रौद्र! रौद्राचार्य ’ हूँ मैं..! मुंडी काट के थोथरी/जबड़ा फाड़ देने वालो में से हूँ मैं ऐसी स्तिथि में..! जो दूसरों को अपनें से कम आंकते हैं, स्वतंत्रता का महिलाओं के लियें पुरुष और पुरुषों के लियें महिलाएँ कम अधिकारी मानतें हैं, जो जीव या मनुष्य अन्य जीव जंतुओं को मतलब दूसरें जीवनों की स्वतंत्रता के दुश्मन हैं उनके लियें अभी हाल भी .. ‛ मेरा खून खौल रहा हैं ’, उन हर एक नासमझी रूपी खून के कतरे-कतारें को घूँटों में पी जानें का इक्छुक हूँ मैं ..! भला मैं पुरुष या मनुष्य हुआ तो क्या जो अधीन दूसरों के रहना मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता, जो धधकते हुयें असंख्य के बराबर एक सूर्य को मैं हाथ में नहीं लें सकता वह पुरुष प्रधान सोच वाला या मनुष्य प्रधान सोच वाला होकर कैसें मैं दूसरों के हाँथो में दें सकता हूँ, नहीं! न पुरूष पहले या श्रेष्ठ हैं और न ही स्त्रियाँ पहले या प्रधान हैं, न मनुष्य जात पहले हैं न ही कोई अन्य पशु पक्षियों या जीव जंतुओं की जातियाँ यह सब पूरी तरह समान स्वतंत्रता के पात्र हैं और एक दूसरें से केवल प्रेम के बंधन में ही होना चाहियें, वह प्रेम जो कि सभी में आत्मा से आत्मा के प्रति हों, शरीर (पाँचो कर्म इंद्रियों, ज्ञान इंद्रियों यानी बाहरी शरीर से लेकर अंदर के शारिरिक अंगों जैसे ख़ून, हड्डियों, मांसपेशियों, चर्बी आदि अंगों में) मन यानी कि (कल्पना, स्मृति यानी हर भावों और विचारों) यानी शरीर और मन के पीछे की सुंदर अहसास या अनुभूति धधक रही उस परमात्मा स्वरूप असीम स्वतंत्रता के सूरजो की भांति ज्वाला की भांति जल जैसे मन के पीछे की अनुभूति जो हैं, उससें मेरी अखंड प्रीत हैं यही कारण हैं कि जो उसके जितना निकट हैं उतनी अधिक उसके लियें मेरी चाहत हैं और ऐसा ही प्रेम यानी मेरे जैसा प्रेम सभी को भी होना ही चाहियें।
हाँ! student तो मैं खुद से संबंधित छोटे से छोटे हिस्सें से लेकर उस परम् पिता परमात्मा तक का हूँ, सीखनें के लियें क्योंकि हर जगह हैं और जिज्ञासा की पूर्ति के लियें छोटे से छोटे किसी अपनें संबंधी के आगें झुक कर उसके स्तर तक जा सकता हूँ तो उसे सबसें श्रेष्ठ जागरूकता की भी ऊँचाई जितना उस ईश्वर, अल्लाह, उस सच्चे गुरु नानक और सब यानी हर आकार से लेकर निराकार भी हों जानें में न कभी संकोच किया, न कर रहा हूँ और न कभी करूँगा भी कभी ..!
तुम्हारा थप्पड़ मुझें नहीं मेरी ऐसी ऐसी नासमझी के लियें था जिसें मैंने कभी अपनाया ही नहीं; विश्वास नहीं हों तो go and read my Theory - Psychology Of Love!! मैं उसके लियें जिम्मेदार हूँ जो मेरे कहने का मतलब हैं, उसके लियें कौन जिम्मेदार .. वही न जिसनें मतलब निकाला।
ज्ञान असीम हैं, सभी में हैं सब के पास में हैं उससें सब को समझौता अबर्दास्त होना चाहियें; तुमनें जाना कि मैं तुमसें सीखता हूँ; सत्य हैं बहुत कुछ सीखा हैं मैंने तुम्हारें दायरें सें इसलियें अब संबंध अर्थात् समान बंधन क्योंकि सीखने सिखाने का हों गया हैं तो कुछ मुझसे भी सीख लों .. वैसें गुरु और शिष्य के संबंध में यानी उच्च या नीच पर विश्वास नहीं रखता मैं, हाँ! गुरु से गुरु का संबंध, सही यही हैं, यही सही कि मुझें जो कहना हैं वह कहों, अच्छा बुरा मेरे लियें सब समान हैं कोई फर्क नहीं पड़ता मुझें पर बशर्ते पहलें जानो तों... थप्पड़ के लायक हमारी लापरवाही हैं पर हम साला उसी से थप्पड़ खा रहें हैं, चलों एक दूसरें की न समझी को कुछ ऐसे थप्पड़ लगायें कि लापरवाही जो हमारें रहते हमसें संबंधित सब के साथ हों रही हैं; अन्याय जो हर वर्ग के साथ में हैं उसे थप्पड़ मारने की सारी हदें पार हों जायें।
जिससें फिर सुंदर समता ही रहें, वह समता जो हर आकार और यहाँ तक कि आकार रिक्तता की भी वास्तविकता हैं।
चलों तुम्हारें किसी को भी पूरा जाने बिना उसके लियें धारणा बना लेना, इस अज्ञान को साथ मिल कर थप्पड़ लगायें..! ऐसा थप्पड़ लगायेंगे न कि यह अज्ञान क्या बल्कि इसका हर एक हिस्सा, जो चुपचाप से तुम्हें थप्पड़ लगाता रहता हैं न .. साला टल जायें!! समझों बला टली ..!
- सदैव एक शुभ चिंतक
।। लेखक और लेखन परिचय ।।
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रिक्तत्व की सन्निकट प्रकटता हैं शरुप्ररा अर्थात् मेरी प्रत्येक शब्द प्राकट्यता, सत्य मतलब की मुमुक्षा ही जिसके प्रति जागरूकता को आकार दें सकती हैं अतः मुक्ति की योग्य इच्छा ही इसके प्रति जागृति उपलब्ध करायेंगी, मतलब साफ हैं कि मेरी हर बात केवल योग्य मुमुक्षु के ही समझ आयेंगी अतएव मुमुक्षा लाओं, नहीं समझ आनें के बहानें मत बनाओं क्योंकि ऐसा करना खुद के प्रति लापरवाही हैं, जो खुद की परवाह के प्रति जागरूक नहीं, वह कहाँ से मुक्ति की तड़पन अर्थात् मेरी अभिव्यक्ति को अहसास यानी समझ में लानें की पात्रता लायेंगा और योग्यता के आभाव से निश्चित मर्म सें इसकें चूक जायेंगा, इशारें जिस ओर हैं वह दृश्य का अहसास, भावना, विचार, कल्पना यानी हर आकार के अहसासों से भी सूक्ष्म तथा परे यानी दूर का अहसास हैं, मेरे दर्शायें शब्द, उनके माध्यम् से लक्ष्य बनायें भावों, भावों के सहयोग से लक्षित विचारों और उनके माध्यम से हर काल्पनिकता की ओर संकेत दियें जा रहें हैं यानी हर आकारों को रचनें की योग्यता की मध्यस्थता उस अंतिम ध्येय तक सटीकता से इशारा करनें में ली जा रही हैं जिससें उस आकर रिक्तत्वता की योग्यता के परिणाम से आकार रिक्तता के अहसास पर सटीकता के साथ किसी भी जागरूकता या ध्यान को लें जाया जा सकें अतएव आपका ध्यान मन के सभी दायरों से परें देख पायेंगा तो ध्येय उसका हैं।
मन इतना गहरा हैं कि २४/०७/३६५ भी यदि इसें जाननें में समय दिया जायें तो कम हैं, किसी को तैरने आता हैं इसका प्रमाण इससें बड़ा क्या हों सकता हैं कि जब भी परिस्थितियों के द्वारा करों या मरों वाली स्तिथि को आकार दिया जा सकेगा; तब सहजता से वह पानी में कितने की गहरे जाने की व्यवस्था को सुरक्षित आकार में लाने को, सफलता पूर्वक कर पायेंगा, मूल गुरु परिस्थिति हैं इसलियें जब सही मतलब में जरूरी होंगा तब वह खुद ब खुद तैरने को सिखा देंगी और करों या मरों वाली परीक्षा लेकर तैरना आना यानी प्रमाण पत्र मिल जाना होता हैं यह बता देंगी अतएव यह कागज़ के फोतरो (टुकड़ों) को जुटाने में वह समय लगाना, जो कि पानी में गहरे, और गहरे जाने में देना चाहियें पूरा ही, क्योंकि जीवन निकल सकता हैं किसी का भी पानी की गहराई में खुद को सुरक्षित रख सकनें में पूर्णतः इसकी योग्यता प्राप्त करनें में, समय नहीं हैं तैरो-बस तैरो, मन को जानो, खुद से जानो बस; किसी को भी सिखाओ भी मत क्योंकि क्या तुम्हें तुम जैसा कोई और सीखा रहा हैं, नहीं बल्कि परिस्थितियों ने खुद तुम्हें सीखनें को दिया, जिज्ञासा में पर्याप्त ज्वालामुखी की तरह ज्वलन्तता होयेंगी तो वह यानी दूसरें खुद ब खुद सीख जायेंगे, क्योंकि जिज्ञासा में ज्वलंतता की पर्याप्तता ही प्रवेश पत्र हैं परिस्थिति यानी मूल गुरु से सीखनें के लियें जरूरत रखता हैं, यदि जिज्ञासा में पर्याप्तता नहीं तो इसका मतलब हमें सीखनें की अभी सही अनुभव में यानी मतलब में सीखनें की जरूरत ही नहीं पड़ी अर्थात् नहीं महसूस हुयी और सीखना इस पर निर्भर नहीं करता कि सिखाने वाला सिखा सकता कि नहीं, जो सही में सिख सकता हैं वह तो जिस माध्यम् से उसनें सीखा, उस माध्यम् की मध्यस्थता करके यानी एक तरीके से परिस्थितियों के ही माध्यम् से सीखा सीखा भी सकता हैं पर जैसा पहलें कहा कि सीखानें वालें में सिखा सकनें का सामर्थ्य या दम हैं या नहीं केवल इस पर सिखाना निर्भय नहीं करता बल्कि निर्भर इस पर भी करता हैं कि सिखाने वाले में भी ग्रहण करनें की भूख या जिज्ञासा सीखा सकनें जितनीं ज्वलंत हैं या नहीं..!
सभी का मन जितना एक दूसरें से समान हैं उतना ही एक दूसरें से अलग भी हैं, कोई भी मनोचिकित्सक या मनोवैज्ञानिक जों खुद के मन के अलावा यह कहता हैं कि मैं अधिकतर सभी के मन को समझ सकता हूँ तो यह उसमें की बात हुई कि पेड़ की जड़ की ओर जानें में असुविधा के कारण वह कह रहा हैं कि मैं पेड़ की टहनियों, फूल पत्तों जैसें हिस्सों पर ध्यान रूपी जल दें सकनें से उनका ध्यान या खयाल रख सकता हूँ, अब भला कोई यदि बिना खुद के मन को पर्याप्त समय दिये यानी उसका बिना पर्याप्त विश्लेषण कियें यानी ध्यान रूपी जल को उधर उपलब्ध करवायें, तो अन्य सभी के मन या दिमाग जो हैं उनकों प्रेरणा देना होंगा और एक सही ढंग में हर दिमागों या मन पर भी ध्यान देना या ध्यान या फिर खयाल रख सकनें की काबिलियत होना होंगा, जिससें ध्यान रखा जा सकता हैं, नहीं तो पेड़ की जड़ पर ध्यान रूपु जल पर्याप्त दिये बिना उसके दूसरें हिस्सों पर कितना ही ध्यान किसी के द्वारा दियें जाने का प्रयत्न हों, न जल रूपी ध्यान देना यानी कि ध्यान या खयाल रख सकता जड़ का यानी खुद के मस्तिष्क या मन का सफलतापूर्वक हों पायेंगा और न ही अन्य के मस्तिष्को या मन का भी क्योंकि आखिरकार जो खुद के मन को नहीं जानेगा वह क्या दूसरों का इलाज कर पायेंगा, इसलियें खुद से जानों, खुद को जानों पहले तुम खुद असली यानी मौलिक हों कि नहीं यह तो स्पष्ट कर लों यानी कि तुम खुद को खुद की अभिव्यक्ति या कोई आकार व्यवस्था जिसे कि जाने अंजाने तुमनें ही आकार दिया वह तो नहीं मान रहें भृम वश, इस बात बार को सत्यापित करों तब तुमनें जो कुछ भी असली ज्ञान जुटाया यानी मौलिकता की निकटता वाला, यह जानना अन्यथा जिस कसौटी पर तुम किसी भी ज्ञान को वैज्ञानिक यानी असल का या असली सिद्ध हुआ कहते हों, वह ही मिथ्या हुआ यानी कि पर्याप्त खोज होने पे सभी इंद्रियों की मूल जो ज्ञान प्राप्ति का माध्यम यानी इंद्री हैं, यानी जो शास्वत यानी आज हैं तो कल नहीं ऐसी नश्वर नहीं अपितु सदैव अनुभव कर सकनें से असली होंगी, मूल से निकल यानी मौलिक या original होंगी उस इंद्री की जगह तुम किसी भी खुद से संबंधित का विज्ञान यानी ऐसा ज्ञान जो असली या वास्तविक इंद्री पर आधारित हैं, मतलब कि किसी भी ज्ञान के भृम वाली इंद्री के द्वारा सत्यपित होने के स्थान पर शास्वत इंद्री द्वारा सत्यपित नहीं उसे ही या उस ज्ञान को ही तुन यानी उस गलत मतलब के विज्ञान को ही तुम सही या original अर्थात् वास्तविक ज्ञान मान लोंगे, जो ज्ञान संकीर्णता से ग्रसित होने से वास्तविकता में विज्ञान नहीं वही तुम्हारें लियें विज्ञान होंगा, जैसे कि अभी तथाकथित विज्ञान हैं और तुम वास्तविक विज्ञान को यानी स्वयं से संबंधित हर ज्ञान से, छोटे बड़े हर आकार के ज्ञान से लेकर अनंत असीमित आकरों और आकार कल्पितता के ज्ञान यानी अनुभव से और उस कल्पितता की योग्यता के मूल अर्थात् उसकी या उसको आकार देने वाली आकार रिक्तता के ज्ञान यानी अनुभव से अछूते यानी वंचितता को उपलब्ध होंगे; जिसे खुद के स्तर से उसका ज्ञान होता हैं यानी उस असली ज्ञान की उपलब्धि होती हैं अर्थात् वो ही असली विज्ञान को उपलब्ध हो सकता हैं, नहीं तो जिन्हें नहीं वह गलत यानी नश्वर खुद के ज्ञान या अनुभव से असलियत या मौलिकता अर्थात् वास्तविकता को जानना चाहेंगे और नश्वर से वास्तविकता अर्थात् ईश्वर को जाननें में उसकी पूर्णता से चूक जायेंगे, यदि किसी छोटे बड़े किसी आकार से जानना चाहेंगे तो, सत्य या असलियत के भृम यानी माया को सत्य मान बैठेंगे, यदि आकार रिक्तता यानी केवल उस नश्वर नहीं शाश्वत मूल,मौलिक यानी असली अहसास से जानेंगे; तब ही सही से साक्षात्कार होंगा।
मेरी याददाश्त की कोई अभ्यस्थता नहीं हैं, हमेशा अनुभव हों या जानकारी यानी समझ वह मौलिक हों इसलियें उसे उसके मूल से ही उठाना मेरी स्वाभाविकता हैं, मेरी originallity हैं और जो भी बाहर से पढ़ने में आ भी जाता हैं, मेरी मौलिकता में कोई, मेरी शुद्धता में कोई मिलावट हों न जायें, इसलियें वहाँ से ध्यान को पूरी तरह छीर्ण करता हूँ मैं इसलियें मेरी हर बात, खुद से जानने के फलस्वरूपित यानी फल के स्वरूप हैं, जो भी हैं अपने आप में पूर्ण वास्तविकता का ज्ञान हैं यह!! क्योंकि मौलिक अर्थात् असलियत या originality से समझौता आबर्दास्त हैं मुझें।
समय - सोमवार, ०७ अगस्त २०२३, ०९:५१.
- © Rudra S. Sharma
(Psychiatrist/Psychologist, Author.)
Theorist | Analyst Psychology By Passion & My Passion Is My Profession.
Have 05 Yrs. Of Experience In Psychoanalysis / Introspection With Thousands Of Successfully published Articles In Psychology.
Founder - Shruprra Psyche, Philosophy Or Shruprra Psychology - A Psyche,Philosophy or Psychology Of Mind's Realm of Shruprra (Me/Rudra S. Sharma).