हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 54 Shrishti Kelkar द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • स्वयंवधू - 31

    विनाशकारी जन्मदिन भाग 4दाहिने हाथ ज़ंजीर ने वो काली तरल महाश...

  • प्रेम और युद्ध - 5

    अध्याय 5: आर्या और अर्जुन की यात्रा में एक नए मोड़ की शुरुआत...

  • Krick और Nakchadi - 2

    " कहानी मे अब क्रिक और नकचडी की दोस्ती प्रेम मे बदल गई थी। क...

  • Devil I Hate You - 21

    जिसे सून मिहींर,,,,,,,,रूही को ऊपर से नीचे देखते हुए,,,,,अपन...

  • शोहरत का घमंड - 102

    अपनी मॉम की बाते सुन कर आर्यन को बहुत ही गुस्सा आता है और वो...

श्रेणी
शेयर करे

हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 54


समाज सुधारक - श्रीभाईजी


समयके प्रवाहके साथ ही हमारे समाजकी बहुत-सी प्रथाओंमें बुराइयाँ आ गई थी। भाईजीका ध्यान इस ओर युवावस्थासे ही था. बम्बई जीवनमें अग्रवाल महासभाके सक्रिय सदस्य रहकर उन्होंने प्रचलित बुराइयोंको हटानेका पूरा प्रयास किया। 'कल्याण यद्यपि पूर्ण तथा आध्यात्मिक पत्र था पर फिर भी समय-समयपर भाईजीने 'कल्याण' के माध्यमसे एवं सत्संगों में अपने प्रवचनों के माध्यमसे ऐसी कुप्रथाओंको रोकनेके लिये पूरी चेष्टा की। जिस दहेजकी प्रथाने आज हमारे समाजको त्रस्त कर रखा है उसको भाईजीने अपनी दूरदर्शी दृष्टिसे पचास साल पहले ही देखा था। कल्याण के जून 1955 अंकमें उन्होंने लिखा–

“...दहेज लेना बहुता बड़ा पाप है। 'कल्याण' में कई बार अपील की गयी है। पता नहीं हमारी मनोवृत्ति कितनी नीची हो गयी। मुझे बड़ा आश्चर्य होता है, जब कॉलेजोंके सुशिक्षित प्रगतिशील युवक .. गरीब कन्याके पितासे दहेजके लिये अड़ जाते हैं। मैं ईश्वर और मानवताके नामपर देशके लोगोंसे लड़कोंसे और उनके अभिभावकों से अपील करता हूँ कि वे दहेज न लेनेकी प्रतिज्ञा करें और अपनेको तथा समाजको इस बढ़ते हुए पाप और दुःखसे बचावें।”

अपने प्रवचनोंमें वे और भी कड़े शब्दोंमें सचेत करते थे। कई बार लिखने कहने पर जब यथेष्ट परिणाम नहीं हुआ तो उन्होंने पुनः 'कल्याण' में अपील की–
मैं पुनः धनी मध्यवित्तके तथा पढ़े-लिखे नवयुवकों और उनके अभिभावकों से विशेष रूपसे अपील करता हूँ कि वे त्याग करके आगे बढ़े, बिना दहेजके विवाह करना स्वीकार करके सबके सामने आदर्श उपस्थित करें। सहृदय लोगोंको चाहिये कि वे स्थान-स्थानपर ऐसी समितियाँ बनाकर दहेजकी बुराइयों और पापोंको नम्रता तथा विनयपूर्वक लड़कों तथा उनके अभिभावकों को समझाकर उन्हें इस पापसे विरत करें। दहेजके धन से जीवनका काम नहीं चलता पर यह एक मोह है।..

मेरी कन्या-पक्षके लोगों से भी यह प्रार्थना है कि वे अपनेसे ज्यादा धनी न खोजकर सुयोग्य गरीब लड़के खोजें और उनसे अपनी कन्याका विवाह करें समान घरमें जानेसे कन्या ज्यादा सुखी रह सकती है।

वे केवल ऐसा उपदेश करते थे, ऐसी बात नहीं है। जीवनसे भी उन्होंने अनुपम आदर्श रखा। उनके कोई पुत्र तो था नहीं, दो दौहित्र थे। बड़े दौहित्र सूर्यकान्तकी सगाई अक्टूबर 1967 में हुई। उस समय उन्होंने स्पष्ट कहा- हमें दहेज बिल्कुल नहीं लेना है। शास्त्र सम्मत विधिके अनुसार सारे कृत्य हों और मर्यादानुसार सादगी सहित विवाह हो। इसी बातको और स्पष्ट करते हुए कहा-दहेजके नामपर कुछ भी नहीं लेना है। पिता अपनी कन्याको जो देना चाहे दे पर वह भी एक सीमाके अन्दर ही। इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। अग्रवाल समाजकी प्रथाके अनुसार 'दात' 'आँगी मेवा', 'हरा-भरा', 'बड़ी मिलनी' यह सब कुछ नहीं। इस फिजूलखर्ची और वृथा-आडम्बरको समाजसे दूर रखनेकी बड़ी आवश्यकता है। देशकी ऐसी स्थिति नहीं है कि समाज इस प्रकारके रीति-रिवाजोंको सहन कर सके।

केवल इतना ही नहीं अपने घरमें भी फिजूल खर्ची और आडम्बरको रोका गया। सगाईके समय मिठाई बाँटनेकी और आगन्तुकोंको मिठाई खिलानेकी परम्परा-सी बन गई है। भाईजीने पहले ही निश्चय कर लिया कि सगाईके समय न मिठाई बाँटी जायगी न उस समय खिलाई जायगी। उस समय श्रीघनश्यामदासजी जालानके पुत्र श्रीरामदासजी जालान बैठे थे। ये बचपनसे ही श्रीसेठजी-भाईजीके परिवारके सदस्य की तरह थे और बोलनेमें थोडे चपल थे। उन्होंने कहा--"ताऊजी ! यह तो आपने खर्च बचानेका अच्छा उपाय निकाल लिया। सगाईकी खुशीमें जो लोग आयें उन्हें मिठाई भी नहीं खिलाई जाय। भाईजीने स्पष्टीकरण किया -- "अपने समाजमें पहले यह प्रथा नहीं थी। इधरमें कुछ समय से यह प्रथा चल पड़ी है कि सगाईके समय आये स्वजनोंको मिठाई खिलाई जाय। शास्त्रकी विधि एवं मर्यादाका तो पूरा पालन होना चाहिये पर व्यर्थके आडम्बर और फिजूल खर्चीसे समाजको बचाना चाहिये। जहाँतक मिठाई खानेका प्रश्न है-- घर आपका है, चाहे जब मिठाई खा सकते हैं। पर सगाईके समय नहीं। जहाँ तक रुपया बचानेका प्रश्न है-- ऐसी बात नहीं समझनी चाहिये। इस बचाये हुए धनका प्रयोग अन्यत्र होगा और रु० 1001) आर्त-जनोंकी सहायतामें व्यय किया जायगा । समाजमें जो लोग विवाह आदि अवसरोंपर जो फिजूलखर्ची और आडम्बर दिन पर दिन बढ़ाते जा रहे हैं उन्हें भाईजीकी इस बातपर जरूर ध्यान देना चाहिये।

इसी तरह विधवा-विवाहका भी भाईजी विरोध करते थे। वे अपने प्रवचनों में कई बार कहते थे कि मैंने अच्छी तरह सोचा है, मुझे विधवा-विवाहमें न विधवाका हित लगता है, न समाजका। इसलिये मैं किसीके कहने से विधवा-विवाहका समर्थन नहीं कर सकता। इसी तरह बहु विवाहका भी वे विरोध करते थे। उनका तीसरा विवाह 23-24 सालकी उम्रमें दादीके आग्रहपर हुआ था। वे कहते थे -- यद्यपि मेरे तीन विवाह हुए हैं अतः मुझे कहनेका अधिकार तो नहीं है पर इसे अच्छा नहीं मानता विशेषतयाः बड़ी उम्रमें और पुत्र होनेकी स्थितिमें। मेरी प्रार्थना है कि जिनके पुत्र हो और उम्र बड़ी हो गयी हो वे पुनः विवाह न करें। उन्होंने 'समाज-सुधार' नामक एक पुस्तक भी लिखी थी जो वि० सं० 1685 में प्रकाशित हुई थी। खेद है कि आजकल वह पुस्तक प्रकाशित नहीं हो पा रही है।