।। श्रीहरिः ।।
दिव्य जीवन की एक झलक
हमारा सौभाग्य है कि हमारी वसुन्धरा कभी संतों से विरहित नहीं रही। संतों की चेष्टायें साधन काल में भी एवं सिद्धावस्था में भी विभिन्न प्रकार की होती हैं पर होती है समस्त जगत् के कल्याण के लिये। हम अपनी रज-तमाच्छादित मन-बुद्धि के द्वारा संतों को पहचान नहीं सकते। देवर्षि नारदजी के सूत्र ‘तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्’ के अनुसार श्रीभगवान् एवं उनके परम भक्त में भेद का अभाव हो जाता है। ऐसी स्थिति में संतों की तुलना करने की चेष्टा करना महान् मूर्खता है। मेरे जैसे व्यक्ति के लिये संत को पहचानना ही संभव नहीं है तब कोई तुलना करने की कल्पना भी मन में नहीं है। सभी ज्ञात-अज्ञात संतों के चरणों में सभक्ति साष्टांग प्रणाम करके अपने मन की बात लिख रहा हूँ।
विगत 15-20 वर्षो से संतों-भक्तों के जीवन चरित्र पढ़ने में मेरी रुचि रही है। ऐसे पठन से सत्प्रेरणा मिले यह भाव तो था ही साथ में यह भी था जो विशेषताएँ मुझे पूज्य श्रीभाईजी में प्रतीत हो रही हैं उनका दर्शन अन्यत्र कैसा है ? यद्यपि मेरा अध्ययन बहुत व्यापक नहीं है इस कारण मैं कोई दावा नहीं कर सकता पर तीन बातें मुझे भाई जी में बहुत विशेष लगीं। संत चाहे अभेदोपासक हो या भेदोपासक मोटे रूप में हम ब्रह्ममें स्थिति होने या साकार विग्रह के साक्षात् दर्शन होने पर ही सिद्ध संत कहते हैं। दोनों स्थिति ही स्वसंवेद्य है। अतः किसी को पता लगना कठिन ही होता है। सत्यता का दर्शन तभी संभव है जब या तो स्वयं संत कृपा करके संकेत कर दें या भगवान कोई ऐसी प्रकटीकरण की लीला प्रस्तुत कर दें।
पहली बात पू० भाईजी को विष्णु भगवान् के साक्षात् प्रथम दर्शन हुए आश्विन कृष्ण 6 शुक्रवार वि० सं० 1984 (16 सितम्बर सन् 1927) को जसीडीह में मारवाड़ी आरोग्य भवन के समीप की पहाड़ी पर महेन्द्र सरकार की कोठी के पूर्व-दक्षिण भाग में सीताफल के वृक्ष के समीप 15 महानुभावां की उपस्थिति में। इसका विस्तृत वर्णन कई पुस्तकों में प्रकाशित हो चुका है। अब यदि कोई पू० श्रीसेठजी एवं भाईजी के कथन को असत्य मानें या उनमें दंभ के अंश की जरा भी कल्पना करें उनको तो न कुछ कहने की आवश्यकता है न मेरे लिखे को पढ़ने की ही। उपस्थित लोगों में से 2-3 महानुभावों से मैंने स्वयं जिज्ञासा की एवं उनसे पूर्ण सन्तोषजनक उत्तर मिला। कुछ वर्षों
पूर्व तक ये व्यक्ति जीवित थे। घटना का पूर्ण वर्णन प्रतिष्ठित प्रकाशक श्रीघनश्यामदास जी जालान द्वारा गीताप्रेस के मारवाड़ी भाषा में लिखित एवं स्वयं भाईजी द्वारा संशोधित अभी भी पू० पिताजी श्रीगम्भीरचन्दजी के संग्रहमें सुरक्षित है। यह एक आध्यात्म जगत् की अनोखी घटना है जिसने स्वयं भाईजी को विस्मय में डाल दिया। दूसरी ऐसी ही घटना फिर तीन दिन बाद 19 सितम्बर 1927 को उसी स्थान पर घटित हुई। जब भाईजी स्वयं समाधान न कर पाये तो श्रीसेठजी से पूछा कि जो कार्य एकान्त में होता। वह इतने लोगों के समक्ष क्यों हुआ? श्रीसेठजी ने यही उत्तर दिया कि इससे जगत् को लाभ ही होगा। यह काम समझकर ही हुआ है। जिसके द्वारा भगवद्भक्ति के प्रचार की अधिक संभावना होती है, उसी को भगवान् इस प्रकार दर्शन देते हैं। इसके बाद गोरखपुर आने पर चार बार साक्षात् दर्शन एवं वार्तालाप हुआ जिसका वर्णन भाईजी की डायरी एवं श्रीसेठजी को लिखे पत्र में मिला। आगे चलकर उनका श्रीराधाकृष्ण की लीलाओं में प्रवेश हो गया जिसके लिये उन्होंने लिखा— “मन में शत-शत विचित्र लीलाएँ एवं श्रीराधाकृष्ण की रूप-माधुरी देखी, समझी और किसी-किसी लीला ने सम्मिलित होने का सौभाग्य प्राप्त किया।”
अधिक विस्तार यहाँ न करके केवल इतना ही इंगित करना है कि जितने भी साकारोपासक सिद्ध संत हुए हैं उनको इष्ट के साक्षात् दर्शन हुए ही है। विभिन्न कालों में अनेक स्मरणीय-वन्दनीय संतो का प्रादुर्भाव हुआ और उनका उल्लेखनीय चरित्र–साहित्य विपुल और विशद है। अधिकांश संतों के जीवन चरित्र प्रायः श्रद्धालु विद्वानों द्वारा ही लिखे गये हैं। यह कहा जाता है कि श्रद्धातिरेक में लेखकों ने ऐसे वर्णन कुछ बढ़ा-चढ़ाकर लिखे हैं। इस बातको आंशिक स्वीकार भी करें तब भी उस विस्तृत वर्णन में इतना प्रमाणिक विशद वर्णन मुझे नहीं मिला।
दूसरी बात है कि देवर्षि नारद और महर्षि अंगिरा के मिलन की। नारद-भक्ति-सूत्रों की एक वृहद् व्याख्या भाईजी ने शिमलापाल में अपने नजरबन्दी की अवधि में लिखी थी। यही व्याख्या कुछ परिवर्तन-परिवर्द्धन के साथ सन् 1935 में गीताप्रेससे 'प्रेमदर्शन' के नाम से प्रकाशित हुई। संभवतः इस व्याख्या से प्रसन्न होकर या अन्य निमित्त से सन् 1936 में देवर्षि नारद ने महर्षि अंगिरा के साथ गीतावाटिकामें पधारकर भाईजी को दर्शन दिये एवं लम्बी वार्ता की। इसका विस्तृत वर्णन पिताजी की संग्रहित सामग्री में उपलब्ध है। यह स्वय भाईजी का बताया हुआ है। फिर भी मैं खोजने लगा कि कहीं भाईजी के हाथ से स्वीकृति लिखी हुई मिल जाय। श्रीरामनिवास जी पोद्दार कलकत्ता के पत्र में भाईजी ने लिखा— “यहाँ जब अखण्ड हरिकीर्तन हुआ था, उस समय देवर्षि नारद तथा अंगिराजी के दर्शन हुए थे। बड़े सुन्दर, बड़े ही लाभप्रद। उन्होंने कुछ बड़ी उत्साहप्रद बातें बतायी थी। यह सत्य है।” शास्त्रों के जानकार विश्वास रखने वाले सभी जानते हैं कि श्रीनारद जी एवं श्रीअंगिरा जी ब्रह्माजी के पुत्र थे एवं सत्ययुग, त्रेता, द्वापर तीनों युगों में अनेक भक्तों को दर्शन, प्रेरणा, उपदेश दिये थे। कलियुग के लगभग पाँच हजार वर्ष बीत चुके हैं। इस अवधिमें जितने संतों का जीवनवृत्त इतिहास के पन्नों में उपलब्ध है उन विद्वान् लेखकों ने जब छोटी-छोटी घटनाओं का विशद वर्णन किया है तो नारदजी के दर्शनों की बात भी अवश्य लिखी होती। मुझे जब कहीं नहीं मिली तो मैंने अपने अध्ययनशील मित्रों से परिचित संत विद्वानों से जानकारी प्राप्त करने की चेष्टा की पर किसीने ऐसे वर्णन की जानकारी नहीं दी। आदि शंकराचार्यजी की जीवनी में मैंने पढ़ा था कि उत्तर काशी में श्रीवेदव्यास जी ने उन्हें दर्शन दिये थे। कुछ संतों के बारे में ऐसा कहा जाता है कि उनको दीक्षा प्राचीन ऋषि-मुनियों ने दी। पर भाईजी को तो नौ साल पहले भगवान् के साक्षात् दर्शन हो गये थे। उनसे अनेक बार वार्तालाप हुआ। भगवान् के प्रत्यक्ष आदेश से काम भी करने लगे थे। ऐसी स्थिति में श्रीभाईजी को साधन बताने श्रीनारद जी आयें— इसका स्वारस्य समझ में नहीं आता। वे यह भी कह गये कि जब याद करोगे हम आ जायेंगे। दोनों में क्या बातें हुई इसका विस्तृत प्रामाणिक वर्णन प्राप्त नहीं है पर भाईजी दिव्य संत-मण्डल में सम्मिलित कर लिये गये थे— इससे कुछ अनुमान लगाया। जा सकता है।
तीसरी विशेष बात भाईजीके जीवनके अन्तिम 10-12 वर्षों में विशेषरूप से देखने को मिली। यद्यपि भाईजी का लीलाओं में प्रवेश सन् 1940 से पूर्व हो गया था पर उन्होंने 20 वर्षां तक लोगों से छिपाये रखा। उसके बाद उनका पूरा प्रयास छिपाने का ही रहा पर श्रीकृष्ण को यह मंजूर नहीं था। बडी विचित्र स्थिति थी, वस्तुतः नितान्त कल्पनातीत। वे चाहते थे। वृत्तियाँ जागतिक धरातलपर रहें एवं ‘कल्याण’ के सम्पादन एवं अन्य सेवा कार्य सुचारु रूप से चलते रहें। ऐसा सतत् प्रयास करने पर भी बलात वृत्तियाँ लीला में विलीन हो जाती थी। यह एक अद्भुत विवशता थी। अचानक शरीर सर्वथा निश्चेष्ट, निस्पन्द हो जाता। आँखें खुली हैं पर दिखाई नहीं देता। कलम हाथ में है तो नीचे भी नहीं रखी गई मात्र श्वास-प्रश्वास के अतिरिक्त कोई क्रिया नहीं। यह स्थिति घंटो-घंटो तक रहती थी। इसी को ‘भाव–समाधि’ विद्वानों ने कहना आरम्भ कर दिया। लीलाओंके दर्शन, लीलाओंमें प्रवेश कई ब्रजभाव के संतों के जीवनमें पढ़नेको मिला। योगियोंकी जीवनीमें कई दिनों, महीनोंका ही नहीं वर्षोंकी समाधि के विवरण भी पढ़ने को मिले। कई भक्तों के ऐसे प्रसंग भी पढ़ने को मिले कि साक्षात् भगवान् के प्रकट होने पर भी उन्होंने सेवा अथवा भजन छोड़ने से मना कर दिया। पर वृत्तियों को संघर्ष पूर्वक जगत् में लगाने की पूरी चेष्टा करने पर भी बलात् न चाहने पर भी लीला-सिन्धु में निमग्न हो जाना और 15-20 घंटों तक भाव-समाधि में रहने का विवरण मेरे कहीं भी पढ़ने-सुनने में नहीं आया। यद्यपि प्राप्त विवरणों के अनुसार अन्य कार्य करते हुए भी भाईजी का मन लीला-राज्य में ही विहरण करता था पर तल्लीनता घनीभूत न होने से दोनों कार्य सुचारु रूप से चलते रहते थे। भाईजी के शब्दों में—“अकस्मात् ऐसा हो जाता है कि इन्द्रियों की, मन की सारी क्रियाएँ बन्द हो जाती हैं। जगत् का सर्वथा लोप हो जाता है, केवल प्राण चलते हैं। आँखें खुली हों तो भी दिखता नहीं। इसे समाधि कहिये या और कुछ। कभी-कभी तो वृत्तियों को बलात्कार से संसार में लगाने की चेष्टा करने पर भी अकस्मात् ऐसा हो जाता है। पहले यह स्थिति कई दिनों बाद हुआ करती थी, अब तो बहुत जल्दी-जल्दी हो जाती है।”
यह कोई ध्यान या समाधि नहीं है जिसका अभ्यास से सम्बन्ध हो, न किसी क्रिया का ही फल है। यह तो उनकी अपनी लीला की एक विलक्षण स्फूर्ति है या उनकी लीला की लीला है—जो अत्यन्त दुर्लभ है। यहीं वास्तव में ठीक-ठीक स्वरूप का साक्षात्कार होता है।
यहाँ विस्तार नहीं करना है वैसे तो इनका विवेचन-विश्लेषण करने में कोई विद्वान् लेखक पूरा ग्रन्थ लिख सकता है। मेरा अध्ययन व्यापक न होने से मैं दृढता पूर्वक ऐसा नहीं कह सकता कि ये तीनों बातें अन्य संतों के जीवन-वृत्तों में नहीं है। कोई यदि बताने की कृपा करेंगे तो मैं अपनी भूल सुधार भी लूँगा। पर पूज्य राधा बाबा (स्वामी श्रीचक्रधरजी महाराज) ने लिखा है— आज तक इस पारमार्थिक स्थिति का वर्णन मैंने किसी भी शास्त्र में नहीं पढ़ा और चैतन्य महाप्रभु के सिवा किसी भी भक्त के जीवनमें इस स्थिति का संकेत प्राप्त नहीं होता। पूज्य बाबा उद्भट विद्वान् थे एवं शास्त्रों का अध्ययन उनका अति गहन था—यह सर्वविदित है।
अब एक दृष्टि उनके बहिरंग जीवन पर डालें। शरीर छोड़नेके कुछ समय पूर्व उन्होंने अपने वसियतनामा में संकेत किया कि उनके द्वारा कुछ ‘विशेष-कार्य कराने की योजना प्रभु की थी। इस विशेष कार्य की कल्पना करना मेरे लिये संभव नहीं है, न उन्होंने कहीं संकेत दिया। एक ऐतिहासिक कार्य तो उन्होंने किया कि हमारे विशाल आध्यात्मिक संस्कृत साहित्य को हिन्दी में उपलब्ध कराया। हमारे संस्कृत ग्रन्थ लुप्त होते जा रहे थे, और जनसाधारण के लिये उनका कोई उपयोग संभव नहीं था। उन्होंने पुराणों, उपनिषदों, महाभारत, वाल्मीकि रामायण, आचार्यों द्वारा लिखे विभिन्न भाष्य लाखों-लाखों की संख्या में प्रकाशित कराके केवल देश के कोने-कोने में ही नहीं बल्कि विश्व के कोने-कोने में पहुँचा दिया। जो ग्रन्थ देखने को नहीं मिलते थे, वे पढ़ने को मिल गये। अब उन बहुमूल्य ग्रन्थों की होली जलाकर आतताइयों के अत्याचारों से उनके नष्ट होने की आशंका सदा-सदा के लिये समाप्त हो गई। है। पूरे भारत को भी कोई परमाणु बम से नष्ट कर दे तब भी हमारे ग्रन्थ इस पृथ्वी के प्रलयकाल तक सुरक्षित रहेंगे क्योंकि वे विश्व के कोने-कोने में पहुँच चुके हैं केवल हिन्दी, संस्कृतमें ही नहीं, अंग्रेजी में भी। उनके समकालीन संत,महात्मा, विभिन्न सम्प्रदायोंके आचार्य, विभिन्न पार्टियों के राजनैतिक नेता, विद्वान्, साहित्यकार, उद्योगपति, समाजसेवी, ईसाई, मुसलमान उन्हें कितने आदर एवं श्रद्धा से देखते थे— इसकी जानकारी ‘भाईजी पावन-स्मरण’ ग्रन्थ को देखने से मिल सकती है। दूसरा उन्होंने स्वयं विशाल मौलिक साहित्य सृजन करके हिन्दी साहित्य की जो अभिवृद्धि की एवं ठोस आध्यात्मिक सामग्री प्रदान की यह अतुलनीय है। गोस्वामी तुलसीदासजी के ग्रन्थों को घर-घर पहुंचाने का श्रय भाई जी को ही है। पूरे शुद्ध रामचरितमानस को पचास पैसे में उपलब्ध कराना भाईजी की एक अनोखी देन है। जो कार्य कई संस्थाएं मिलकर नहीं कर सकतीं वह अकेले व्यक्ति ने कर दिखाया।
कल्याण के विशेषांकों की गरिमा अलग ही है जो अपने विषय के विश्वकोष कहे जाते हैं। कितने व्यक्ति उनकी प्रेरणासे साधनमार्ग मे अग्रसर हुए इसकी गणना संभव नहीं है। आर्थिक सेवा, सहायता करना तो उनका सहज स्वभाव था। सेवा होती थी इतनी गुप्त कि उनके परिवार के सदस्य या निकटस्थ व्यक्ति भी नहीं जान पाते थे। उनके पास से कभी किसी को निराश लौटते नहीं देखा गया। ऐसी सेवाओं में कितने करोड़ रुपये व्यय हुए।
इसका कोई अनुमान नहीं लगा सकता।
कितनी कर्मठता थी उनमें इसका भी अनुमान करना कठिन है। प्रातः 4 बजे से रात्रि के 12 बजे तक तो वे प्रायः कार्य में व्यस्त रहते थे। विशेषांक प्रकाशन के समय दो बजे तक भी काम करते देखा गया। भोजन करते समय भी एक हाथसे डाक पढ़ते रहते।
अब एक दृष्टि डालें उनके सम्पर्कमें आये हुए महानुभावो पर पूज्य राधाबाबा पहले पूज्य श्रीसेठजीसे पास बाँकुड़ा गये। कई दिन उनके पास रहकर अपनी जिज्ञासा का समाधान कराते रहे फिर श्रीसेठजी ने उन्हें भाईजी के पास भेजा। सूचना मिलने पर भाईजी उनसे मिलने आये एवं संन्यासीके नाते उनके चरण छूकर प्रणाम किया। उस स्पर्शका क्या जादू हुआ कि कट्टर वेदान्ती बाबा जो राधा-माधवको भगवान न मानकर मायोपाधिक ब्रह्म मानते थे वे वेदान्त की साधना छोड़कर श्रीराधा के उपासक बन गये और कालान्तर में क्षेत्र संन्यास लेकर जीवन पर्यन्त भाईजी से एक रात्रि के लिये भी वीलग नहीं हुए तथा उनके नित्यलीलालीन होने पर सम्पूर्ण जीवन भाईजी की समाधि के सामने पेड़ के नीचे व्यतीत किया। पात्र होने पर एक स्पर्शका क्या चमत्कार होता है इसका प्रत्यक्ष प्रमाण। भाईजी के नीचे कार्य करने वालो मै से पण्डित शान्तनुबिहारी जी द्विवेदी, श्रीअखण्डानन्द जी के नाम से प्रख्यात भारत के एक प्रमुख विद्वान, महात्मा हुए। श्रीनन्ददुलारे वाजपेयी ‘कल्याण’ से जाकर उज्जैन विश्वविद्यालय के कुलपति हुए। श्रीमुनिलाल जी परवर्ती जीवनमें श्रीसनातनदेवजी के नाम से आदर्श संन्यासी बने। इतना निस्पृह जीवन बिताया कि न कहीं आश्रम बनाया न किसीको शिष्य प० भुनेश्वरनाथजी मिश्र माधव ‘कल्याण’ से निकलकर गया कॉलेज के प्रिंसिपल बने। कल्याण के सम्पादकीय विभाग से ही श्रीराजबली पाण्डेय जबलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति बने। पं० रामनारायण दत्तजी शास्त्री काशी के संस्कृत महाविद्यालय के वरिष्ठ आचार्य बने। श्रीचन्द्रदीपजी त्रिपाठी पाण्डिवेरी के श्रीअरविन्दाश्रम के मान्य सदस्य बने। पं० देवधर शर्मा को श्रीजुगलकिशोर जी बिडला ने आग्रहपूर्वक भाईजी से माँगकर श्रीकृष्ण जन्मस्थान मथुरा एवं स्वर्गाश्रम ट्रस्ट, ऋषिकेश का संचालक बनाया। श्रीगौरीशंकरजी द्विवेदी ने आदर्श सदाचार का जीवन बिताया। पं० चिम्मनलालजी गोस्वामी को तो पुरी के शंकराचार्य श्रीभारतीकृष्ण जी तीर्थ अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे पर पू० गोस्वामीजी ने भाईजीके संगको छोड़कर जाने से सर्वथा इन्कार कर दिया। कहाँतक लिखा जाय बंगाल के सुप्रसिद्ध महात्मा श्रीसीतारामदास ओंकारनाथजी ने तो यहाँ तक लिख दिया कि श्री पोद्दार बाबा के शरीर के आश्रय से हमारे प्रभु ने जो अपूर्व शास्त्र-प्रचार एवं धर्म-प्रचार की लीला की है वह न कभी हुई है और न होगी।
सचमुच हमारी भावी पीढ़ियों को यह विश्वास करने में कठिनता होगी कि बींसवी सदी के आस्थाहीन युग में जो कार्य कई संस्थाएँ मिलकर नहीं कर सकती वह कल्पनातीत कार्य एक भाईजीसे कैसे संभव हुआ। दूसरे वेद व्यास की भाँति शास्त्रों एवं धर्म-प्रचार का कार्य हमारे पूर्ववर्ती आचार्यों से भी बढ़कर कहा जा सकता है साथ ही आचार-विचार को सुनियंत्रित करने का कार्य जिसकी तुलना मनु-याज्ञवल्क्यादि स्मृतिकारों से की जा सकती है। भक्तिकाव्य की सरस रचना का जो कार्य सूरदास, तुलसीदास जैसे भक्त कवियों द्वारा हुआ एवं साथ ही लीला-सिन्धु में निरन्तर निमग्न रहने के, आदर्श की जो प्रतिष्ठा श्रीचैतन्य महाप्रभु जैसे संतों द्वारा हुई इन सबका अद्भुत एकीकरण श्रीभाईजी के विशाल व्यक्तित्व में स्पष्ट प्रकट है।