वंश परिचय
शास्त्र की यह स्पष्ट उद्घोषणा है— वे माता-पिता, वह कुल, वह जाति, वह समाज, वह देश धन्य है, जहाँ भगवत् परायण परम भागवत महापुरुष आविर्भूत होते हैं। राजस्थान के बीकानेर जिलेमें (वर्तमानमें चूरू जिले में) रतनगढ़ एक छोटा प्रसिद्ध शहर है। भाईजी के पितामह सेठ श्रीताराचन्द जी पोदार की गणना नगर के गिने चुने व्यापारियों में थी। वे बड़े ही धर्म-प्राण थे। उनके दो पुत्र थे— कनीरामजी और भीमराम जी। श्रीभीमराम जी को ही भाईजी के पिता होने का दुर्लभ सौभाग्य प्राप्त हुआ। श्रीकनीराम जी पिता की अनुमति प्राप्त करके आसाम व्यापार करने चले गये। रतनगढ से शिलांग जाने वाले मारवाडी व्यापारियों में ये सर्वप्रथम थे। वहाँ इन्हें सेना को खाद्य सामग्री पहुँचाने का ठेका मिल गया। काम बढ़ जाने से उन्होंने पूरे परिवार को वहीं बुला लिया। श्रीकनीराम के कोई संतान नहीं थी, अवस्था भी अधिक हो गयी थी। अतः छोटे भाई भीमरामजी को ही उन्होंने दत्तक पुत्र मान लिया। जैसे आम आम के ही वृक्ष में फलता है, वैसे ही भाईजी का कुल भी दैवी सम्पदाओं से सम्पन्न था। श्रीकनीराम जी की रामचरितमानस में अगाध श्रद्धा थी। ये उसका नियमित रूप से पाठ करके ही अन्न ग्रहण करते थे। इनकी पत्नी पूजनीया रामकौर देवी तो संत सदृश थी। सामान्य पढ़ी-लिखी होने पर भी सत्संग तथा स्वाध्याय से धार्मिक ग्रन्थों का मर्म ग्रहण करने की उनमें अच्छी क्षमता थी। श्रीहनुमान जी उनके इष्ट थे। मानस-पाठ और नाम जप में अत्यधिक श्रद्धा थी। जब तक दे रतनगढ में रहीं गृहकार्य से अवकाश पाते ही वे संतों के चरणों में उपस्थित हो जातीं। हर महीने घर में ब्राह्मण भोजन करातीं। अनेक प्रकार से गुप्तदान भी किया करतीं। कलकत्ता में रहती तो प्रातः गंगा-स्नान करके साढ़े तीन बजे श्रीसांवलिया जी के मंदिर में पहुँच जातीं। मंगला आरती के दर्शन करके श्रीहनुमान जी एवं श्रीसत्यनारायण जी के मंदिर दर्शन करने जातीं।
श्रीभीमराज जी बहुत अच्छे सत्संगी थे। सनातन धर्म की रक्षा के लिये उन्होंने कलकत्ते में ‘सनातन धर्म पुष्टिकारिणी’ सभा की स्थापना की। ऋषिकेश स्थित कैलाशाश्रम के प्रसिद्ध महन्त एवं विद्वान पूज्य श्रीजगदीश्वरानन्द जी ने जब संन्यास लिया तो पहले-पहल होशियारपुर (पंजाब) से श्रीभीमराज जी के पास आये। ईमानदारी इनकी अद्वितीय थी। भूल से भी परायी चीज घर में आ जाय तो सहन नहीं होती। एक दिन की घटना है— कलकत्ते में कपड़े का व्यापार था। एक पुर्जे में भूल से एक सौ रूपये जोड़ में अधिक लग गये। भुगतान देने वाले व्यापारी के यहाँ भी भूल हो गयी और एक सौ रूपये अधिक आ गये। इनके यहाँ केवलसिंह नाम का एक व्यक्ति हिसाब का काम देखता था। दो दिन बाद उसके ध्यान में वह भूल आयी तो उसने सारी बात श्री भीमराज जी को बता दी। सुनते ही श्रीभीमराज जी बोले— “एक सौ रूपये अधिक क्यों आ गये ? जाओ अभी लौटाकर आओ।” उसने कहा— “अभी तो शाम हो गयी है........।” वह पूरा बोल भी नहीं पाया था कि श्रीभीमराज जी बोले— “शाम हो गयी तो क्या हुआ ? अभी तुरंत देकर आओ। बिना दिये हम रोटी नहीं खायेंगे। यह पैसा हमारे घर दो दिन रहा। अतः दो दिन का ब्याज भी देकर आओ।” यह है उनकी ईमानदारी का एक नमूना। ये सभी पारिवारिक संस्कार भाईजी के जीवन में बचपन से ही उतर आये।
आविर्भाव की पुष्टि
श्रीभीमराज जी के कोई संतान न होने से रामकौर देवी चिन्तित रहने लगीं। उनका विश्वास साधु-संतों में अधिक था। शिलांग में ऐसी सुविधाएँ न होने से वे पति की अनुमति लेकर एक नौकर के साथ अकेली रतनगढ़ चली आईं। उस समय इतनी लम्बी यात्रा सहज नहीं थी— यह इनके अद्भुत साहस का परिचायक है। उन दिनों रतनगढ़ में नाथ योगियों में शायद श्रीलक्ष्मीनाथ जी, श्रीमोतीनाथ जी, श्रीमंगलनाथजी, श्रीबखन्नाथ जी आदि प्रमुख थे। रामकौर देवी की सेवा के कारण वे इन पर कृपा भाव रखते थे। रामकौर देवी ने नाथजी से अपनी चिन्ता की बात कही। नाथजी प्रसन्न थे, उन्होंने एक दिन वरदान रूप में कह दिया कि आज से एक वर्ष के अन्दर आपके एक सर्वगुण सम्पन्न पौत्र होगा— वह बहुत ही सुशील विद्वान् और भगवद्भक्त होगा। जन्म के समय उसके ये चिह्न होंगे— मस्तकपर ‘श्री’ का निशान, कंधों पर केश और दाहिनी जंघा पर काले तिल का निशान तथा वह साधारण बालकों के समान जन्म के समय रुदन नहीं करेगा। ऐसा भी सुना जाता है कि उन्होंने यह भी कहा कि हमारे साथ रहने वाले टुँटिया महाराज ही आपके घर अवतरित होंगे। नाथजी के कृपापूर्ण वचन सुनकर रामकौर देवी का हृदय प्रफुल्लित हो गया और पौत्र होने में उनके मन में कोई संदेह नहीं रहा।
इसी समय एक घटना और घटी। रामकौर देवी निम्बार्क सम्प्रदाय के रतनगढ़ निवासी बाबा महरदास जी महाराज की शिष्या थीं। इनकी प्रेरणा से रामकौर देवी ने स्थानीय श्री लक्ष्मीनारायण मंदिर में विष्णु सहस्रनाम के 108 सम्पुट पाठ का आयोजन किया। तीन अन्य ब्राह्मण और चौथे स्वयं बाबा महरदास जी उस अनुष्ठान को करने में लग गये। जिस दिन 108 सम्पुट सम्पूर्ण हुए, उस दिन दीपक में एक ही बार घी डाला गया था और दीपक अखण्ड जलता रहा। अनुष्ठान के विधिवत् पूर्ण होते ही बाबा महरदास जी बोले— “रामकौर! आज तुम्हारा मनोरथ सफल हो गया। यह अभिमन्त्रित जल अपनी बहू रिखीबाई को पिला देना। निश्चय ही एक भगवद्भक्त धर्मात्मा पौत्र की प्राप्ति होगी जो तुम्हारे वंश की कीर्ति को उज्ज्वल करेगा। उसका नाम हनुमानजी के नाम पर रखना। इस बात को सुनकर देवी रामकौर के तो हर्ष की सीमा ही नहीं रही।
अब रतनगढ़ रहने की आवश्यकता नहीं थी, अतः वे शीघ्र शिलांग चली गयीं।
जन्म
शिलांग पहुँचने के कुछ समय बाद रामकौर देवी को रिखीबाई के गर्भवती होने का पता लगा तो उनके आनन्द की सीमा नहीं रही। परम अभिलषित वस्तु की प्रतीक्षा में हृदय की क्या अवस्था होती है— यह किसी से सुनकर समझा नहीं जा सकता है। पल-पल पर विघ्न की आशंका से मन कैसे चंचल हो उठता है— यह तो सर्वथा भुक्तभोगी ही जानता है। आखिर वह परम पुण्यमय क्षण उपस्थित हुआ आश्विन कृष्ण 12, वि०सं 1949 (दि० 17 सितम्बर सन् 1892) को रिखीबाई ने पुत्ररत्न प्राप्त किया। यह सुयोग हनुमानजी के दिन ‘शनिवार’ को संघटित हुआ। सभी को देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि रतनगढ़ के महात्मा ने जन्म के समय जिन चिह्नों के होने की बात कही थी, वे सभी नवजात शिशु के शरीर पर विद्यामान् थे। रामकौर देवी ने अपनी निष्ठा के अनुसार अपने इष्टदेव का कृपा-प्रसाद मानकर बालक का नाम “हनुमान प्रसाद” रखा।