भगवत् प्रेरित चार विलक्षण घटनाएँभगवान् अपने सच्चे भक्तका कितना ध्यान रखते हैं, इसका थोड़ा-सा दिग्दर्शन इन घटनाओंसे प्राप्त होता है। भक्त चाहे याचना करे या न करे भगवान् अनहोनी लगनेवाली बातें स्वाभाविक रूपसे घटित कर देते हैं। भाईजी बराबर कहा करते थे कि भगवान्की कृपासे असंभव भी संभव हो जाता है। यह बात वे केवल शास्त्रोंके आधारपर नहीं कहते थे। उनके जीवनमें ऐसी घटनाएँ घटी थी, जिससे उनका विश्वास अडिग हो गया था। यहाँ ऐसी चार घटनाएँ प्रस्तुत की जा रही हैं—
( 1.)
बम्बई में भाईजीके एक साथी थे श्रीहरिराम शर्मा जो रुईकी दलाली करते थे। भाईजीके परम मित्र श्रीरामकृष्णजी डालमिया उस समय सट्टेमें नुकसान कर चुके थे। भाईजीने हितकी दृष्टिसे श्रीहरिराम शर्माको सलाह दी कि तुम इस समय उन मित्रका सट्टेका काम नहीं करना। उनके अभी नुकसान हो चुका है। यदि और अधिक नुकसान हुआ तो वह दे नहीं सकेगा। पर विधिका विधान, लोभ बड़ी बुरी चीज है। हरिरामने दलालीके लोभवश उनका बड़ा सौदा कर दिया। उसमें फिर अधिक नुकसान हो गया और डालमियाजी उसका भुगतान करनेकी स्थितिमें नहीं थे। भुगतान न होनेसे हरिरामकी इज्जत चली जाती। हरिराम अत्यन्त उदास होकर भाईजीके पास आकर बैठ गया और सारी
परिस्थिति बता दी। भाईजीने कहा— मैंने इसीलिये तुम्हें सावधान किया था, मेरे पास इसकी कोई व्यवस्था नहीं है। वह रोने लगा और बोला— अब मैं क्या करू ? भाईजी बोले— और क्या करोगे, भगवान्के सामने रोओ। वे कातर प्रार्थना अवश्य सुनते हैं। वह समीपकी कोठरीमें चला गया और अन्दरसे बंद करके प्रार्थना करने लगा।
थोड़ी देरमें भाईजीके मित्र श्रीबालकृष्णलालजी पोद्दारका फोन आया कि चौपाटी घूमने चलोगे क्या ? चलो तो मैं गाड़ी लेकर आ जाऊँ। भाईजीके हाँ कहनेपर वे गाड़ी लेकर आ गये। दोनों घूमने चले गये। दूसरी बातें होने लगीं, लौटनेपर उन्होंने अचानक भाईजीसे पूछा— आज-कल हरिराम कहाँ हैं ? तब भाईजीने सारी बातें बता दी। वे रुपये देनेके मामले में बहुत अनुदार व्यक्ति थे, पर किसी अज्ञात प्रेरणासे कहा कि कल मेरेसे ब्लैंक चेक मँगवा लीजियेगा। उनके जानेके बाद भाईजीने अपने दो-तीन मित्रोंसे सलाह की कि इस तरह उनसे इतनी रकम मँगा लेना मित्रताका दुरुपयोग तो नहीं है? एक मित्रने कहा—भाईजी ! द्रौपदीका चीर आपने बढ़ाया था क्या ? आपने उनसे कुछ कहा नहीं। उन्होंने अपनी तरफसे हरिरामको बुलाकर सारी बातें कह दी। वह तो गद्गद हो गया। सारी बातें डालमियाजीको बता दी गई। उन्होंने एक रसीद लिखकर भेज दी और साथमें अपनी पैतृक सम्पत्तिके पट्टे भेज दिये। दूसरे दिन रसीद और पट्टे श्रीबालकृष्णलालजीको भेज दिये गये।
उन्होंने कहा मैं कभी पट्टे रखकर रुपये नहीं देता हूँ। मैं तो कभी रुपये देता ही नहीं, यह तो पता नहीं क्यों मेरे मनमें आ गई। रसीद उन्होंने फाड़कर फेंक दी, पट्टे लौटा दिये और ब्लैंक चेक सही करके दे दिया।
सभी लोग आश्चर्यचकित थे। रुपयोंका भुगतान समय पर हो गया। दो-तीन महीने बाद रुपये श्रीडालमियाजी ने ब्याज सहित लौटा दिये।
(2.)
दूसरी घटना इससे भी अधिक आश्चर्यकी हुई। श्रीभाईजीके ही शब्दों में— बम्बईकी बात है। हमारा एक पार्टनरशिप फर्म था। एकबार एक सज्जनको कष्टके समय मैंने अपने साझीदारसे बिना पूछे रोकड़से दस हजार रुपये दिला दिये। वे रुपये उन्होंने कहींसे ला तो दिये पर जहाँसे लाये उनपर कोई बड़ी आफत आ गई। वे सज्जन मेरे पास आकर बहुत रोये कि कैसे भी एकबार दो-तीन महीनोंके लिये रुपये मिल जाय तो बादमें कहींसे मँगवा देंगे। वे बहुत ऊँचे घरानेके आदमी थे। देशके बहुत ऊँचे महान् पूज्य नेताके घरानेके व्यक्ति थे। मेरे मनमें आई कि किसी तरह इनका काम निकाला जाय। अब मैं क्या करूँ ? मेरे पास तो बस भगवान्का नाम था। उन दिनोंमें सकाम जप कभी-कभी करता था, पर बहुत कम। यह बात सन् 1924 के पहलेकी है। उसके बाद तो मैंने सकाम जप नहीं किया। उसके बादके अनुभव तो मुझे नहीं बताने हैं। मैने जप शुरू किया। वे बेचारे बड़े उदास थे। मैं उनके साथ अपनी गद्दीसे नीचे उतरा। हमलोग साथ-साथ उनके ऑफिसकी तरफ जाने लगे। हमलोग इण्डिया बैंकके सामने पहुँचे तो हमारे एक मित्र मिले। उन्होंने कहा--आप दोनों
उदास क्यों हैं ? मैंने सारी बात बता दी ? उन्होंने सहानुभूति प्रकट करते हुए कहा कि सामने ही इण्डिया बैंक है, इसमें मेरा खाता है। मेरे रुपये अफ्रीकासे आनेवाले हैं, यदि आ गये होंगे तो रुपये मैं अभी दे देता हूँ। उनका अनुमान था कि रुपये दो सप्ताह बाद आयेंगे, इस तरह रुपये देने भी नहीं पडेंगे और मित्रोचित व्यवहार भी हो जायगा। भगवान्की लीला बडी विचित्र होती है। रुपयोंकी जरूरत तो आज हुई और व्यवस्था भगवान् पहलेसे ही कर देते हैं। हमलोग सामनेके फुटपाथपर इण्डिया
बैंक गये। उन्होंने पूछा कि हमारे खातेमें कितने रुपये हैं। उत्तर मिला कि कलतक तो कुछ नहीं थे, आज अभी-अभी अफ्रीकासे बीस हजारका ड्राफ्ट आया है। उत्तर हमलोग पासमें खड़े सुन ही चुके थे। अब वे बेचारे क्या बोलते, उनक़ो रुपये देने पड़े। उन्होंने दस हजार रुपये दे दिये। उनका काम निकल गया। फिर रुपये उन्हें वापिस दे दिये गये। भगवान्के नामने यह काम किया। इस तरह भगवान्के नामके पहले-पहलेकी उम्रके मेरे बहुत-से अनुभव हैं।
(3.)
केवल रुपयोंकी बात नहीं है। भगवत्कृपासे कैसे प्राण-रक्षा होती इसका एक चमत्कार तो आसाममें भूकम्पके समय देख चुके थे। अब बम्बईमें एक घटना ऐसी हुई कि जिससे भाईजीके मनमें श्रीभगवान्पर अत्यधिक विश्वास बढ़ा। यह घटना उनकी लेखनीसे ही आगे चलकर कल्याणमें प्रकाशित हुई।
सन् 1919 ई० की बात है। मैं बम्बईमें रहता था। रातको अपने फूफाजी श्रीलक्ष्मीचन्दजी लोहियाके घरपर, जो बम्बई से कुछ दूर बी० बी० एण्ड सी० आई० रेलवेके (आजकल पश्चिम रेलवे) सान्ताक्रूज स्टेशनके समीप पं० शिवदत्तरायजी वकीलके बँगलेमें रहते थे, जाकर खाया और सोया करता था। एक दिनकी बात है रातको करीब आठ बजे थे, कृष्ण पक्षकी अँधेरी रात थी। मैं लोकल ट्रेनसे जाकर सान्ताक्रूजके प्लेटफार्मपर उतरा। अब तो दोनों ओर प्लेटफार्म है, उस समय एक ही ओर था और रोशनीका भी प्रबन्ध नहीं था। न इंजिनकी सर्चलाइट थी। श्रीशिवदत्तजीके बँगलेमें जानेके लिये रेलवे लाइन लाँघकर उस ओर जाना पड़ता था। मैंने बेवकूफी की, दौड़कर इंजिनके सामनेसे लाइन पार करने चला। लोकल ट्रेन एक ही मिनट ठहरती है, मैं नया था, मैंने समझा गाड़ी छूटनेसे पहले ही मैं लाइन पार कर जाऊँगा, परंतु ज्यों ही मैंने लाइनपर पैर रखा, त्यों मेरा लाइन ही गाड़ी छूट गयी। परंतु ईश्वरीय प्रेरणा और प्रबन्धसे उसी समय किसी हुए अज्ञात पुरुषने मेरा हाथ पकड़कर जोरसे खींच लिया। मैं दूसरी लाइनपर जा गिरा। गाड़ी सर्राटेसे निकल गयी। तीन काम एक साथ लाँघना, गाड़ी छूटना और अज्ञात व्यक्ति द्वारा खींचे जाना। एक ही दो सेकेंडके विलम्बमें मेरा शरीर चकनाचूर हो जाता। परन्तु बचानेवाले प्रभुने उस अँधेरी रातमें उसी जगह पहले ही मुझे बचानेका प्रबन्ध कर रखा था। मैं थर-थर काँप रहा था। ईश्वरकी दयालुतापर मेरा हृदय गद्गद् हो रहा था। आँखोंसे आँसू बह रहे थे, मैंने स्टेशनके धुँधले प्रकाशमें देखा, एक नौजवान बोहरा खड़ा हँस रहा है और बड़े प्रेमसे कह रहा है "आइन्दा ऐसी गलती न करना, आज भगवान्ने तुम्हारे प्राण बचाये।" मैंने मूक अभिनन्दन किया, कृतज्ञता प्रकट की। लाइनपर रोड़ोंमें गिरा था पर दाहिने पैरमें एक रोड़ा जरा-सा गड़नेके सिवा मुझे कहीं चोट नहीं लगी। मैं दौड़कर घर चला गया और ईश्वरको याद करने लगा। — (ईश्वरांक पेज न. 614)
अनन्त दयामय प्रभुने हम सबकी भी न जाने कैसे-कैसे कितनी बार रक्षा की होगी, अब भी करते हैं, पर हम अभागे प्राणी इस अयाचित, अप्रत्याशित करुणाकी बात भूल जाते हैं। इन घटनाओंसे हमारे मनमें उनकी मधुर स्मृति नहीं जागती पर भाईजी हृदयसे अनुभूतियोंका आदर करना जानते थे, इसीलिये मस्तिष्कसे न तौलकर, हृदयसे परखा और आनन्द लिया।
(4.)
एक ऐसी ही और घटना हुई जिसे भाईजीने 'कल्याण' में इस
प्रकार प्रकाशित किया— सन् 1926 की बात है, मैं लक्ष्मणगढ़के भाई श्रीलच्छीरामजी चूड़ीवालेके धन और परिश्रमसे स्थापित ऋषिकुलके उत्सवमें शरीक होने
बम्बईसे जा रहा था। अहमदाबादसे दिल्ली ऐक्सप्रेसके द्वारा रवाना हुआ।
मैं सेकेंड क्लासमें था। मेरे साथ एक ब्राह्मण बालक ऋषिकुलमें भर्ती होने जा रहा था। मैं इधरकी एक सीटपर सोया था और सामनेकी सीटपर वह सोया था। दूसरे दिन सुबह अन्दाजसे पाँच बजे थे। ब्यावर स्टेशनपर एक टी० टी० महोदय हमारे डिब्बेमें सवार हुए। मैं जिस सीटपर सोया था, उसी सीटपर मेरे पैरोंके पास वे बैठ गये। मैं जग रहा था। अपने पैरोंके पास किसीका बैठना मुझे अच्छा न लगा, इससे शिष्टाचारके नाते मैं उठ बैठा। सोया था तब मेरा सिर सीटकी अन्तिम पहली खिड़कीके पास
जागकर बैठा तो वह खिड़की खाली हो गई। मैं बीचकी खिड़कीके पास बैठ गया और टी० टी० महोदय इधरकी तीसरी (पहली) खिड़कीके पास बैठे थे। तीनों खिड़कियाँ बन्द थीं। मैं टी० टी० महोदयसे बातें कर रहा था। इतनमें ही पीछेसे बड़े जोरकी आवाज हुई और दूसरी सीटपर सोये हुए ब्राह्मण बालकने एक चीख मारी। हमलोग भौचक्के रह गये। पीछे देखा तो मालूम हुआ कि एक बहुत बड़ा पत्थर खिड़कीके काँचको लगा। खिड़कीका बहुत मोटा काँच टूटकर चूर-चूर हो गया और उसके टुकड़े उछलकर सब तरफ बिखर गये। उसीका एक जरा-सा टुकड़ा बालकके
सिरमें लगा था, इसीसे उसने चीख मारी थी। मैं सोया होता तो अवश्य ही खिड़कीके पास मेरा सिर रहता और वह जरूर ही पत्थर और काँचकी चोटसे फूट जाता। परंतु बचानेवालेने टी० टी० महोदयको भेजकर मुझे प्रेरणा की, मैं बैठ गया और बच गया। यह घटना अजमेरके पास मकरेरा और सरघना स्टेशनके बीचकी है।— (ईश्वरांक पृष्ठ 614)