हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 11 Shrishti Kelkar द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 11

भगवान् श्रीराम के दर्शन
श्रीसेठजीके दस दिनोंके सत्संगके पश्चात् भाईजीकी अपनी साधनामें बड़ी तीव्रता आ गयी थी। उन दिनों भाईजी विशेष रूपसे निर्गुण निराकार ब्रह्मकी उपासना करते थे पर उनकी निष्ठा भगवान् और भगवन्नाममें वैसे ही बनी हुई थी। सच्चे संतका संग अमोघ होता ही है।
श्रीसेठजीसे निर्विशेष ब्रह्मकी धारणा, ध्यानकी बातें भी दस दिनोंमें काफी हुई थी। उसीके अनुसार नियमित रूपसे ध्यान करने लगे। अल्पकालमें ही भाईजीकी कितनी ऊँची स्थिति होने लग गयी थी--इसका विवरण स्वय भाईजीके समय-समयपर श्रीसेठजीको लिखे हुए पत्रोंसे ही पता चलता यथा—
"पत्र लिखते समय आनन्दमय बोधस्वरूप परमात्मामें प्रत्यक्षवत्
स्थिति है। कलमसे अक्षर लिखे जा रहे हैं। लिखनेकी जो स्फुरणा हो रही है, वह सच्चिदानन्दके अन्तर्गत कल्पित रूपसे भास रही है। कभी-कभी यह भी नहीं भासती। एक परमात्माके अतिरिक्त किसी वस्तुके अस्तित्वका अनुभव नहीं रह जाता— मानो अनन्त जलके अथाह समुद्रमें एक बरफ पिण्डके आकारकी प्रतीति हो रही थी, वह मिट गयी, केवल जल ही जल रह गया।...... फिर भी कलम चल रही है, लिखती जा रही है। हाँ बोधस्वरूप आनन्द, भूमानन्दमें स्थितिमें कोई अन्तर आता हुआ नहीं दीखता। स्थिति क्या है, वह लिखी नहीं जा सकती...... बहुत देर बाद फिर लिखनेकी स्फुरणा-सी अनुमान होती है, पर भाव उसी तरह है ...........इस समय जैसी स्थिति है, वह सदा ऐसी नहीं रहती। बीच-बीचमें कुछ परिवर्तित-सी दीखती है, पर परिवर्तनकालमें भी अधिक-से-अधिक इतना ही परिवर्तन होता है— अचिन्त्यकी स्थितिसे एक प्रकारके अनुभवगम्य आनन्दकी स्थिति तथा इससे भी कुछ नीचे आनन्दकी स्थितिसे दृष्टाकी स्थिति होती है, काम करते समय जिस समय विषयोंकी स्फुरणा होती है, उस समय उस शरीरके सहित और सारे विषय अपने समष्टि, सर्वव्यापी चेतन स्वरूपमें कल्पित भ्रमवत ही प्रतीत होते हैं, पर प्रतीत अवश्य होते हैं। हाँ कभी-कभी इस तरह होते-होते विषयोंका अस्तित्व भी सर्वथा नष्ट हो जाता है। कोई वृत्ति अवशिष्ट नहीं रहती। एक अनुपम, अनिर्वचनीय, अप्रमेय आनन्दकी इन्द्रिय, मन, बुद्धिसे अतीतकी अवस्था प्राप्त हो जाती है। वह अवस्था पीछे अच्छी तरह स्मरण भी नहीं कर पाता.......।"
ज्ञानकी बातें भाईजीके लिये केवल सुनने-सुनानेकी चीज नहीं रही थी, बल्कि सचमुच ही अन्तस्तलमें जा पहुँची थी। उन बातोंने मनमें घर कर लिया था। जगत् उनके लिये सत्य-वस्तु नहीं रह गया था, पर इससे यह नहीं समझना चाहिये कि जगत्को मिथ्या माननेके साथ वे आजकलके ज्ञानाभिमानीकी भाँति भगवान्के विग्रह अवतार आदिको भी मिथ्या, मायाकल्पित मानते थे। एक तरफ तो उनके ध्यानकी ऐसी ऊँची अवस्था होती थी कि रात्रिमें लगातार नौ-नौ घंटे वे समाधिस्थसे रहते थे। बात करते हुए सत्संगमें स्वयं कहे थे कि उस समय मुझे शरीरका बिल्कुल भान नहीं रहता था। यदि मेरे शरीरमें कोई सूई चुभा देता तो मुझे बिल्कुल प्रतीति नहींींं होती— इतनी गाढ़ अवस्था ध्यानकी होती थी और व्यवहार करते समय यह प्रतीति होती थी कि आकाशमें तिरमिरोंकी भाँति जगत् शुद्ध अनन्तानन्द, बोध स्वरूपानन्द ब्रह्ममें भ्रमवत है। पर यह होते हुए भी भगवान्, भगवन्नामपर उनकी आस्था ज्यों-की-त्यों बनी हुई थी। साकार विग्रहके प्रति उनके मनमें यह भाव कदापि नहीं था कि यह भी तिरमिरेकी भाँति एक मिथ्या प्रतीति है। वे तो भगवान्, भगवत्कृपा और भगवन्नामकी कृपाका पद-पदपर निरन्तर अनुभव करते रहते थे।
उन दिनों एक अनुभव तो इन्हें ऐसा हुआ कि जिसके लिये बड़े-बड़े योगी-मुनि भी लालायित रहते हैं। गोरखपुरमें एक दिन सत्संगके समय उन्होंने उसका वर्णन करते हुए स्वयं कहा था— बम्बईकी बात है। मैं सागरमल गनेड़ीवालेके साथ सूरदासका नाटक देखनेको जानेवाला था। सागरमलका घर रास्तेमें ही था। सागरमलने कहा-चलो घर चलकर पानी पी लें। मैंने स्वीकार कर लिया और हम दोनों उसके घर पहुँचे। घर पहुँचनेपर श्रीभगवन्नामके सम्बन्धमें बात चल पड़ी। सागरमलका कहना था कि भगवन्नाम जपका, भगवत्-स्मृतिके साथ होनेसे ही विशेष फल होता है। मैं कहता था कि नहीं, किसी भावसे जाने या अनजानेमें, अन्त समय यदि 'रा' और 'म' ये दो अक्षर मुखसे निकल गये तो प्राणीकी सद्गति होगी ही। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। इस मंत्रके अक्षरोंमें ही ऐसी शक्ति है। यह सुनकर सागरमलने कहा— आर. ए. एम. (Ram)— 'राम' का अर्थ अंग्रेजीमें मेंढ़ा होता है। यदि कोई अँग्रेज मरते समय मेंढ़ेके भावसे 'राम' पुकार उठे तो क्या उसकी सद्गति हो जायगी ? उसके ज्ञानमें रामका अर्थ मेंढ़े के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। बोलो क्या उत्तर है ? मैंने कहा— मेरे विश्वासके अनुसार तो उसकी गति हो ही जानी चाहिये। यह बात तो हो ही रही थी कि हठात् मेरा बाह्य ज्ञान जाता रहा। मेरे नेत्र खुले हुए थे पर बाहरसे कुछ भी होश नहीं रहा। नेत्र खुले हुए ज्यों-का-त्यों उसी स्थानपर बैठा रहा। मुझे इतना स्मरण है कि उस समय मुझे वनवेषधारी भगवान्श्री राम, लक्ष्मण और सीताके दर्शन हुए। कितनी देरतक दर्शन होते रहे, यह याद नहीं। बातें भी हुई थीं, पर सब बातें स्मरण नहीं रही। केवल दो बातें याद रहीं। एक तो भगवान्ने कहा था— किसी प्रकार भी नामलेनेवालेकी सद्गति ही होगी। दूसरी यह कि भगवान्ने भक्त विष्णुदिगम्बरजी गायनाचार्यका इसी सिलसिलेमें नाम लिया था। इसके अतिरिक्त और कुछ भी याद नहीं रहा। होश आनेपर दूसरे दिन सागरमलने मुझसे कहा कि तुम उस समयसे कह रहे थे कि 'यह भगवान् हैं, इनके चरण पकड़ लो' आदि-आदि। पर मुझे न तो बाहरका ज्ञान था, न मैंने अपने ज्ञानमें कुछ कहा ही था। अस्तु इस प्रकार सारी रात बीत गयी। मुझे बाह्यज्ञान नहीं हुआ। अब सागरमल घबड़ा गया कि इसे क्या हो गया ? आखिर उसने मेरा हाथ पकड़कर खड़ा किया, पकड़े हुए ही मुझे सीढ़ियोंसे नीचे उतार लाया। फिर उसी तरह मेरे घर मुझे ले आया। घर आनेपर मुझसे कहा कि शौच हो आओ, पर मुझे तो बिल्कुल ही होश नहीं था कि बाहर क्या हो रहा है। इसलिये मैंने उसे कोई उत्तर नहीं दिया। मुझे उसी तरह बाह्यज्ञान शून्य देखकर उसने मुझे पानीके नलके नीचे बिठा दिया। मेरे सरपर जलकी धार गिरने लगी और स्वयं सागरमलजी नाम-कीर्तन करने लगे। अब जाकर मुझे कहीं धीरे-धीरे बाह्यज्ञान हुआ। उसी दिन दोपहरके समय श्रीविष्णुदिगम्बरजी मुझसे मिले। मैंने उन्हें सारी घटना सुना दी, सुनकर वे रोने लग गये।
अब सहज ही अनुमान हो सकता है कि किस प्रकार भाईजीका हृदय एवं मस्तिष्क दोनों ही भगवान्से जुड़ते जा रहे थे। भगवान्के निर्विशेष ब्रह्मस्वरूपकी ज्योति मस्तिष्कको उद्भासित कर रही थी। इधर रसमय भाव हृदयमें संचित होता जा रहा था। यद्यपि यह सारी बातें भगवत्कृपासे ही इनके जीवनमें हो रही थीं, पर निमित्तके लिये कहा जा सकता है कि इनकी साधनाकी लगन भी अद्भुत ही थी। साधनाकी तत्परता ऐसी थी कि रातमें नींद प्रायः दो-ढाई घंटेसे अधिक नहीं लेते थे। कामकाज अथवा अन्य पारमार्थिक प्रचारमें शरीरको, मस्तिष्कको काफी परिश्रम पड़ता था। फिर भी बड़ी लगनके साथ यह रातको साधना करते। पर शरीर तो आखिर प्राकृतिक नियमोंके बन्धनमें ही रहता है। नींद नहीं लेनेके कारण इनके सिरमें भयानक पीड़ा हुई। बड़े-बड़े वैद्य डाक्टरोंके द्वारा औषधोपचार हुआ। हजारों रुपये खर्च किये गये, पर कोई लाभ न हुआ। दो-तीन वर्षके बाद जब वेदान्तकी साधना छूट गयी, तब दर्द भी अपने-आप चला गया। वेदान्तकी साधना छूटनेमें साक्षात् भगवान्की ही इच्छा हेतु थी।