हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 3 Shrishti Kelkar द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 3

जन्म:
शिलांग पहुँचने के कुछ समय बाद रामकौर देवी को रिखीबाई के गर्भवती होने का पता लगा तो उनके आनन्द की सीमा नहीं रही। परम अभिलषित वस्तु की प्रतीक्षा में हृदय की क्या अवस्था होती है— यह किसी से सुनकर समझा नहीं जा सकता है। पल-पल पर विघ्न की आशंका से मन कैसे चंचल हो उठता है --यह तो सर्वथा भुक्त भोगी ही जानता है। आखिर वह परम पुण्यमय क्षण उपस्थित हुआ आश्विन कृष्ण 12 वि०सं 1949 (दि० 17 सितम्बर सन् 1892) को रिखीबाई ने पुत्ररत्न प्राप्त किया। यह सुयोग हनुमानजी के दिन शनिवार को संघटित हुआ। सभी को देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि रतनगढ़ के महात्मा ने जन्म के समय जिन चिह्नों के होने की बात कही थी, वे सभी नवजात शिशु के शरीर पर विद्यामान् थे। रामकौर देवी ने अपनी निष्ठा के अनुसार अपने इष्टदेव का कृपा-प्रसाद मानकर बालक का नाम ‘हनुमान प्रसाद’ रखा।

मातृवियोग:
बालक हनुमानप्रसाद के जन्म के दो मास पश्चात् सं० 1949 (15 नवम्बर 1892) के मार्गशीर्ष कृष्ण 13 को इनके वृद्ध दादाजी श्रीताराचन्द जी का शिलॉग में देहान्त हो गया। इनकी मृत्यु बड़े विलक्षण ढंग से हुई। जिस दिन देहान्त हुआ उस दिन इन्होंने घरवालों से पूछा कि सबने भोजन तो कर लिया है न ? फिर बोले—कनीराम को बुलाओ और मुझे घर की गौशाला में ले चलो। यद्यपि उस समय आपकी अवस्था 84 वर्ष की हो चुकी थी, परंतु आप अच्छी प्रकार चल-फिर कर घर का काम करते थे। गौशाला में जाने के बाद बोले— मेरे प्राण-प्रयाण का समय निकट आ गया है। देखो, भगवान् के पार्षद, चार भुजा वाले मेरे सामने खड़े हैं, आप लोग भी दर्शन कर लें। सब लोग ‘हरे राम’ महामन्त्र का उच्चारण करें। वे स्वयं भी इसी मन्त्र का जप करने लगे। फिर कहा— मुझे स्नान कराओ। श्रीकनीराम जी ने उनको स्नान कराकर ललाट में चन्दन लगा दिया और अपनी गोदमें लिटा लिया। देखते-ही-देखते उनके प्राण नेत्रों द्वारा प्रयाण कर गये। वे बड़े तपस्वी थे। प्रातःकाल तीन बजे उठकर हाथ-मुँह धोकर नित्यप्रति वे पचास माला ‘हरे राम’ वाले महामन्त्र की जपते और श्रीगीता जी के 18 अध्याय का सम्पूर्ण पाठ करने के पश्चात् शौच-स्नानादि करते। नित्यप्रति 108 पाठ विष्णु सहस्रनाम के भी करते।
शिशु अभी दो वर्ष का भी न हो पाया था कि उसके लिये मातृवियोग का क्षण उपस्थित हुआ। अपने कलेजे के टुकड़े लाड़ले लाल को रामकौर देवी को सौंपकर रिखीबाई ने सामान्य बीमारी के पश्चात् श्रावण कृष्ण प्रतिपदा सं० 1951 (18 जुलाई 1894) को अपना पाञ्च भौतिक कलेवर त्याग दिया। सारा परिवार शोक सागर में निमग्न हो गया।
मातृहीन शिशु के पालन-पोषण का सारा दायित्व दादीपर आ गया। बालक जब जानने-पहचानने योग्य हुआ तो माता रूप में उसने दादी रामकौर देवी को ही पाया। उसने उन्हें ही 'माँ' कहना प्रारम्भ किया। और यह सम्बोधन जीवन पर्यन्त चला। पिताजी ने घरवालों के आग्रह से दूसरा विवाह किया। आगे चलकर इसके तीन कन्याएँ हुई— कमलीबाई, अन्नपूर्णाबाई और चन्दाबाई।

भीषण रोग से आक्रान्त
बालक हनुमान प्रसाद लगभग तीन वर्ष का होगा कि एक दिन रुग्ण हो गया। पहले समझा साधारण रोग है, शीघ्र ही ठीक हो जायगा पर बालक की स्थिति सूखा रोग के कारण चिन्ताजनक हो गयी। दादी रामकौर देवी के मनकी क्या अवस्था होगी, इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है। कितने देवाराधन, कितनी प्रार्थना, कितने अनुष्ठान के फलस्वरूप बालक घर में आया और वही भीषण रोगाक्रान्त होकर खाटपर पड़ा है। हर सम्भव उपचार के पश्चात् भी स्थिति बिगड़ती चली गयी। अन्त में सब ओर से निराश होकर दादी बालक को लेकर रतनगढ़ चली आयीं एवं संत-महात्माओं की शरण लेकर पाठ, पूजा, जप, दान, अनुष्ठानादि का मार्ग अपनाया। संतो का आशीर्वाद प्राप्त हुआ और बालक स्वस्थ होने लगा और कुछ दिनोंमें पूर्ण स्वस्थ होकर अपनी मधुर मुस्कान से दादी को प्रफुल्लित करने लगा। दादी उसे लेकर शिलाँग चली गयीं।

भूकम्प से प्राण-रक्षा:
‘जाको राखे साइयाँ मार सके ना कोय’ इसका दूसरा उदाहरण शीघ्र ही सामने आया। वि० सं० 1953 (सन् 1896) में शिलाँग में भीषण भूकम्प आया। सन्ध्या का समय था। देखते-ही-देखते कतार में खड़ी गृहावलियाँ धरती में लोटने लगीं। अपार धन-सम्पत्ति नष्ट हो गयी। इस दुर्घटना में बालक हनुमान प्रसाद की रक्षा किस अचिन्त्य शक्ति की कृपा से हुई, इसका वर्णन उन्हीं की भाषा में पढ़ें जो उन्होंने स्वयं 'कल्याण' में प्रकाशित किया—
सन् 1896 ई० (वि०सं० 1953) में आसाम में भयानक भूकम्प हुआ था। उस समय मेरी उम्र लगभग चार वर्ष की थी। शिलाँग (आसाम) में हमारा कारबार था। मेरे दादाजी कनीराम जी वहाँ रहते थे। पिताजी कलकत्ते का कारबार सँभालते थे। माताजी की बहुत छोटी उम्रमें मृत्यु हो जाने से मेरी दादीजी ने मुझे पाला। उनका मुझ पर जो स्नेह था एवं उन्होंने मेरे लिये जितने कष्ट सहे, उसका बदला मैं हजार जन्म सेवा करके भी नहीं चुका सकता। उनके जीवित रहते मैंने इस ओर पूरा ध्यान नहीं दिया।
अब पछताने से कोई लाभ नहीं। जिनके माता-पिता आदि जीते हैं, उन्हें बड़ा सौभाग्य प्राप्त है। वे जी भर उनकी सेवा करके आनन्द लूट लें, नहीं तो पीछे मेरी तरह पश्चाताप के सिवा प्रत्यक्ष सेवा का कोई साधन नहीं रहेगा। अस्तु ! मैं दादीजीके साथ शिलाँग में रहता था। मेरी बुआ भी वहीं आयी हुई थी। उनके दो सन्तानें थीं। हम तीनों साथ-साथ खेला करते। भूकम्प के दिन हमारे निकटवर्ती श्री भजनलाल श्रीनिवास के यहाँ किसी व्रत का उद्यापन था। उनके यहाँ हमें भोजन करने जाना था। बुआजी के दोनों बालकों ने जाने से इंकार कर दिया। मैं अकेला ही गया। वे घर पर रह गये। सन्ध्या का समय था। लगभग पाँच बजे होंगे। मैंने श्रीभजनलाल श्रीनिवास के गोल के पीछे रसोई में जाकर भोजन किया। रसोई से निकलकर गोले में घुस ही रहा था कि धरती बड़ी जोर से काँप उठी। मैं चिल्लाया, मेरे आस-पास पत्थरों की वर्षा होने लगी। सारा मकान मिनटों में ध्वंस हो गया। मैं दब गया, परन्तु आश्चर्य, मेरे चारों ओर पत्थर हैं, उनपर एक तख्ता आ गया और उसके ऊपर पत्थरों का पहाड़। मैं मानों खोहमें–काली गुफा में पड़ गया। पता नहीं, वायु के आने-जाने का रास्ता कैसे रहा, परन्तु मैं मरा नहीं। भूकम्प बन्द होने पर मूसलाधार वर्षा हुई और उसी समय हमारे बगल के एक गोले में आग लग गयी। चारों ओर हाहाकार मचा था। कौन दबा, कौन बचा, कुछ पता नहीं। दादाजी हम तीनों बालकों की खोज में लगे। मेरी बुआजी के दोनों बालक पत्थरों के नीचे मरे मिले। मेरी बड़ी बुआजी के पौत्र (मुझसे कुछ बड़ी उम्र के) श्रीराम गोयनका की भी लाश मिली। ढूँढते और पुकारते दादाजी भजनलाल श्रीनिवास के गोलेके पास आये। वे बड़े जोरसे पुकार रहे थे— 'मन्नू-मन्नू'। मैंने आवाज सुन ली। नन्हा-सा बालक था, भयभीत था, रो रहा था। परन्तु न मालूम किस प्रेरणा से मैंने शक्ति भर जोर से उत्तर दिया— ‘यहाँ हूँ, जल्दी निकालिये।’ पत्थरों का ढेर हटाया गया। मैं निकलकर दादाजी की गोद में चढ़ गया, उन्होंने हृदय से लगा लिया। दोनों रोने लगे। उनके रोने के कई अर्थ थे। दादीजी तब तक अपने इष्ट श्रीहनुमान जी को याद कर रही थीं। हनुमानजी ने उनकी पुकार सुनी, बुआजी के बालकों के दबने का दुःख क्षणभर के लिये कुछ हलका हो गया। भूकम्प के कारण कनीरामजी के हृदय को धक्का लगा। सहसा वे रुग्ण हो गये और मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा सं० (3 दिसम्बर 1956) के दिन कलकत्तेमें ‘सोऽहम्-सोऽहम्’ का जप करते हुए शरीर छोड़ दिया।

शिक्षा एवं दीक्षा:
दीक्षा— महान संतों की चेष्टा भविष्य के जीवन की सूचना देती हैं। विशाल प्रासाद के निर्माण के पूर्व, उसकी नींव भी स्वतः उसी अनुरुप ही होती है। बालक हनुमान प्रसाद के जीवन में भी इसी प्रकार आध्यात्मिक प्रवृत्ति का श्रीगणेश बचपन से ही आरम्भ हुआ। दादी रामकौर के लाड़ में पला हुआ बालक न अधिक चंचल था, न गम्भीर। वह दादी को सन्तों के पास जाते देखता। देवी रामकौरकी श्रद्धामयी चेष्टा देख-देखकर वह मन-ही-मन अनेक बातें सोचता। पवित्र हृदय सन्त जिस समय देवी रामकौर से भजन की चर्चा करते, उस समय बालक एकान्तचित्तसे उनकी बातें सुनता। सन्तों की घटनाएँ, सन्तों की बात सुनकर बालक आनन्दमें भर जाता। जिस समय गुरु-शिष्य विषयक चर्चा चलती, उस समय बालक के हृदयमें भी शिशु-सुलभ उमंग का उन्मेष हो जाता तथा हृदय के अन्तस्तल में मूक चाह उत्पन्न होती— मेरे भी एक गुरु जी होते और मेरी दीक्षा होती। देवी रामकौर बालक की गम्भीर मुद्रा देखती, देखते ही दोनों हृदय के भावतन्तु नैसर्गिक विद्युतकणोंके द्वारा जुड़ जाते। देवी रामकौर के मनमें स्फुरणा होने लगती— इसे दीक्षा दिला दूँ। उच्च सम्प्रदाय के उच्च सन्त के चरणाश्रय में ही मेरा बालक फले फूले। अस्तु, मन के बार बार के विचार मूर्तरूप धारण करते ही हैं, देवी रामकौर ने एक दिन निश्चय कर लिया कि बालक का दीक्षा संस्कार करा देना है। तैयारियाँ होने लग गयीं।
उन दिनों निम्बार्क सम्प्रदाय के बड़े विद्वान् महन्त मेहरदास जी रतनगढ़ में रहते थे। उनके शिष्य का नाम रामरतनदास जी था तथा रामरतनदास जीके शिष्य श्रीव्रजदास जी थे । सन्त श्रीव्रजदास जी को बालक हनुमानप्रसाद के दीक्षा गुरू होने का दुर्लभ सौभाग्य प्राप्त हुआ। देवी रामकौर ने सन्त श्रीव्रजदास जी से दीक्षा-संस्कार सम्पन्न करने की प्रार्थना की। सन्त व्रजदासजी ने भी सहर्ष स्वीकार कर लिया।
मंगलमय मुहूर्तमें बालकने स्नान किया। नवीन वस्त्र पहनकर श्रीगुरुदेव के चरणोंमें उपस्थित हुआ। हृदयमें उमंग का सागर लहरा रहा था। गुरूदेव ने देखा, बालक हृदय से चाहता है, एक दिन भगवान् नारद ने भी ध्रुव को ऐसे ही देखा था और— ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ की दीक्षा दी थी। आज मानों उसी की पुनरावृत्ति हो रही है। सन्त श्रीव्रजदास जी ने विधि पूरी की। बालक के सुकोमल कण्ठ में गुरूदेव ने कंठी बाँध दी तथा कान में 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' का मंत्रोपदेश कर दिया। वैष्णवी दीक्षा संस्कार सम्पन्न हुआ। यह संस्कार सम्वत् 1957 वि० में रतनगढ़में हुआ था। इसी वर्ष देवी रामकौर अपनी पीहर अमृतसर गयीं। लाडला पौत्र भी गया। बालक की दैवी दीक्षा तो हो चुकी। अब दादी की क्रियात्मक दीक्षा प्रारंभ हुई। देवी रामकौर को श्रीहनुमान जी का इष्ट था। उन्हें श्रीहनुमान जी के साक्षात् दर्शन भी हुये थे। बालक की उम्र भी आठ वर्ष की हो चुकी थी। देवी रामकौर ने हनुमान कवच का पाठ बालक को सिखा दिया और बालक ने भी सीखकर नित्य पाठ करना आरम्भ कर दिया। पाठ का यह बीजारोपण इतना दृढ हुआ था कि उसकी उत्तरोत्तर वृद्धि ही होती गयी। आगे चलकर तो वह बालक सूर्य, गणपति, देवी, शिव आदि अनेक देवस्तोत्रों का नियम से पाठ करने लगा। नवरात्र के दिनों में तो सांगोपांग सप्तशती का अनुष्ठान एव विवाह भागवत की कई स्तुतियों का बड़ी श्रद्धा से पाठ करता। जब दादी संत श्रीबखन्नाथ जी के पास सत्संग के लिये जाती तो साथ में बालक हनुमान प्रसाद भी जाता। धीरे-धीरे नाथजी ने बालक के संस्कार देखकर गीताजी के श्लोक कंठस्थ कराने शुरु किये। बालक ने एक वर्ष के अन्दर सारी गीताजी कठस्थ करके सुना दी। अद्भुत प्रतिभा और आध्यात्मिक प्रवृत्ति देखकर नाथजी और दादीजी बड़े प्रसन्न हुए। इसी बीच में व्यापारिक जीवन में परिवर्तन आवश्यक हो उठा। श्रीकनीराम जी की मृत्यु के बाद श्रीभीमराज जी अकेले रह गये। इसलिये आसाम प्रान्त के विस्तृत व्यापार को न सँभाल सकने के कारण, वहाँ का व्यापार बन्द करना पड़ा और कलकत्ते की दुकान (कनीराम भीमराज) का काम चालू रखकर संवत् 1958 के साल से सपरिवार कलकत्ते आकर रहने लगे, क्योंकि उस समय अकेले भीमराज जी को सब कामकाज देखना पड़ता था।
शिक्षा— यह आश्चर्य की बात है कि जो आगे चलकर कई भाषाओं के इतने बड़े विद्वान् बने, उस बालक ने कहीं विधिवत् पढ़ाई नहीं की। बाद में कलकत्ता वास के समय तत्कालीन हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वानों एवं सम्पादकों के सम्पर्क में आकर इन्होंने हिन्दी साहित्य का समुचित ज्ञान प्राप्त किया। अंग्रेजी का सामान्य ज्ञान भी कलकत्ते में ही व्यक्तिगत रूप से श्रीअयोध्याप्रसाद जी के पास अध्ययन करके प्राप्त किया। अन्य भाषाओं का ज्ञान इन्होंने अपनी अद्भुत प्रतिभा से समय-समय पर बढ़ाया। उपनयन-संस्कार पं० श्रीछोटेलाल जी द्वारा सम्पन्न हुआ।

विवाह:
उन दिनों कम उम्र में विवाह होने की प्रथा थी। बालक हनुमानप्रसाद की आयु 12 वर्ष की थी। व्यापार में इनकी दूकान की अच्छी प्रतिष्ठा थी। दादी को इन्हें दूल्हारूप में देखने की बड़ी इच्छा थी इसलिये रतनगढ़ निवासी श्रीगुरुमुखराय जी ढंढारिया की पुत्री महादेवी बाई से सगाई तय कर दी। इस समय का प्रसंग बड़ा ही रोचक है, जिसमें देवी रामकौर का आदर्श रूप सामने आता है। विवाह के पूर्व ही महादेवी चेचक से आक्रान्त हो गयीं। फलस्वरूप सारे शरीर में चेचक के धब्बे रह गये। सारा सौन्दर्य नष्ट हो गया। इनके माता-पिता चिन्ता में निमग्न थे कि अब सगाई निश्चय ही छूट जायेगी। पर देवी रामकौर ने स्पष्ट कह दिया कि जैसे कन्या का वाग्दान एक बार ही होता है वैसे ही मैं अपने पौत्र का वाग्दान महादेवी के लिये कर चुकी हूँ। उसके जीवित रहते मैं अपने वचन को कदापि नहीं छोडूंगी। प्रथम जेष्ठ कृष्ण 4 सं० 1961 विवाह संस्कार धूम-धाम से सम्पन्न हुआ। पर विधि का विधान और ही था । यह दाम्पत्य सुख अधिक दिन न रह सका। विवाह के 5 वर्ष बाद महादेवी ने प्रथम पुत्र का मुँह देखा पर स्वयं सदा के लिये आँखें मूँद ली। उस दुःख को भूलने के पहले ही नवजात शिशु हठात् परलोक चल बसा। वि० सं० 1968 में देवी रामकौर ने राजगढ़ निवासी श्रीमँगतूराम जी सरावगी की पुत्री सुवटीबाई से द्वितीय विवाह सम्पन्न कराया। अब पितृ वियोग सामने आया। श्रावण कृष्ण 5 सं० 1969 के दिन रतनगढ़ में श्री भीमराजजी ने पाञ्च भौतिक शरीर छोड़ दिया। श्राद्ध-आदि से निवृत होकर ये कलकत्ते आये और दूकान का सारा भार मनोयोगे से सँभालने लगे। वि० सं० 1972 में सुवटीबाई ने एक पुत्र प्रसव किया। जन्म के दो ही दिन बाद शिशु परलोक चल बसा और उसके 6 महीने बाद माँ भी चल बसी। देवी रामकौर पर इन सभी घटनाओं का बड़ा आघात लगा। वे गृहस्थ की समस्याओं से बड़ी चिन्तित थीं। पौत्र जिसकी उम्र अभी 23 साल की थी पुनः गठ-बन्धन के लिये दबाव डालने लगीं। भाईजी उस समय देश-सेवा की धुन में मस्त थे पर दादी के प्यार भरे आग्रह के सामने सिर झुका दिया। दादी ने आपने पौत्र का तीसरा विवाह अक्षय तृतीया वि० सं० 1973 को श्रीसीताराम जी सांगानेरिया की पुत्री रामदेई से किया। श्रीरामदेई ने गृहलक्ष्मी के रूप में अंततक साथ निभाया। इन्होंने भाईजी के मन में अपना मन मिलाकर उनके हर कार्य में कन्धे से कन्धा मिलाकर सतत् सहयोग दिया। अपना अलग अस्तित्व रखा ही नहीं।