हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 53 Shrishti Kelkar द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • स्वयंवधू - 31

    विनाशकारी जन्मदिन भाग 4दाहिने हाथ ज़ंजीर ने वो काली तरल महाश...

  • प्रेम और युद्ध - 5

    अध्याय 5: आर्या और अर्जुन की यात्रा में एक नए मोड़ की शुरुआत...

  • Krick और Nakchadi - 2

    " कहानी मे अब क्रिक और नकचडी की दोस्ती प्रेम मे बदल गई थी। क...

  • Devil I Hate You - 21

    जिसे सून मिहींर,,,,,,,,रूही को ऊपर से नीचे देखते हुए,,,,,अपन...

  • शोहरत का घमंड - 102

    अपनी मॉम की बाते सुन कर आर्यन को बहुत ही गुस्सा आता है और वो...

श्रेणी
शेयर करे

हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 53

पुरी और नवद्वीप की यात्रा

कुछ प्रेमीजनों की भाईजी के साथ पुरी एवं नवद्वीपकी यात्रा करनेकी हार्दिक अभिलाषा थी। कई बार ऐसा कार्यक्रम बना किन्तु किसी-न-किसी कारणवश स्थगित होता रहा। कलकत्तेके कुछ भावुकजन भी इसके लिये बराबर आग्रह करते थे। अन्तमें यह निश्चय हुआ कि फाल्गुन सं० 2018 (मार्च 1962) में श्रीमोहनलालजी गोयन्दकाकी पुत्रीके विवाहमें जब कलकत्ता जानेका कार्यक्रम बने, तब वहींसे नवद्वीप एवं पुरीकी यात्राकी जाय। फाल्गुन कृष्ण 14 सं० 2018 (5 मार्च, 1962) को भाईजीने अपने परिकरोंके साथ गोरख रात्रिमें बनारसके लिये प्रस्थान किया। अगले दिन वहाँसे वायुयान द्वारा कलकत्ता पहुँचे। कलकत्तेमें शहरसे दूर पानीहाटामें भाईजीके निवासकी व्यवस्था हुई। भाईजी जहाँ जाते वहीं सत्संगके कार्यक्रम अवश्य आयोजित होते। विवाहके कार्य सम्पन्न होनेके पश्चात् फाल्गुन शुक्ल 8 सं० 2019 ( १३ मार्च १६६२) को रात्रिमें कलकत्तेसे पुरीके लिये प्रस्थान किया। साथमें लगभग दौ सौ व्यक्ति हो गये थे। वहाँ भाईजी सपरिवार बाँगड़ों के स्थानमें ठहरे एवं सभी लोग दूसरी धर्मशालाओंमें। दिनमें भाईजीके साथ सभीने श्रीजगन्नाथजीके मन्दिरके दर्शन किये एवं मन्दिर के प्रांगण में ही सुमधुर संकीर्तन हुआ। संकीर्तनके समय वहीं भाईजीकी बाह्य-चेतना लुप्त हो गयी। संकीर्तन, पद-गायनके पश्चात् बहुत चेष्टा करनेपर भाईजी को बाह्य ज्ञान हुआ। सायंकाल सब लोगों ने भाईजीके साथ समुद्रमें स्नान किया। दूसरे दिन सब लोगों ने साक्षी गोपाल एवं भुवनेश्वर की यात्रा की। वहाँ से कलकत्ता लौटकर कुछ दिन पश्चात नवद्वीपकी यात्रा सम्पन्न की।


श्रीदूलीचन्दजी दुजारीकी प्राण रक्षा श्रीदूलीचन्दजी अपनी शिक्षा समाप्त कर सं० 1990 (सन् १६३३) में भाईजीके पास काम करनेके लिये आ गये थे श्रीगम्भीरचन्द जी दुजारीके ये रिश्ते में भतीजे थे एवं उनके कहने से ही भाईजी की सेवामें आये थे। तबसे ये निरन्तर भाईजी की सेवामें ही रहे। अपनी सेवाकी निष्ठा एवं योग्यताके कारण कुछ ही वर्षोंमें ये भाईजी के अपरिहार्य परिकर हो गये। दो-तीन व्यक्तियों का कार्य ये अकेले सम्भालते थे। ये भाईजी के परिवार के सदस्य की तरह हो गये थे।

4 अप्रैल, 1962 को रात्रिमें चोर इनके घरमें घुस गये और इनको बुरी तरहसे मारा। चोटसे इनका सिर फट गया एवं सारा शरीर रक्तसे लथपथ हो गया। दूलीचन्दजी सर्वथा बेहोश एवं मृतप्राय हो गये। उनको तुरंत अस्पताल ले जाया गया एवं सर्वोत्तम चिकित्सा की व्यवस्था की गयी। भाईजी स्वयं अस्पताल जाते एवं घंटों उनके पास बैठे रहते। सेवा की पूर्ण व्यवस्था की गयी थी। पर्याप्त चिकित्साके पश्चात् भी उन्हें पूरा होश नहीं आया एवं 16 अप्रैल सन् 1962 को इनकी हालत चिन्ताजनक हो गयी। उपचार करनेवाले डाक्टर भी निराश-से हो गये। प्रतीत होने लगा कि मृत्युके साथ अन्तिम संघर्ष चल रहा है एवं बचनेकी आशा क्षीण हो गयी। भाईजीको इसकी सूचना दी गयी। अब इनको बचानेका और कोई उपाय नहीं देखकर सबकी दृष्टि भाईजीकी ओर लगी थी। परिवारवाले भाईजीसे आग्रहपूर्वक प्रार्थना करने लगे। अन्तमें भाईजीने सभीको कमरेसे बाहर जानेको कहा और कमरा बन्द कर लिया। कमरेमें अन्दर भाईजीने क्या किया, इसे तो वे ही जानें, पर इसके पश्चात् ही लोगोंने अस्पतालमें देखा कि दूलीचन्दजी की हालतमें आशातीत सुधार हो गया। दिन-प्रति-दिन उनकी हालत सुधरने लगी। थोड़े ही दिनों बाद वे स्वस्थ होकर घर लौट आये। यद्यपि चोटके कारण शरीर पूर्ववत् नहीं हो सका। फिर भी वे यथा-शक्ति भाईजीकी सेवा करते रहे।

इसी तरह श्रीदिलीपकुमारजी भरतियाकी भी भाईजीने प्राण-रक्षा की, जब उनके दूसरी बार ऑपरेशन के समय डाक्टर सर्वथा निराश हो गये थे।

भागवत - भवनका शिलान्यास


वाराणसीके मानस मन्दिरके आधारपर ही भागवत-भवनके निर्माण कार्यपर कई दिनोंसे विचार हो रहा था, जिसमें सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराणके अठारह हजार श्लोकोंको संगमरमरके पत्थरपर खुदवाकर दिवालों पर लगवाया जाय। कई स्थानोंके सुझाव आये, पर अन्त में श्रीकृष्ण जन्मस्थान, मथुरामें ही भागवत-भवन बनवानेकी विशाल योजना तय की गयी। भागवत भवनका शिलान्यास माघ शुक्ल 10 सं० 2021 (11 फरवरी 1965) को होना निश्चित हुआ। इसी निमित्तसे भाईजी गोरखपुरसे रवाना होकर माघ शुक्ल 7 सं० 2021 (8 फरवरी 1965) को मथुरा पहुॅचे। लगभग डेढ़-दो सौकी संख्यामें परिकर मण्डल गोरखपुर, लखनऊ, कानपुर आदि स्थानोंसे साथ हो गया। मथुरा स्टेशनपर संत-समुदाय एवं संभ्रान्त नागरिकोंने भाईजीका भव्य स्वागत किया। पुष्प-मालाओंसे भाईजी लद-से गये ।

उत्सवकी जोरोंसे तैयारी की गयी। विभिन्न प्रान्तोंसे संभ्रान्त अतिथि पधारे। विद्युत-प्रकाशसे सारा स्थान जगमगा रहा था। श्रीकृष्ण-चबूतरेके समक्ष विशाल पण्डालमें लगभग 250 विद्वान् श्रीमद्भागवतका सप्ताह पारायण कर रहे थे. क्या अनोखा दृश्य रहा होगा जब 250 कंठ एक स्वरसे पाठ कर रहे होंगे। मथुराके वृद्धजनों कहा- 'न भूतो न भविष्यति।' इसके अतिरिक्त व्रज - विख्यात पूज्यपाद श्रीनित्यानन्दजी भट्ट द्वारा श्रीमद्भागवतकी सप्ताह कथाका आयोजन हुआ।

माघ शुक्ल 10 सं० 2021 (11 फरवरी, 1965) को भाईजी श्रीकृष्ण जन्मस्थानपर पधारे। श्रेष्ठ ब्राह्मणों द्वारा देवी-देवताओंका पूजन करवाया गया। इसके पश्चात् शिलान्यासके लिये लगभग बारह-तेरह फीट गड्ढा खोदा गया था। सीढ़ियोंसे नीचे उतरनेकी व्यवस्था थी। भाईजी धर्मपत्नी सहित नीचे उतरे और आसनपर बैठ गये। विधिपूर्वक श्रीगणेशजी, श्रीवास्तुदेवता आदिके पूजनका कार्य लगभग एक घण्टेतक हुआ पूजनके बाद भाईजीने भागवत-भवनके नींवकी ईंटे रक्खीं एवं उनपर चाँदीकी करनीसे गारा लगाया। भगवन्नामकी जय-जयकार गूंजने लगी। दूसरे दिन उत्तर भारतके प्रमुख दैनिक समाचार पत्रों में इसका विवरण फोटो सहित छपा। इस अवसरपर भाईजीने बड़ा जोशीला भाषण दिया। उसका कुछ अंश यह है---

"लगभग साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व अत्याचारी औरंगजेबके द्वारा मन्दिर के ध्वंस किये जाने के बाद यही पहला अवसर है, जब इस पुण्य-भूमिमें व्रजके विद्वानों द्वारा श्रीमद्भागवत का मंगल-पारायण हो रहा है। आज राष्ट्रीयता के नामपर जातिवाद, भाषावाद और प्रान्तवाद चल रहे हैं। अधिकारका भूखा नेतृत्व बुरी तरह झगड़ रहा है एवं निरीह विद्यार्थी एवं जनताको
भड़काकर उनके द्वारा देशको लजानेवाले उपद्रव यत्र-तत्र करवाये जा रहे हैं। हम एक ही ईश्वरको माननेवाले, एक ही भारतमें रहनेवाले एक-दूसरेपर घृणित प्रहार कर रहे हैं। यह हमारे लिये बड़ी ही अशोभनीय और दुर्भाग्यकी बात है। आज हमारा देश स्वतंत्र है, गणराज्य है। हिन्दू-मुसलमानका कोई प्रश्न नहीं। इस अवस्थामें बर्बरता पूर्ण आक्रमणों द्वारा जिन मन्दिरोंको, धार्मिक स्थानोंको भ्रष्ट करके छीन लिया गया था; हमारे आजके मुसलमान भाइयोंका यह कर्तव्य है कि वे हिन्दुओंके उन पवित्र स्थानोंको बड़े प्रेमभावसे लौटा दे...इसमें उनका कल्याण है, हिन्दुओंका कल्याण है और देशका भी कल्याण है। वे मानेंगे या नहीं, भगवान् जानें पर यदि स्वेच्छासे न मानेंगे तो भगवान् और काल उन्हें मनवा लेगा, आज चाहे न मानें... धनिकों को भी खुले हृदयसे धन देना चाहिये। जीवन किसीका स्थायी रहेगा नहीं, धन किसीका बना रहेगा नहीं और कौन जानता है ऐसा शुभ अवसर फिर कभी आयेगा या नहीं ? अतः पावन कार्यमें जितना सहयोग दिया जा सके देना चाहिये।

भाईजी जितने दिन वहाँ रहे, मथुरा-वृन्दावनके सैकड़ों ब्राह्मणोंको दक्षिणा भेंट दी, असहाय और आर्त्तजनोंकी वस्त्र धनसे सहायता की गयी, बहुत-सी संस्थाओं को दान दिया गया। सन्तोंकी सेवा की गयी। बरसाना- गोवर्धन आदि स्थानोंकी परिवार परिकरों सहित यात्रा की गयी। वृन्दावन नगरपालिकाकी ओरसे भाईजीका परम रसिक भक्त, भारतीय संस्कृतिके प्रतीक, धर्मके महान् रक्षक, आध्यात्मिक प्रेरणाके केन्द्रके रूपमें अभिनन्दन किया गया। इस प्रकार फाल्गुन कृष्ण 11 सं० 2021 (27 फरवरी 1965) तक व्रजवास करके भाईजी राजस्थानकी ओर चले गये।

चतुर्धाम वेद-भवन की स्थापना

विश्ववाङ्मयकी सर्वप्रथम अभिव्यक्तिके रूपमें वेदोंका सर्वोच्च स्थान है। उत्तर प्रदेशके तत्कालीन राज्यपाल श्रीविश्वनाथदास वैदिक साहित्यके भक्त थे। एक बार उन्होंने बद्रीनाथ धामकी यात्रा की तो उनके मनमें वैदिक ऋचाओंका नित्य पाठ आदिकी व्यवस्था करनेका विचार आया। उस यात्रामें जगन्नाथपुरीमें वेद–भवनकी स्थापनाका निश्चय हुआ। यात्रासे लौटनेपर वे गोरखपुर आये तो भाईजीसे इस सम्बन्धमें चर्चा की। भाईजीको उनके विचार अच्छे लगे। भाईजीने कहा--केवल पुरीमे ही क्यों, भारत के‌ चारों दिशाओंके चारों धामों- बद्रीनाथ, जगन्नाथ, रामेश्वर और द्वारकामें वेद-भवनकी स्थापना होनी चाहिये। श्रीविश्वनाथजीको भी यह बात प्रिय लगी। भाईजीने गोरखपुरके गोरक्षपीठाधिपति पूज्य महन्त श्रीदिग्विजयनाथजीसे इस कार्यमें साथ रहनेकी प्रार्थना की। उन्होंने इसे सहर्ष स्वीकार किया। फलतः श्रीगोरखनाथ मन्दिरके पवित्र स्थानमें 27 जनवरी सन् 1965 के दिन सम्मिलित गोष्ठीमें न्यास बनानेकी नींव पड़ी। संस्थाके महासचिवके रूपमें श्रीविश्वनाथजी सक्रिय हो गये एवं संयुक्त मन्त्रीके रूपमें भाईजी केवल यही देखकर कि भाईजी इस कार्यमें रुचि ले रहे हैं, कई व्यक्तियोंने धनका दान दिया। श्रीभाईजीके प्रयाससे जगदगुरू श्रीशंकराचार् ने 'संरक्षक पद' स्वीकार किया। आज अनेक स्थानोंपर वेद-भवनकी शाखाएँ अपने उद्देश्यकी पूर्तिम संलग्न हैं। वर्तमान मुख्य केन्द्र हैं- बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम्, द्वारका, रुद्रप्रयाग, कालड़ी (केरल), श्रीरंगम् एवं प्रयाग।