एक थी महुआ-सविता वर्मा ग़ज़ल राज बोहरे द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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एक थी महुआ-सविता वर्मा ग़ज़ल

राज बोहरे

सविता वर्मा ‘ग़ज़ल’ का नया कहानी संग्रह ‘एक थी हुआ’ आरती प्रकाशन लाल कुआं नैनीताल से प्रकाशित हुआ है। इसमें लेखिका की इक्कीस कहानियां सम्मिलित हैं । लेखिका ग़ज़ल और कहानी दोनों ही विधाओं में सक्रिय लेखन करती हैं, वे डिजिटल क्रिएटर भी हैं। इस संग्रह की प्राय: सभी कहानियों में स्त्री चरित्र बड़े ताकतवर हैं। स्त्रियों से जुड़े अनेक मुद्दे इन कहानियों में उभर कर आते हैं, प्रेम और पुनर्विवाह भी ऐसे ही मुद्दे हैं । ‘सतरंगी किरणें’, ‘खुशियां लौट आई’ ‘सत्या’ पुनर्विवाह की कहानियां है। लगभग सभी कहानियों में प्रेम कथा की जरूर उपस्थित है, चाहे वह ‘सत्या’ में करुणा और राघव का प्रेम हो, ‘लागे ना मोरा जिया’ की सुमि का अपने पति धीरज के प्रति प्रेम हो, कहानी ‘ प्यार होता ही ऐसा है ‘ के डॉक्टर करण का दिव्या से प्रेम हो, या ‘नई जिन्दगी ‘ में पूजा का नवीन से प्रेम हो, अथवा ‘काव्या’ कहानी में सागर का काव्या से, या ‘ एक अनोखा प्यार ‘ में सौरभ का मल्लिका से एक तरफा प्रेम हो।

सतरंगी किन्ने कहानी में सावित्री देवी के बेटे नरेंद्र ने एक विधवा युवती से विवाह कर लिया है, युवती का एक बेटा भी है। आज नव विवाहित पत्नी को लेकर सावित्री देवी का बेटा घर आ रहा है। उनकी बेटी रमा जो मायके आई हुई है, वह बड़ी चिंतित है कि पिता श्याम बाबू जरूर ही भाई से बुरी तरह गुस्सा होंगे और मारपीट का नाटक भी करें। बेटी दो-चार दिन को मायके आई है। उसे चिंता न करते हुए हंसी-खुशी से रहने का कह के मां सावित्री देवी कहती हैं कि ‘मैंने अब तक तेरे पिता का गुस्से के अलावा सहा भी क्या है? नरेंद्र ने क्या गलत कर दिया! ‘ तो रमा शांत हो जाती है । नरेंद्र जब घर आता है, तो श्याम बाबू गुस्से में बाहर की तरफ बढ़ते हैं, तो सावित्री देवी उन्हें रोक लेती है और धकेलते हुए बैठक में ले जाकर उन्हें ठीक तरह से समझा देती है कि जब तुम करो तब सब स्वीकार करेंगे और कोई खुद करें तो तुम्हें स्वीकार नही होगा, ऐसा क्यों ? तुमने खुद अपनी फूल सी बेटी का विवाह चार बच्चों के बाप और बेटी से दुगने उम्र के आदमी के साथ कर दिया वह तुम्हें ठीक लगा आज वही काम बेटा करके आया है,तो गलत हो गया ? इस नई बहू के पास केवल एक ही बच्चा तो था, उम्र में भी वह युवती नरेंद्र के समवयस्क है, फिर गुस्सा क्यों करते हो? पत्नी का यह रूप देखकर पति क्षण भर में शांत होकर सारी परिस्थिति को स्वीकार कर लेते हैं ।

इस संग्रह में इस कहानी की पात्र योजना पर विचार करें तो में सावित्री देवी एक ऐसी हाउस मैनेजर महिला हैं, तो सदा से पति का दबाव और गुस्सा झेलती रही हैं,व उनसे डर के हर बुरे भले में चुप रहीं हैं। इस घटना के बाद माँ जागरूक होती हैं और पति को न्याय की बात बताने में न डरती, न हीं रुकती है । कहानी की दूसरी पात्र रमा है, जिसका बेमेल ब्याह हुआ है लेकिन मां-बाप की खुशी के लिए वह चुप चुप रहकर पहली पत्नी के चार बच्चों को संभालती है और अब भी अपने पिता के डर से डरती है। अन्य पात्रों में श्याम बाबू व नरेंद्र इन दोनों का जिक्र हुआ है और वे दिखे भर हैं, पर उनके संवाद और उनका चरित्र बहुत ज्यादा प्रकट होकर नहीं आया है। फिर भी उनके बारे में जो सूचनाएं मिलती हैं, उनमें नरेंद्र भली सोच का युवा है जो अपने प्रेम के खातिर एक बच्चे की मां से विवाह कर लेता है। जबकि उसके पिता पुरानी सोच के व्यक्ति हैं, जो पितृ सत्ता के समर्थक हैं और बेटी को मनचाहे वर से बांध देते हैं।

इस कहानी की भाषा घरेलू सम्वादों की भाषा है । चरित्रों के संवाद में अनायास ही मुहावरे चले आए हैं, जो भाषा की दृष्टि से कहानी और संवाद दोनों को समृद्ध करते हैं, जैसे- ‘फूल सी बच्ची!’ ‘तेरी अपराधी हूं बेटी!’ ‘दिमाग का पारा सातवें आसमान पर था!’ ‘घर में आने वाले भूचाल का अंदाज था!’ लेखिका ने दुल्हन के आने के समय का घर के दृश्यों का बड़ा वास्तविक चित्रण किया है। इसमें रमा चिंतित दिखाई देती है तो माता सावित्री देवी बड़ी निश्चिंत होकर टहल रही है और कसमसाते पिता भीतर बैठे हुए हैं।

इस कहानी में संस्कार और संस्कृति भी लेखिका ने यथावत प्रयुक्त किए हैं। लोक संस्कृति को भी कहानी में जगह मिली है । भारतीय परिवारों में जब नई बहू ब्याह के घर में आती है तो उसे चुनरी उड़ा कर उसे आरती करके घर में लिया जाता है, नरेंद्र के सपत्नीक घर आने पर (बिना यह चिंता के वह विधवा स्त्री को बहू बनाकर लाया है,) सावित्री देवी स्वयं चुनरी उड़ा कर अपनी बेटी से आरती करवा कर नई बहू को घर में लेती हैं ।

इस कहानी में विशेष बात यह है कि नायिका सावित्री देवी बेटे के विवाह को तर्कसंगत ठहराने के लिए तुलनात्मक रूप से बेटी के विवाह का तर्क प्रस्तुत करती हैं और उनका आशय यही होता है कि जब हम अपनी कन्या का विधुर से दुबारा विवाह कर सकते है तो बेटे का किसी विधवा से विवाह क्यों नहीं कर सकते अर्थात जब हमारी बेटी एक बड़ी उम्र के विधुर के साथ ब्याही जा सकती है तो हमारा बेटा कम उम्र की एक विधवा युवती को क्यों नहीं विवाह कर ला सकता है! हालांकि सावित्री देवी के एक सम्वाद, एक तर्क, एक जिद और एक गुस्से से श्याम बाबू जैसे पितृ सत्तात्मक मनोवृत्ति के व्यक्ति का एकाएक ही बिना द्वंद्व में आए समर्पण कर देना व पत्नी से सहमत हो जाना एकाएक तर्कसंगत नहीं लगता।

दूसरी कहानी ‘लक्ष्मी’ एक ऐसी युवती की कहानी है जो पिता की नफरत का चौबीस वर्ष तक सामना करती है। कथानक के अनुसार एक परिवार में दो भाई हैं, जिनमे बड़े भाई की दो संताने हैं! छोटा सेना में है, उसकी कोई संतान नहीं है। बड़े भाई का बेटा रजत हमेशा नशे में रहने वाला युवक है, वह नशे में ही गाड़ी चलाते हुए कहीं टकरा गया है व अस्पताल में भर्ती है। रजत की मां अपने बेटे की नशेबाजी और बुरी आदतों को कोसती है और इस बेटे की तुलना अपनी सुलक्षणा बेटी लक्ष्मी से करती हुई लक्ष्मी की तारीफ करती है । सहसा लक्ष्मी के पिता कहते हैं कि लक्ष्मी को भी बुला लो! दिल्ली में रहके इंजीनियर की नौकरी करती लक्ष्मी जब घर आती है तो उसकी बुआ को लक्ष्मी के जन्म से लेकर अभी तक की सारी घटनाएं याद आती है ... चौबीस बरस पहले बेटे की लालसा में बेटे की आशा में बड़े भाई ने सारी तैयारियां कर रखी थी कि बड़ी भाभी ने पहली सन्तान के रूप में बेटी को जन्म दिया था और उसी क्षण से बड़े भाई को बेटी से नफरत हो गईथी । उन्होंने उसकी तरफ कभी प्यार से देखा भी नहीं ! परेशान हाल बेटी को छोटा भाई और उसकी पत्नी गोद ले लेते हैं । वही, उसे पालते, पोसते, पढ़ाते हैं । अब वह इंजीनियर की नौकरी कर रही है। रजत न ढंग से पढ़ पाया, न कोई नौकरी कर पा रहा है और नशे में धुत रहता है। कहानी के अंत में पिता और पुत्री गले लगते हैं और रोने लगते हैं।

इस कहानी के प्रमुख चरित्रों में लक्ष्मी, उसकी बुआ, उसके पिता, उसकी बड़ी मां और छोटी मां मौजूद है। लक्ष्मी ऐसी युवती है, जिसे कभी पिता का प्यार नहीं मिला। लेकिन उसकी शिक्षा, संस्कार और आचरण का असर था उसे दो-दो माह का गहरा प्यार मिला है । लक्ष्मी कहानी के अंत में प्रकट होती है लेकिन प्रभावित करती है। बुआ केवल इस कहानी की दर्शक है और उसी के मुंह से आने कहानी कहलाई है। लक्ष्मी के पापा ऐसे पितृसत्तात्मक व्यवस्था के पुरुष हैं जो हमेशा पुरुष संतान के ही पक्ष में रहते हैं । उन्हें जन्म से ही लक्ष्मी बुरी लगती है और उन्हें कभी भी लड़कियों के प्रति प्यार या ममता नहीं होती। लक्ष्मी की मां परंपरागत स्त्री है, जो अपने पति की इच्छा के अनुकूल रहती हैं और पति के नाराज होने पर अपनी बेटी को न ज्यादा लाड लड़ा पाती हैं और न ही ज्यादा हंसने मुस्कराने की छूट  दे पाती हैं।

इस कहानी में संवादों के बीच में यथास्थान मुहावरे आए हैं- जैसे ‘खाट पकड़ लेना’, ‘खानदान का चिराग!’( पृष्ठ 15) आदि ।

गांव में एक सांस्कृतिक उपक्रम प्रचलित है कि जब घर में संतान का जन्म होता है, (खासतौर पर जब बेटे का जन्म होता है,) तो चम्मच से थाली बजाई जाती है । पत्नी को पहली सन्तान की प्रसव पीड़ा के समय लक्ष्मी के पिता भी थाली और चम्मच लेकर बैठे हैं, ताकि बेटे के जन्म होते ही मैं बजाने लगूं तो सारे गांव में जाहिर हो जाय कि उनके घर बेटा पैदा हो गया है ।लेकिन जब बेटी पैदा हो जाती है तो थाली चम्मच फेंककर गुस्से में वे घर से बाहर निकल जाते हैं । यह कहानी बेटी के जन्म को गौरवपूर्ण मानने की कुप्रथा की कहानी तथा बेटा और बेटी के संस्कारों की तुलना करती हुई यह ऐक महत्वपूर्ण कहानी है।

हालांकि यह विसंगति कुछ अजब लगती है कि दिल्ली से घर आई लक्ष्मी जब सब घर वालों से मिलती है और उसे पता लगता है कि उसका भाई घायल और जख्मी होकर अस्पताल में भर्ती है, तो न तो चौंकती, न दुख प्रकट करती, न चिंता करती और न ही अस्पताल में देखने को जाती है।

संग्रह की एक कहानी ‘कर्फ्यू’ है। इसमें अपने स्कूल और हॉस्टल से छुट्टियों के दिन में अपनी मौसी के घर आई नेहा बड़ी दुखी हो जाती है, क्योंकि मौसी के शहर में कर्फ्यू लग गया है, दंगा हो रहा है और आनन – फानन में कर्फ्यू में कुछ ऐसा लगाया गया कि मौसी के बच्चे निशू व निहाल उस वक्त स्कूल गए थे तो वे स्कूल में ही फंसे रह जाते हैं । नेहा को घर में घुसे हुए, गिरे हुए बड़ा बुरा लगता है। वह मौसाजी से कहती है कि ‘जब भी कर्फ्यू में ढील मिले, मुझे ट्रेन में बैठा दें, जिससे मैं हॉस्टल चली जाऊं। घर में घुटन हो रही है !’ मौसी विनीता आखिर में उससे सहमत हो जाती हैं ।

इस संग्रह में प्रमुख चरित्र नेहा ही है, वही कथावाचक है,वही पूरा वृतांत पाठक को सुनाती है। मौसी विनीता ऐसी परेशान व चिंतित स्त्री है,जिसके बच्चे स्कूल पढ़ने को गए, तो वहीं फंसे रह गए हैं। अन्य पात्रों में मौसा जी रमेश और पड़ोसी शर्मा जी हैं, जो कर्फ्यू में घिरे रहकर अपने घर की आवश्यकता की पूर्ति में जुटे हुए हैं। इस कहानी में जो नेहा टेलीविजन पर देखती है, उन छोटे-छोटे दृश्यों से दंगे के दौरान जख्मी होने, अपनी जान देने, अपनी संतान खो देने वाले लोगों का मार्मिक विलाप और करुण क्रंदन सामने आया है ।

भाषा के तौर पर यह सामान्य बोलचाल की कहानी है। एक जबरदस्त वाक्य इस कहानी में मनुष्यता व मानवता के पक्ष में है । रमेश बोलते हैं –‘इंसानों के खून के प्यासे इन दरिंदों की प्यास कब शांत होगी? (पृष्ठ 21) इस कहानी की अगर अन्य विशेषताओं को देखा जाए तो हम पाते हैं कि कर्फ्यू के दिनों में दंगे के हालात में जिस तरह अमानवीय स्थितियां होती हैं, उनका सीधा चित्रण लेखिका ने इस इस कहानी में किया है ।

हालाँकि कहानी की कुछ चीजें पाठक को सीधे-सीधे गले नहीं उतरती- एक तो यह है कि जब कर्फ्यू लगता है, कस्बा अशांत होता है,तो ऐसे में प्राय: देखा गया है कि लड़के और लड़कियों के हॉस्टल खाली करा लिए जाते हैं, लेकिन नेहा इस मौसी के सुरक्षित घर को छोड़कर अपने हॉस्टल जाने की जिद करती है । आखिर उसे हॉस्टल में क्या सुरक्षा महसूस हो रही है! क्या उसके हॉस्टल को खाली नहीं कराया गया है! वह अभी चालू है! इस सवाल का कोई जवाब नहीं मिलता है। वही निशु और निहाल का स्कूल में फंसा रह जाना भी पाठक को अचरज में डालता है। ऐसे समय सारे स्कूलों और शिक्षण संस्थाओं को अपनी निगरानी में लेकर पुलिस बच्चों और महिलाओं को उनके घर पहुंचाती है, ऐसे स्कूल में घेर कर नहीं रखा जाता, जैसा कि लेखिका ने इस कहानी में दर्शाया है।

संग्रह की एक कहानी ‘खुशियां लौट आई हैं’ है । इसमें मानसी के पति का अल्प वय में निधन हो गया है । उसकी गोदी में एक बेटा है। मानसी के सास ससुर अपनी नव यौवना बहू को दुख में डूबी हुई देखकर उसकी उदासी स्वीकार नहीं कर पाते। वे दोनों मानसी के पुनर्विवाह की बात चलाते हुए अंततः सास अपने भाई भाभी के बेटे से मानसी का विवाह करने का मन बना लेती हैं। मानसी के मां-बाप को भी बुला कर सास-ससुर बात करते हैं तो वे भी राजी हो जाते हैं। लेकिन मानसी को मनाने में उनको बहुत परिश्रम करना पड़ता है। अंत में मानसी पुनर्विवाह को राजी हो पाती है। सास-ससुर की यही इच्छा है कि मानसी और उसका नया पति इसी घर में रहे।

पात्रों के रूप में कहानी की नायिका मानसी है, इसके अंतर्द्वन्द्व को लेखिका ने बहुत गहरे तरीके से प्रकट किया है, वह इस द्वंद्व का शिकार है कि इस घर में घर के चिराग से ब्याही रहकर उसने मधुर दिन बिताए हैं, अब इसी घर में किसी दूसरे पुरुष के साथ वैसे दिन कैसे जी सकती है ? वहीं वह बेटे को लेकर भी चिंतित है। लेकिन अंत में अपने मां-बाप की बेरुखी से उसे वास्तविकता समझ में आती है और ससुर के कहे अनुसार विवाह को तैयार हो जाती है। कहानी के अन्य चरित्रों में मानसी की सास और ससुर हैं, जो बहुत ही व्यावहारिक हैं और समझते हैं कि युवा महिला का अकेला रहना और सुरक्षित रहना बड़ा कठिन है। इसलिए वे उसे बेटी की तरह ब्याह करना चाहते हैं और सहयोग ऐसा प्राप्त होता है कि उन्हें विवाह करने योग्य लड़का रिश्तेदारी में ही मिल जाता है, जिसे अपना बेटा मान कर घर में रखने को तैयार है।

कहानी की भाषा मार्मिक है। अनेक संवाद दृश्य खड़ा करने वाले हैं। इन संवादों के बीच में संवादों में यथा स्थान कुछ मुहावरे प्रयोग किए हैं- ‘जैसे बेटे की मौत का बोझ’( 25) ‘घुट घुट कर मरते हैं’ (पृष्ठ 25 )’उधेड़बुन’ (26)’ सीने पर पत्थर रखकर जी रहे हैं’ !! आदि !! इस मायने में यह विशेष कहानी है,बल्कि उसके धर्म पिता और धर्म माता ही उसकी विवाह की जिद करते हैं और उसे लड़का खोजते हैं,ऐसे प्रसंग और ऐसे वृतांत हिंदी कहानी में आना चाहिए, समाज के लिए मानवता के लिए बड़े प्रभावशाली व प्रेरक होंगे।

संग्रह की एक कहानी ‘अनोखा प्यार’ है । कहानी यों है कि मल्लिका देसाई का पर्स खो गया है, जो सौरभ नाम के युवक को मिला है, पर्स में रखे नाम और पते की पर्ची के सहारे मल्लिका को उसका पता ज्ञात होता है तो वह वापस देने पहुंचता है।तब कृतज्ञ होकर मल्लिका उसका नाम पूछती है। सौरभ को मल्लिका से पहली नजर में ही प्यार हो जाता है। ऑफिस आते जाते वह मल्लिका को खोजता रहता है। मल्लिका एक दिन अनायास अपने पति के साथ दीपक के साथ यकायक उसे मिलती है, तो दोनों पुरुषों का परिचय होता है और दोनों पुरुष परस्पर मित्र बन जाते हैं । एक बार दीपक बीमार होता है तो सौरभ ही उसकी सेवा करता है। बाद में कभी सौरभ भी बीमार होता है तो वह किसी को नहीं बताता, लेकिन अचानक दीपक को पता लगता है,वह सौरभ के घर आता है उसे अपने घर ले जाता है। स्वस्थ हो जाने पर सौरभ घर जाने की तैयारी कर रहा है कि मल्लिका के लिए मन में जमे प्यार के कारण वह मल्लिका से बिछड़ने के लिए दुखी है । मल्लिका उसकी उदासी का कारण पूछती है,तो सौरभ अपने प्यार का इजहार कर देता है । कल्पना की स्थिति में डूबा देखकर मल्लिका गुस्सा हो जाती है और सौरभ से कहती है कि न तो उचित है और न ही तुम्हें ऐसा करना चाहिए ! सौरभ उसे छूने की कोशिश करता है तो मल्लिका उसे डांट देती है और उसे फटकार लगाती है कि तुम्हारी यह भावना ही बुरी है,अगर तुम लगातार मुझे याद करोगे और मिलते रहोगे तो कभी भी इस तरह की स्थितियां सामने आने पर दीपक दुखी व क्रोधित होगा। इसलिए तुमको तबादला करा कर यहां से बाहर चला जाना चाहिए। सौरभ समझ जाता है कि मल्लिका जीवन में कभी प्यार स्वीकार नहीं करेगी, वह कहता है कि बस मुझे हंस कर विदा कर दो, मैं चला जाऊंगा! मल्लिका उसे हंस कर विदा करती है और सौरभ घर से बाहर निकल जाता है।

इस कहानी के चरित्रों में सौरभ, मल्लिका और दीपक तीन चरित्र है । सौरभ ही सारी कथा को याद कर रहा है ।वह एक दिल फेंक युवक है, तो पहले नजर में वह मल्लिका का दीवाना बन गया है और मल्लिका विवाहित होने के बाद भी उसके प्रति वैसी ही चाहत रखता है। वह अपनी बीमारी के प्रसंग को भी मल्लिका के निकट रहने का अवसर मानकर चलता है।हर प्रेमी संभवत ऐसा ही होता है ।मल्लिका एक चरित्रवान युवती है जो अचानक आए सौरभ के प्रस्ताव को हवा में उड़ा देती है और उसे शहर छोड़ने का फरमान सुना देती है । दीपक एक सरल हृदय व्यक्ति है, उसे सौरभ के मन का कोई भाव पता नहीं है,वह पूरी दोस्ती निभाता है, बीमार सौरभ को अपने घर ले आता है और सेवा करता है ।

इस कहानी में भी जाने अनजाने तमाम संवादों में मुहावरों का प्रयोग कियागया है, जिसमें – ‘’अपने आप में जीती जागती शायरी’ (पृष्ठ 29) ‘प्यार और चाहत पर किसी का जोर नहीं होता’ (पृष्ठ 32) बसी बसाई गृहस्ती में आग लगाना आदि हैं !  सहज रूप से हो जाने वाले प्यार, स्नेह और चाहत की घटना को इस इस कहानी में लेखक ने कथा के रूप में प्रयोग किया है। यह घटना वास्तव में तो अपराध की सत्य कथाओं में आ जाने से पहले की घटना है। हमने अक्सर सत्यकथा, मनोहर कहानियां में छपी कहानियों को पढ़ा है कि जब जब ऐसे संबंध शुरू होते हैं तो उसका अंत तीसरे व्यक्ति की मृत्यु से होता है ।लेकिन मल्लिका समझदार है, जिसने शुरुआत में ही प्रेम के अंकुर को हटा दिया है।

एक अन्य कहानी ‘काव्या’ है जो साहित्य जगत की कहानी है । ‘काव्या’ नाम की कवयत्री की कविता और उसकी सुंदरता से प्रभावित संजय नामक एक युवक  उससे मिलने का तसव्वुर करता रहता है। वह खुद शायर है, खून छपता है, पर उसने कभी अपना फोटो और फोन नंबर कविता के साथ छपाया ही नही।वह एक बार आकाशवाणी पर अपना साक्षात्कार रिकॉर्ड करवाने के लिए पहुँचता है तो सहसा उसे आंखों पर विश्वास नहीं होता, क्योंकि वेटिंग रूम में उसकी काव्या बैठी थी। वह उत्सुक होकर काव्या को अपना नाम संजय बताकर परिचय करता है और उसे अपना फैन बताकर बैग में से काव्या की कविताएं निकालकर धारा प्रवाह पढ़ने लगता है। काव्या मुग्ध हो उसको सुनती रहती है। संजय काव्या से पूछता है कि आप के काव्य में इतनी गहराई है,प्यार की गहराई है, इतना गाढ़ा स्नेह है, क्या आप किसी से प्यार करती हैं? तब वह बताती है कि वह एक शायर सागर से प्यार करती है, जिसने कभी अपना फोटो और पता प्रकाशित नहीं करवाया ! संजय उछल पड़ता है, वही तो सागर था ! काव्या के रिकॉर्डिंग हेतु स्टूडियो में भीतर चले जाने पर सागर वेटिंग रूम में बैठकर अपनी कुछ कविताओं के साथ काव्या को एक पत्र भी लिखता है कि वही सागर है। वह पत्र में काव्या को प्रेम का प्रपोजल भी देता है। काव्या स्टूडियो से बाहर आती है,उसे अपने पत्र और कविताओं का लिफाफा सोंप कर रिकॉर्डिंग करने के लिए सागर स्टूडियो में चला जाता है ।जब वह रिकॉर्डिंग के बाहर आता है तो वेटिंग रूम में काव्या नहीं दिखती, वह तो बाहर कार पार्किंग में खड़ी है। संजय उमगते हुए काव्या से आगे बढ़कर बात करता है। पत्र पढ़ चुकी काव्या भी लपक के उससे मिलती है। फिर वे दोनों सागर की कार में बैठकर एक अनिश्चित मन्जिल के लिए यात्रा पर निकल पड़ते हैं।

चरित्रों में सागर और काव्या दो ही पात्र हैं। सागर एक कवि हृदय है, वह यश कामना से दूर है, इसलिए अपना नाम व पता नहीं छपाता,लेकिन काव्या का दीवाना है । काव्या ने सागर को नहीं देखा, केवल सागर कविताओं के सहारे प्यार करते हुए वह अपने मन के दर्द प्यार में डूबी हुई कविताएं लिखती है और जब दोनों एक दूसरे को देखते हैं तो दोनों का सपना साकार होता है ।प्रेम और प्यार को साकार करने की यह प्रेम कथा भी समाज में प्राय: देखने को मिल जाती है।

आपसी संवादों में लेखिका ने मुहावरों का भरपूर प्रयोग किया है- ख्यालों की शहजादी (पृष्ठ 36) जिंदगी में कभी किसी मोड़ पर आपको मिलूंगा (पृष्ठ 38) आदि मुहावरे न केवल साहित्य के हैं, बल्कि समाज में बातचीत में मौजूद मिलते हैं ।

एक और कहानी ‘नई जिंदगी’ है, जिसके कथानक में पूजा एक घरेलू महिला है, आंधी तूफान में अपने घर पर बैठी पति नवीन का इंतजार कर रही है। काफी देर बाद नवीन भीगते व कांपते हुए लौटते हैं और निराश से हो पूजा से अचानक कहते हैं कि तुम मुझे छोड़ तो नहीं जाओगी !पूजा अच्छे से उसे सम्हालती है और आश्वस्त करती है- ऐसा नहीं होगा! वह देखती है कि नवीन के कपड़े बदलने के दौरान उनके मोबाइल पर लगातार मैसेज आ रहे हैं जिनसे झुंझला कर पूजा हाथ में नवीन का मोबाइल लेती है और एक एक मैसेज को ध्यान से पढती है। एक संदेश देख कुछ सोचती है फिर उसे डिलीट कर देती है । अगले दिन वह माँ से विचार विमर्श करती है फिर अगले दिन मां और वह एक दिन नवीन को लेकर घर से निकल पड़ते हैं और एक अनाथ आश्रम में प्रवेश करते हैं, जब तक नवीन कुछ समझ पाए, उसके पहले कुछ कागजात पर दोनों के हस्ताक्षर होने के बाद एक सुंदर सी बच्ची को सामने लाया जाता है और वह बच्ची पूजा नवीन दंपत्ति को सौंप दी जाती है। चकित नवीन को पूजा बताती है कि डॉक्टर द्वारा भेजे गए उस मैसेज को पढ़ लिया था जिसमें लिखा था कि नवीन अब कभी पिता नहीं बन सकता! सामने आ गयी उस विकट समस्या का असली और स्थाई इलाज है -संतान को गोद लेना ! वह समझाती है कि हमें यह बेटी अच्छी लगी हम इसके साथ अपनी नई जिंदगी शुरु करेंगे ।

कहानी के पात्रों में सबसे बड़ा पात्र पूजा है, नवीन एक सहायक पात्र है,तीसरी पात्र पूजा की मां है। पूजा के चरित्र को ढंग से उभारा गया है। जब घर में उदासी व बिखराव की यह स्थिति बन जाती है, पूजा जो केवल पति के प्रति समर्पित है, बल्कि व्यवहारिक भी है, पति की मेडिकल रिपोर्ट पढ़कर किंकर्तव्य विमूढ़ नहीं होती बल्कि आगे बढ़ कर खुद ही सन्तान गोद लेने की फॉर्मेलिटी करती है। नवीन एक सीधा पात्र है, संतानोत्पत्ति में अक्षम होने का पता चलता है तो सोचता है कि अब उसकी पत्नी उसे छोड़ जाएगी, लेकिन पत्नी की चाहत की बदौलत संतुष्ट हो जाता है।

हमारी सामाजिक दुनिया में लगभग सभी लोग दैनिक काम करते हुए फिल्मी गीत गुनगुनाते हैं, इस कथा में पूजा भी ऐसी है, वह फ़िल्मी गीत गाती है- सजना है मुझे सजना के लिए, जरा बिखरी लटें संवार लूँ !

लेखिका ने यह प्रकट किया है कि शकुन अपशकुन की हर परिवार में, हर घर में उपस्थिति और उनके कारण मन में तमाम भय आना स्वाभाविक होता है ।इस कहानी में पूजा के हाथ से कांच का ग्लास टूट कर गिर जाता है, तो पूजा मन ही मन असगुन मानकर डर जाती है और तब तो वह और सकते में आ जाती है जब उसके पति के हाथ से भी गिलास टूटता है तो वह ज्यादा डरती है ! लेकिन उसका आत्म विश्वास प्रबल है कि वह अपने आप को संभाल कर नई जिंदगी जीने के लिए बेटी गोद लेने की बात अपनी मां से कर लेती है ।

संग्रह की शीर्षक कहानी ‘एक थी महुआ’ है। किशन दादा गांव की सेवा करने वाले व्यक्ति हैं ।वह अपना छोटा सा धंधा भी करते हैं –वे छाज बनाकर भेजते हैं जो गांव वालों को खूब पसंद आते हैं। दादा के यहां बेटी का जन्म लंबे अंतराल के बाद हुआ है। बेटी आठ साल की हुई थी कि पत्नी का निधन हो जाता है । विशन दादा बेटी को लाढ से पालते हैं। बेटी को कोई परेशानी न हो, इसलिए वे अब ज्यादा काम करते हैं, पैठ का काम करते हैं ।बेटी महुआ पन्द्रह साल की होते ही पिता के काम में हाथ बंटाने लगती है ।वह उनके साथ दूसरे गांव छाज बेचने जाती है ।एक रात दूसरे गांव से लौटते में कुछ गुंडे महुआ को छेड़ने सकते हैं ।किशन दादा जब विरोध करते हैं तो भी गुंडे उन्हें मारते पीटते हैं। महुआ गुस्सा होकर अपने थैले में से प्याज काटने का चाकू निकालकर एक डाकू के पेट में मार देती है। गुस्साए हुए दूसरे गुंडे महुआ को धक्का दे देते हैं तो उसका सिर पत्थर से टकरा जाता है । खून बहने से महुआ खत्म हो जाती है। बावले हो गए पिता रोते हुए महुआ को उठाते हैं पर वह तो जा चुकी है। फिर किशन दादा इसी सन्निपात की अवस्था में जीवन बिताते हैं। इनको गांव भर के बच्चे और बच्चियां अपना दादा कहकर उनका बहुत ध्यान रखते हैं ।

इस कहानी में कथा वाचिका एक युवती है, जो इस गांव की रहने वाली है। उसे ही किशन दादा के घर जाकर लौटते में सारी कहानी याद आती है। दूसरे चरित्र दादा है, जो साफ कोमल हृदय के पिता हैं। गांव भर के वे सेवक भी हैं, अच्छे छाज (अनाज छानने का  छलना ) बनाने वाले हुनरमन्द भी हैं। महुआ का चरित्र भी विशिष्ट है,वह अपने पिता की सिंगल पैरंट की संतान हैं ।पूरे ध्यान से पढ़ती लिखती है और अपना पिता का ध्यान रखती है । जब पिता पर गुंडे हमला करते हैं तो वह डरती नहीं,थैले में से चाकू निकालकर प्रतिकार भी करती है ।इसके बदले उसे जान गंवाना पड़ती है।

कहानी की भाषा व संवाद आंचलिकता को प्रकट करता है, मन की भावुकता भी प्रकट करता है “ महुआ उठ ना ...अरी कब तक सोती रहेगी ...पगली उठ... महुआ... क्यों अपने बाप कू सता री है ...चूल्हा चौका भी नहीं किया अभी तक तूने... बावली ...ये कोई टाइम है सोने का ? (पृष्ठ 69) हिंदी के पाठक को इस कहानी में कुछ नए शब्द बोली के मिलते हैं जिनमें छाज (अनाज छानने का  छलना)जसूठन ( त्यौहार का नाम है) गांव में पैठ करना (हाट में जाकर सामान बेचने का काम ) आदि, तथा इस कहानी में भी बहादुर युवती को झांसी की रानी की उपाधि पूरे भारत वर्ष की तरह दी जाती है जो गाँव वाले महुआ को देते हैं ।

एक और प्रेम कहानी ‘प्यार होता ही ऐसा’ है । डॉ करण अपनी एक बुजुर्ग मरीज के अस्पताल में भर्ती रहने के समय उनकी देखभाल करती उनकी खुबसुरत बेटी दिव्या से प्यार करने लगते हैं। मां को बड़ी खुशी होती है। कथा के आरंभ में माँ डॉक्टर का इंतजार कर रही है कि उनसे खुलकर बेटी ब्याह की बात करें ।वे अन्दर आते हैं तो मां बताती है कि एक जानकारी हम छुपाना नहीं चाहते कि दिव्या जब ग्यारह वर्ष की थी तब उसके साथ एक दरिन्दे ने जबरदस्ती कर डाली थी। यह जानकारी मिलने पर भी क्या तुम शादी करोगे? डॉ करण खुशी-खुशी हां भर देता है, वह कहता है कि ‘इस घटना में गलती तो उस दरिंदे की थी दिव्या की क्या गलती थी?’ एक ख़ास मानवीय व न्यायपूर्ण उद्देश्य को लेकर लिखी गई कहानी बहुत प्रभावशाली है। दिव्या ही करण को संबोधित होकर अकेले में एकालाप करती करती है ।

कथा के पात्रों में डॉ करण उदार ह्रदय का व्यक्ति है, जो तर्कसंगत बात सोचता है। दिव्या दूसरी चरित्र है, जो इस कथा की नायिका है । तीसरा चरित्र मां है जो स्पष्ट वादी महिला है और रिश्तेदारी टी करते समय झूठ बोलना पसंद नहीं करती।

इस कहानी की खासियत यही है कि किसी बच्ची के साथ जबरदस्ती हो जाने पर समाज आखिर क्यों उस बच्ची को ही दोषी ठहराता है, जबकि इस वारदात में बच्ची का कोई दोष नहीं, दोषी तो दरिंदों को ठहराया जाना चाहिए !एक अच्छी कहानी है जो एक पाठक को विचार के लिए प्रेरित करती है ।

संग्रह की एक कहानी ‘लागे ना मोरा जिया’ है ।सुमि कॉलेज छात्रा थी तभी से धीरज उसे चाहने लगा था, बाद में उन दोनों का विवाह भी होता है। एक दिन एक लड़की धीरज के पीछे पड़ जाती है कि उसे विवाह नहीं किया तो वह फांसी लगा लेगी। धीरज उसे लेकर अपने घर आता है, लेकिन उसके पहले ही सुमि को व्हाट्सएप पर संदेश कर देता है कि वह दिन आज कुछ डांटा-डपटी  करेगा ।लेकिन सुमि वे सन्देश देखती ही नहीं। धीरज आता है और सुमि को डांट कर चला जाता है ।वह लड़की उसके साथ है, सुमि हैरत में रह जाती है कि बिना दोष धीरज उस क्यों डांट रहा है ? उधर धीरज उस लड़की को उसके घर ले जाकर उसके मां बाप को बेटी की नासमझी की बातें बताता है और उन्हें उसे सौंप कर घर आ जाता है ।सुमि पति को समर्पित ऐसी पत्नी है जो फेसबुक, व्हाट्सएप सोशल मीडिया से कम से कम संपर्क में रहती है। धीरज ऐसा व्यक्ति है जो करता है वह निभाता है, उसने सुमि से विवाह का वादा किया तो उसे निभा और उस नादान लड़की को भी समझाता है जो उससे विवाह की जिद पर आमादा है ।

संग्रह की एक कहानी’ सत्या ’ है, संग्रह की इस कहानी के आरंभ में करुणा शहर में फ्लैट किराए पर लेकर पढ़ रही थी कि पिता एक दिन राघव को लेकर आते हैं जो करुणा की बुआ के ननंद का बेटा है । वे कहते हैं कि राघव इसी फ्लेट में पार्टनर बनके रहेगा, अनमनी सी करुणा सहमति दे देती है। फिर वही हुआ जो आग व फूस सके पास होने से होता है – राघव व करुणा दोनों का प्यार व देह सम्बन्ध हो जाते हैं । करुणा गर्भवती भी हो जाती है। तब राघव अपने व करुणा के घर जाकर विवाह की बात तय कराता है ।लेकिन भयानक दुर्घटना में बारात की बस पलटने से राघव का निधन हो जाता है। लाचार करुणा अकेली ही बेटी को जन्म देती है और उसे पालने के लिए नौकरी करती है ।उसकी बेटी अपने मां-बाप के पास रहती है । उधर पिता अपने मकान में एक सरल हृदय व गुणवान नौजवान सत्या को किरायदार रखते हैं । सत्या से करुणा की बेटी घुलमिल जाती है और उसे अनायास पापा कहने लगती है। तब मां और पिता करुणा को समझाते हैं,तुम सत्या से विवाह कर लो !

इस कहानी के प्रमुख चरित्रों में करुणा, उसके मां-बाप और सत्या है। सत्या स्नेही व करुणाशील युवक है, पर उसका कोई सम्वाद व दृश्य कहानी में नहीं है । जबकि करुणा एक एक्टिव महिला हे जो युवावस्था में अपने साथ अनजान युवक को रूम पार्टनर रखने का विरोध करती है, पर पिता की बात मानकर उस अजनबी युवक को रूम पार्टनर भी रख लेती है, फिर निर्वाह भी करती है। मां-बाप ऐसे पात्र है जो हमेशा बेटी का भला चाहते हैं, अनजाने में हो गई गलती को भुलाते हुए सत्या से विवाह की बात करते हैं ।

संवादों के बीच लेखिका ने अनायास कुछ मुहावरे भी रखे हैं, जिनमें -कलेजे पर पत्थर (81) ‘लाडो की दुनिया बसने के पहले ही उजाड़ दी जाती है’ आदि हैं ।

इस कहानी का एक सम्वाद संदेश भी है और सत्य भी - ‘वे जमाने गए जब दूसरी शादी को गलत माना जाता था । आज सब को जीने का हक है बेटा और फिर तेरा और राठौर का मन का बंधन था इसे तू निभा रही है बेटा। मन के बंधन कभी नहीं टूटते। दुनिया की प्रवाह ना करते हुए तूने राघव की निशानी को जन्म दिया और अब उसी निशाने के लिए तू सत्या से विवाह करने की हां भी कर दे । हां बेटा! उसे उसके पापा से दोबारा दूर मत कर ।‘ कहते कहते माँ का गला भर गया । (पृष्ठ 88)

इस कहानी को पढ़ते समय पाठक को कुछ चीजें गले उतरने में दिक्कत होती है, जैसे- प्राय: यह नहीं देखा जाता है कि कोई लड़की अकेली फ्लैट में रह रही है तो सगे भाई को छोड़कर अन्य कोई रिश्तेदार उसके साथ रूम पार्टनर के रूप में रखा जाय,जबकि करुणा के पिता ऐसा ही करते हैं ।करुणा की बुआ की ननंद के बेटे को यानी दूर के रिश्तेदार को उसके साथ रखते हैं ! जिसका परिणाम उनके बीच सम्बन्ध बनना ही होना था। ...कहानी में सत्या का व्यक्तित्व खुलकर नहीं आता,न कोई संवाद आया है, न घटना या दृश्य ! जबकि ऐसे व्यक्ति को जिसे करुणा का पति बनाया जा रहा है, इसको थोड़ा खुल कर आना ही चाहिए था।

संग्रह की अन्य कहानियों में भी ऐसी सशक्त स्त्रियाँ और पात्र मौजूद मिलते हैं। लेखक की सबसे बड़ी कामयाबी है कि हर कहानी में एक दिलचस्प कथानक है, एक प्रेम कथा है। भाषा को लेकर लेखिका सजग हो के चलती है।जरूरत पड़ने पर उन्होंने आंचलिकता का भी प्रयोग किया है। लेखिका इन चरित्रों के अंतर्द्वंद्व को उजागर नही करतीं ! हालांकि कुछ कहानियों में अंतर्द्वंद्व भी आए हैं, पर अगर हर चरित्र के अंतर्द्वंद्व को प्रकट करतीं, खोल कर लातीं, तो कहानियां और सशक्त होतीं। कई जगह लेखिका ने प्लेन रूप से कहानियां कही हैं, अगर उन कहानियों में कई परतें होतीं,हर चरित्र का अपना सोच होता, सबकी अलग-अलग दिशाएं होतीं, तो कहानी ज्यादा शक्तिशाली होतीं!

फिर भी यह कहा जा सकता है कि लेखिका के पास कथानक का भंडार है, ढेर सारी घटनाएं, बहुसंख्यक चरित्र उनके पास मौजूद हैं,जिनको वह अपनी कहानियों में बेहिचक ले आती हैं और कहानी रच देती हैं । ऐसी आशा है कि ऐसे रचनाशील, कल्पनाशील किस्सा गो की आगे ज्यादा गहरी द्वंद्व प्रधान, मनोविश्लेषण से भरी और बहु पठनीयता से पगी कहानियां पढ़ने को मिलेंगी ।

पुस्तक- एक थी महुआ (कहानी संग्रह)

लेखिका – सविता वर्मा ग़ज़ल

प्रकाशक- आरती प्रकशन लालकुआं नैनीताल

पृष्ठ -128

मूल्य -१५०