वो माया है.... - 8 Ashish Kumar Trivedi द्वारा रोमांचक कहानियाँ में हिंदी पीडीएफ

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वो माया है.... - 8



(8)

छत पर ठंड थी लेकिन दिशा पूरे दिन अपने कमरे में बंद ऊब गई थी। इसलिए कमरे के बाहर छत पर कुर्सी डालकर बैठ गई थी। पुष्कर ने उसे समझाने की कोशिश की थी कि नवंबर का आखिरी चल रहा है। शाम ढलने के बाद ठंड हो जाती है। वह बीमार पड़ जाएगी। पर वह मानी नहीं। पुष्कर ने उसे एक शॉल ओढ़ाया। खुद भी एक शॉल ओढ़कर उसके पास बैठ गया। दोनों चुप थे। दिशा ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा,
"सुबह होते ही इतना कुछ हो गया। उसकी वजह से सरदर्द हो गया था। विशाल भइया ने दवा लाकर दी। उसे खाकर दिन भर सोती रही। अब सोने के वक्त नींद नहीं आ रही है। सुबह से कमरे में रहते हुए ऊब गई थी। इसलिए ठंड में भी यहाँ आकर बैठ गई।"
जो कुछ हुआ था पुष्कर खुद उससे बहुत अधिक परेशान था। दिशा तो फिर भी दवा खाकर सो गई थी। पर वह सारा दिन बस कमरे और छत में टहलता रहा था। उसने कभी नहीं सोचा था कि शादी के बाद इतना उदासी भरा माहौल होगा। वह और दिशा इस घर का हिस्सा है। दोनों ही सारा दिन परायों की तरह ऊपरी हिस्से में बैठे रहे। दिशा कल ही विदा होकर आई है। वह क्या सोच रही होगी। कोई उन लोगों के हालचाल लेने भी नहीं आया। उसने दिशा की तरफ देखकर कहा,
"तुम्हारी मम्मी का फोन आया था। क्या बात हुई ?"
"मेरे हालचाल पूछ रही थीं। अब उन्हें क्या बताती। कह दिया सब ठीक है। पर यहाँ तो कुछ भी ठीक नहीं है। तुमने कहा था कि कुछ दिन एडजस्ट करना पड़ेगा। मैंने सोचा था कि माहौल का फर्क है थोड़ा एडजस्ट कर लूँगी। पर यहाँ तो यह सब होने लगा।"
दिशा ने पुष्कर की तरफ देखकर कहा,
"तुम्हारे घरवालों का व्यवहार मुझे अच्छा नहीं लगा। किसी ने यह तक जानने की कोशिश नहीं की कि मैं ठीक हूँ या नहीं। मैं ऐसे माहौल में एडजस्ट नहीं कर सकती। यहाँ रहना भी मुश्किल हो रहा है। मैं तो कहती हूँ कि कल ही मम्मी के घर चलते हैं। वहाँ से घूमने चले जाएंगे। उसके बाद अपने घर में रहेंगे।"
पुष्कर को भी अपने घरवालों का बर्ताव ठीक नहीं लगा था। लेकिन जो दिशा कह रही थी वह करना भी संभव नहीं था। उसने कहा,
"दिशा एक हफ्ते तो रुकना ही पड़ेगा।"
यह सुनकर दिशा गुस्से में बोली,
"जो कुछ हुआ है उसके बाद मेरा यहाँ दम घुट रहा है। सोचो कल दोपहर को तो मैं विदा होकर आई थी। सही मायनों में तो ‌सिर्फ आज का दिन मैंने यहाँ बिताया है। तब यह हाल है। एक हफ्ते रुकी तो मैं पागल हो जाऊँगी।"
पुष्कर कुछ कहने जा रहा था। दिशा ने उसे रोककर कहा,
"पुष्कर मैं कुछ नहीं सुनूँगी। मुझे यहाँ नहीं रहना है बस। एक बात और है। मैं कभी दोबारा यहाँ नहीं आऊँगी। तुम्हें आना हो तो अकेले आना।"
पुष्कर एकबार फिर कुछ कहने को हुआ। तभी ऐसा लगा कि सीढ़ियां चढ़कर कोई छत पर आ रहा है। पुष्कर ने उठकर देखा तो उमा थीं। उनके हाथ में दो कंबल थे। उन्होंने कहा,
"आज ठंड अधिक महसूस हो रही है। सोचा रात में तुम लोगों को सर्दी लगेगी। इसलिए कंबल लाए थे। पर तुम दोनों खुले में बैठे हो।"
पुष्कर ने कंबल उनके हाथ से लेकर कहा,
"नीचे से आवाज़ दे देतीं। मैं आकर ले जाता।"
उमा ने पुष्कर की तरफ देखकर कहा,
"सोचा तुम लोगों से कुछ बात कर लें।"
उसके बाद दिशा की तरफ देखकर बोलीं,
"बेटा आज जो कुछ हुआ उसका हमको अफसोस है। तुम कल ही विदा होकर आई थीं। आज पहले दिन ही इतनी कहा सुनी हो गई। तुम्हें अच्छा नहीं लगा होगा। पर बेटा हम लोग भी तुम्हारे और पुष्कर की भलाई के लिए कह रहे थे। माना तुम लोग इन सब बातों को नहीं मानते हो। पर हमारा मान रखने के लिए ताबीज़ पहन लेते तो कुछ बिगड़ तो ना जाता।"
दिशा ने जवाब दिया,
"मम्मी आप कह रही हैं कि ताबीज़ हमारे भले के लिए था। मैंने भी तो यही पूछा था कि हमें किस चीज़ से खतरा है। ताबीज़ हम दोनों की रक्षा कैसे करेगा। मेरी बात का जवाब देने की जगह बुआ जी ने आदेश दे दिया।"
अपनी बात कहते हुए दिशा रुकी। उसने उमा की तरफ देखकर कहा,
"मम्मी जी मैं जानती हूँ कि आप लोगों को लग रहा होगा कि मैं ज़िद्दी हूँ और अपनी ज़िद में यह सब करवा दिया। पर मेरी परवरिश जिस तरह हुई है उसके अनुसार मैंने बेवजह दबना नहीं सीखा है। बुआ जी ढंग से समझा देतीं तो मैं बात मान लेती। लेकिन उन्होंने आदेश दे दिया। उसके बाद मेरी मम्मी को लेकर जो कुछ कहा गया उसकी आवाज़ यहाँ तक आ रही थी। मेरी मम्मी को कुछ कहने का अधिकार किसी के पास नहीं है।"
दिशा गुस्से में थी। अपने मन की सारी शिकायतें कर लेना चाहती थी। उसने कहा,
"पूरा दिन मैं सरदर्द से परेशान रही। किसी ने मेरा हालचाल जानने की कोशिश नहीं की। नई आई बहू के साथ इस तरह पेश आते हैं।"
बोलते हुए दिशा की आवाज़ ऊँची हो गई थी। पुष्कर ने उसे शांत कराया। उमा चुपचाप सब सुन रही थीं। वह बोलीं,
"बेटा जो हुआ ठीक नहीं था। नई आई बहू के साथ ऐसा नहीं होना चाहिए था‌। पर तुम्हें भी हमारी बात मान लेनी चाहिए थी। एक ताबीज़ पहन कर कुछ बिगड़ ना जाता।"
उसी समय विशाल छत पर आ गया। उसने उमा से कहा,
"मम्मी पापा आपको बुला रहे थे। नीचे आपको देखा नहीं तो सोचा कि यहाँ होंगी। नीचे चलिए पापा को कुछ बात करनी है।"
उमा नीचे चली गईंं। विशाल ने पुष्कर से कहा,
"आज ठंड है। अंदर बैठो नहीं तो बीमार पड़ जाओगे।"
यह कहकर वह भी नीचे चला गया। दिशा को भी अब ठंड लगने लगी थी। वह और पुष्कर कमरे में चले गए।

उमा नीचे पहुँचीं तो बद्रीनाथ कमरे में उनकी राह देख रहे थे। उमा उनके पास जाकर खड़ी हो गईं। बद्रीनाथ ने कहा,
"समझाया बहू को....."
"हाँ......"
"लगता तो नहीं उसने कुछ समझा है। नीचे तक उसकी आवाज़ आ रही थी। जिज्जी गलत नहीं कह रही हैं। बड़ी ज़िद्दी लड़की मालूम पड़ती है। पर उसे क्या कहें। अपने लड़के ने ही कौन सा मान रखा‌।"
उमा बोलीं,
"विशाल कह रहा था कि आप बुला रहे हैं।"
बद्रीनाथ ने चिंतित स्वर में कहा,
"जिज्जी का मन घबरा रहा है।"
यह सुनकर उमा घबरा गईं‌। उन्होंने पूछा,
"कुछ हुआ है क्या ?"
"अरे एकदम से घबरा ना जाया करो। दिनभर माहौल अजीब सा रहा इसलिए। जिज्जी कह रही थीं कि सोने से पहले सुंदरकाण्ड का पाठ कर लेते हैं। बजरंगबली रक्षा करेंगे।"
"अच्छी बात है। आप पहले कहला देते तो उन दोनों को भी...."
कहते हुए उमा चुप हो गईं। बद्रीनाथ ने कहा,
"दिन में कम बवाल किया है उन दोनों ने जो इस समय भी हंगामा कराना है। उन दोनों को तो लगता है कि हम लोग दकियानूसी सोच वाले हैं। उन्हें तो सब फिज़ूल लगता।"
बद्रीनाथ उठकर खड़े हो गए। उन्होंने कहा,
"नीलम से पूछ लो। आना चाहे तो साथ लेकर पूजाघर में आ जाना। जिज्जी तो रामचरितमानस से पढ़ लेंगी। बाकी दो सुंदरकाण्ड की किताबें हैं। एक से हम और विशाल पढ़ लेंगे। दूसरी से तुम और नीलम।"
बद्रीनाथ चले गए। उमा ने नीलम से पूछा तो वह भी मान गई। उमा नीलम के साथ पूजाघर में चली गईं।
पूजाघर में सब ज़मीन पर आसनी बिछाकर बैठे थे। किशोरी ने हनुमान जी की प्रतिमा के आगे दीपक जलाकर प्रणाम किया। सबने एकसाथ जय बजरंगबली का नारा लगाया। किशोरी ने कहा,
"सुबह से मन खराब था। फिर लगा कि सब बजरंगबली पर छोड़ देते हैं। वही पार लगाएंगे। हम उनका नाम लेकर सोएंगे।"
किशोरी के सामने रामचरितमानस खुली हुई थी। उन्होंने श्लोक पढ़ते हुए आरंभ किया।
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम।
श्लोक खत्म होने के बाद सबने किशोरी के साथ एक स्वर में पाठ आरंभ किया।
जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए।।
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई।।
पूरे घर में शांति थी। उस शांति में सुंदरकाण्ड के पाठ का स्वर पूजाघर से निकल कर हर तरफ फैल रहा था।

कमरे में आने के बाद पुष्कर और दिशा आराम करने के लिए लेट गए थे। दोनों जागे हुए थे पर अपने में खोए हुए थे। दिशा के मन में कई सवाल घूम रहे थे। वह जानना चाहती थी कि बात क्या है ? बात सुरक्षा की चल रही थी। पर कोई यह नहीं बता रहा था कि कौन सा खतरा है जिससे सुरक्षा की ज़रूरत पड़ रही है ? उसे ऐसा लग रहा था कि कोई बात है जिसे सब छुपा रहे हैं। पुष्कर भी सब जानते हुए बताना नहीं चाहता है।
पुष्कर के मन में चल रहा था कि दिशा ने यहाँ रहने से इंकार कर दिया है। वह घरवालों से जाने की बात कैसे कहे। सच तो यह था कि अब उसके लिए भी इस माहौल में रहना मुश्किल हो रहा था। वह खुद भी अपने घर बहुत कम रहा था।‌ बहुत सालों से वह बाहर ही था। जल्दी यहाँ आना नहीं होता था। आता भी था तो बहुत कम समय के लिए। वह सोच रहा था कि सब सामान्य रहता तो एक हफ्ता यहाँ बिताना कोई बड़ी बात नहीं थी। पर इस माहौल में तो सचमुच रहना मुश्किल है।
दोनों अपने अपने विचारों में खोए हुए थे कि नीचे से सुंदरकाण्ड पाठ की आवाज़ें आने लगीं। उन आवाज़ों ने दिशा की सोच को बाधित किया। वह ध्यान से सुनने लगी।