पेड़ तथा अन्य कहानियां-समीक्षा राज बोहरे द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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पेड़ तथा अन्य कहानियां-समीक्षा

पेड़ तथा अन्य कहानियां
राजनारायण बोहरे
प्रसिद्ध व्यंग्यकार उपन्यासकार अश्विनी कुमार दुबे का नया कहानी संग्रह- ' पेड़ तथा अन्य कहानियां ' सत्साहित्य प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित होकर आया है। इस संग्रह में लेखक की बीस कहानियां शामिल हैं।अश्विनी कुमार दुबे के अब तक सत्रह व्यंग संग्रह, एक कहानी संग्रह, पांच उपन्यास तथा शास्त्रीय संगीत पर एकाग्र 'पंचामृत' आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। लेखक इंसान की मनोवृत्तियों, समकालीन समाज, प्रेममय जीवन तथा लेखक के अपने हुनर और विशेषज्ञता से जुड़े मुद्दे पर खूब कहानियां लिखते हैं।
प्रस्तुत संग्रह में 'मृत्युबोध' एक सनकी आईएएस अफसर की कहानी है, जो 70 वर्ष के हो चुके हैं लेकिन रिटायर होने के वर्षों बाद भी उनमें आईएएस रह चुकने का दम्भ भरा हुआ है। वे सोसाइटी में किसी से मिलते जुलते नहीं हैं ।किसी संस्था में जाते नहीं और अगर जाते हैं तो वहां खुद को अध्यक्ष मनोनीत होने का अरमान पालते हैं। उनके भीतर धीरे-धीरे मृत्यु बोध जागृत होने लगा है, इस कारण हर छोटी बीमारी को बड़ी बीमारी समझ लेते हैं। एक बार तो वे केवल सर्दी-जुकाम-बुखार से ग्रसित अस्पताल में भर्ती होकर अपना अंतिम समय समझते हैं और पत्नी से अपने बच्चों बहू-बेटों व बेटी-दामाद को बुला लेने का आग्रह करते हैं। डॉक्टर के समझाने पर नैरेटर उनकी पत्नी को बताता है कि किसी को बुलाने की जरूरत नहीं है, वे केवल सर्दी जुकाम और बुखार की वजह से परेशान हैं। अन्ततः मित्र नैरेटर उनकी पत्नी को सलाह देता है कि 'भाभीजी इन्हें किसी सायकेट्रिस्ट को दिखाइये।' (पृष्ठ30) लेकिन मनोचिकित्सक का नाम सुनते ही पूर्व आईएएस बाबा भड़क उठते हैं 'मुझे पागल समझती हो क्या ?' ताज्जुब है इतने बड़े पद पर रह चुके व्यक्ति भी मनोचिकित्सा केवल पागलों का इलाज समझते हैं। दरअसल हमारेसमाज की यह एक कठिन सच्चाई है। इस कहानी में उनकी पत्नी और 'मैं' सिर्फ तीन ही चरित्र हैं।
कहानी ‘दहशत’ और ‘लॉकडाउन’ पिछले दिनों विश्व में अपना आतंक फैला रही महामारी कोविड-19 पर केन्द्रित है। 'दहशत' कहानी में पैंसठ वर्षीय हृदय रोगी एक रिटायर्ड प्राचार्य , उनका बेटा अशोक और पत्नी अपने घर में कैद होकर रह गए हैं। वह अख़बार भी लेने से डरते हैं जबकि बेटा कह चुका है कि 'ये देखिए,अखबार में ही रोज छप रहा है कि इससे इंफेक्शन फैलने का कोई खतरा नहीं है। समाचार-पत्र पूरी तरह संक्रमण से सुरक्षित है। (पृष्ठ 44) फिर भी वह अखबार को और ऑनलाइन आने वाले सामान को भी पहले सनराइज करता है और फिर उठाकर भीतर रखता है । एक दिन टीवी पर व्ही शांताराम की फ़िल्म 'डॉक्टर कोटनीस की अमर कहानी' देखते हैं , जिसमें डॉक्टर द्वारकानाथ कोटनीस ने जापान चीन-युद्ध में चीन के बीमार घायलों का इलाज किया था । सहसा उन्हें कोरोना से दिवंगत ऐसे डॉक्टरों की याद आती है। वह प्रायः रात को घबराकर उठते हैं ।कभी सपने में किसी प्रिय मित्र की मृत्यु देखते हैं तो कभी खुद को बीमार देखते हैं। इस कहानी में लेखक ने लॉकडाउन घोषित होने के दिनांक से आसपास बढ़ती गई जड़ता, भय, परेशानी और नई-नई स्थितियों का चित्रण किया है ।‘कोरोना’ पर ही केंद्रित एक और कहानी ‘लॉक डाउन’ है। इसमें पाँच लोगों का एक समूह है, जिसके सदस्य सुबह पार्क में घूमने से लेकर देर रात तक मोबाइल पर बात करते हुए आपस में जुड़े रहते हैं। लॉकडाउन की घोषणा होते ही वे सब अपने घरों में बंद हैं। लेखक ने दिन-प्रतिदिन के हिसाब से ताली थाली बजाने की घटना, अखबारों में और टेलीविजन पर बीमारों की संख्या और काल के गाल में समाते लोगों की खबरों की भयावहता, ऑनलाइन सामान की खरीदी,
समाज सेवकों द्वारा पीड़ितों की मदद, डॉक्टर और पुलिस जैसे कोरोना योद्धाओं का त्याग व समर्पण, मजदूरों का पलायन, परिजनों की बीमारी और साथियों का मानसिक विचलन तथा बीमारी इस कहानी में विस्तार से बताई है । यह कहानी अपने विशिष्ट समय का एक दस्तावेज है। जब कोरोना हमेशा के लिए खत्म होकर इतिहास की विषय वस्तु बन जाएगा तब यह कहानी याद दिलाएगी, कि उन दिनों क्या हुआ, लोग कैसे जिए, कैसे मरे, उन्होंने क्या भोगा और मतलब परस्त लोगों ने कैसे लाभ लिया! इस कहानी में शुक्ला जी, तिवारी जी, डॉक्टर श्रीवास्तव, गुप्ता जी व कथा वाचक 'मैं' पाँच पात्र हैं। प्रोफेसर शुक्ला रिटायर है, जो भयभीत रहते हैं ।ऋषि कपूर और इरफान की मृत्यु की खबर सुनकर वे डर जाते हैं तब मैं नामक चरित्र बताता है कि वे दोनों कैंसर की वजह से खत्म हुए हैं, आप क्यों डरते हैं ? तिवारी इंजीनियर हैं जिनका बेटा मुंबई में डॉक्टर है । वह कोरोना पॉजिटिव होने से भर्ती हो गया है,तो अपनी चिंता जाहिर करते हैं, मैं नाम का पात्र उन्हें धीरज बताता है कि बच्चा ठीक ही जल्दी हो कर लौट आएगा । लेकिन बाद में उसकी मृत्यु की खबर आती है। सारे मित्र हैं और ऐसे भयपूर्ण वातावरण में भी रानी बाग के श्मशान घाट पर मृतक को विदाई देने तथा तिवारी जी को ढांढस बनाने के लिए सारे मित्र इकट्ठा होते हैं । डॉक्टर श्रीवास्तव एक चिकित्सक हैं। वे एक मिलनसार मित्र हैं, इस हद तक मित्रों को चाहते हैं कि कोरोना काल में भी जब शुक्ला जी के कुछ न खाने पीने और अत्यधिक भयग्रस्त होने की खबर मिलती है तो स्कूटर पर बैठकर, कुछ दवाएं साथ ले शुक्ला जी को देखने, उन्हें सामान्य करने व उनका इलाज करने चले जाते हैं। उन्हें दवाइयां देकर, उनको भोजन कराकर वे लौटते हैं। जैन साहब भी ऐसे ही बुजुर्ग व्यक्ति हैं ।उनके पड़ोस में 2 मरीज मिलते हैं तो वे डर जाते हैं, मैं नाम का पात्र उन्हें भी ढांढस बंधाता है। इस उपन्यास में कोरोना के हालात, स्वास्थ्य सर्वे, सर्वे की टीम पर हमले की घटनाएं , ऑनलाइन सप्लाई ,वर्क फ्रॉम होम ,पुरानी सीडी से फिल्म देखना, पुस्तकें खोज के पढ़ना, मजदूरों का पलायन, घर में काम करने वाले व छोटे दुकानदारों की परेशानी, कोरोना से सुरक्षा संबंधी तमाम चीजें ,लेखक ने अपनी स्मृति से निकालकर इस कहानी में जोड़ी है। हिंदी शब्दकोश में इस कहानी और खासकर कोरोना से जुड़े तमाम शब्द नए शामिल हुए हैं, जिनमें- कोरोना, लॉकडाउन, कोविड-19, पॉजिटिव यानी बीमार, कोरोना योद्धा, योद्धाओं का सम्मान शामिल हैं ! यह नई शब्दावली हिंदी साहित्य में शामिल हुई हैं।
संग्रह की एक कहानी में कथा नायक को रिटायरमेंट के बाद परामर्शदाता इंजीनयर के रूप में शासन ने नियुक्त किया है जो उनके विभाग में संविदा के आधार पर की जा रही इंजीनियर की नियुक्ति की परीक्षा के लिए अपने शहर से राजधानी जा रहा है। उसी टैक्सी में पिछली सीट पर एक युवक और युवती बतिया रहे हैं । युवती लगातार युवक को प्रेरित कर रही है कि जैसे भी हो आज होने वाली संविदा इंजीनियर की परीक्षा को वह निकाल ही ले ,ताकि वे लोग खुलकर विवाह कर सकें ।लड़का बार-बार बिना जॉब के ही विवाह की बात करता है , तो लड़की समझाती है, विवाह के बाद मां-बाप पर आश्रित होना ठीक नहीं है। लड़का जब लड़की सेउसके जॉब करने की बात करता है तो लड़की कहती है कि जॉब मैं भी करूंगी लेकिन तुम्हारा जॉब आवश्यक है ,क्योंकि मेरे मां-बाप तभी शादी करेंगे जब तुम जॉब करोगे ।
कुछ निराश से स्वर में लड़के ने कहा,' यदि मेरा इस नौकरी में सिलेक्शन न हो पाया और तुम्हारा भी एम.बी.ए. करने के पश्चात कैंपस सिलेक्शन न हुआ तो?'
'तब मजबूरन हमें अपने रास्ते बदलने होंगे। कोई विकल्प नहीं। ' लडक़ी ने विश्वास पूर्वक कहा। (पृष्ठ 94)
यह आज की पीढ़ी है जो बहुत भावुक और अतार्किक प्रेम के कारण अपना जीवन बर्बाद नहीं करना चाहती। इस कहानी का शीर्षक है ‘असफल होती प्रेम कथा’!
वर्तमान युग लेखकों का युग नहीं है । लेखक बहुत निराश हो चले हैं कि पाठक नहीं है ,इंटरनेट ने किताबों की जगह को भी हथिया लिया है ,नई पीढ़ी का साहित्य में कोई रुझान नहीं है। ऐसे में जो साहित्य को समर्पित लेखक और कवि हैं, मेल लेखन या तो छोड़ चुके हैं या धीरे-धीरे छोड़ रहे हैं। इसी विषय पर केंद्रित है कहानी’ ‘मुलाकात। ’ दीपक मेहता स्कूल और कॉलेज लाइफ से ही एक सक्रिय कवि और लेखक है।वह जीवन भर किसी जॉब की जगह लेखक ही बने रहना चाहता है। उसके साहित्य की दीवानी अनीता उसकी क्लास फेलो है। जो कहती है कि नौकरी में करूंगी और साहित्य तुम लिखना , हम शादी कर लेते हैं। उनकी आपस में शादी होजाती हैं । अनीता बैंक में नौकरी पा लेती है।'विमल' लगभग 20-25 साल बाद दीपक से मिलता है जो कि गांधी शांति प्रतिष्ठान में साहित्य के एक आयोजन में आया है। उसके बहुत से उपन्यास व कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। बाद में दीपक की ओर से उनके बेटे सुनील की शादी में आने का आंमत्रण मिलता है।उत्साहित विमल शादी के 2 दिन पहले ही दीपक के यहां जा पहुंचते हैं ।दीपक उन्हें होटल के बजाय अपने घर ठहराते हैं। विवाह की सारी रस्मों रिवाजो में दोनों मित्र बड़ी प्रफुलता से शामिल होते हैं। शादी के दो दिन बाद दीपक,अनीता और विमल की चर्चा होती है तो अनीता शिकायत करती है कि दीपक ने पिछले दो साल से कुछ नहीं लिखा।
' आजकल कुछ नया लिखने का मन नहीं होता विमल! साहित्य की दुनिया इन दिनों बहुत बदल गयी है। पहले हम लेखकगण भृष्टाचार ,अन्याय और शोषण के खिलाफ अपने लेखन से आवाज बुलन्द करते थे।इधर पद,पुरस्कार,फेलोशिप,विदेश यात्राएँ इनके जुगाड़ में अधिकांश लेखक संलग्न दिखाई देते हैं।चर्चा, गोष्ठी,समीक्षा और सम्मेलन आदि सब प्रायोजित हैं।हिंदी में पाठक वर्ग बहुत कम है किसके लिए लिखा जाय।'दीपक ने लंबा सा स्पष्टीकरण दे दिया।(पृष्ठ 87) दीपक बताता है कि बेटी ने अपने मित्र के भाई के अखबार में साहित्य संपादक की नौकरी दिला दी है, वे लोग अपने पिता का संपादक के रूप में परिचय कराते हैं। तीनों बात कर रहे होते हैं कि नवविवाहिता वधु उस कमरे में पकौड़े की प्लेट लेकर आती है । टेबल पर रखी अपने ससुर की किताबें देखकर और उन पर दीपक का नाम पढ़ कर पूछती है- 'पापा, ये आपकी लिखी हुई पुस्तके हैं?'
दीपक ने उत्साह पूर्वक कहा,"हां बहू! ये मेरी लिखी पुस्तकें हैं।"


जी आपने लिखेंगे किताबें ?
हां बेटा
मुझे किताब पढ़ने का बहुत शौक है।
मैं किताब हां बेटा यह तुम्हारी है
इस घटना और मैं भी होता है घर वापसी के समय में उनसे आग्रह करता है कि अब तुम्हें अपने आने-जाने पाठकों के लिए भी लिखना है, तो अनीता और नई बहू के लिए भी लिखना है, जो आने जाने में तुम्हारे लेखक होने की बात जानकर गर्व से भर गई है ।
लेखन से जुड़ी एक और कहानी ‘वह पात्र’ है ।वह एक लेखक का मित्र है और लेखक चक्र कहता है कि आप मेरे जीवन पर कहानियां लिखिए। मैं नाम का चरित्र बार-बार आग्रह करता है कि अब लिखने का योग नहीं है। तब वह कहता है कि आजकल लोग आत्मकथा के नाम पर बड़े चित्रों पर कीचड़ उछालने हैं, संस्मरण के नाम पर किसी के द्वारा कुछ भी कह देते हैं बाद में विवाद होता है और इस तरह उनका नाम होता है ।आज के लेखक जुगाड़ से पुरस्कार लेने और दूसरों को दिलाने में बैठे रहते हैं तथा अपनी किताबें खुद छुपा कर भेजते हैं। तो मैं कहता है कि मैं ऐसी किसी जुगाड़ का विरोधी हूं और मुझे तो स्वांतः सुखाय ही रचना आता है ।
हमारे समाज में अनेक ऐसे चरित्र हैं जो अपने घर की ड्यूटी या शॉप पर गए काम को निभाने में अपना जीवन ही व्यतीत कर देते हैं और खुद पर कोई ध्यान नहीं देते, कहानी 'कर्तव्य' में मुकेश मिश्रा ऐसे ही व्यक्ति हैं। वे अपोलो हॉस्पिटल में दिखाने आए हैं कि मैं नाम का चरित्र (जो बचपन में उनके मोहल्ले में रहता था और उन्हें बड़ा भाई मानता था) ज़िद पूर्वक अपने घर ले आता है। उसकी भी पच्चीस वर्ष बाद उनसे भेंट हो रही है। बड़ी मुश्किल से मुकेश बताते हैं कि वे जब पढ़ रहे थे, तभी पिता की आकस्मिक मृत्यु के कारण घर की सारी जिम्मेदारियां उन पर आ गई। पिता की नौकरी तो मिली लेकिन अपने से बड़ी चार बहनों के विवाह की जिम्मेदारी भी उन्हीं पर आई। जैसे तैसे करके उन्होंने अपनी नौकरी करते हुए बहनों की शादी की है और अब खुद चालीस साल के होते-होते हार्ट में ब्लॉकेज के कारण हृदय रोगी भी हो गए हैं। उनके मन में निराशा नहीं है, पर अपने जीवन की अस्थिरता के कारण विवाह न करने की दृड़ता है।
बहुत से युवक अत्यंत खूबसूरत पत्नी को पाकर सहज रूप से इस आशंका में रहते हैं कि इतनी स्मार्ट और सुंदर लड़की का जरूर पहले किसी से प्रेम रहा होगा। इसी विषय पर लिखी गई कहानी ‘संदेह’ इस संग्रह में शामिल है। इसमें संदीप और दीपा लगभग एक वर्ष से विवाहित पति-पत्नी है । एक सुबह एक पुरुष आवाज में फोन पर कोई व्यक्ति कहता है कि -'मुझे दीपा मेहता से मिलना है , कुछ व्यक्तिगत काम है। आप बताएँ, मैं उनसे मिलने कब आ जाऊँ? कृपया अपने घर का पता भी बताएंगे।' (पृष्ठ 71)तो संदीप का संदेह का पारा आसमान को जा टकराता है, उसका मूड ऑफ हो जाता है। पत्नी पूछती है किसका फोन था तो वह सच नहीं बताता । कहता है ऑफिस जल्दी जाना है वर्मा जी का फोन था। वह ऑफिस चला जाता है, ऑफिस में भी वह निराश रहता है। वहां दिन भर विधायक के सेक्रेटरी की पत्नी के अपने प्रेमी के संग भाग जाने की कहानी चलती रहती है। घर लौट कर वह पत्नी को बता देता है कि 'कोई तुमसे मिलना चाहता है।कहता है तुमसे व्यक्तिगत काम है। सुबह लैंड लाइन पर उसका फोन आया था।' (पृष्ठ 75)तो दीपा कहती है कल सुबह उसे बुला लीजिए । आखिर मैं भी देखूँ कि कौन है वह । संदीप उस नंबर पर फोन करता है जिससे कल फोन आया था , उन्हें सुबह नौ बजे आने का कह कर अपना पता बता देता है। अगली सुबह दरवाजा की घंटी बजती है तो दीपा ही खोलती है, संदीप भीतर के कमरे में है। द्वार के सामने एक बुजुर्ग सज्जन होते हैं जो कहते हैं ' मैं आपके पिता दीनानाथजी का बचपन का मित्र हूँ। मेरा नाम अमरनाथ है।दिल्ली से आया हूँ।'
'तुम्हारी माँ ने एक डिब्बा मुझे सौंपते हुए कहा था,'भैया, इसमें मेरे सारे जेवर हैं। ये दीपा के लिए हैं।मेरे मरने के बाद उसे सौंप देना।' (पृष्ठ 77) । पहले संदीप किसनगंज जहां नौकरी करते थे, मैं पहले वहाँ गया और वहां से संदीप का नंबर लेकर यहां फोन लगाया, लेकिन कल मुझे कोई जवाब नहीं मिला, मैं तुम्हें बस यह जेवर देने आया हूँ। बहुत आग्रह करने के बाद भी अमरनाथ तुरंत ही वापस चले जाते हैं ।
‘ आतंकवादी ‘ कहानी एक ऐसे मुस्लिम परिवार की कहानी है, जिसके मुखिया हमेशा ही एक भले और मेहनती सरकारी कर्मचारी रहे। वे कलेक्ट्रेट में बड़ेबाबू रहे थे, उनके लिखे हुए को कलेक्टर ने कभी नहीं काटा और उनकी निष्ठा पर किसी ने अविश्वास नहीं किया। अचानक दिन पुलिस उनके घर आ जाती है वह उनके बेटे अनवर को तलाश रही है, जो कंप्यूटर इंजीनियर है । पुलिस का आरोप है कि अनवर का आतंकवादी संगठनों से सम्बंध हैं।
शकील सिद्दीकी साहब कहते हैं कि 'कल शाम अपना बैग और लैपटॉप लेकर अनवर यह कहकर घर से गया कि अपने मित्र प्रदीप चौबे के बुलावे पर राजधानी जा रहा है ,वहां उसने उसके लिए कहीं काम की व्यवस्था की है।(पृष्ठ 50) अब समस्या यह है कि शकील सिद्दीकी के पास ना बेटे का पता है और ना ही मोबाइल नंबर। उनकी अपने बेटे से कोई बात भी नहीं होती है । पुलिस बार-बार आती है। इस बीच शकील सिद्दीकी को अखबारों और दूसरे माध्यमों से पता लगता है कि उनके प्रदेश में हुए टेंडर घोटाले में प्रदीप चौबे ने ही शासकीय कम्प्यूटर को हैक करके आंकड़े चुरा लिए थे और शासन को करोड़ों की चपत लगा दी थी। कहा यह भी जाता है कि मंत्री जी भी प्रदीप से मिले हुए थे। खुलेआम प्रदीप का नाम आने के बाद भी पुलिस न प्रदीप के खिलाफ कोई कार्यवाही करती और न ही उसका नाम चर्चा में आ रहा है।
प्रदीप चौबे और उसके परिवार की प्रतिष्ठा दिनों दिन बढ़ती जा रही है। राजनीति में उसकी पहुंच है। अपराधियों से उसकी सांठगांठ है। घोटाला प्रकरण में गवाहों की लगातार मौतें हो रही हैं।इंक्वायरी समाप्त होने को है, अभी तक दोषियों का पता नहीं लगाया जा सका।
सिद्दीकी साहब सोचते हैं, अबकी बार यदि पुलिस अनवर का पता- ठिकाना और फोन नंबर आदि पूछने आएगी तो वे प्रदीप चौबे का पूरा पता, फोन नंबर और ई-मेल एड्रेस आदि उसे जरूर बता देंगे
(पृष्ठ 55)
इस कहानी से निकल कर आता है कि एक बार इस पर शक हो जाए पुलिस लगातार उसकी तलाश करती रहती है ।
एक भली महिला घर को सुखी घर में तब्दील कर देती है, बिगड़े लोगों को सुधार देती है, यह समाज में सहज ही प्रचलित बात है। इसी विषय पर केंद्रित कहानी ‘सुआ पंखी’ एक मनोरम कहानी है । सत्तू ऐसा युवक है, जो मजदूरी की निरंतरता न होने से निराशा में डूबा रहता है और जब तब शराब पी लेता है। वह प्रायः पुन्नू माई के पास जाता है जो शिव जी की मडिया में ही रहती हैं । पुन्नू माई अपने पड़ोसी किशन से कहकर सत्तू को उसके ठेकेदार के यहाँ स्थाई मजदूरी दिलवा देती है। कुछ महीने नियमित काम करते रहने से उन्हें सत्तू पर विश्वास हो जाता है तो उसके संग अपने मोहल्ले की सावित्री का विवाह करा देती हैं। सावित्री पहले कई घरों में काम संभालती थी,वह एक मेहनती और दृढ़ व्यक्तित्व की युवती है ।पहली रात ही वह सत्तू को अपने कमरे में इसलिए नहीं घ4सने देती कि वह शराब पीकर आया है। इस तरह पहली रात से आरंभ किया उसका अभियान सफल होता है, सत्तू शराब छोड़ देता है। सावित्री के जन्म दिन पर शिव जी की मडिया पर दर्शन करने जाने का प्रस्ताव एक दिन सुबह सावित्री ने दिया तो अगले दिन सत्तू अपने ठेकेदार मालिक से चार सौ रुपया एडवान्स लेकर बाजार चला जाता है , जहां से वह सुआ पंखी रंग की साड़ी पसंद करके लाता है। यह रंग सावित्री को भी पसंद है और सत्तू को भी। यद्यपि ठेकेदार तथा किशन व उसकी पत्नी को यह साड़ी पसंद नहीं आती और वे महंगी साड़ी लाने की बात करते हैं। सत्तू डरता हुआ जब घर पहुंचता है तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। सावित्री को यह साड़ी को पसंद आई है । वे दोनों जब शिव मंदिर के लिए तैयार होकर निकलते हैं तो सावित्री सुआ पंखी रंग की वही पहने हुए हैं। शिव मड़िया के पास रहने वाली पुंन्नो माई को प्रणाम करती सावित्री को पूनम आई खूब आशीषती है और उसके आचरण की तारीफ ही करती है, कि बिगड़े हुए मर्द को सुधार चुकी है।
‘ महानता’ ऐसे चरित्र की कहानी है जो गलती से शिक्षक बन गया जबकि उसे बनना था कलेक्ट्रेट से जुड़े किसी विभाग का बाबू । वह चुनाव के दिनों में चुनाव कार्यालय में खुद को अटैच करा लेता है, तो सर्व शिक्षा अभियान के दिनों में वह जिला पंचायत में अटैच हो जाता है। कभी वह जिला शिक्षा अधिकारी के पास अटैच होता है तो कभी कहीं । लेकिन एक समय ऐसा आता है जब उसे कहीं से अटैचमेंट नहीं मिलता तो वह अपने स्कूल वापस जाता है । वह इस अवधि के बीच पढ़ाना भूल चुका है। स्कूल देर से जाता है तो प्राचार्य से प्रायः उसका झगड़ा होता है । लेकिन इस चालू पुर्जा शिक्षक ने जहां-जहां काम किया है, वहां से समय-समय पर अपनी प्रशंसा के प्रमाणपत्र प्राप्त किए हैं, जिनके साथ वह उत्तम शिक्षक हेतु राष्ट्रपति पुरस्कार के लिए अपना नाम भेजता है और अपनी जुगाड़ से इस आवेदन को आगे बढ़ाता हुआ आखिरकार मध्यप्रदेश शासन से भी केंद्र को अपना नाम भिजवा देता है। अचानक एक दिन उसके प्राचार्य को पत्र प्राप्त होता है कि इन शिक्षक को आदर्श शिक्षक का राष्ट्रपति पुरस्कार प्रदान किया जाएगा, तो प्राचार्य का व्यवहार बदल जाता है। अंत में वे कहते हैं कि ' सचमुच आप एक महान शिक्षक है।'( पृष्ठ 105) हमारे आसपास प्रायः ऐसे पात्र मिल जाते हैं अतएव कहानी विश्वसनीय है।
संग्रह की कहानी ‘पेड़’ ऐसे पेड़ की कहानी है, जिसे एक संत ने संसार से विदा होते समय लगाया था। गांव में कुटिया बनाकर रहते पल-पल बाबा का कहना होता था कि ‘कोई गलती मत करना ।आगे पल पल का हिसाब लिया जायगा ’! ( पृष्ठ 13) वे जिस नीम वृक्ष को लगा कर जाते हैं उसे सब पल पल बाबा का नीम ही कहते हैं, उस नीम के नीचे जो भी बैठता है उसके मन में अच्छे विचार आते हैं। अत्याचारी व्यक्ति के रूप में प्रसिद्ध राजा जब नीम के नीचे बैठता है उस गांव का लगान माफ कर देता है। उस गांव के नीचे निपटी पंचायतों में न्याय की जीत होती है। गांव के ठाकुर जब दलितों के खेतों से फसल कटवा देता है और इस विवाद पर आसपास के 10-12 गांव के ठाकुरों के साथ जब इसी नींम नीचे पंचायत होती है तो ठाकुर इस बात पर तैयार हो जाता है कि वह कटी हुई आधी फसल दलितों को वापस दे देगा। नीम पवित्र माना जाता है, गांव से जाने वाली हर दुल्हन की डोली नीम के नीचे रूकती है तो गांव में आने वाली हर डोली भी एक पल को नीम के नीचे रखी जाती है। संसार से विदा हो रहे व्यक्ति की शव यात्रा के समय अर्थी भी नीम के नीचे रखी जाती है। गांव के हर अच्छे बुरे लमहों के साक्षी रहे नीम के पेड़ को वहां से निकलने वाली सड़क के वास्ते काट देने का निर्णय लिया जाता है। इस बीच नीम के उस पार नई बस्ती हो गायी है और ब्लॉक विकास खंड कार्यालय भी स्थापित किया गया है। पुरानी बस्ती के लोग नीम को काटने का विरोध करते हैं , लेकिन नई बस्ती के लोग और विकास खंड अधिकारी उन लोगों की बात नहीं सुनता। आखिरकार नीम का वृक्ष काट दिया जाता है। उस दिन सब लोग अपने घरों में जाकर पलवल बाबा और नीम की कहानी सुनाते हैं । इस कहानी की विशेषता यह है कि इसमें मुख्य चरित्र पेड़ है, नीम का पेड़! जो गांव का एक अनिवार्य हिस्सा है, जो अपनी खुशी पत्तियां झार के प्रकट करता है, जिसके नीचे बैठकर न्याय होता है! पेड़ कहानी के बहाने लेखक ने कई संकेत दिए हैं - पेड़ यानी पर्यावरण, पेड़ यानि परंपराएं, पेड़ यानि पंच-परमेश्वर! पेड़ पुरातत्व का प्रतीक है और पेड़ के विपरीत खड़ा विकास परंपरा और पर्यावरण का विरोधी होता है। सारे विकास पर्यावरण को नष्ट करके ही किए जाते हैं ।
इन कहानियों के अलावा लल्लन बाबू ,बंटवारा , चैक बुक, डूबते हुए, कहानी शांति नगर की, डैडी, चाचा कब आएंगे और बदचलन जैसी कहानियां भी हमारे आसपास के समाज की कहानियां हैं । जो लेखक ने बिना किसी भाषाई ताम झाम या मिथ्या चमत्कारों से दूर रहकर सहज साधारण भाषा में लिखी है।
एक मुख्य बात यह है कि मैं नाम का चरित्र लगभग हर कहानी में है। मैं नाम के चरित्र की शुरुआत ज्ञानरंजन, अमरकांत, काशीनाथ सिंह और रविंद्र कालिया के समय में हुई थी । उस युग मैं यह चरित्र सक्रिय रहता था। गौतम सान्याल ने लिखा है बाद की कहानियों में संजीव, स्वयं प्रकाश और उदय प्रकाश ने इस मैं नाम के चरित्र को लेकर भी कई कहानियां लिखी और आगे चल कर अगली पीढ़ी ने भी चरित्र को अपनाया। लेकिन जहां ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह का मैं कहानियों का एक अनिवार्य चरित्र बनके कहानियों की यात्रा में अपना विशेष प्रभाव देता था, वहीं वर्तमान युग तक आते-आते इस चरित्र का रूप केवल कथा सुनाने वाले व्यक्ति के रूप का रह गया है, जो पाठकों को अपने नजरिए से सारी कहानी सुनाता है। अनेक चरित्रों का नाम न होना ही यह दर्शाता है कि वे भीड़ में आसानी से मिल जाने वाले चरित्र हैं। वैसे इन कहानियों के चरित्रों को अगर हम बारीकी से देखें तो इनमें दम्भ में भरे पूर्व आईएएस ऑफिसर ऑफीसर, बीमारी से डरते प्राचार्य शुक्ला, जैन साहब और तिवारी जी हमारे आसपास कहीं भी मिल जाएंगे, जो जीवन से दुनिया से लगातार निराश होते जा रहे हैं। दीपक और 'वह पात्र' का लेखक चरित्र भी समाज में खूब मिल जाएंगे जिन्हें लिखने से विरक्ति आने लगी है। सत्तू जैसे जीवन्त युवक और सावित्री जैसी व्यक्तित्व की नायिका लाकर लेखक ने सकारात्मकता भरी है । दीपा भी सहज , बिंदास और दिलेर युवती 'सन्देह' कहानी की नायिका है, जो पति द्वारा यह शंका किए जाने पर कि कोई पुरुष तुमसे मिलना चाहता था, बेधड़क जवाब देती है कि उसे सुबह नौ बजे यहीं बुला लीजिए । मुकेश मिश्रा हमारे यहां दर्जनों की संख्या में मिल जाएंगे जो अपने घर के काम करते-करते ,बहनों को ब्याह करते खुद आजीवन कुंवारे या बीमार होकर रह गए। हां अपने पति को साहित्य रचने के लिए प्रेरित करती अनीता जैसी स्त्रियां दुर्लभ है, स्वयं नौकरी करके अपने पति को जीवन भर लिखने के लिए खुला छोड़ देने वाले ऐसे विलक्षण चरित्र चमक सकते हैं।
समकालीन औषधियों परिस्थितियों, कोरोना काल की घटनाओं, विकास कार्य की निर्मम प्रवृत्ति से जुड़ी यह कहानियां, मनुष्य की सहज प्रकृति की कहानियां है।
इन कहानियों की भाषा वह सहज सामान्य हिंदी है, जिसमें संस्कृत निष्ठता जैसी कोई चीज नहीं है और अंग्रेजी के शब्दों को उपयोग कर लेने की उदारता भी है। यह बोलचाल की हिंदी है जिसे हम इक्कीसवीं सदी की हिंदी कह सकते हैं।
इक्कीसवीं सदी की तो यह कहानियां भी हैं । कोरोना काल यानी सन 2020 से सन 2022 तक के समय को निर्धारित करती इन कहानियों का कथ्य की जरूरत अनुसार काल पीछे भी गया है, जैसे पेड़ कहानी का पेड़ जन्मा भले ही बरसों पहले हो, लेकिन वह कट रहा है सन 2022 के विकास कार्यों में। ऐसी स्वर्णिम चतुर्भुज सड़क योजनाएं, ग्राम सड़क योजनाएं आज भी चल रही हैं। यहां लेखक एक मुद्दा पाठकों के समक्ष छोड़ता है कि वह विकास, समृद्धि, सुविधा के समर्थन में है या पुराने लगाव, भावुकता और मन से जुड़ी बेजान चीजों के प्रति अपनी ममता के साथ खड़ा हुआ है।
इस संग्रह की कहानियों में जहां लेखकीय द्वंद्व, पाठक का अभाव, करुणा के मुद्दे कई बार कहानी की जरूरत के अनुसार निकल के आते हैं और हर बार वे प्रस्तुति में विश्वसनीय ही होते हैं।
हालांकि कई कहानियों में लेखक स्वयं ही परिस्थितियों का दार्शनिक विवेचन आते हैं , तो चरित्रों के वैचारिक विश्लेषण भी आते हैं।
'मैं' का हर कहानी में प्रवेश कई दफा सहज नहीं रह जाता है तो कुछ कहानियां कोई बड़ा संदेश नहीं देती हैं । पाठक को यह भी निराशा होती है कि कहानियों में अपना ली गयी एक गहरी उदासीन भाषा की जगह एक व्यंगकार की जिस खिलंदड़ी शैली की यहां दरकार थी , लेखक पाठक की वह पिपासा शांत नहीं करता । हंसी बोध के साथ खिलंदड़ी अंदाज की भाषा , हिंदी का असली ठाठ है जो प्रारंभ से ही चला आया है और व्यंगकार के रूप में लेखक ने भी उसे खूब अपनाया है। व्यंग लेखों में लेखक जबरदस्त भाषा और शैली का एक चतुर खिलाड़ी की तरह उपयोग करते हैं ,लेकिन यहां उस अंदाज की भाषा और शैली लगभग नदारद है ।
इन कहानियों में हमारे आसपास की धक-धक करती धड़कती दुनिया है, चरित्र हैं, परिस्थितियां हैं और इन को चित्रित करने के लिए अश्विनी कुमार दुबे बधाई के पात्र हैं।
पुस्तक- पेड़ तथा अन्य कहानियाँ
प्रकाशक – सत्साहित्य प्रकाशन दिल्ली
लेखक- अश्विनी कुमार दुबे
मूल्य -400
पृष्ठ – 182₹