Mujahida - Hakk ki Jung - 41 - Last Part books and stories free download online pdf in Hindi

मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 41 - अंतिम भाग

भाग 41
आज शाम को पाँच बजे आरिज़ से मिलने का वक्त तय हुआ था।
ठीक पाँच बजे चेतना फिज़ा की बीती हुई जिन्दगी से रु-ब-रू हुई। वह उस घर में आई थी जहाँ फिज़ा ने एक बरस गुजारा था। एक बड़े से हॉलनुमा ड्राइंगरुम में उसे बैठाला गया था, जहाँ शानदार नक्काशी का वुडवर्क, कीमती, बड़े और गुदगुदे सोफे, दीवारों पर डिजाइनर पेंट और चमचमाती टाइलों का फर्श, चेतना ने वहाँ की शानोशौकत का अन्दाजा लगा लिया था। उसके साथ ड्राइंगरुम में आरिज़ और उसकी अम्मी बैठे थे। चाँदी सी चमचमाती ट्रे में दो पानी के गिलास के साथ बादाम, काजू और किशमिश का एक काँच का वाऊल भी था। उसके दस मि. बाद ही चाय और हल्का नाश्ता सर्व किया गया। उनका शालीन अन्दाज़ चेतना को कशमकश में डाल रहा था। बातचीत का सिलसिला शुरु हुआ तो चलता ही रहा। इस बीच चेतना सिर्फ हाँ..हूँ ...ही करती रही। आरिज़ ने बतौर सफाई बहुत कुछ कह डाला-
"फिज़ा बेहद उदंड, मगरुर और घमंडी औरत है। जिसे औरत की तरह रहना नही आता। मर्दो से बराबरी और उनकी माफिक काम करना चाहती है वह। न तो उसे अपनी जुवान पर लगाम है और न ही बड़ो की इज्जत की फिक्र। ऐसी औरत की हमारे घर में कैसे निभेगी आप ही बताइये? हमारे घर में ऐशो-आराम की कोई कमी नही है। बीसीओं नौकर हैं घर में, जेवर, कपड़ा-लत्ता सभी चीज़ की भरमार है। खुदा की रहमत से इज्जत भी खूब है हमारे खानदान की। और क्या चाहिये एक औरत को?" कह कर आरिज़ का चेहरा तमतमा गया था, जिसे उसने बड़ी खूबसूरती से छिपा लिया, ये कह कर - 'जाने दीजिये, हम गुनाहगार हैं तो सज़ा हमें मिलेगी। नही तो वह सब देख ही रहा है' आरिज़ ने ऊपर देख कर खुदा को याद करने वाले लहजे में कहा।
आरिज़ की अम्मी खामोश थीं। उन्होनें सिर्फ इतना बोल कर बात को खत्म किया- " फिज़ा हमारे खानदान के लायक नही थी। वह जहाँ रहे खुश रहे।"
" बहुत बहुत शुक्रिया....अब मैं चलती हूँ मेरे पास कहने के लिये कुछ नही है।" चेतना ने औपचारिक मुस्कान बिखेर दी और उठ खड़ी हुई। आरिज़ उसे छोड़ने बाहर तक आया था।
औरत पालतू पशु....? सदियों पहले ही उसके दायरे तय किये जा चुके हैं। औरत को गूँगा होना चाहिये, यही कमी रह गयी उसे बनाते वक्त।
रिक्शे भर चेतना गुमसुम सी रही। उसने तय कर लिया था कि इस बात का ज़िक्र वह फिज़ा से नही करेगी। उसने खुद में और फिज़ा में जो औरत देखी थी वो सारी औरतों से अलग थी।
फिज़ा की जिन्दगी से जुड़ी एक-एक चीज़ का जिक्र वह बड़ी ही संजीदगी से पन्नों पर उतार रही थी। उसकी शख्सियत ही ऐसी थी। जहाँ इन्सान खुद को ही भूल जाये बस खिचा चला जाये उसकी तरफ। ऊपर वाला भी आपको आपकी तरह के लोगों से मिलवा ही देता है। चेतना और फिज़ा का मिलना भी इत्तेफाक था। कहने को तो वो दोनों एक ही शहर में पली बड़ी थीं मगर मुलाकात अब हाल हुई थी। न फिज़ा की आवाज़ उठती और न चेतना उससे मिलने पहुँचती? चेतना के हालात खराब न होते तो वह भी एक आम जिन्दगी जी रही होती। उसके दर्द ने ही उसे लिखने पर विवश कर दिया था। उसके दिल का ज्वालामुखी कागजों पर फटता तो एक नयी इवारत जन्म लेती।
चेतना ने रात का दूसरा पहर भी आँखों में काट दिया। कुछ लिखा, कुछ सोचा और कुछ करवटें बदलीं। हर लम्हा फिज़ा उसके ज़हन में समायी रही। कभी उसकी खूबसूरती पन्नों पर थिरकती रही तो कभी उसका लजाना गुदगुदाता रहा। और जब उसके उसके अहज़ान को लिखा तो कलम अपना कलेजा फाड़ती रही। और जब उसने उसकी हिम्मत को लिखा, उसकी बहादुरी को लिखा तो लिखते वक्त न जाने कहाँ से ताकत आ गयी जिसमें उसकी कलम एक नदी के माफिक बहती चली गयी।
नदी जब बहती है तो अपने साथ बड़े-बड़े पत्थर, कंकरीट और बालू भी बहा कर कर ले जाती है। ये पत्थर, बालू और कंकरीट वही थे जैसे उनकी भावनायें, खुशियाँ, गम, तड़प और अहज़ान हों जो स्याही की नदीं में बेखौफ बहते जा रहे हों। जिन्हें रास्तें तलाशने की जरूरत नही थी। न ही मंजिल की फिक्र थी। वो तो अपने अन्जाम से बेपरवाह थे। जहाँ नदी ले जायेगी उन्हें वही जाना था। उन्होनें खुद को नदी के हवाले कर दिया था। नदी भेदभाव नही करती अपने रास्ते खुद तय कर लेती है उसे चलाने की जरूरत नही होती। उसके रास्तें में आने वाली हर रुकावट अपने-आप ही टूट जाती है।
उसकी बेखौफ कलम नदी से स्याही भर चुकी थी और रफ़्तार से भाग रही थी।
फिज़ा और चेतना आज बाहर घूमनें निकली थीं। लम्बा अरसा हो गया था उन्हें घर से यूँ बाहर निकले। उन्होंने कई तस्वीरें साथ में खिचवाई। कुछ तस्वीरों में फिज़ा ने नकाब नही ओढ़ा था वो इस शर्त पर, कि तस्वीरें सिर्फ आप तक ही रहें। चेतना ने बात तो मान ली थी मगर उसे इस बात की तसल्ली नही थी। उसे लगता था कि औरतों को चेहरा छुपाने की क्या जरुरत है? चेहरा तो उसे छुपाना चाहिये जिसने कोई गुनाह किया हो। उसने फिज़ा से कहा- "मैं तुम्हें उफ्क़ पर देखना चाहती हूँ। तुम मेरी मलाला यूसुफजई हो। तुम पूरे मुल्क की मलाला हो। फिज़ा मेरी बहन तुम्हें हर हाल में जीतना है।"
फिज़ा के अन्दर और मजबूती आने लगी थी।
"चेतना मैम, हम सब जीतेंगे। आप भी जीतेंगी। इस मुल्क की सारी औरतें जीतेगीं। मगर किसी को हराने के लिये नही बल्कि खुद को पाने के लिये। हम सब किसी और से नही बल्कि खुद से हारे हैं और इसीलिये जी नही पाते। पूरी जिन्दगी खुद को मार कर दूसरों को जिन्दा रखते हैं और बदले में हमें क्या मिलता है? जिल्लत, बेईज्ज़ती और कैद? ये तो जाने दीजिये। रसूख वाले, ऊँचें ओहदे वाले हमें पहाड़ पर चढ़ाये रहते हैं, वक्फ़, कुर्बानी और हमारी जिस्मानी खूबसूरती की तारीफ से।"
फिज़ा की बातों से चेतना मुस्कुरा उठी। उसे अच्छा लग रहा था ये देख कर कि उनकी विचारों की धारा एक ही दिशा में बह रही थी।
उस की मुस्कूराहट ने अन्दर-ही-अन्दर कई पन्नों को भर लिया था। उसने लिखा था- 'औरत की लाज, उसकी नाजुकता, और संयम 'औरत का जेवर' होता है, ये कहने वालों, अब ध्यान से सुनों- ये औरत का जेवर नही उसका खास गुण होता है, उसकी काबलियत होती है उसकी शख्सियत होती है। जो गलीचों के लिये नही है उसी के लिये है जो इसके लायक है। इस पर सिर्फ औरत का अधिकार है उनका नही। चेतना ने जो कुछ भी भरा था उससे उसे बहुत सुकून मिल रहा था। दुनिया दोचश्म चेहरे सामने लाये गये थे। हकीकत को पूरी ईमानदारी से व्यां करने की कोशिश की गयी थी। फिर वो चाहे फि़जा की हो या आरिज़ की।
"कल कोर्ट की तारीख है। देखो क्या होता है? सुना है आरिज़ ने भी दो-चार केस डाले हैं हमारे खिलाफ?" फिज़ा ने सपाट लहज़े में कहा।
"अच्छा, अब वो भी डरने लगा तुमसे?" चेतना ने भौँहे चढ़ा कर कहा।
इस बात पर अनायास ही दोनों ठहाका लगा कर हँस रही थीं। इस तरह खुल कर हँसना जिन्दगी को जीने जैसा था। वो भी उस दौरान जब वक्त आपके साथ न हो। परिस्थितियों ने तोड़ दिया हो, ऐसे में सब भूल कर मुस्कुराना जीत की खुशबू का आगाज़ ही था। वहाँ का खुशनुमा माहौल शबीना के लिये भी सुकून भरा था। उन्हें आरिज़ का डरना और फिज़ा के खिलाफ़ केस डालना अच्छा लग रहा था। इससे उसकी कमजोरी पता लग रही थी। साथ ही ये भी कि वो कितना डरा हुआ है? उसका कमजोर पड़ना , हारना और टूट जाना एक-न-एक दिन तो होना ही है, फिर आज क्यों नही?
शबीना उन दोनों के लिये पास्ता और काफी बना कर लाई थीं। चूँकि पास्ता चेतना को बहुत पसंद था और फिज़ा को भी। वैसे चेतना ने अपनी पसंद कभी बताई नही थी उन्हें। ये तो इत्तेफाक था उनकी पसंद मिलती थी। पसंद और जहनियत दोनों ही, अगर न मिलती तो शायद ये साथ न होता और इतना खुशनुमा भी न होता। या अल्लाह! तेरा लाख-लाख शुक्र है तूने फिज़ा के दो कदम को चार कदम कर दिया। शबीना खुदा का शुक्रिया अदा कर मन-ही-मन में बुदबुदा उठी। चेतना का ऐसे वक्त में आना एक कीमती तोहफे से कम नही था।
वक्त बदल रहा था और हालात भी। लेकिन इसमें औरत ने जीना सीख लिया था। उन्हें खुश रहने से अब कोई नही रोक सकता था। जिन्दगी रूकती नही है वो तो अपनी रफ्तार से आगे बढ़ती रहती है। आँधी आये या तूफान आये, सब यही पैगाम देकर जाते हैं- रुको मत, चलते रहो...। इन्सान हर हालात में कुदरत से कुछ -न-कुछ सीख सकता है। आँधी से हिम्मत, तूफान से ताकत और वक्त से वकफियत।
लगातार एक-के-बाद एक तारीखें पड़ रही थीं। हर तारीख के साथ उसकी हिम्मत और बढ़ रही थी। अब वह बेचारी नही थी। इस दुनिया का एक बड़ा हिस्सा उसके साथ था। मीडिया भी समझ चुका था कि फिज़ा आम लड़की नही है। वो सबसे अलग, कुछ खास है और खास लोगों की तो पूरे समाज को जरुरत होती है। जब इन्सान आम से खास बन जाता है तो पूरी कायनात उसके साथ होती है। उसके विरोधी भी सिर झुका देते हैं।
फिज़ा की यह ह़क की लड़ाई रंग लायेगी या नही ये तो नही पता मगर तमाम मज़लूम औरतों के अन्दर जुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाने की हिम्मत जरुर भर देगी। कोनों में सिसकती औरतें, नसीब को कोसने वाली औरतें और झोली फैलाने वाली औरतें अब घटेंगी जरुर। उनके मुँह से आह की आवाज़ सुनने को, कितनों के कान तरस जायेगें।
इस बीच आरिज़ ने कई बार फिज़ा से मिलने की कोशिश की। अपनी शिकायतों को जाहिर करना चाहा। नाराजगी को बाहर लाना चाहा मगर हर बार उसका तरीका उन मर्दो की तरह था जिन्हें औरत, कठपुतली के तौर पर भाती है। यही बजह थी कि केस अपना काम करता रहा और कसमसाहट अपना।
फिज़ा की ये लड़ाई अभी आक़िबत पर नही है। केस कोर्ट में है और फैसले का इन्तजार है। ये लड़ाई की शुरुआत भर है। अभी इसे बहुत आगे जाना है। तमाम औरतें हैं जिनकी नज़र इसके फैसले पर अटकी हुई हैं खासकर तलाकशुदा, जिनकी दुआओं में, दिल में और ज़हन में फिज़ा किसी फरिश्ते के माफिक है। मजलूम लब्ज़ को चीर कर, हौसले से फाड़ने की कोशिश बरकरार रहेगी। खुदा हाफ़िज...।।..
तेरे जुल्मोसितम ने इरादें बुलन्द कर दिये
वरना फ़लक पर जीने की तमन्ना नही थी

*समाप्त*





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