श्री चैतन्य महाप्रभु - 17 Charu Mittal द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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श्री चैतन्य महाप्रभु - 17

प्रकाशानन्द सरस्वती का उद्धार

काशी में सभी मायावादी जहाँ-तहाँ प्रभु की निन्दा कर रहे थे। जिससे तपनमिश्र, चन्द्रशेखर और वह विप्र जो श्रीमन्महाप्रभु का दर्शन कर प्रभु का भक्त बन चुका था, बहुत दुःखी होते थे। उस विप्र ने विचार किया कि प्रभु तो स्वयं भगवान् हैं, यदि एक बार वे सब मायावादी संन्यासी प्रभु का दर्शन करें, तो अवश्य ही वे सभी भक्त हो जायेंगे। अतः उन संन्यासियों को प्रभु से मिलाने के लिए उसने एक योजना बनायी। उसने सभी मायावादी संन्यासियों को अपने घर पर आमन्त्रित किया। तत्पश्चात् वह प्रभु के पास गया और उनसे हाथ जोड़कर निवेदन किया– “प्रभो ! मैंने कल समस्त संन्यासियों को आमन्त्रित किया है। मेरी हार्दिक इच्छा है कि आप भी कृपापूर्वक कल मेरे घरमें पधारें।”

अन्तर्यामी महाप्रभु उसके हृदय की बात जान गये कि यह संन्यासियों का उद्धार चाहता है। अतः भक्तवत्सल प्रभु ने निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। दूसरे दिन जब महाप्रभु उसके घर पहुँचे, तो उन्होंने वहाँ पहले से ही संन्यासियों को बैठे हुए देखा। प्रभु सभी को प्रणामकर अपने चरण धोने के लिए गये। चरणों को धोने के बाद वे उसी अपवित्र स्थान पर ही बैठ गये। उस समय महाप्रभु ने अपना कुछ ऐश्वर्य प्रकाशित किया। प्रभु के शरीर से करोड़ो सूर्यों के समान तेज निकल रहा था। प्रभु का दर्शनकर सभी संन्यासी मोहित हो गये तथा सभी अपना-अपना आसन छोड़कर खड़े हो गये। उन संन्यासियों का गुरु प्रकाशानन्द आदरपूर्वक बोला– “हे श्रीपाद! आप इस अपवित्र स्थान पर क्यों बैठे हैं? कृपापूर्वक यहाँ आकर आसन पर विराजिये।” प्रभु बोले – “मैं एक निम्न सम्प्रदाय का संन्यासी हूँ। अतः आप जैसे श्रेष्ठ संन्यासियों के बीच बैठने योग्य नहीं हूँ।”

यह सुनकर प्रकाशानन्द स्वयं महाप्रभु के पास गया और सम्मानपूर्वक उनका हाथ पकड़कर उन्हें सभा के बीच एक उत्तम आसन पर बैठाया। तब वह पूछने लगा– “आपका नाम श्रीकृष्णचैतन्य है। आप एक साम्प्रदायिक संन्यासी केशव भारती के शिष्य हैं। फिर क्या कारण है कि आप यहाँ पर रहते हुए भी हम लोगों से मिलने नहीं आते? इसके अतिरिक्त आप एक संन्यासी होकर कुछ भावुकों के साथ मिलकर नृत्य एवं कीर्त्तन क्यों करते हैं? यह तो संन्यासी का धर्म नहीं है। संन्यासी को तो गम्भीर होना चाहिये। उसे सदा सर्वदा वेदान्त अध्ययन और निर्विशेष ब्रह्म का ध्यान करना चाहिये। आपको देखकर तो ऐसा प्रतीत होता है कि आप साक्षात् नारायण ही हैं, फिर आप ऐसा घृणित कार्य क्यों करते हैं?”

यह सुनकर प्रभु कहने लगे– “हे श्रीपाद ! मेरे श्रीगुरुदेव ने मुझे मूर्ख जानकर यह आदेश दिया है कि वेदान्त अध्ययनमें तुम्हारा अधिकार नहीं है, अतः तुम सर्वदा समस्त मन्त्रोंके सार कृष्णमन्त्र का जप करो। इस मन्त्र से तुम्हारा संसार-बन्धन नष्ट हो जायेगा तथा कृष्णनामके द्वारा श्रीकृष्ण के चरणकमलों की सेवा प्राप्त करोगे। इस कलियुगमें केवल कृष्णनाम के द्वारा ही किसी का उद्धार हो सकता है, ऐसा कहकर उन्होंने मुझे एक श्लोक स्मरण करवाया -

हरेनाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् ।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥

( बृहन्नारदीयपुराण ३८/१२६)

कलियुगमें केवल हरिनाम, हरिनाम एवं हरिनाम के द्वारा ही सद्गति हो सकती है; हरिनाम के अतिरिक्त अन्य किसी भी साधन से सद्गति नहीं हो सकती, नहीं हो सकती, नहीं हो सकती।

“गुरुदेव का आदेश पाकर मैं निरन्तर कृष्णनाम-कीर्त्तन करने लगा। परन्तु आश्चर्य की बात है कि कृष्णनामकीर्त्तन करते-करते कुछ दिनों में ही मेरी बुद्धि भ्रमित हो गयी। मैं अधीर होकर पागलोंकी भाँति कभी नृत्य करने लगा, कभी रोने लगा, तो कभी गाने लगा। इससे भयभीत हो गया। मैंने सोचा कि इस कृष्णनामने मेरा ज्ञान नष्ट कर दिया और मुझे पागल कर दिया है। अतः मैं गुरुदेव के पास गया और उन्हें सारा वृत्तान्त कह सुनाया। मेरी अवस्था को सुनकर गुरुदेव प्रसन्न होकर कहने लगे– “हरेकृष्ण-महामन्त्र का यही फल है कि जो इसका कीर्त्तन करता है, उसकी श्रीकृष्ण के श्रीचरणोंमें भक्ति उत्पन्न हो जाती है। कृष्णप्रेम ही धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का शिरोमणि है। समस्त शास्त्र ही घोषणा कर रहे हैं कि कृष्णनामका फल - कृष्णप्रेम है। तुम्हारा बहुत सौभाग्य है कि तुम्हारे हृदयमें कृष्णप्रेम उदित हो गया है। कृष्णप्रेमका ऐसा ही स्वभाव है कि वह जिसके हृदयमें उदित हो जाता है, तो वह भक्त कभी हँसने लगता है, कभी रोने लगता है, कभी गाने लगता है, तो कभी नाचते हुए पागलों की भाँति इधर-उधर दौड़ने लगता है। बहुत सौभाग्य की बात है कि तुम्हारी ऐसी अवस्था हो गयी है। तुम्हारी ऐसी अपूर्व अवस्थासे मैं भी कृतार्थ हो गया। अब तुम भक्तों के साथ नाचो, गाओ, कीर्त्तन करो और लोगों को कृष्णनाम-कीर्त्तन का उपदेश प्रदान करके उनका भी उद्धार करो।” तबसे मैं अपने श्रीगुरुदेव की आज्ञानुसार निरन्तर कृष्णनाम-कीर्त्तन करता हूँ। मैं अपनी इच्छा से नृत्य-कीर्त्तन आदि नहीं कर रहा हूँ, बल्कि यह सब प्रभाव 'हरेकृष्ण महामन्त्र' का ही है।”

प्रभु के अत्यन्त सुमधुर वचनों को सुनकर संन्यासियों का हृदय बदल गया। वे नम्रता एवं आदरपूर्वक प्रभु से बोले – “आप सत्य कह रहे हैं। कोटि-कोटि जन्मोंके सौभाग्य के फल से ही कृष्णप्रेम प्राप्त होता है। आप कृष्णभक्ति करते हैं, यह तो ठीक है, परन्तु आप वेदान्त क्यों नहीं सुनते ? उसमें क्या दोष है?”

यह प्रश्न सुनकर महाप्रभु हँसते हुए कहने लगे– “यदि आप लोग दुःखी न हों, तो मैं कुछ कहूँ।”

संन्यासी बोले– “आपका दर्शनकर ऐसा प्रतीत होता है कि आप साक्षात् नारायण हैं। आपकी सुन्दरता को देखकर एवं मधुरवाणीका श्रवणकर हमारा मन ही नहीं भर रहा है। आपके दर्शन से हम सभी आनन्दित हैं। हमें पूर्ण विश्वास है कि आप जो कुछ भी कहेंगे, शास्त्रों के अनुसार ही कहेंगे।”

यह सुनकर प्रभु कहने लगे– “भगवान् श्रीनारायण ने ही वेदव्यासजी के रूपमें अवतीर्ण होकर वेदान्तसूत्र की रचना की है। भगवान्‌में भ्रम, प्रमाद (अन्यमनस्कता), विप्रलिप्सा (दूसरोंको ठगनेकी इच्छा) और करणापाटव (इन्द्रियोंकी अपूर्णता) – ये चार दोष नहीं हैं। वेदान्तसूत्रमें भगवान्‌ का ही प्रतिपादन किया गया है, अर्थात् उसमें भगवान् के नाम, रूप, गुण, लीला एवं परिकरों की नित्यता के विषयमें ही वर्णन किया गया है। परन्तु श्रीशङ्कराचार्य ने उन सूत्रों का गौण अर्थकर शाङ्कर भाष्य की रचना की। यद्यपि परम वैष्णव होने के कारण वे ऐसा घृणित कार्य नहीं करना चाहते थे, परन्तु भगवान् का आदेश पालन करने के लिए ही उन्हें ऐसा करना पड़ा। भगवान्ने उन्हें आदेश दिया था कि तुम एक असत् शास्त्र की रचनाकर मुझे ढक दो इसके फलस्वरूप मुक्तिकामी लोग मुझसे दूर हो जायेंगे और मेरे प्रिय भक्त सहज ही मेरा भजन कर पायेंगे। भगवान्‌ के इसी आदेश का पालन करने के लिए श्रीशङ्कराचार्य ने अपने शाङ्करभाष्यमें भगवान्‌ के नाम, रूप, गुण, लीला एवं उनके परिकरों को मायिक अर्थात् अनित्य कहकर वर्णन किया। इस प्रकार उन्होंने वेदान्तसूत्र के मुख्य अर्थ को छिपाकर गौण अर्थ किया है। उन्होंने जीव की सत्ता को ही अस्वीकार कर दिया। उनका मत है कि ब्रह्म एक है तथा निराकार है, उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। जब वह निराकार ब्रह्म मायासे आच्छादित हो जाता है, तो उस समय वह असंख्य जीवों के रूपमें दिखायी देता है। पुनः मायासे मुक्त होनेपर जीव पुनः निराकार ब्रह्ममें मिलकर एक हो जाते हैं। जिस प्रकार एक ही सूर्य एक सौ जल से भरे हुए पात्रों में प्रतिबिम्बित होकर एक सौ रूपोंमें दिखायी देता है, परन्तु सभी पात्रोंके नष्ट हो जानेपर केवल एक सूर्य ही रह जाता है। जीव तभी तक हैं, जब तक मायाके अधीन हैं। मायामुक्त होते ही जीव निराकार ब्रह्ममें उसी प्रकार मिलकर एक हो जाते हैं, जिस प्रकार एक मिट्टीके घड़े के अन्दर का आकाश घड़ेके फूट जानेपर बाह्य महाकाशमें मिलकर एक हो जाता है।”

“इस प्रकार शिवजी जो कि संहार करते हैं, उन्होंने ही भगवान् की इच्छा से ऐसे महाविनाशक कुमतका प्रचार किया। जो शङ्करभाष्य को स्वीकार करता है, उसका विनाश निश्चित है। वास्तवमें भगवान् अग्नि के समान हैं तथा जीव अग्नि से निकलने वाली चिङ्गारियों के समान हैं। भगवान् एवं जीवमें अंशी अंशका सम्बन्ध है। भगवान् अंशी हैं, जीव उनका अंश है। जिस प्रकार चिङ्गारियाँ अग्निसे निकलती हैं, उसी प्रकार अनन्त जीव भगवान् से प्रकट होते हैं। इस तत्त्व को समझानेके लिए ही व्यासदेवने परिणामवाद की स्थापना की। एक सत्य वस्तु से दूसरी सत्य वस्तुके उत्पन्न होनेपर उसे पहली वस्तु का परिणाम या विकार कहते हैं- जैसे दूधमें जाम (थोड़ा दही) डाल देनेपर दूध, दही हो जाता है। उस समय उसके प्रति दूधकी नहीं, बल्कि दूधसे भिन्न एक अलग वस्तु दहीकी बुद्धि होती है। यही परिणाम या विकार है। अर्थात् ब्रह्म एक सत्य वस्तु है, उससे जीव एवं जगत्–ये सत्य वस्तु उत्पन्न होते हैं। इसलिए जीव एवं जगत्को भगवान्‌ का परिणाम कहा जाता है। श्रीशङ्काराचार्य ने विचार किया कि ब्रह्म तो निर्विकारी है। अतः यदि जीव एवं जगत् को उनका परिणाम मान लेंगे तो ब्रह्म विकारी हो जायेगा, जो कि शास्त्रविरुद्ध है।

“परन्तु उनका यह विचार सर्वथा निराधार है, क्योंकि परिणामवाद को स्वीकार करनेपर भी ब्रह्म का निर्विकारत्व नष्ट नहीं होता। इस जड़-जगत्में ही कई वस्तुएँ ऐसी हैं कि जिनसे बहुत कुछ उत्पन्न होनेपर भी वह वस्तु अपने स्वरूपमें स्थित रहती हैं। जैसे–चिन्तामणिसे रत्नोंका ढेर उत्पन्न होनेपर भी चिन्तामणिमें कोई विकार नहीं आता, वह जैसी-की-तैसी ही रहती है। एक मकड़ी अपने मुखसे लार निकालकर विशाल जाल का निर्माण करती है, फिर भी उसके स्वरूपमें कोई विकार नहीं आता अर्थात् वह कमजोर या छोटी नहीं हो जाती है। जब एक जड़-वस्तु की ऐसी अचिन्त्य या अद्भुत शक्ति है, तब यदि भगवान् अपने स्वरूपमें स्थित रहकर ही अपनी अचिन्त्यशक्ति से अनन्त जीवों एवं अनन्त ब्रह्माण्डोंको प्रकट करें, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? परन्तु इस तत्त्व को न जानकर ही परिणामवाद को स्वीकार करनेपर ब्रह्म विकारी हो जाता है, इस भयसे श्रीशङ्कराचार्यने विवर्त्तवाद की स्थापना की। अज्ञानवशतः एक वस्तुके प्रति अन्य वस्तु की बुद्धिको विवर्त्त कहते हैं। जैसे अन्धकारमें मार्गमें पड़ी हुई रस्सी के प्रति सर्प की बुद्धि हो जाती है। यहाँपर वास्तवमें रस्सी सर्प नहीं है, अन्धकार के कारण सर्प जैसी दिखायी पड़ रही है। परन्तु प्रकाश होनेपर हमारा भ्रम नष्ट हो जाता है। उसी प्रकार अज्ञानके कारण ही निराकार ब्रह्मके प्रति जीव बुद्धि हो रही है। यही विवर्त्त है। ज्ञान हो जाने पर हमारा यह भ्रम दूर हो जाता है। उस समय एक ही बुद्धि रहती है कि ब्रह्म ही सत्य वस्तु है, जीव और जगत् नहीं। वास्तवमें माण्डुक्य आदि उपनिषदोंमें जिस विवर्त्तवाद का उल्लेख पाया जाता है, वह इस जड़-शरीर के प्रति आत्मबुद्धि के विषयमें है। अर्थात् जड़-शरीरमें आबद्ध होने के कारण जीव इस जड़-शरीर को आत्मा मानता है, जो कि सत्य नहीं है। अज्ञानता के कारण ही ऐसा प्रतीत होता है, परन्तु ज्ञान हो जानेपर उसकी ऐसी कुबुद्धि नष्ट हो जाती है। उस समय वह जान जाता है कि मैं शरीर नहीं हूँ, शरीरमें रहने वाली आत्मा हूँ। आसुरिक प्रवृत्ति वाले लोगों को मोहित करनेके लिए ही श्रीशङ्कराचार्य ने सूत्रों का स्वाभाविक अर्थ न कर गौण अर्थकर कुसिद्धान्तोंकी स्थापना की है।”

यह सुनकर सभी मायावादी संन्यासी विस्मित हो गये। अब वे कहने लगे– “हे श्रीपाद आपने जो कुछ कहा, वह सत्य है। हम भी जानते हैं कि श्रीशङ्कराचार्यने जो कुछ कहा वह गलत है, परन्तु अपने सम्प्रदाय के प्रति प्रीतिभाव होने के कारण ही हम उनके विचार को स्वीकार करते हैं। हमारा आपसे निवेदन है कि आप कृपापूर्वक वेदान्तसूत्रों का मुख्य अर्थ हमें सुनायें।”

यह सुनकर प्रभु कहने लगे– "बृहदारण्यकोपनिषदमें छः ऐश्वयों [ ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री (सौन्दर्य), ज्ञान एवं वैराग्य] से युक्त पूर्णतत्त्वको बृहद्वस्तु कहा गया है। पुराणोंमें भगवान्‌ के ये छः लक्षण बताये गये हैं। अतः शास्त्रों में जहाँपर भी ब्रह्म शब्दका प्रयोग है, वहाँ भगवान्‌ को ही समझना चाहिये। इस प्रकार समस्त वेदों के अनुसार भगवान् सच्चिदानन्दमय वस्तु हैं तथा सम्बन्धतत्त्व हैं। निर्विशेषता उनका एक गुणमात्र है, किन्तु भगवान् निर्विशेष नहीं हैं, अपितु सविशेष हैं। उन्हें निर्विशेष माननेका अर्थ है, भगवान् की चित्-शक्ति को ही न मानना। भगवान्‌ की शक्ति को न माननेपर भगवान्‌ को पूर्ण रूप से मानना नहीं होता। भगवान्‌को प्राप्त करने के लिए श्रवण-कीर्त्तन आदि जिस साधनभक्तिका अवलम्बन किया जाता हैं, उसे अभिधेय कहते हैं। इस अभिधेय या साधनभक्ति का पालन करनेपर ही साधक के हृदयमें प्रेम उत्पन्न होता है। यह प्रेम ही पञ्चम पुरुषार्थ है। प्रेमसे ही श्रीकृष्ण अपने भक्तों के वशीभूत हो जाते हैं और भक्त भगवान्‌ की सेवा का आनन्द प्राप्त कर सकता है। यह प्रेम ही प्रयोजन है। इस प्रकार सभी सूत्रोंमें सम्बन्ध, अभिधेय और प्रयोजन– इन तीन तत्त्वों का ही वर्णन है। मैं कौन हूँ? यह जड़जगत् क्या है? भगवान् क्या हैं? हमारा परस्पर क्या सम्बन्ध है? इन चार प्रश्नोंका उत्तर जान लेने पर ही सम्बन्ध ज्ञान होता है। सम्बन्धज्ञान उदित होनेपर जीवों का क्या कर्त्तव्य है, उस कर्त्तव्य को जान लेनेपर उस कर्त्तव्य के पालन को ही शास्त्रों में अभिधेय कहा गया है। तथा उन कर्त्तव्यों को पालन करने से जो फल प्राप्त होता है, उसीका नाम प्रयोजन है।”

श्रीमन्महाप्रभु के इन सिद्धान्तपूर्ण वचनों को श्रवणकर सभी संन्यासी सन्तुष्ट हो गये वे हाथ जोड़कर विनयपूर्वक कहने लगे– “हे प्रभो! आप साक्षात् श्रीनारायण हैं। हमने पहले आपकी निन्दा करके आपके श्रीचरणों में जो अपराध किया है, उसके लिए आप हमें क्षमा कीजिये।”

ऐसा कहकर वे सभी मिलकर कृष्णनाम का कीर्त्तन करने लगे। प्रभु ने भी सभी के अपराधों को क्षमा कर उन पर कृपा की। तब सभी संन्यासियों ने श्रीमन्महाप्रभु को अपने बीच में बैठाकर प्रसाद ग्रहण किया। प्रसाद ग्रहण करने के बाद प्रभु अपने वास स्थान पर आ गये।