श्री चैतन्य महाप्रभु - 18 Charu Mittal द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

श्री चैतन्य महाप्रभु - 18

वैराग्य की शिक्षा

भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु काशी के मायावादियों का उद्धार करने के उपरान्त वापस नीलाचल लौट गये। प्रभु ने चौबीस वर्ष की आयुमें संन्यास लिया और अड़तालीस वर्ष की आयुमें अपनी प्रकटलीला को सम्वरण कर लिया। संन्यास वेश ग्रहण करने के पश्चात् प्रभु ने पहले छः वर्ष भारतवर्ष के विभिन्न स्थानों में भ्रमण कर लोगों का उद्धार किया।

बाकी अठारह वर्ष उन्होंने नीलाचलमें ही रहकर अनेकों लीलाएँ कीं। उनका आचरण अत्यन्त कठोर था। वे बहुत ही त्याग एवं वैराग्यपूर्वक रहते थे। किसी भी मौसममें वे दिनमें तीन बार स्नान करते थे। वे भूमि पर शयन करते थे। जीवों को शिक्षा प्रदान के लिए महाप्रभु को इस प्रकार कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत करते देखकर भक्तों को बहुत दुःख होता था। एक दिन जगदानन्द पण्डित जो कि द्वारका लीला में श्रीकृष्ण की रानी सत्यभामा के अवतार हैं, वे बङ्गाल से बहुत सुशीतल चन्दन का तेल लेकर आये। उन्होंने वह तेल प्रभु के सेवक गोविन्द को दिया और कहा कि प्रभु के विश्राम के समय इसे उनके सिर पर लगाना, इससे उन्हें अच्छी नींद आयेगी। रात को जब प्रभु सोने लगे तब गोविन्द प्रभु के सिर में उस तेल को लगाने के लिए लाये, इस पर प्रभु ने तेल के विषय में पूछा गोविन्द ने सारी बात बता दी। प्रभु बोले– “जगदानन्द ने इस तेल को लाने के लिए बहुत परिश्रम किया है। अतः इसे जगन्नाथदेव के मन्दिर में जगन्नाथजी की आरती के लिए दे देना। इससे जगदानन्द का परिश्रम सार्थक होगा।”

यह बात गोविन्द ने जब जगदानन्द को कही तो वे क्रोधित हो गये। उन्होंने वह तेल का घड़ा जमीन पर पटककर फोड़ दिया और अपने घर के भीतर जाकर चुपचाप बैठ गये। यह देखकर प्रभु समझ गये कि इसे मान हो गया है। अतः उन्होंने बहुत कष्ट से उन्हें मनाया।

इसी प्रकार प्रभु केले के पेड़ के छिलकों पर सोते थे और वे छिलके प्रभु के अति कोमल शरीर पर चुभते थे। यह देखकर सभी भक्तों को बहुत कष्ट होता था। एक दिन जगदानन्द ने एक उपाय खोजा। उन्होंने प्रभु के एक बहुत पतले से गेरुवे रङ्ग के बहिर्वास के (महाप्रभु के पहनने के वस्त्र ) अन्दर सेंमल की रुई भरकर एक गद्दे जैसा बना दिया और वैसा ही एक तकिया बनाकर गोविन्द को देते हुए बोले–“इस गद्दे में प्रभु को सुलाना।” प्रभु के शयन के समय स्वरूप दामोदर वहीं पर थे। उस गद्दे एवं तकिये को देखकर प्रभु क्रोधित हो गये। उन्होंने उस बिस्तर को दूर फेंक दिया तथा पुनः उसी केले के पेड़ के छिलकों पर ही सो गये। यह देखकर स्वरूप दामोदर ने एक उपाय किया। उन्होंने केले के सूखे हुए पत्तोंको अपने नाखूनोंसे चीर-चीरकर प्रभु के एक 'बाह्यवस्त्र'–बहिर्वासमें भरकर उसे सिल दिया, जिससे वह एक गद्दा जैसा बन गया। वैसा ही एक ओढ़ने के लिए भी बनाया। सभी भक्तों के अति आग्रह से प्रभु ने उस पर सोना स्वीकार कर लिया, जिससे भक्तों को अपार आनन्द हुआ।

गम्भीरा-लीला

अब श्रीमन्महाप्रभु ने भक्तों के साथ कीर्त्तन इत्यादि बन्द कर दिया। वे सर्वदा गम्भीरा में ही रहते थे। दिन में वे सबसे मिलते थे, अतः उनका विरह भाव कुछ शान्त रहता था, परन्तु रात्रिमें एकान्त होते ही प्रभु का विरह भाव चरमसीमा पर पहुँच जाता था। प्रभु विरहिणी श्रीमती राधिकाजी के भाव में आविष्ट होकर उसी प्रकार विलाप करते थे, जिस प्रकार श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने पर श्रीमती राधाजी विलाप करती थीं। उस समय उनके भावों के अनुरूप स्वरूप दामोदर (ललिताजी के अवतार) तथा रायरामानन्द (विशाखा सखी के अवतार) भागवत के श्लोकों तथा विद्यापति एवं चण्डीदास के पदों का गानकर प्रभु को सान्त्वना प्रदान करते थे। दोनों बहुत कष्ट से प्रभु को सुलाकर देर रातमें चले जाते थे। उनके जाने के बाद जब प्रभु की निद्रा टूट जाती थी, तो कृष्णविरह में कातर होकर वे गम्भीरा की दीवार से अपना सिर पटक-पटककर लहुलुहान कर लेते थे। कभी-कभी तो ऐसी अवस्था होती कि दरवाजे बन्द हैं, परन्तु प्रभु घर के भीतर नहीं होते थे। यह देखकर सभी भक्तों का हृदय मानो फटने लग जाता। जब वे सभी प्रभु को खोजने निकलते तो देखते कि प्रभु मन्दिर के बाहर मूच्छित पड़े हुए हैं।

एक दिन तो आश्चर्यजनक घटना घटी। स्वरूपदामोदर तथा रायरामानन्द जी प्रभु को सुलाकर चले गये। दरवाजा बाहर से बन्द कर दिया गया कि प्रभु रात्रि में कहीं चले न जायें। जब प्रातःकाल होने को आया, तो गोविन्दने विचार किया कि अन्दर कुछ आवाज नहीं आ रही, क्या कारण है? उन्होंने जैसे ही दरवाजा खोलकर देखा, तो पाया कि प्रभु भीतर नहीं हैं। यह देखकर उनके होश ही उड़ गये। वे दौड़ते-दौड़ते स्वरूपदामोदर, रामानन्दराय आदि भक्तों के पास गये तथा उन्हें यह बात बतायी। यह सुनकर सभी भक्त लोग प्रभु को खोजने निकले, परन्तु प्रभु का कुछ पता न चला। अन्तमें स्वरूपदामोदर ने विचार किया कि अवश्य ही प्रभु ने नीले समुद्र को यमुना समझकर उसमें छलाङ्ग लगा ली होगी। अतः वे सभी भक्तों को साथ लेकर विलाप करते-करते समुद्र के किनारे-किनारे उन्हें खोजने लगे। उसी समय विपरीत दिशा से एक मछुआरा 'भूत-भूत' कहकर भागता हुआ आ रहा था। भक्त लोगों ने उससे पूछा तो वह बोला कि मैंने जब समुद्रमें मछली पकड़ने के लिए जाल डाला, तो उसमें एक भूत फँस गया। मैंने मछली समझकर उसे बाहर निकाल लिया। यह सुनते ही भक्तवृन्द समझ गये कि वह भूत नहीं, बल्कि हमारे प्राणनाथ ही हैं। अतः जब सभी लोग वहाँ पहुँचे, तो आश्चर्य से उनका मुख खुला का खुला रह गया। प्रभु का शरीर सिकुड़ गया था। उनके हाथ पैर शरीरमें घुस गये थे। उनका आकार एक कछुए जैसा हो गया था। यह देखकर भक्त लोग कीर्त्तन करने लगे। देखते ही देखते कुछ ही क्षणोंमें प्रभु का शरीर पहले जैसा हो गया और वे 'हरि-हरि' बोलते हुए उठ खड़े हुए और आश्चर्य से चारों ओर देखते हुए कहने लगे– "मैं यहाँ कैसे आ गया। मैं तो वृन्दावनमें श्रीकृष्ण की बांसुरी की ध्वनि सुन रहा था।" ऐसा कहकर जोर-जोर से ‘हा कृष्ण! हा प्राणनाथ !’ कहते हुए रोने लगे। इस प्रकार प्रभु ने गम्भीरामें स्वरूप दामोदर एवं रायरामानन्द के साथ श्रीराधाजी के भावों का आस्वादन किया।

इस जगत्में 48 वर्ष तक रहकर श्रीमन्महाप्रभु ने युगधर्म नाम-सङ्कीर्त्तन का प्रचार कर सम्पूर्ण जगत् को प्रेम की बाढ़ में डुबो दिया तथा स्वयं वे जिस विशेष कारण से जगत्‌ में आये थे–राधाजी के भावों का आस्वादन करने के लिए उनका आस्वादन कर अपने धाम पधार गये।

श्रीशचीनन्दन गौरहरि की जय!