श्री चैतन्य महाप्रभु - 16 Charu Mittal द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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श्री चैतन्य महाप्रभु - 16

पठानों पर कृपा

बलभद्र भट्टाचार्य लोगों की भीड़ से तङ्ग आ चके थे। इसके अतिरिक्त महाप्रभु कभी-कभी आविष्ट होकर यमुनामें छलाङ्ग लगा देते थे, उस समय वे बहुत कष्ट से प्रभु को बाहर निकालते थे। अतः वे विचार करने लगे कि यदि कभी प्रभु अकेले रहते समय आविष्ट होकर यमुनामें छलाङ्ग लगा देंगे, तो अनर्थ हो जायेगा। इसलिए उन्होंने प्रभु को वृन्दावन से जगन्नाथ पुरी लौटा ले जाने का विचार किया और प्रभु से वापस चलने की प्रार्थना की। यद्यपि प्रभु की वृन्दावन छोड़ने की इच्छा नहीं हो रही थी, तथापि बलभद्र एवं उसके सेवक की प्रसन्नता के लिए प्रभु ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। इस प्रकार प्रभु उन दोनों के साथ वापस लौट चले।

वापस जाते समय मार्गमें एक स्थानपर एक गोपबालक वंशी बजा रहा था। वंशी ध्वनि सुनते ही प्रभु मूच्छित हो गये और उनके मुख से झाग निकलने लगा। उसी समय कुछ पठान घुड़सवार वहाँ से गुजर रहे थे। उन्होंने देखा कि एक अति सुन्दर संन्यासी बेहोश पड़ा है और उसके पास ही चार लोग बैठे हैं। यह देखकर उन पठानों ने समझा कि ये चारों डकैत हैं तथा इन्होंने इस सुन्दर संन्यासी का धन हरण करने के लिए इसे विष खिला दिया है, इसीलिए इसके मुख से झाग निकल रहा है। उन्होंने इन चारों को बाँध दिया और तलवार से काटने को तैयार हो गये। इससे ये चारों भयभीत हो गये। उसी समय प्रभु की मूर्च्छा भङ्ग हो गयी और वे 'हरि-हरि' कहते हुए उठ बैठे। यह देखकर उन पठानों के सरदार ने प्रभु से कहा कि इन लुटेरों ने आपको विष दे दिया था।

महाप्रभु बोले – “ये लुटेरे नहीं, बल्कि मेरे साथी हैं। मुझे मिर्गी रोग है, इसीलिए मैं बेहोश हो गया था और मेरे मुख से झाग निकल रहा था।”

महाप्रभु के स्वरूप का दर्शन कर सभी पठान मोहित हो गये थे। उनमें एक मौलाना (मुसलमान पण्डित) था। अतः उसने अपने कुरान शास्त्रके अनुसार प्रभु के साथ विचार-विमर्श आरम्भ करते हुए निराकार ब्रह्म की स्थापना की, परन्तु श्रीमन्महाप्रभु ने उसके विचार का खण्डन कर दिया। इस प्रकार वह जो-जो युक्तियाँ देता, प्रभु उन्हीं का खण्डन कर देते। इस प्रकार अन्तमें उसका मुँह बन्द हो गया और वह कहने लगा — “हे संन्यासी महाशय ! मुझे तो ऐसा लगता है कि आप स्वयं खुदा हैं, अतः मुझ अधमपर कृपा कीजिये ।”

‘कृष्ण कृष्ण' कहकर वह प्रभु के श्रीचरणोंमें गिर पड़ा। महाप्रभु बोले—“उठो! उठो! तुम्हारे मुख से कृष्ण नाम निकला है। अतः तुम्हारे समस्त पाप नष्ट हो गये हैं। आज से तुम्हारा नाम रामदास हो गया।” उनमें ही एक कम उम्र का पठान भी था। उसका नाम बिजली खान था। वह राजकुमार था और सभी पठान उसके सेवक थे। वह भी 'कृष्ण-कृष्ण' कहते हुए प्रभु के चरणोंमें गिर पड़ा। उन सब पर कृपा कर प्रभु आगे चल पड़े। इस प्रकार प्रभुका दर्शन कर उन सबका चित्त बदल गया। अब वे सभी पठान वैरागी हो गये थे।

श्रीरूप गोस्वामीको शिक्षा
जब श्रीमन्महाप्रभु वापस प्रयागमें पहुँचे तो वहाँ उनकी भेंट श्रीरूप गोस्वामीसे हुई । जगन्नाथपुरी से वृन्दावन आते समय श्रीचैतन्य महाप्रभु बङ्गालमें जब रामकेलि नामक स्थान पर पहुँचे, तब वहाँ पर श्रीरूप अपने ज्येष्ठ भ्राता श्रीसनातन के साथ महाप्रभु से मिले थे। ये दोनों वहाँ के बादशाह हुसैनशाह के क्रमश वित्त मन्त्री एवं प्रधानमन्त्री थे। प्रभु ने इन्हें आदेश दिया था कि अतिशीघ्र ही विषयों को त्यागकर मेरे पास आओ। परन्तु बादशाह इन दोनों को छोड़ना नहीं चाहता था। अतः ये दोनों चतुरतापूर्वक वहाँ से निकल आये। पहले श्रीरूप गोस्वामी आकर प्रयाग में प्रभु से मिले। उन्हें देखकर प्रभु को बहुत आनन्द हुआ। दस दिन प्रयागमें रहकर श्रीमन्महाप्रभु ने श्रीरूप को भक्ति-रस तत्त्व की शिक्षा दी, जिसको श्रीरूप गोस्वामी ने भक्तिरसामृतसिन्धु, उज्ज्वलनीलमणि, विदग्ध-माधव और ललित-माधव आदि ग्रन्थों में गागरमें सागर की भाँति भर दिया है।

श्रीमन्महा प्रभु कहने लगे– “हे रूप ! सभी जीव अपने कर्मफल के अनुसार अनादिकाल से इस ब्रह्माण्डमें उच्च-नीच योनियोंमें भ्रमण कर रहे हैं। उनमें से किसी सौभाग्यवान को भक्ति- उन्मुखी सुकृति के प्रभाव से साधु सङ्ग प्राप्त होता है। [ज्ञात अथवा अज्ञातमें भी यदि कोई किसी भी प्रकारसे भक्ति के ६४ अङ्गोंमें से किसी एक अङ्ग का भी पालन कर लेता है, तो उसकी भक्ति-उन्मुखी सुकृति हो जाती है। अर्थात् उसके प्रभावसे वह भक्ति के उन्मुख हो जाता है] तत्पश्चात् साधुसङ्गमें गुरु की महिमा जानकर गुरु एवं कृष्ण की कृपा से भक्तिलता का बीज अर्थात् 'श्रद्धा' प्राप्त करता है। उस बीज को प्राप्त कर वह उसे हृदय रूपी खेतमें रोप देता है तथा उसमें श्रवण-कीर्त्तन रूपी खाद-जल प्रदान करता है। अर्थात् भगवान्के नाम, रूप, गुण आदि का श्रवण तथा कीर्त्तन करता है, जिसके फलस्वरूप बीज अङ्कुरित होकर भक्तिलता के रूपमें परिणत हो जाता है। वह भक्तिलता बढ़ते-बढ़ते ब्रह्माण्ड को भेदकर विरजा एवं ज्योतिर्मय ब्रह्मलोक को भी भेदकर क्रमशः वैकुण्ठ लोक तक पहुँच जाती है। वहाँ से वह गोलोक वृन्दावनमें पहुँचकर कृष्ण के चरणरूपी कल्प वृक्ष पर आरोहण करती है। कृष्ण के चरणोंमें आरूढ़ होते ही उस भक्तिलतामें 'प्रेमफल' प्रकट हो जाता है। अभी तक माली [अर्थात् श्रद्धावान भक्त जिसने भक्तिलता बीज को अपने हृदय क्षेत्रमें बोया है] को उस लता को श्रवण-कीर्त्तन रूपी जल से सींचना पड़ता है। इस प्रक्रियामें जल सिञ्चन के अतिरिक्त मालीका एक और भी कार्य होता है– जब लता बढ़ने लगती है, तो उस समय उसे लताके चारों ओर काँटों की बाड़ लगानी पड़ती है, जिससे कि कोई जन्तु जानवर आकर उसे खा न जायें। वैष्णव अपराध ही दुष्ट जन्तु - जानवरों के समान हैं। वैष्णव-अपराध पागल हाथी की भाँति होता है, जो भक्तिलता को जड़ से उखाड़ फेंकता है। ऐसे समयमें एक अन्य बाधा भी लताको बढ़नेसे रोक देती है। अर्थात् जब लता बढ़ने लगती है, तो उस समय यदि लतामें उपशाखाएँ अधिक हो जायें, तो लता अच्छी प्रकारसे बढ़ नहीं पाती जल खाद आदि पाकर उपशाखाएँ तो तेजी से बढ़ने लगती हैं, परन्तु मूल लता का बढ़ना बन्द हो जाता है। भुक्ति अर्थात् भोगों की इच्छा, मुक्तिकी इच्छा, शास्त्र विरुद्ध आचरण, जीव हिंसा, मान सम्मान की प्रबल इच्छा आदि ही भक्तिलतामें उपशाखाएँ हैं । इसलिए साधकको चाहिये कि वह श्रवण - कीर्त्तनरूपी जल सिञ्चन के समय ही इन सब उपशाखाओंको काट डाले, तभी मूल भक्तिलता तीव्रता से बढ़ते हुए वृन्दावनमें श्रीकृष्ण के चरणोंमें पहुँच सकती है तथा उसमें प्रेमफल लग सकता है। यह प्रेम ही जीवों के लिए परम पुरुषार्थ है धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष– ये चारों पुरुषार्थ ही कृष्णप्रेमके समक्ष तृण के समान हैं।

इस प्रकार श्रीरूप गोस्वामीको शिक्षा प्रदानकर श्रीचैतन्य महाप्रभु ने लुप्त लीलास्थलियों को प्रकाशित करने का आदेश देकर उन्हें वृन्दावन भेज दिया तथा स्वयं पुनः काशीमें चन्द्रशेखर वैद्य के घरपर उपस्थित हुए।

श्रीसनातन-शिक्षा
श्रीसनातन गोस्वामी हुसेनशाहके कारागार से चतुरतापूर्वक निकल आये तथा चलते-चलते प्रभु के दर्शनों की अभिलाषा से जब काशीमें पहुँचे, तो उन्होंने सुना कि प्रभु इस समय काशीमें ही चन्द्रशेखरके गृहमें विराजमान हैं। यह सुनकर वे अति प्रसन्न हुए। लोगों से पूछते-पूछते वे चन्द्रशेखर के घरमें पहुँचे। उन्हें देखकर प्रभु के आनन्द की सीमा न रही। प्रभु ने उन्हें प्रेम से गले लगा लिया। कई दिनों तक लगातार चलते रहने के कारण सनातन गोस्वामी का वेश अस्त-व्यस्त हो गया था। प्रभु ने चन्द्रशेखर को उनका संस्कार करने का आदेश दिया। चन्द्रशेखर ने उनका मुण्डन आदि कराया तथा गङ्गामें स्नान कराकर उन्हें नये वस्त्र देने चाहे, परन्तु सनातन गोस्वामीने उन्हें लेने से मना कर दिया तथा बोले यदि आप देना ही चाहते हैं, तो अपना व्यवहार किया हुआ कोई पुराना वस्त्र दे दीजिये। तब चन्द्रशेखर ने उन्हें एक पुरानी धोती प्रदान की। सनातनने उसे स्वीकार कर लिया। सनातन के पास एक बहुमूल्य कम्बल था। जब-जब वे प्रभु से मिलते थे, प्रभु बार-बार उस कम्बलकी ओर ताकते रहते थे। बुद्धिमान सनातन गोस्वामी समझ गये कि प्रभु को यह कम्बल पसन्द नहीं है। अतः वे गङ्गा के किनारे गये और देखा कि वहाँपर एक भिखारी ने अपनी फटी-पुरानी गुदड़ी सुखाने डाली हुई थी। सनातन गोस्वामी ने उसे अपना कम्बल दे दिया तथा उसकी गुदड़ी ले ली। जब वे उस गुदड़ी को ओड़कर प्रभु के पास आये तो प्रभु बहुत प्रसन्न हुए। प्रभु कहने लगे– सनातन ! अब कृष्ण ने तुम्हारे अन्तिम विषय रोग को भी नष्ट कर दिया है।
तब श्रीसनातन गोस्वामीने श्रीमन्महाप्रभु से प्रश्न किये तथा महाप्रभु ने उन्हें जीवतत्त्व, कृष्णतत्त्व, भक्तितत्त्व, वैधी और रागानुगा भक्ति आदि की शिक्षा प्रदान की, जिसे श्रीसनातन गोस्वामीने अपनी श्रीमद्भागवत की टीका, श्रीबृहद्भागवतामृत आदि ग्रन्थोंमें विस्तार से वर्णन किया है। श्रीसनातन को शिक्षा प्रदानकर प्रभुने उन्हें भी वृन्दावन की लुप्त लीला स्थलियों और भक्ति-ग्रन्थों को प्रकाशित करने के लिए वृन्दावन भेज दिया।