श्री चैतन्य महाप्रभु - 15 Charu Mittal द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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श्री चैतन्य महाप्रभु - 15

मथुरा श्रीमन्महाप्रभु का आगमन

श्रीमन्महाप्रभु प्रेम में उन्मत्त होकर नृत्य एवं कीर्त्तन करते हुए मथुरा की ओर चले जा रहे थे। ज्यों-ज्यों वे वृन्दावन की ओर बढ़ रहे थे, त्यों-त्यों उनका प्रेम आवेश भी बढ़ रहा था। मार्गमें जहाँपर भी उन्हें यमुना जी का दर्शन होता, वे उसमें कूद पड़ते। तब बड़े कष्ट से बलभद्र तथा उनका सेवक प्रभु को बाहर निकालते थे। इस प्रकार चलते-चलते प्रभु मथुरा पहुँचे। मथुरा पहुँचकर सर्वप्रथम वे विश्रामघाट गये और वहाँ पर स्नान किया। तत्पश्चात् जन्मभूमि और आदिकेशव आदि का दर्शन किया। श्री केशवदेव का दर्शन करते ही वे प्रेममें आविष्ट होकर उद्दण्ड नृत्य करने लगे। उस समय वहाँ पर एक सनोड़िया ब्राह्मण भी उपस्थित था। प्रभुका दर्शन कर वह भी प्रेमाविष्ट होकर प्रभुके साथ नृत्य करने लगा। उसे देखकर प्रभु बहुत प्रसन्न हुए। जब उसने प्रभु को प्रणाम किया तो प्रभु ने पूछा– “आप कौन हैं?” वह बोला– “मैं श्रीमाधवेन्द्रपुरी का शिष्य हूँ।” यह सुनकर प्रभुने प्रसन्न होकर उसे गले से लगा लिया। उस बाह्मण ने प्रभु को अपने घर में भोजन के लिए निमन्त्रित किया। श्रील माधवेन्द्र पुरी का शिष्य होने के कारण महाप्रभु ने उसका आतिथ्य स्वीकार किया और उसके घर पहँचे। श्रीमन्महाप्रभु के दर्शन के लिए हजारों लोग उसके घर के बाहर एकत्रित हो गये। तब प्रभु ने घर से बाहर आकर सबको दर्शन देकर धन्य किया। तत्पश्चात् उस ब्राह्मण ने प्रभु को मथुरा के चौबीस घाट-स्वामी घाट, विश्राम घाट, ध्रुव घाट इत्यादि एवं भूतेश्वर महादेव, दीर्घविष्णु इत्यादि विग्रहों का दर्शन कराया जब श्रीमन्महाप्रभुजी की बारह वनों के दर्शन करने की इच्छा हुई तो उस ब्राह्मण को साथ लेकर प्रभु ने मधुवन, तालवन, कुमुदवन, बहुलावन आदि बारह वनों का दर्शन किया। मार्गमें चरती हुई गायें प्रभु का दर्शन करते ही दौड़कर आतीं और स्नेह से उन्हें चाटने लगतीं। यह देख प्रभु को अपनी कृष्णलीला का स्मरण हो आता। वे भी गायों के गले से लिपटकर जोर-जोर से रोने लगते। हिरणियाँ, कोयल, मोर, तोते आदि पशु-पक्षी भी प्रभु का दर्शन कर प्रफुल्लित हो रहे थे। मानो आज बहुत दिनों के बाद उन्हें श्रीकृष्ण के दर्शन हो रहे हों। वे सभी प्रभु के साथ-साथ चलने लगते। पशु-पक्षियों की तो बात ही क्या, वृन्दावन के वृक्ष एवं लताओं से भी मधु झरने लगा। फल से लदी हुई वृक्षों की टहनियाँ प्रभु के चरणों में ऐसे झुक जाती थीं, जैसे बहुत दिनों के पश्चात् अपने प्रिय बन्धु से मिलने पर कोई व्यक्ति उसे बहुत प्रेम से उपहार प्रदान करता है।

इस प्रकार द्वादश वनों का दर्शनकर श्रीमन्महाप्रभु आरिटग्राम पहुँचे। वहाँ जाकर उन्होंने श्रीराधाकुण्ड एवं श्रीश्यामकुण्ड का प्रकाश कर उसमें स्नान किया तथा अपने साथ वहाँ की कुछ मिट्टी भी ले ली। वहाँ से प्रभु गोवर्धन पहुँचे। गोवर्धन का दर्शन कर प्रभु ने उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया और एक शिला को आलिङ्गन कर अपनी पूर्व लीलाओं का स्मरण करते हुए पागलों की भाँति रोने लगे। उस रात वे श्रीहरिदेवजी के मन्दिरमें रहे। रात को वे विचार करने लगे कि मैं गोवर्धन पर्वत पर नहीं चढूँगा। अतः मुझे श्रीमाधवेन्द्र पुरी पादजी के द्वारा प्रतिष्ठित श्रीगोपाल जी जो कि गोवर्धन के ऊपर विराजमान हैं, उनका दर्शन कैसे होगा ?

महाप्रभु की इच्छा जानकर श्रीगोपालजी ने एक लीला की गोवर्धन के निकट ही गाठौली नामक एक गाँव है। वहाँ से कोई व्यक्ति ऊपर मन्दिर में जाकर पुजारी से बोला कि कल मुसलमान यहाँ आयेंगे, वे सभी पुजारियों को मार डालेंगे और ठाकुरजी को ले जायेंगे। यह सुनकर पुजारी भयभीत हो गये तथा श्रीगोपालजी को नीचे उसी गाँवमें छिपाकर भाग गये। जब महाप्रभु को पता चला कि गोपाल जी नीचे आ गये हैं, तब उन्होंने आनन्दपूर्वक गोपालजी का दर्शन किया। दूसरे दिन मानसी-गङ्गामें स्नानकर प्रभुने सनोड़िया ब्राह्मण, बलभद्र भट्टाचार्य एवं उनके सेवक के साथ गोवर्धन की परिक्रमा की और मार्ग में गोविन्दकुण्ड, सुरभिकुण्ड, उद्धवकुण्ड आदि का दर्शन किया। तत्पश्चात् प्रभु ने काम्यवन, नन्दगाँव और बरसाना आदि का भी दर्शन किया। वहाँ से वे वृन्दावन पहुँचे। वृन्दावन में उन्होंने सभी लीलास्थलियों का दर्शन किया। वृन्दावन में प्रभु अक्रूर घाट पर रहते थे। परन्तु प्रातःकाल वृन्दावनमें यमुना के तटपर स्थित इमलीतला नामक स्थान पर आ जाते थे, क्योंकि अक्रूर घाट पर प्रभु के दर्शनों के लिए लोगों की भीड़ लगी रहती थी, जिससे उनकी नामसंख्या पूर्ण नहीं हो पाती थी। दोपहर तक निर्जन में हरि नाम की संख्या पूर्णकर प्रभु पुनः अक्रूर घाट लौट आते तथा वहाँ पर आने वाले लोगों को दर्शन देकर धन्य करते थे।