हिंदी नए चाल में ढली। Anand Tripathi द्वारा पत्रिका में हिंदी पीडीएफ

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हिंदी नए चाल में ढली।

यह वाक्य भारतेंदु का है। जो उन्होने कालचक्र नामक जर्नल में लिखा था। ऐसा माना जाता है की शताब्दी के अंत में जिस प्रकार भाषाई द्वैत की समस्या बनी हुई थी। उसमे भारतेंदु एक महत्वपूर्ण भाषा परिवर्तन को इस कथन के मध्यम से इंगित कर रहे है। दरअसल भारतेंदु आरंभिक समय में बाला बोधनी और कवि वचन सुधा नामक पत्रिका निकाल चुके थे। किंतु उन्होंने अपने संपादकीय जीवन की सबसे महत्वपूर्ण पत्रिका हरिश्चंद्र चंद्रिका की शुरवात की। जो आगे चल कर विख्यात हुई। भारतेंदु के अनुसार की कवि कवि वचन सुधा में जिस प्रकार की खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग किया जा रह था। वह पुरानी चाल की थी। जबकि हरिश्चंद्र मैगजीन के बाद माध्यम से हिंदी भाषा नए रुप में उभरी है।
नए चाल का अर्थ दरअसल नई शैली से है। हर भाषा की एक शैली होती है। दो शैलियों को दो व्यवक्तित्व प्रयोग करते जो की महत्वकारक है। प्रथम राजा लक्ष्मण सिंह द्वारा और दूसरी शिवप्रसाद द्वारा प्रयोग में लाई गई। पहली संस्कृत निष्ठ और दूसरी फारसी निष्ट शैली। हरिश्चंद्र मैगजीन में उन्होंने उस शैली का रोपण किया जो की जो की हिंदी के नए भाषा के रूप में उभरी है। उस शैली को हिंदुस्तानी सैली के नाम से जाना गया। हिंदी ke नए चाल में ढलने के ये अर्थ नही थे। इसमें यह निहित था। नवजागरण काल को सर्वमान्य माना जायेगा। अपितु रीतिवाद का प्रयोग नहीं किया जायेगा। आचार्य शुक्ल ने भी भारतेंदु के भाषा संबंधी प्रयोगों की प्रशंशा की है। उनके अंतिम दौर की भाषा के संबंध में शुक्ल ने कहा कि जब भारतेंदु अपनी मांजी हुई संस्कृत भाषा लाए तो हिंदी बोलने वाली जनता को गद्य के लिए खड़ी बोली का प्रकृति साहित्यिक रूप मिल गया और भाषा के स्वरूप का प्रश्न न रह गया। भाषा के स्वरूप स्थिर हो गया। दूसरी तरफ डॉक्टर राम विलास वर्मा ने भारतेंदु के इस दावे को ख़ारिज कर दिया। वो लिखते है की 1873 के बाद हिंदी नए चाल में नाही ढली। यह कार्य बहुत पहले संपन्न हो चुका था। जैसे राजा शिव प्रसाद ने लिख वैसे उन्होंने अपनाया। स्पष्ट है की हिंदुस्तानी सैली का प्रवर्तन भारतेंदु ने नही किया। हालांकि उसके पास उसके विकास में। उनकी महत्वपूर्ण भूमिका। अवश्य रही। डॉक्टर बच्चन सिंह ने कहा की राजा शिवप्रसाद की शैली टकसाली शैली किस्म की है। भारतेंदु ने उसी भाषा की लोकोकपायोगी तथा जिंदादिली से भासा में रूपांतरित कर दिया यही शैली आग चलकर प्रेम चंद्र और उपेंद्रनाथ अश्क की परंपरा में समृद्ध हुई। ये दौर नवजागरण काल का दौर था। एक ओर जहां हिंदी को सम्मान और सशक्तिकरण हुआ। वही दूसरी ओर कई संस्कृतियों का अदलाव व बदलाव मिला। भारतेंदु युग हिंदी भाषा का आधुनिक युग कह लाया।
भारत ने भाषाई प्रगति में अपना पहला कदम रखा। जो की अविस्मरणीय था। यूरोप से आई संस्कृत का प्रभाव होते हुए भी भारतीय टंकण मुद्रण और उनसे उधृति भाषाओं का प्रभाव आज तक कभी कम नहीं हुआ अपितु भड़ता ही रहा।
भारत की आठवीं अनुसूची में भाषाओं की झड़ी सी लग गई।
जो की एक गौरवमय अतीत है।
भारतेंदु और भारतेंदु मंडल के अन्य सदस्यों ने अपनी संपूर्ण जिंदगी भाषा के निज सम्मान के लिए समर्पित कर दिए।
धन्यवाद।