मेरा गांव Anand Tripathi द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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मेरा गांव

मुझको शहर नहीं मेरा गांव चाहिए
मुझको शहर नहीं है मेरा गांव चाहिए
आम के बगीचे वाली छांव चाहिए
मुझको शहर नहीं मेरा गांव चाहिए
गर हो इलाज करना तो पत्तों को काट लूं
गर एक आम पाऊं तो आपस में बांट लूं
कागज की बनी कश्ती वो नाव चाहिए
मुझको शहर नहीं मेरा गांव चाहिए
जो पाऊं नमक रोटी खुश होकर झूम लूं
गया का देख बछड़ा माथे से चूम लूं
आधी पूरी कुश्ती के दाव चाहिए।
मुझको शहर नहीं मेरा गांव चाहिए।
उठा पटक जो चलती रहती घर के आंगन में
मुझको जिम्मेदारी वाले पाव चहिए
मुझको शहर नहीं मेरा गांव चाहिए
खेतो में लहलहाती फसल,
लोगो की अपनी अलग नसल
गन्ने धान,और मगन किसान
खेतो में कौवे काव काव चाहिए
मुझको शहर नही मेरा गांव चाहिए
कहा है वो जगह जहा बीता बचपन
कह है वो लोग जो खेले आंगन
कहा है झरना पहाड़ नदिया
कहा है वो खूबसूरत वादियां
किसकी तलहटी को अब अपना कहूं
किसके लिए अब मैं यहां रहूं
जब थे पेड़ पौधे खपरैल औंधे
लाड प्यार, और छोटा संसार
खत लिखकर जताते थे प्यार
वही एक था साधन संचार
जिसको था अपना अधिकार
चिट्ठी कभी जाति थी और अगर संदेश वापस नहीं आता
तो उसमे एक सौंधी महक आती थी,
उसकी यादों को ताज़ा रखने की
उम्मीद जो वर्षो तक रहती थी।
और यही कहती थी,की मुझको अब उस पार जानेकी नाव चाहिए।
गोबर की थाप को कौन भला भूले
सावन के झूले को कौन भला भूले
मंद और शीतल पवन की तन्मयता
आदर के साथ शयन कौन भला भूले
झूला उस पर बैठ कर किया करते थे
सबके संग खट्टी मीठी बातों में हम बस जिया करते थे।
इस जमीन के खातिर सब कुछ त्याग दिया करते थे
जीते थे शान से सुनते थे कान से
रावण सा क्रोध नहीं,ना ही अभिमान थे।
सबके सम्मान थे
चाहे हिंदू हो या वो मुसलमान थे ।
मुझको ऐसे कुछ बीते गांव चाहिए
मुझको शहर नहीं मेरा गांव चाहिए।
आमों की बौराई सागो में चौरई
देवो में महादेव
जिसके घर जाओ बस मजा लेव
खाने में दाल भात
छिलके वाली सब्जी साथ
घूमो बाजार हाट
द्वारे की पूजा और पाठ
टिक्की और पकौड़े चाट
सांझ निहारे बैठे बाट
अपनी लालटेन के साथ
तंबाकू में फसे वो हाथ
गाय लगाते थे जब साथ
मुझको ऐसा गांव चाहिए
कुएं का पानी
नाडा और सानी
खेती और किसानी
इंजन से बहता पानी
गन्ने के खेत
सकूल में लेट
खाली पेट
एग्जाम की डेट
मिठाई वाला सेठ
गाय का केक
मुझको दही नहीं सजाव चाहिए
मुझको शहर नहीं मेरा गांव चाहिए
एक पेड़ की छाव
वो खेतो वाले पाव
जिनको आते देखा आंगन में
उनको गाय का चारा लाते देखा सावन में
शहर शहर नहीं रहा अब
कहीं दूर तलक एक बंजर जमीन सा नजर आ रहा
प्यासे को खरीद के पानी की दो घूट भी नसीब नहीं होती
मरने लगी है जिंदगी लेकिन कभी नहीं रोती
जमाने भर से यह लोग किधर चले
जहां न सांस और ना हवा है उधर चले
मुड़ के ना देखते हैं तसल्ली वर्क्स वह जगह
जहां से बीता इनका अपना बचपन किधर चले
जहा न सुख हैं,ना ही जीवन
कतीले वन जो चुभते है रात दिन
जहर बनके।
सहर क्यूं बना जब सुख ही नही वहा
गांव में रहने से कतराने वाले
एक दिन यही तो आना है।
वहां तो सौच के भी पैसे देने पड़ते है।
ऐसा जीवन जहा आए दिन जीवन पर ढेले पड़ते है।
एक ऐसी सुबह जिसकी शुरुआत की रगों में दौड़ती गंदे नालों की खुशबू
हर वक्त गांव की भीनी खुशबू की याद दिला दी है
जिंदगी संघर्ष कराने के लिए तो इंसान को किस मोड़ पर जाती है
जहां आना है कहां जाना है क्या ठिकाना है एक दिन सबको मर जाना है लेकिन एक बहाना है मेहनत करते जाना है मेहनत करते जाना है
जीवन बहुत विकराल रूप में है
हम हर एक दिन थोड़ा थोड़ा उसमें समा रहे हैं
लेकिन हम फिर भी चलते चले जा रहे हैं
गांव शहर से दूर और थोड़ा मजबूर गुस्से में चूर चूर
क्योंकि शहर गांव के अपनों पर ढा रहा है गहरा कहर
गांव प्रेम का मर्यादा का विरह का वृक्षों का और आदर्श का पुजारी है लेकिन दुनिया माया के जाल में फस कर इन मायावी नगरों से हारी है
कई पुराने सुखनवर जमाने के तराने को गांव के पुराने पेड़ के नीचे
लिखते नजर आते हैं उनके कलाम कलम कागज दवत
जीवन के कई पन्ने धीरे धीरे है पलटते पीछे
चरित्र निर्माण चित्र निर्माण पुरानी दीवारें देखती हैं
खंडहर भी आस लगाए बैठा है कोई चिट्ठी ना कोई संदेश
फिर भी मन से कहता है ए छोड़कर जाने वाले तू कैसा है
मुंह बाय वह कुआ लरजता,और खंडहर घर बार
रो पड़ता अंगना चिल्लाकर छोड़ गया संसार
अब न होगी कोई गलती एक बार बस आजा यार
जिस आंगन तेरी पायल बोली उसको छोड़ गया मझधार
बरखा की बारिश का पानी झुर झुर कर बहता अविराम
नमक तेल से बंधी वो रोटी,या फिर फुलवारी का आम
छोड़ो तुम तो बड़े आदमी,तुमको इनसे अब क्या काम।
जिस माटी की भीनी खुशबू,की तुम करते थे गुणगान
आज उसी को शिरोधार्य करना तुमको स्वीकार नहीं
जिसने तेरे अंग को सीचा,उसको इतना अधिकार नही
जाओ तुम भी क्या याद रखोगे कैसे थे हम और हमारी यारी
आज जो तेरे लिए है सूखे, कलिया वो थी कितनी न्यारी
जीवन की ऊंचाई छूकर, भूल गए हो तुम हमको
मुझपर कितना झूले हो तुम,याद करो तुम उस दिन को
हमने तुमको आज भी समझा,बस तुमने हमको छोड़ दिया
सहरो के उस रहन सहन ने तुझको हमसे मोड़ दिया।
जाते हो तो जाओ ना,पर एक वादा करते जाना
मरने से एक क्षण पहले अपने मुखड़ा दिखलाना
हम भी देखेंगे की कैसा है चेहरा तेरा
अगर झुकी पलके तो समझेंगे कुछ तो मन मैला तेरा
अगर हुआ है सोच तो आजाना अलबेला
चारो द्वार खुला रखेगा आज भी ये आंगन तेरा
मैं भी तुझको आम खिलाऊं बिना किसी मौसम के
अब तो आजा देर न कर कैसी खाता हुई हमसे
वहां शहर में रहते रहते तुमको बड़े बरस बीते
अंग्रेजी शहरों में रहकर अंग्रेजी भी हो पीते
लेकिन अब एक बात बताओ आओगे
जो तेरे थे वह चले गए अब आकर पछताओगे
देखो कितना सुंदर था वो अतीत का एक बगीचा
आकर बैठो छाव में उसके जिसमे तेरा जीवन बीता।
तू कितना भी बने कठोर
मेरे कदम है तेरी ओर
अगर नही है तुझको आस
आकर देख जरा सा पास
तुझको एक सुखी चादर में लिपटा हुआ प्यार मिलेगा
शहर से ज्यादा प्यार मिलेगा।
गांव को मत भूलना
असली स्पति वो है।
ना की ये।