Mujahida - Hakk ki Jung - 37 books and stories free download online pdf in Hindi

मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 37

भाग 37

केस अपनी जगह चल रहा था और जिन्दगी अपनी जगह। शहर क्या पूरा मुल्क ही फैसले के इन्तजार में था। यही कि फिज़ा क्या कर रही है? उसका अगला कदम क्या होगा? तीन तलाक को लेकर कोर्ट क्या फैसला सुनाता है? बगैहरा-बगैहरा। राजनैतिक पार्टियां अपनी रोटियाँ सेकने में लगी थीं और फिज़ा की खीचा तानी हो रही थी। सभी उसे अपनी पार्टी का मील का पत्थर मान रहे थे। एक ही नही बल्कि कई पार्टियां उसे अपने यहाँ आने का न्योता दे चुकी थीं। लेकिन अक्सर ऐसी आपा-धापी इन्सान को गुमराह कर देती है। समझ में नही आता क्या सही है क्या गलत? और उसे किधर जाना चाहिये? ऐसी ही कश-म-कश में फसीं हुई थी फिज़ा। कुछ खास करीबी लोगों के अलावा तो कोई ऐसा था नही जिससे राय मशवरा लिया जा सके। आखिर जो पार्टी सत्ता में थी उसी का जोर चल पड़ा और फिज़ा ने परचा भर दिया।
यहाँ भी उसकी उठा-पटक शुरु हो चुकी थी। इस शहर से उस शहर करते-करते छ: महीने फिर गुजर गये। नतीजा कोई खास नही निकला था। लेकिन जद्दोजहद जारी थी। औरत के इम्तहान थे, जो इतनी जल्दी पूरे होने वाले नही थे। फिर भी वह डट कर मुकाबला कर रही थी।
उसके हौसले को सलाम करते हुये बहुत सी औरतें ऐसी भी थी जिन्होनें खुद को बदला था और कुछ तो उसकी तरह मजबूत भी बनी थीं। और कुछ औरतें जो मियाँ की लाडली थीं उन्हें फिज़ा की ये हरकतें फूटी आँख नही सुहा रही थीं। वो तो जब-तब उसे बुरा-भला कहने और औरतों को बिगाड़ने का इल्ज़ाम देने से नही चूकती थीं।
शहर की ये बड़ी हलचल धीरे-धीरे शहर के उस कमरें की तरफ बढ़ने लगी थी, जो अरसे से अफ़सुर्दा पड़ा था। जहाँ साँसों की आवाज भी चलने से पहले तर्स खाती थी। कहने को तो ये कमरा शहर की रौनकों के बीच में था मगर अन्दर से एकदम खोखला। वहाँ भी एक औरत बरसों से जिन्दगी के काँटों को चुन रही थी। वह तलाक के नासूर से नही बल्कि खुशहाल जिन्दगी के नाटक से टूटी हुई थी। ऐसे लोगों के पास कहने को तो सब कुछ होता है मगर अन्दर से सब का सब टूटा हुआ। किसी आइने की टूटी हुई किरचों के माफिक, जिन किरचों को खूबसूरती का जामा पहना दिया गया हो और वो अन्दर-ही अन्दर अपने अहज़ान से चीख रही हों। जख्मों से खून रिस रहा हो और वो बाहर निकलने के लिये तड़प रहीं हों।
तन्हाई की कलम से लब्जों का रेला ऐसे मौकों पर बेखौफ़ निकल पड़ता था। बात चेतना की हो रही है। चेतना फिज़ा की तरह ही उसी शहर का एक हिस्सा थी। जिन्दगी को जीने की जद्दोजहद ही उसका सबसे बड़ा गुनाह था। वह खुद से थोड़ा सा प्यार करने लगी थी यह उसका दूसरा गुनाह था और उसका तीसरा गुनाह था कि अपनी बेवाक कलम के जरिये समाज का आइना दिखाना चाहती थी। इन्ही गुनाहों ने उसे एक कमरें में कैद कर दिया था। जो उसके गुनाहों की सजा थी। लेकिन ऐसे में अल्लाह ने उसे एक तोहफा भी बख्शा था जिससे उसके कलम की धार को तेज कर दिया था। उसने अपने गमों की स्याही से ज्यादा हिम्मत की स्याही का इस्तेमाल किया था। उसकी कहानियाँ हकीकत को हू-बहू उतार कर जब छपती थी तो न जाने कितनी मज़लूम औरतों के सीने में धँस जातीं।
बचपन से वहीं पली-बड़ी थी, इसलिये शहर की आवो-हवा से अच्छी तरह वाकिफ थी। फिज़ा के इस कदम के बारें में जब उसने सुना तो उसे यकीन नही हुआ, कि उसके शहर में भी कोई तूफानी औरत पैदा हो चुकी थी उसे फक्र होने लगा था, अपने शहर पर, औरत जात पर और खुद पर भी। अगर वह खुद औरत न होती तो कैसे मलाला में खुद को देखती या फिज़ा की हिम्मत से तसल्ली ले पाती? औरत, औरत को खुद से जोड़ पाती है। उसे सरहाती है, नाज़ करती है। उस छोटे से शहर की लड़की का यूँ जुल्म के खिलाफ फट जाना और अपनी हिम्मत से मुल्क को हिला देना छोटी बात नही थी। ये अपने आप में बहुत बड़ी बात थी।
अभी तक उसके ज़हन में मलाला यूसुफ जई की तस्वीर सबसे ऊपरी हिस्से में बैठी हुई थी। जिसने नाइन्साफी को मंजूर नही किया था। अपनी आवाज को बिना किसी तर्स के उछाला था। औरतों की पढ़ाई के पक्ष में उसने खुल कर जंग छेड़ी थी। हलाकिं इस जंग में उसे कितना कुछ सहना पड़ा था? फिर भी उसने हार नही मानी थी। इस बात ने उसे हिला कर रख दिया था कि केवल पन्द्रह बरस की छोटी सी उम्र में ही तालिबानी उसके तेवर से खौफजदा हो गये थे और उस पर जानलेवा हमला हुआ था। वह मौत के मुँह में जाकर वापस लौटी थी। सिर में गोली लगी, आठ दिन कोमा में रहने के बाद वापस आई और फिर से लड़ाई को जारी रखा था। वो हारी नही, डरी नही, पीछे नही हटी और आखिर दुश्मनों को घुटने टेकने ही पड़े। ये मलाला की अकेले की आवाज़ नही थी। उन सभी औरतों की आवाज़ थी जो पढ़ना चाहती थी। अपना मुकाम हासिल करना चाहती थीं और जीना चाहती थीं। पहली आवाज़ तो किसी जाँवाज को ही उठानी पड़ती है फिर तो कारवाँ बन ही जाता है और साथ चलने लगता है। मगर जो पहले कदम पर साथ देता है वो हमेशा याद रहता है। सो ये पहल मलाला ने की थी और बेखौफ़ की थी। जिसे बस आगे बढ़ाना था।
फिज़ा के अन्दर भी उसे दूसरी मलाला की तस्वीर नजर आई थी। उसे लगा था फिज़ा भारत की मलाला साबित होगी। वाकई उसने ऐसा ही काम करने की ठानी थी। उसकी कहानी नई नही थी बस उसका बर्ताव नया था। सदियों से औरतों के आँसुओं पर ये समाज अपने खुशियों की इमारत खड़ी करता आ रहा है। मगर वह ये भूल जाता है कि किसी के आँसुओं पर महल खड़े नही किये जा सकते। आँसुओं में हमेशा खंडहर ही बचते हैं। हालात बदलने हैं तो बोलना सीखना पड़ेगा। नही तो गूँगें लोगों को बस मतलब भर ही मिलता है।
चेतना ने अपनी नाड़ीओ में दौड़ रहे उस ठंडे उबाल को महसूस किया तो उसका चेहरा उम्मीद से खिल उठा। उसने आगाज़ किया था आज एक नई कहानी का। जिस पर लिखने के लिये उसकी कलम पैनी हो गयी थी। उस कलम की धार से वह फिज़ा की कहानी लिखने को बेकरार हो गयी थी। फिज़ा को लब्जों के जरिये लोगों के जहन में उतारने से पहले वह उससे मिलना चाहती थी। वह अपने शहर की उस झाँसी की रानी को सलाम करना चाहती थी। उसे नज़दीक से देखना चाहती थी। उसकी हिम्मत और जज्बे को उन औरतों तक पहुचाँना चाहती थी जो जीना भूल चुकी थीं। जिन्दगी को किरहड़-किरहड़ कर काट रही थीं और डरती भी थीं, कहीँ कोई अनहोनी न हो जाये, जिसका खामियाजा उनके सिर पर फोड़ा जाये। वो उस सज़ा से भी तर्सज़दा थी जिसे वो विना किसी गुनाह के भुगतती आ रही थीं।
फिज़ा ऐसी औरतों के लिये मसीहा साबित हो सकती थी। उनके लिये मिसाल बन सकती थी। चेतना दिल-ही-दिल में बहुत खुश थी। वह जल्दी ही उस दूसरी मलाला से एक जोश भरी मुलाकात करना चाहती थी। जानना चाहती थी कि कहाँ से आई इतनी ताकत और हिम्मत? कैसे वो दूसरी औरतों से अलग है?
उसने दिल-ही-दिल में धीरे से कहा- 'हमारे शहर की मलाला...'
चेतना आज इस प्रकृतिविज्ञान को समझ चुकी थी, जो वैसे तो सदियों पुराना है मगर कभी इस पर उस तरह से गौर नही किया था उसने, कि एक ही मिट्टी से अलग-अलग तरह के पेड़ और पौधे उगाये जा सकते हैं। गौरतलब है कि बीज कौन सा बोया गया? यानि की बीज की रोपाई पर पूरी कहानी टिकी होती है। सब कुछ हमारे ही हाथ में है, कुछ भी हमारी पकड़ से दूर नही। फिर भी हम यहाँ-वहाँ शिकवे-शिकायतें कर भटकते फिरते हैं।
बाहर की दुनियां जितनी मर्द के लिये है उतनी औरत के लिये भी है। कोई एक, कैसे तय कर सकता है दूसरे की हदों को?
चेतना ने तय कर लिया था वह आज ही फिज़ा से मिलेगी। वो भी बगैर किसी को बताये। इस कैद को वह खुद ही तोड़ेगी। कोई मसीहा नही आयेगा उसे बाहर निकालने के लिये। उसने खुद को दहशत की जँजीरों से आजाद किया और जब इरादें मजबूत हों तो रास्तें अपने आप ही बन जाते हैं।
फिज़ा का घर पता करना कोई मुश्किल काम नही था। पूरे शहर की आवो-हवा में उसका नाम घुल चुका था। बच्चा-बच्चा उसके नाम से वाकिफ़ हो चुका था।
चेतना को अपनें घर से निकलने में मशक्कत करनी पड़ी थी। थोड़ा सा झूठ भी बोलना पड़ा था। वह जानती थी कि कोई नही चाहेगा कि वह भी फिज़ा के माफिक दमदार और बेखौफ बने। मर्द को हमेशा एक डरी हुई औरत पसंद होती है। कीड़े से डरने वाली, छिपकली से डरने वाली और मर्द से डरने वाली। अपने शौहर के अलावा भी हर मर्द से डरने वाली।
क्रमश:




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