मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 36 Chaya Agarwal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 36

भाग 36

फिज़ा के मामू जान दो-चार दिन रूक कर वापस लौट गये थे। जाते वक्त उन्होनें अपनी जेब से एक सौ का नोट निकाल कर फिज़ा को दिया था। जिसे उन्होनें चुपचाप अकेले में दिया था। वह जानते थे उनकी आपा के घर की औकात सौ रूपये की नही है उससे कहीँ बहुत ज्यादा है। इससे ज्यादा तो वह लोग घर के नौकरों को दे देतें हैं। मगर क्या करते उनकी जेब की हैसियत इससे ज्यादा नही थी।
अपने जानिब से उन्होने खान साहब को काफी समझाया भी था। नतीजा सिफर निकला। जाते-जाते वह इतना जरुर कह गये थे- "आपा, कभी भी, कैसी भी जरूरत हो तो जरूर बताना। हम जिस लायक भी हैं हमेशा आगे रहेंगे।"
उनकी इस बात से शबीना का दिल भर आया था। वह जानती थी कि उसका भाई उतना रईस नही है, फिर भी उसका दिल कितना बड़ा है? उसके लिये अपनी जेबें खाली करने को तैयार है। दुनिया कितनी अजीब है? जिनको दिल देती है उनके हाथ खाली रखती है और जिनका घर दालान नोटों से भरा होता हैं उनके दिल की जगह सिर्फ़ मांस का लोथड़ा होता है। "वाह री दुनिया! तुझे हमारा भाई ही मिला सताने को?"
शबीना अपने भाई के जाने के बाद अफ़सुर्दा सी हो गयी थी। उसे अफसोस था कि ऐसे माहौल के अस्बाब के चलते वह भाई के बच्चों के लिये तोहफे नही भेज पाई थी। जिसका बच्चें इन्तजार कर रहे होगें। फिर भी उसने भाई की जेब में जबरदस्ती कुछ रूपये ठूस दिये थे, तोहफे न सही नगद ही से अपनी पसंद का कुछ खरीद लेगें।
खान साहब उन्हें स्टेशन तक छोड़ने गये थे। शबीना को बड़ा फ़क्र होता था अपने शौहर पर, उन्होंने कभी भी उसके मायके वालों की हौसला अफ़साई में कोई कमी नही छोड़ी थी। ना ही कभी उनकी गरीबी को लेकर कोई तौहीन ही की थी। उन्होंने हमेशा अपने जानिब से उन लोगों की मदद करने की कोशिश भी की, मगर उन लोगों ने हर बार इन्कार कर दिया था। ये अलग बात है।
स्टेशन पर वो दोनों काफी देर बात करते रहे थे। ट्रेन आने में वक्त था। आज पहली बार खान साहब ने आँखें भर कर फिज़ा के मामू को बताया था- " छोटे, अब हमें कब्रिस्तान में जगह नही मिलेगी। हम बिरादरी से अलग कर दिये गये हैं। ऐसा फतव़ा जारी हुआ है। अब तो लगता है अल्लाह को चेहरा कैसे दिखायेंगे? कभी-कभी तो लगता है कि वाकई हम गुनाहगार हैं।"
फिज़ा के मामू को उनका टूटना बिल्कुल अच्छा नही लगा था। आज पहली बार उन्हें अपनी गलती का अहसास हो रहा था कि क्यों रोका था उसने खान साहब को मुकदमा लड़ने से? वो तो सभी मुसलमान औरतों के लिये नेक काम कर रहे हैं। ऐसे में हमें भी उनका साथ देना चाहिये नाकि तोड़ना चाहिये।
"आप ऐसा क्यों सोचते हैं? अगर आप टूटेंगे तो आपा और फिज़ा का क्या होगा? आप गलत नही हैं जो गलत हैं उनको तर्सजद़ा होना चाहिये। जब अल्लाह सब देख ही रहा है तो आपको कोई हक़ नही खुद को कमज़ोर करने का। आप खुदा के बंदें है। आप कभी कुछ नारास्ती नही कर सकते। ये झूठे नालिश लगाने वाले नही जानते इन्हें कितना भुगतना पड़ेगा? आप तसल्ली और हिम्मत रखें। आप बदनसीब नही हैं। आप खुश नसीब हैं आपको फिज़ा जैसी जाँ बाज बेटी मिली है।"
"काश हम आपकी बातों को तशरीह दे पाते।" अभी भी उनकी मायूसी बरकरार थी। आज पता नही क्या हो गया था उन्हें वो रोज से अलग लग रहे थे। कई बार ये लगातार लड़ाई की लम्बी थकान भी हो सकती है और कुछ नही।
"क्या मैं आपको हारा हुआ मान लूँ? क्या आप चाहते हैं लोग आप पर अत्फ़ करें? पूरा मुल्क आपके साथ है। अगर कुछ नामुराद नही है तो क्या हुआ? चन्द लोगों के लिये आप पूरे मुल्क को छोड़ देगें क्या?"
"नही तुम सही कह रहे हो। हम थोड़े कमजोर पड़ गये थे। पर अब ऐसा नही होगा। तुम सब हमारे साथ हो।"
बातों का सिलसिला चल ही रहा था कि ट्रेन ने विसिल दे दी। भारी मन से उन्होनें रुख्सत किया। उसके बाद वह कुछ देर स्टेशन पर बनी बैन्च पर ही बैठे रहे।
मुकदमें की अगली तारीख आने वाली थी इससे पहले शबीना अज़मेर शरीफ जाना चाहती थी। उसे यकीन था वहाँ हर मुराद पूरी होती है। वैसे भी उनकी मुराद किसी को नुकसान पहुँचाना नही बल्कि इन्साफ की दरकार थी और अल्लाह भी नाइन्साफी नही करता है। वो तो अपने बन्दों की हिफ़ाजत करता है। उसने ये दुनिया सबके लिये बराबर बनाई है।
दो दिन के बाद जब वो लोग वहाँ से लौटे तो उस वक्त उन लोगों के दिल में एक अलग सा सुकून था, एक यकीन था जिसने उनके चेहरे की रौनक को बढ़ा दिया था। नयी सी ताज़गी और जोश था जिसे वह महसूस कर सकते थे। दिमागी टूटन कम हुई थी।
इस बार फिर से तारीख पर आरिज़ से आमना-सामना हुआ। मगर इस बार हालात अलग थे। उसके हौसले पस्त थे, चूकिं इस मुकदमें की हलचल पूरे मुल्क में मच चुकी थी। सो वहाँ हिफ़ाजत का पूरा इन्तजाम था इसलिये आरिज़ की हिम्मत भी उतनी जानलेवा नही थी।
कुछ राजनैतिक पार्टियां भी सक्रिय होने लगी थी। जो फिज़ा के हिम्मत और जज्बे को देख कर उसका फायदा उठाना चाहती थीं। वो चाहते थे कि फिज़ा उनकी पार्टी के लिये काम करे। इससे उनकी पार्टी को भी फायदा होगा और फिज़ा को भी।
उस दिन सुबह-सुबह ईंशा की नमाज़ के फौरन बाद ही लैड लाइन का फोन बजा था। उधर से बताया गया कि 'पार्टी के जिला अध्यक्ष फिज़ा से मिलना चाहते हैं। अगर आप कहें तो हम घर आ जायें।'
विना किसी ना नुकुर के खान साहब ने उन्हें घर पर बुला लिया। उनको भी लगने लगा था कि अगर राजनैतिक पार्टियों का साथ मिल जायेगा तो उनकी लड़ाई आसान हो जायेगी। यही विचार-विमर्श उन्होंने किया था। फिज़ा को भी कोई एतराज नही था। वह भी चाहती थी कि सत्तारूढ़ पार्टी का साथ मिलने से रास्ते की मुश्किलें कम होगीं। लोगों से मिलना होगा। हो सकता है कोई-न-कोई रास्ता निकल आये। तब उसे इतनी भागदौड़ न करनी पड़े। दूसरे हिफ़ाजत भी और बेहतर तरीके से होगी। कुल मिला कर ये प्रस्ताव अच्छा था और इसमें किसी तरह का कोई नुकसान नही था। वैसे तो उसने हमेशा रिश्तों की बुनियाद को जज्बातों से ही रखा था पर न जाने क्यों आज ठोकर खाने के बाद दिमाग की कमी महसूस हो रही थी। उसे समझ में आ गया था खाली दिल के सहारे से जिन्दगी नही काटी जा सकती है।
वह पूरी तरह से सक्रिय होने को तैयार भी थी, बस दिक्कत थी तो यह कि पार्टी का चुनाव सही हो। इस बात को लेकर वह पूरी तरह से मुतमईन नही थी। देखते-देखते ये खबर भी अखबारों की बड़ी न्यूज बन गयी थी। सभी न्यूज चैनलों ने इसे अपने-अपने ठंग से परोसा था। लोगों को भी इस बड़ी खबर का, जिसमें आगे क्या होने वाला है? बेतावी से इन्तजार रहने लगा था। आखिर उसका उठाया हुआ कदम छोटा-मोटा था भी नही। ना हि हिम्मत छोटी थी और ना हि कदम। उसके एन.जी.ओ. से जुड़ी औरतें भी हर नयी खबर का बेसब्री से इन्तजार करती थीं। इससे उनकी हिम्मत भी दस गुना बढ़ जाती थी।
क्रमश: