प्रेम Mayank Saxena Honey द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम

प्रेम

'प्रेम' 78 प्रतिशत अंकों से उत्तीर्ण होकर दसवीं कक्षा में पहुँच गया था। जीवन में एक सफ़ल और नामचीन अभियन्ता बनने के सपने देखने वाला वो सोलह वर्षीय प्रेम मुखाकृति से कुछ विशिष्ट आकर्षक तो नहीं था किन्तु उसका व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली और आकर्षक था। हल्का साँवला, अच्छी कद काठी का स्वामी 'प्रेम' स्वभाव से बहुत ही विनोदी था। मस्ती-मज़ाक तो जैसे उसका हर समय शुरू ही रहता था। शायद ही उसके विद्यालय में कोई उसका दुश्मन रहा हो। कक्षाचार्य या प्रधानाचार्य से यदि विद्यार्थी समूह को कोई अनुरोध करना होता था तो वो प्रेम के माध्यम से ही अपनी बात पहुँचवाते थे और अधिकांशतः उन्हें सफलता भी मिलती थी। उसकी एक सहपाठी 'प्रीत', जो उसके साथ पिछले तीन वर्षों से उसी विद्यालय में पढ़ रही थी, उसकी सबसे अच्छी दोस्तों में थी और ये दोस्ती का हाथ प्रीत की तरफ से ही बढ़ाया गया था। प्रीत के चेहरे से एक अलग ही ओज, एक चमक दिखाई देती थी। उस किशोरी प्रीत के मुखमण्डल की आभा जैसे देखते ही बनती थी। कमलनयनी उस प्रीत के गुलाब की पंखुड़ियाँ सदृश गुलाबी होंठ उसके स्वेतवर्णीय देह की आभा को सुशोभित करते थे। महान देह की स्वामिनी, प्रीत, का ह्रदय भी उतना ही स्वच्छ और पवित्र था। शायद यही आकर्षण, प्रेम को प्रीत की मित्रता स्वीकार करने में प्रीत का अधिवक्ता बना हो। किन्तु प्रेम और प्रीत वर्तमान में बहुत ही अच्छे दोस्त बन चुके थे और कभी आपस में कोई भी बात नहीं छुपाते थे। प्रेम और प्रीत दोनों एक निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार से सम्बंधित थे अतः दोनों अपनी शिक्षा को लेकर भी उतने ही गंभीर रहते थे। प्रेम और प्रीत दोनों की इस बार बोर्ड की परीक्षा थी और उनकी आशा थी कि अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होकर छात्रवृत्ति और मेधावी आरक्षित सीट पर एक नामचीन विद्यालय में प्रवेश लेंगे क्योंकि उनका वर्तमान विद्यालय दसवीं तक ही अध्यापन सेवा उपलब्ध करवाता था।

 

इसी वर्ष एक महिला अध्यापिका 'कविता' उनके विद्यालय से जुड़ी थी। गणित में महारथ हासिल उस अध्यापिका को पढ़ाने के लिए प्रेम और प्रीत की ही कक्षा दी गई थी। साहित्यिक नाम वाली अध्यापिका 'कविता' ने पिछले ही वर्ष शिक्षाशास्त्र में स्नातक (बी.एड.) 85 प्रतिशत अंकों के साथ उत्तीर्ण किया था। कविता एक 25 वर्षीय युवती थी और अपने काम में किसी अनुभवी की भाँति ही मेहनत किया करती थी। उसके पढ़ाने के तरीके से विद्यार्थियों को पूरा भरोसा हो चला था कि इस बार किसी विषय में सही या न सही किन्तु गणित में विशेष-योग्यता (75 प्रतिशत से अधिक अंक) पक्की है। लेकिन पूरी मेहनत करने के बाद भी प्रेम को गणित में कुछ भी समझ नहीं आता था। कई बार प्रीत उसे सवाल हल करने का तरीका समझाने की कोशिश भी करती किन्तु विफल रहती। दो-तीन महीने निकल जाने के पश्चात कविता भी अपने कमज़ोर विद्यार्थी प्रेम को पहचान चुकी थी। उस तीन महीनों में गणित विषय में न सही पर उसके प्रभावशाली व्यक्तित्व ने कविता पर भी जादू कर दिया था। अतः वो प्रेम को गणितीय अवधारणा समझाने में पूर्व से अधिक प्रयास करने लगी। बात बात पर विद्यार्थियों को डाँटने वाली अध्यापिका कविता चाहने पर भी प्रेम को नहीं डाँट पाती थी। शायद उसे भी प्रेम में एक भावी सफल अभियंता स्पष्ट दिख रहा था।

 

एक रोज विद्यालय के पार्क की एक बेंच पर बैठे प्रीत और प्रेम आपस में बात करने लगे:

प्रीत: "प्रेम तुझे गणित में अभी भी परेशानी आती है क्या?"

प्रेम: "नहीं प्रीत। अभी पहले जितनी परेशानी नहीं आती। कविता मैम अच्छा पढ़ाती हैं।"

प्रीत: "इतना भी अच्छा नहीं पढ़ाती। पता नहीं क्यों हमारे क्लास के सभी लड़के उनके लिए पागल हो रखे हैं। ऐसे तो दिखने में भी कोई विश्व सुंदरी नहीं है।"

प्रेम: "छोड़ो प्रीत इस सब बातों को। हमें अपना दसवीं बचाना है और फिर आज के युग में ऐसा कौन है जो अपना खाली समय में बिना पैसा लिए भी सेवा दे।"

प्रीत: "क्या मतलब तेरा?"

प्रेम: "वो मुझे कक्षा के अतिरिक्त भी पढ़ा देती हैं। कोई पैसा नहीं माँगा उसके लिए कभी भी।"

प्रीत: "मतलब रोजाना तू शारीरिक शिक्षा वाली कक्षा से गायब होकर उन्हीं के पास होता है।"

प्रेम: "हाँ तो इसमें गलत क्या है?"

प्रीत: "तू नहीं समझ रहा प्रेम। कैसे समझाऊ तुझे। अच्छा वो शादीशुदा हैं?"

प्रेम: "मुझे क्या पता, वैसे कभी माँग में उनके सिन्दूर देखा तो नहीं। शायद हों या...."

प्रीत: "एक बात बता पूरी कक्षा में वो सबको डाँटती हैं, मुझे तो शायद सबसे ज़्यादा ही डांटती है, तुझे क्यों नहीं डाँटती?"

प्रेम: "जैसा तुम सोच रही हो प्रीत वैसा कुछ नहीं है।"

 

इसी बीच कविता कक्षा लेने जाते वक़्त गलियारे से प्रीत और प्रेम को पार्क में साथ बैठे वार्तालाप करते देख विद्यालय के चौकीदार भैया को आदेशित करती है कि वह जाएँ और प्रेम और प्रीत को कक्षा में पहुँचने के लिए ज़ोरदार डाँट लगाए। भैया आदेश का पालन करने जाते हैं लेकिन उन दोनों से बिना कुछ उग्र हुए शांत भाव से बस इतना ही कह पाते हैं कि कविता मैम ने आप दोनों को यहाँ बैठे देखा था तो वो मुझे आपको कक्षा में जाने का बोलने के लिए कह कर गई हैं।

प्रीत इतना सुनकर वहां से ये बोलकर कि "मुझे तो इस कविता पर दो कौड़ी का भरोसा नहीं है" वहां से भाग जाती है।

 

प्रेम प्रीत के उस दिन के व्यवहार को जैसे समझ ही नहीं पा रहा था। आखिर उसकी समस्या क्या है, क्या वो मुझे गलत समझ रही है, क्या वो मैम को। निःस्वार्थ भाव से सेवा करने वाली कविता मैम को यदि इसकी गलती से भी भनक लगी तो उन्हें कितना दुःख होगा ! मेरे बारे में आखिर वो क्या सोचेंगी ! इसी पशोपेश में प्रेम ने निर्णय लिया कि कुछ दिन और शेष हैं बोर्ड परीक्षा में, तो सही रहेगा यदि ऐसी किसी भी वार्तालाप से वो स्वयं को दूर रख पाए।

 

दिन निकलते गए। कभी किसी खाली कक्षा में, कभी मध्याहन-भोजन के समय तो कभी गणित की कक्षा के बाद कविता प्रेम को ऐसे ही पढ़ाती रही। यदि कक्षा का कोई और लड़का या लड़की वही गणितीय अवधारणा या संप्रत्यय प्रेम के साथ बैठकर पढ़ने को रुक जाता तो कविता मैम की असहजता को आसानी से अनुभव कर पाता। यद्यपि ऐसा अनुभव किसी को भी उस समय नहीं होता था जब कविता एकांत में प्रेम को पढ़ाती थी। इस सब के चलते प्रेम के काफी पुरुष दोस्त उससे दूर रहने लगे थे, या किशोरावस्था का एक विशेष प्रभाव कह लो जिसके चलते प्रेम के पुरुष-मित्र उन सभी के मन को भाने वाली ‘कविता’ की निकटता प्रेम की तरफ स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। एकांत में तो अब वो भी प्रेम से मस्ती मज़ाक करने लगी थी। शायद दैनिक मेल-मिलाप दोनों को एक अच्छा दोस्त बना रहा था, फिर चाहें वह अध्ययन हेतु ही क्यों न था। अब तो कभी कभी कविता मंद आवृत्ति या निम्न आयाम से प्रेम के सर पर तमाचा भी लगा देती थी। लेकिन इस सब के परे गणित में प्रेम का प्रदर्शन पहले से अच्छा दिखाई दे रहा था।

 

प्रेम अब प्रीत से हास्य-विनोद तो कर लेता था लेकिन कविता को लेकर कोई बात करने की मनोदशा में नहीं आ पाता था क्योंकि वो नहीं चाहता था कि कविता मैम के इस समर्पण का बदला उनकी बदनामी हो। कहीं प्रेम और प्रीत की बात कोई सुन ले तो? कहीं प्रेम और प्रीत की बात कविता मैम सुन लें तो? बिल्कुल नहीं। इसलिए वो ऐसी बातचीतों से बचने लगा जिसका शीर्षक वो अध्यापिका होती थी।

 

समय निकलता रहा और बोर्ड की परीक्षा आरम्भ होने में मात्र 15 ही दिन का समय शेष बचा। बोर्ड परीक्षा से पहले विद्यालय ने विद्यार्थियों को स्वयं से तैयारी करने के लिए मुक्त कर दिया, छुट्टियाँ दे दी, ताकि विद्यार्थी अपना अभ्यास करते रहे। प्रेम को गणित के कुछ शीर्षकों में अभी भी समस्या आ रही थी जिसके लिए वो विद्यालय जाता रहा। किन्तु उस निःस्वार्थ सेविका के अंत से उसे कोई भी सेवा प्राप्त न हो पा रही थी क्योंकि दसवीं के विद्यार्थियों की छुट्टी के चलते कविता मैम की नियुक्ति अन्य कक्षाओं में कर दी गई थी जिसके चलते अन्यों के लिए उनकी उपलब्धता शून्य हो चली थी।

 

एक दिन प्रेम जैसे तैसे पता करके कविता की उस समय की कक्षा के बाहर ही जाकर खड़ा हो गया। कक्षा समाप्त होने पर कविता ने उसके आगमन का कारण पूछा तो प्रेम ने बता दिया कि उसे कुछ अवधारणाओं, संप्रत्ययों को समझने में अभी भी समस्या आ रही है जो कि उनके विषय से सम्बंधित है। वो अब तक के समय का पहली बार था जब कविता ने प्रेम को स्वयं की उसके लिए उपलब्धता पर अपनी अस्वीकृति दी थी। कविता ने स्पष्ट इंकार कर दिया कि उसके पास एक भी मिनट वर्तमान में खाली नहीं है, क्योंकि विद्यालय का काम पूर्व की तुलना में अधिक हो चुका है। प्रेम ने एक अच्छे विद्यार्थी की भाँति उनसे अनुनय विनय की एक प्रक्रिया तक की, किन्तु मैम अब वैसी मैम नहीं दिख रही थी जैसी वो थी।

"कविता मैम ने तो अपना पूर्ण समर्पण और सेवा दी किन्तु अब जब उन्हें समय का अभाव है तो उसे मैम को गलत नहीं समझना चाहिए; आखिर समय की बेड़ियों से भला कौन बच सका है।" निराश मन से वो किशोर ये सोचता हुआ कक्ष के बाहर से चल दिया कि कविता ने उसे आवाज़ लगाई, "प्रेम..."

प्रेम वापस मुड़ा और बोला: "जी मैम"

कविता: "उदास क्यों हो रहे हो?"

प्रेम: "नहीं, मैम, उदास.... नहीं तो, बस सोच रहा था कम अंक आए या अनुत्तीर्ण हो गया तो मेरा सपना धरातल तक न आ सकेगा"

कविता: "अच्छा ठीक है ज़्यादा दार्शनिक न बनो, मेरा नंबर लिखो, दिक्कत हो तो सन्देश भेजना।"

प्रेम: "क्या सन्देश पर गणितीय अवधारणाओं का वर्णन या अभ्यास संभव है? मैम एक दो दिन बस और पढ़ा दो मैं आपका सदैव ऋणी रहूँगा"

कविता: "अच्छा ज़्यादा वज़नदार शब्द फेंक कर न मारो। अगर समय मिलेगा तो बताऊंगी। अभी जाओ"

 

इसके उपरान्त प्रेम गणित सम्बन्धी समस्या के लिए कविता को सन्देश भेजता तो बहुत समय के बाद और अधिकांशतः तो रात्रि के समय उसको उत्तर प्राप्त होता और उस पर भी प्रेम को कुछ समझ नहीं आता कि कैसा स्पष्टीकरण है उस प्रश्न का। उसका समझाने का अनुरोध अब सन्देश में भी शुरू हो गया। शायद कोई और विद्यार्थी होता तो इस तरह परेशान करने पर ज़ोरदार डाँट खा गया होता या तकनीकी प्रयोग से उसके सन्देश आगमन को पूर्णतया निषिद्ध कर दिया जाता, रोक दिया जाता, किन्तु वह तो प्रेम था।

 

गणित की परीक्षा में अब पाँच दिन ही शेष थे कि एक दिन कविता ने प्रेम को सामने से अपना पता प्रेषित किया और कहा "तुम आकर पढ़ सकते हो पर मुझे अपने घर में भीड़ नहीं चाहिए और किसी को मत बताना कि मेरे यहाँ पढ़ने आ रहे हो अन्यथा बात जब फैलेगी तो सबको लगेगा प्रेम को क्यों और अन्यों को क्यों नहीं। इससे मेरे अच्छे शिक्षक होने पर प्रश्न चिन्ह लगेगा। तुम खाली तो हो न?

प्रेम ने प्रत्युत्तर दिया: "जी मैम मैं तो परीक्षा तक खाली ही खाली हूँ।"

सामने से कविता ने पुनः सन्देश भेजा: "न बाबा न इतना समय नहीं है मेरे पास। बस आज पढ़ा सकती हूँ वो भी कल सुबह वापस विद्यालय है। "

प्रेम ने उत्तर दिया: "रात में देर तक पढ़ा देना। बस मेरे अच्छे अंक आ जाएँ।"

कविता ने प्रत्युत्तर दिया: "अब आओगे भी या समय व्यर्थ नष्ट करने की आदत हो गई।"

 

प्रेम कविता के मान सम्मान के दृष्टिगत अपने परिवार को ये बोलकर "दोस्तों के साथ पढ़ना है तो कल सुबह ही आऊंगा" वहां से अपनी साइकिल उठाकर उस स्थान पहुँचा जहाँ का पता कविता ने उसे दिया था। कविता का घर काफी आधुनिक तरीकों से बना हुआ था शायद किसी महान वास्तुविद द्वारा उस घर की संरचना बनाई गई हो। प्रेम ने प्रवेश द्वार पर लगी घण्टी बजाई कि कविता ने आकर दरवाज़ा खोला और उसे घर के अंदर प्रवेश दिया। घर के अंदर कविता मैम की तस्वीर में साथ में कोई पुरुष भी थे। उत्सुकतावश प्रेम ने कविता से उनका परिचय पूछा तो उत्तर सुनकर वो स्तब्ध रह गया।

कविता बोली: "ये मेरे पति हैं।"

प्रेम: "तो सर से मिलवाएंगी नहीं? कहाँ है ये"

कविता: "तुम्हारे सर इस समय काम से शहर से बाहर गए हुए हैं परसों वापस आएंगे।"

प्रेम: "तो घर में अभी कौन-कौन हैं आपके"

कविता: "इस समय तो मैं हूँ, तुम हो"

प्रेम: "कोई और?"

कविता: "और कोई नहीं है। कोई होता तो कैसे पढ़ा पाती तुम्हें? इतने दिन इसी कारण से तो निकल गए सुबह विद्यालय की सेवा, शाम को पति की। आज कोई परेशान करने वाला नहीं था तो तुम्हारा अनुरोध मान लिया। कोई समस्या?"

प्रेम: (असहजता से): "नहीं समस्या नहीं। पढाई शुरू करें।"

कविता: "हाँ बिल्कुल; पर पहले ये बताओ चाय पीओगे या कॉफ़ी"

प्रेम: "एक गिलास पानी"

कविता: "अभी लाई प्रेम; जब तक तुम वो सामने वाले कमरे में जाकर बैठो।"

प्रेम: "जी मैम"

इसी के साथ कविता पानी लेने चल देती है वहीँ प्रेम सामने कक्ष में प्रस्थान करता है।

 

समय का अभाव मूल विषय से ही जोड़े रखता है किन्तु जब समय अधिक हो तो इधर उधर की बातों में भी समय व्यर्थ ही नष्ट किया जाता है। अतः वो एक सवाल हल करते और फिर किसी अन्य विषय पर वार्तालाप में फँस जाते। देखते ही देखते 3 घण्टे निकल गए। कविता और प्रेम अब गुरु-शिष्य परंपरा में बंधे हुए कम और दोस्तों जैसे ज़्यादा लग रहे थे। कविता कुछ-कुछ समय उपरांत प्रेम के लिए कोई न कोई खाद्य पदार्थ या पेय सामग्री ला रही थी। अचानक कविता को उत्सुकता हुई।

कविता: "प्रेम तुमसे एक बात पूँछू?"

प्रेम: "हाँ मैम।"

कविता: "पहले तो ये मुझे मैम मैम बोलना बंद करो।"

प्रेम: "फिर क्या कहूँ?"

कविता: "कविता बोलो"

प्रेम: "लेकिन मैम..."

कविता: "लेकिन वेकिन कुछ नहीं। यहाँ वैसे भी कोई नहीं है। कविता बोलोगे तो मुझे अच्छा लगेगा"

प्रेम: "पर मुझे अच्छा नहीं लगेगा"

कविता: "ठीक है फिर मैं नहीं पढ़ाऊँगी"

मरता क्या नहीं करता कहावत सोचकर प्रेम ने सोचा मैम ने आज तक कुछ नहीं माँगा, हमेशा निःस्वार्थ भाव से मेरी सहायता की है, उनका मन रखने के लिए बोल देता हूँ।

प्रेम: "ठीक है पर आप अब पढ़ाइये"

कविता: "पहले कविता कह कर पढ़ाने को बोलो"

प्रेम: "क.. कविता, पढ़ाओ न"

कविता: "ये हुई न बात।"

और कविता ने पहले से ज़्यादा मन से पढ़ाना शुरू कर दिया। पढ़ाते पढ़ाते रात के 11 बज गए। कविता को नींद आने लगी थी पर वो भावी अभियंता जैसे पहले से ज़्यादा सक्रिय था। शायद पढाई की ज़िम्मेदारी और भविष्य के स्वप्न उसको इतना सक्रिय रखे हुए थे। अतः प्रेम को बताकर कि उसे नींद बहुत तेज आ रही है, कविता नहाने चल दी क्योंकि नींद भगाने का इससे उत्तम कोई विकल्प उसे नहीं सूझ रहा था। कविता नहाने के बाद जिस तरह के वस्त्रों में प्रेम के सामने आई कि कोई भी व्यक्ति लजिया जाए। शायद मैत्रीपूर्ण स्तिथि में लाने के बाद कविता उस किशोर के उस उम्र के पड़ाव की जैसे कोई परीक्षा ले रही हो। प्रेम ने शर्म के मारे मुँह फेर लिया।

कविता: "प्रेम मेरी तरफ देखो"

प्रेम: "आप मुझे गलत समझ रही हो। मैं वैसा नहीं हूँ जैसा आप सोच रही हो।"

कविता: "मैंने कहा मुझे देखो प्रेम। क्या इसके लिए तुम्हारा मित्र समूह मेरे आगे पीछे नहीं फिरता था?"

प्रेम: "फिरता होगा, पर मैंने हमेशा आपको अच्छा समझा"

कविता: "मैं अच्छी ही हूँ। एक बार देखो तो मेरी तरफ। मुझे पता है तुम्हे भी वो सब का मन करता होगा। आखिर तुम्हारी आयु भी तो वही है।"

प्रेम: "मुझे नहीं देखना आपकी तरफ। प्रीत मेरी सबसे अच्छी दोस्त है और उसने मुझे आपकी नीयत की चेतावनी दी थी लेकिन मैं आपको कोई समाजसेविका की तरह सोच रहा था।"

कविता: "प्रीत, प्रीत, प्रीत..... आखिर ऐसा क्या है प्रीत में जो मुझमें नहीं। आज की ही तो बात है वैसे भी किसे पता चलेगा।"

प्रेम: "प्रीत के पास दिल है जो आपके पास नहीं। पता तो सबको चलेगा। मैं अभी पुलिस को कॉल करता हूँ।

कविता ज़ोर ज़ोर से ठहाके मारकर हँसने लगती है। पुलिस को बुलाओगे? बुलाओ। मैं भी बोल दूंगी कि ये मुझे छेड़ रहा था और फिर कैसे तुम मेरे लिए विद्यालय के चक्कर काट रहे थे ये तो सबने देखा ही था। कोई नहीं सुनेगा तुम्हारी। देखना चाहोगे? हाँ कहो तो अभी चिल्ला चिल्ला कर सबको जमा कर देती हूँ। फिर तुम और तुम्हारा भविष्य। सलाखों के पीछे।

प्रेम: (रोते हुए) "आखिर आप चाहती क्या हो?"

कविता: "जो बोलती हूँ वो करो"

प्रेम: "लेकिन क्या?"

कविता: "मुझे एक प्रेमी की तरह प्रेम करो। मुझमें समा जाओ। तुम्हें मैं अपने अंदर महसूस करना चाहती हूँ।"

प्रेम: "मैं ये सब कभी नहीं करूँगा चाहें आप मेरी जान ही क्यों न ले लो"

कविता: "तुम क्या सोचते हो वो मेरी निःस्वार्थ सेवा थी? मैं पहले दिन से ही तुम्हें पसंद करती थी। कोशिश करती थी कि कोई बहाना मिले जो तुम मेरे निकट आओ। वो समय आ गया है। या तो मुझे संतुष्ट करो या फिर जेल में सफल अभियंता बनने के स्वप्न देखो।"

और इसी के साथ इस डर से कि जगह कविता की, समय रात्रि का, और महिला प्रधान भारतीय कानून। कौन सुनेगा उसकी और अगर महिला ने आरोप लगाया तो पुलिस से पहले ये भीड़ मारेगी फिर पुलिस मारेगी और आखिरी में जेल अलग।

 

भीड़ की भी भारत में मुख्य भूमिका है। न्यायाधीश बाद में निर्णय लेता है ये स्वयं को न्यायाधीश के पार्षद समझकर महिलाओं के प्रकरण में पहले हस्तक्षेप करके लड़के या पुरुष को पीट देते हैं और ये भी कोई बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के चलते नहीं करते बस महिला की दृष्टि में ऊपर उठने को करते हैं चाहें महिला स्वयं में गलत हो। पर दिवास्वप्न। यही सोचते सोचते प्रेम ने वो सब किया जो कविता ने चाहा। प्रेम की आँखों से गिरता एक एक आँसू उसके मन की पीड़ा, उसके क्रंदन को अभिव्यक्त कर रहा था, लेकिन वासना में डूबी उस युवती को अपनी भूख के आगे प्रेम की आत्मा का रूदन श्रव्य नहीं था। उसके लिए प्रेम इंसान नहीं था, कोई विद्यार्थी नहीं था, उसके लिए प्रेम केवल और केवल एक वस्तु था, भोग करने की वस्तु।

 

देह की आग शांत होते ही कविता भी अब परिवर्तित हो चुकी थी। उसने प्रेम को तत्काल जाने को बोला ये कहते हुए कि किसी को भी इसकी सूचना लगने पर कब ये सम्भोग बलात्कार में बदल जाएगा तुम सोच भी नहीं सकते हो। आखिर सम्भोग और बलात्कार की परिभाषा भी तो महिला प्रधान कानूनों में स्त्री अनुरूप होती है। न्यायालय क्या निर्णय देगा ये तो भविष्य का विषय है पर पुलिस की जाँच किस दिशा में जायेगी और पुलिस जाँच के नाम पर महिला अपराध के चलते प्रेम की क्या दशा बनाएगी ये सब बातें प्रेम को पागल कर रही थी।

 

प्रेम शांत हो गया। अब वो पहले जैसी मस्ती मज़ाक करना भूल गया। इतना शांत उसे किसी ने कभी नहीं देखा था। चेहरा भी मुरझाने लगा था। उसने लोगो से बातचीत करनी बंद कर दी। जब भी उसे वो रात याद आती वो अपने शरीर से आती एक अजीब सी दुर्गन्ध महसूस करने लगता और पागलों की तरह अपने शरीर के अंगों को रगड़ने लगता। कभी हाथ रगड़ता तो कभी गर्दन। एकांत में वो असामान्यों की तरह चीख चीख कर रोता। परीक्षा से दो दिन पहले प्रीत उससे मिलने पहुंची।

प्रीत: "तू आजकल कहाँ है? न घर मिलता है, न किसी दोस्त के यहाँ मिलता है। बोर्ड की परीक्षा है, अनुत्तीर्ण होना है क्या तुझे?

किन्तु प्रेम की तरफ से कोई जबाव प्रीत को नहीं मिला। प्रीत स्तब्ध थी कि ऐसा पहली बार हुआ है इतने सालों में कि प्रेम प्रीत से ऐसा व्यवहार कर रहा है।"

प्रीत: "कोई बात है क्या? तू अब मुझसे भी छुपाएगा?"

प्रेम अभी भी शांत था।

प्रीत: "अच्छा कविता मैम को बुला दूँ? उन्हें बताएगा क्या हुआ तुझे?"

प्रेम: "उसे कॉल लगाने की कोई आवश्यकता नहीं है।"

प्रीत भौचक्का रह गई। प्रेम ने आज तक कभी कविता मैम के लिए ऐसा नहीं बोला था। प्रीत को अब संदेह होने लगा कि आखिर कुछ तो है जिसे प्रेम छुपा रहा है।

प्रीत: "तू मुझे बता रहा है या नहीं, देख मैं कविता मैम को कॉल लगाने जा रही हूँ।"

प्रेम: "क्या जानना है तुम्हें?"

प्रीत: "तेरी इस उदासी का कारण। कहाँ है मेरा मित्र? वो जो सदैव हँसता रहता था, हँसाता रहता था। कहाँ है वो प्रेम जिसके स्वप्न हमेशा बड़े होते थे? आखिर किस बेहोशी की नींद में सो रहा है मेरा प्रेम?"

प्रेम: "प्रेम आज भी वही है बस प्रेम अशुद्ध हो गया है। "

प्रीत: "क्यों किसी लड़की ने दबोच लिया क्या?" इतना कह कर प्रीत ठहाके मारकर जोर-जोर से हँसने लगी कि प्रेम के "हाँ" ने उसको अचानक बिलकुल शांत कर दिया।

प्रीत: (चौंककर) "क्या कह रहा है तू"

प्रेम अभी भी शांत था।

प्रीत: "ठीक है आज मैं तेरे लिए इतनी पराई हो गई न कि तू मुझसे अब बातें छुपा रहा है। मैं अभी तेरे पापा मम्मी को जाकर तेरी हालत बताती हूँ।"

प्रेम: "प्रीत, रुक..., जो तुमने सुना वो सब सच है।"

प्रीत: "मतलब तेरा बलात्कार"

प्रेम: (प्रीत को बीच में रोकते हुए) "भारत में पुरुषों के बलात्कार कहाँ होते हैं? पुरुष तो बस बलात्कार करते हैं वो कभी पीड़ित कहाँ होते हैं? यहाँ तो वासना भी लिंग भेद करती है। इस देश के पुरुष वासित हो सकता है किन्तु महिला नहीं।"

प्रीत: "मुझे सब विस्तार में बता।"

प्रेम जैसे जैसे एक एक वाक्या, जो उस दिन घटित हुआ, प्रीत को बता रहा था उसकी और प्रीत की आँखों से आँसू बहने का क्रम साथ के साथ चलता जा रहा था।

प्रीत: "मैंने तुम्हें समय रहते बचने का संकेत दिया था किन्तु तुम उसे पता नहीं कौन सी महान नायिका समझे बैठे थे। तुमने पुलिस को बताया?"

प्रेम: "उसने धमकाया है कि यदि पुलिस को या किसी को भी बताया तो वो मेरे विरुद्ध बलात्कार का प्रकरण पंजीकृत करवा देगी।"

प्रीत: "उसकी ऐसी की तैसी। तू चल मेरे साथ"

और इतना कहकर प्रेम के मना करने पर भी हठ पकड़कर प्रीत प्रेम को पुलिस थाना ले आई।

थानाधिकारी उपनिरीक्षक को सम्बोधित करते हुए: "आदर्श, ये दो लड़का लड़की कैसे खड़े हैं यहाँ?"

उपनिरीक्षक आदर्श: "श्रीमान कोई मुकदमा पंजीकृत करवाना है किन्तु दोनों नाबालिग हैं।"

थानाधिकारी अजीत: "किस सम्बन्ध में?"

उपनिरीक्षक आदर्श: "बलात्कार हुआ है।"

अजीत: "लड़की का?"

आदर्श: "नहीं, लड़के का।"

इतना सुनते ही दोनों ज़ोर ज़ोर से हँसने लगे।

अजीत: "इसको मेरे पास भेज।"

आदर्श दोनों को अजीत के पास ला कर खड़ा कर देता है।

अजीत: "कैसे आना हुआ यहाँ?"

प्रीत प्रेम को बोलने का संकेत देती है।

प्रेम: "सर मेरे साथ बलात्कार हुआ है।"

अजीत: "किसने किया?"

प्रेम: "हमारे विद्यालय की अध्यापिका ने।"

अजीत: "अध्यापिका की उम्र"

प्रेम: "पच्चीस या छब्बीस"

अजीत: "और तेरी?"

प्रेम: "सोलह... सत्रह का होने वाला हूँ। "

अजीत: "तू नाबालिग है, पढाई पर ध्यान दे, क्या बेकार चक्करों में पड़ा हुआ है।"

प्रेम: "किसी काम में अब मन नहीं लगता"

अजीत: "क्यों इतनी रंगीन थी वो रात...?"

प्रेम: (रोकते हुए, चीखकर): "क्या बेकार बात कर रहे हो?"

अजीत: "आवाज़ नीची करके बात कर। तेरे बाप का थाना नहीं है ये। उठा के अन्दर डाल दूंगा दो चार सेक्शंस और लगा दूँगा पब्लिक सर्वेंट से बदतमीज़ी करने के लिए"

प्रेम: "सर्वेंट, पब्लिक सर्वेंट..."

अजीत प्रीत से: "तू समझाएगी इसे या मैं समझाऊ?"

फिर प्रेम की तरफ देखते हुए: "मज़ा आया था? आग ठण्डी हुई थी?"

प्रीत गुस्से में चिड़चिड़ाकर प्रेम से चलने को बोलती है।

अजीत: "ले जा इसे यहाँ से। न तो ये कोई बड़े बाप की औलाद है न किसी सेलिब्रिटी की। बड़ा आया बलात्कार हुआ। गया कुछ तेरा? गया? कुछ मिला ही न। मज़ा"

इतना बोलकर अजीत और अन्य थाना कर्मचारी उन दोनों पर हँसने लगे।

अजीत: “आदर्श अगर यहाँ से ये न जाए तो इसको ही अंदर कर दो। साले की चर्बी मैं निकालता हूँ।“

 

प्रेम और प्रीत वहां से वापस आ जाते हैं। दिन प्रतिदिन प्रेम की मनोदशा बिगड़ती जाती है। वो परीक्षा तक नहीं दे पाता है। धीरे धीरे पागलपन उस पर हावी होने लगता है। उसके मन में कई बार मरने और मारने जैसे विचार आने लगते हैं। कहीं से निकलता है तो उसे लगता है जैसे वही चर्चा का विषय है, जैसे लोग उस पर हॅंस रहे हैं। प्रीत उसे सामान्य करने की बहुत कोशिशें करती है किन्तु असफल ही रहती है कि एक रोज प्रेम की लाश पंखें से लटकी मिलती है। ढूंढने पर एक कॉपी मिलती है जिस पर उसने अपने दर्द को बयान कर रखा था:

"मैं एक पुरुष हूँ और मेरा बलात्कार हुआ है। मैं एक ऐसे देश का नागरिक हूँ जहाँ का संविधान तो लिंगभेद न करने के बड़े बड़े दावे करता है किन्तु यहाँ का कानून महिला और पुरुष को एक चश्में से हरगिज़ नहीं देखता। यहाँ ये स्त्री तय करती है कि कब सम्भोग को बलात्कार करना है और नारीप्रधान इस विधि ने ऐसा चश्मा लगा रखा है जो पुरुष-बलात्कार को पुरुष का आनंद मानता है।

एक स्त्री की भावना हो सकती है, एक पुरुष की नहीं? यहाँ एक पुरुष कुविचार रख सकता है एक स्त्री नहीं? पुरुष के छूने भर से एक स्त्री दूषित हो सकती है लेकिन स्त्री के छूने से पुरुष नहीं। यहाँ स्त्री एक माँ और बहन है लेकिन पुरुष कोई पिता या भाई नहीं? माँ से पुत्र के सृजन, उसके जन्म पर बड़े-बड़े व्याख्यान दिए जाते हैं, लेकिन उस सृजन, उस जन्म में एक पिता की कोई भूमिका नहीं? एक स्त्री के आँसू सभी को दिखते हैं लेकिन उस स्त्री के दंश से मरा हुआ पुरुष किसी को नहीं दिखता।

महिलाओं के पास रोने को कम से कम भीड़ तो है, आयोग तो हैं, हमारे पास तो रोने के लिए कोई कन्धा भी नहीं है। न सभी पुरुष बुरे होते हैं न सभी महिलायें अच्छी। अपने हाथ तक की तो सभी उँगलियाँ एक सी नहीं होती।

मुझे ये लिखते हुए कोई लज्जा नहीं आती है कि एक पुरुष ही पुरुष का सबसे बड़ा दुश्मन है।

मेरा शरीर किसी को आनंद देने या लेने के लिए नहीं था। मैं किसी के भोग की वस्तु नहीं था। मेरा शरीर, मेरी आत्मा आज दूषित है। शायद ये विषय समाज के गले से न उतरे क्योंकि सच्चाई और मानव-मनोविज्ञान को कोई समझना नहीं चाहता। मैं जब-जब अपने शरीर को देखता हूँ मुझे उस घृणित स्पर्श की याद आती है।

प्रीत, मैं आज पवित्र नहीं रहा लेकिन यदि यह सत्य है कि पुनर्जन्म होता है तो मैं तुमसे मिलने अवश्य आऊंगा। उस समय मेरी देह, मेरी आत्मा निष्कलंक होगी। उस जन्म में मैं तुम्हें और अपने सपने दोनों को एक साथ अपनाऊँगा।

मैं अपने प्राण त्याग रहा हूँ मेरे माँ पापा को समझाने की कोशिश करना कि उनका बच्चा दिन प्रतिदिन किस घुटन में जी रहा था। अंतिम विदाई। आपका 'प्रेम'।"

 

लेखक

मयंक सक्सैना 'हनी'

आगरा, उत्तर प्रदेश

(दिनांक 02/जुलाई/2023 को लिखी गई एक कहानी)