युगांतर - भाग 34 Dr. Dilbag Singh Virk द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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युगांतर - भाग 34

उतार-चढ़ाव तो हर किसी के जीवन में लगे रहते हैं, लेकिन किसके जीवन में कितना उतार आता है और कितना चढ़ाव और इससे जीवन कितना बदलता है, यह निश्चित नहीं। यादवेंद्र का जीवन बेटे को नशे की लत लगने से पूरी तरह से बदल गया है। यादवेंद्र अब बेटे को संभालने में इस कद्र व्यस्त हुआ है कि बाहरी दुनिया में क्या हो रहा है, उसे कुछ नहीं पता। उसका धंधा उसके साथी ही चला रहे थे। पहली बार वह जब बेटे को नशा मुक्ति केंद्र छोड़कर आया था, तो उसे लगा था कि उसका बेटा नशे से मुक्ति पा लेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। घर आने के बाद दो-तीन महीने वह ठीक रहा, क्योंकि उसे घर पर ही रखा गया, लेकिन उसे घर में कैद भी नहीं रखा जा सकता था, इसलिए जब वह घर से बाहर निकला, नशे की लत ने उसे फिर जकड़ लिया। अब तो यह नियम सा बन गया था कि चार महीने नशा मुक्ति केंद्र में और आठ महीने घर पर। जब वह घर पर होता, तो उस पर हर पल निगरानी रखनी पड़ती कि वह क्या कर रहा है। अगर कहीं बाहर जाता, तो भी उसका पीछा किया जाता। नौकरों-चाकरों को कहा गया, गाँव के जानकारों को कहा गया कि इस पर नज़र रखें। इस व्यवहार के कारण या नशा मुक्ति केंद्र भेजने का कारण बड़े अदब से बोलनेवाला यशवंत अब हर वक्त लड़ने को तैयार रहता। भाई की हालत देखकर रश्मि ने वकील बनने के इरादे को हकीकत में बदल दिया। उसने पाँच वर्षीय लॉ डिग्री में दाखिला ले लिया था।
यशवंत 25 वर्ष का होने को था और लोगों की यह सोच कमाल की होती है कि अगर लड़का बिगड़ गया तो उसकी शादी कर दो, शादी के बाद वह अपने आप संभल जाएगा। लापरवाह लड़का समझदार हो जाए, वह बात तो अलग है, नशा खाने वाला नशा खाना छोड़ देगा, ऐसा कैसे हो सकता है, लेकिन यादवेंद्र भी लोगों की सोच मुताबिक बेटे की शादी करवाने को तैयार है, यह सोचे बिना कि एक नशेड़ी से शादी करके किसी लड़की की ज़िंदगी बर्बाद हो जाएगी। एक बार इसका जिक्र करने पर कि वे यशवंत के लिए लड़की देख रहे हैं, रिश्ते आने शरू हो गए। यहाँ लड़के को बाद में देखा जाता है, पहले लड़केवालों की हैसियत देखी जाती है। रिश्ते हैसियत अनुसार ही आते हैं और यादवेंद्र की हैसियत से सब परिचित थे। यादवेंद्र पर नशा बेचने के आरोप भी खास अर्थ नहीं रखते थे। सभी बस यही देख रहे थे कि उसकी राजनैतिक पहुँच बहुत है। कमाई अच्छी है, जमीन काफी है। एक रिश्ता लगभग तय हो ही गया था कि यशवंत का नशे का टीका लगाते समय ओवरडोज़ होने के कारण उसकी इहलीला समाप्त हो गई।
खुशी आने का इंतजार कर रहे घर में मातम छा गया। रमन, रश्मि और यादवेंद्र सबका रो-रोकर बुरा हाल था। हौसला बंधाने आई औरतें नशे पर लानत डालती और कुछ तो नशे के व्यापार की बात करते-करते, इशारे-इशारे में यादवेंद्र पर भी ऊँगली उठा जाती। रमन चुपचाप सुनती और सहती। रमन यूँ तो बी.एस.सी. तक पढ़ी हुई थी, लेकिन शादी के बाद जब पति के धंधे से निराश हुई थी, तो धार्मिक पुस्तकें पढ़ने लगी थी। घर में गुरुग्रन्थ साहिब का प्रकाश रहता। इसके अतिरिक्त वह रामायण, गीता भी पढ़ती थी। यू ट्यूब पर धार्मिक प्रवचन सुनती थी और इन सबने उसे भीतर से मजबूत बनाया है। गीता का कहना कि आत्मा अमर है और वह शरीर रूपी देह बदलती रहती है, ने उसे इस असह्य दुख से उबरने में मदद की। बेटे के भोग के बाद उसने ही सबसे पहले दुख की चादर उतारी और बेटी को संभाला। उसे हॉस्टल भेजा, जबकि वह जाने को तैयार नहीं थी। रमन ने उसे उसका मकसद याद दिलाया। उसे कहा, 'जैसे हमने यशवंत को खोया है, वैसे कोई और न खोये, इसके लिए नशे के दानव से समाज को मुक्त कराना ही होगा और यह काम मेरी बेटी करेगी।"
"पर मम्मी, मुझे हर जगह, हर पल भैया दिखते हैं, मैं उनको कैसे भूलूँ।"
"भूलना नहीं है बेटी, याद रखना है उसे और यह भी याद रखना है कि जैसे उस पर गुजरी किसी और पर न गुजरे।"
"मम्मी, लेकिन उसको याद करके मैं कैसे कर पाऊँगी।"
"करना होगा बेटी, जो अपने दुख तक सिमट जाते हैं, वे कुछ नहीं कर पाते और जो अपने दुख से ऊपर उठ जाते हैं, वही लोग समाज को बदला करते हैं।"
धीरे-धीरे बेटी मजबूत हुई और हॉस्टल जाने को तैयार हो गई। घर पर अब पति-पत्नी थे। यादवेंद्र बेटे के जाने के बाद टूट गया था। वह बाहर की बैठक में बैठा रहता। रमन उन्हें समझाती कि जो किस्मत में लिखा होता है, वही होता है। वह उन्हें दुख भुलाने को कहती। चुनावों की याद दिलाती कि चुनाव सिर पर हैं और नेताजी का संदेशा आया है कि वह उससे आकर मिले। वह उन्हें कहती कि आप नेताजी की मदद करें। काम करने से दुख भूल जाता है। वह उसे गीता का उपदेश भी सुनाती कि आत्मा अमर है। वह उसे प्यार से यह भी कहती कि मरने वाले के साथ मरा नहीं जा सकता। हमें अब रश्मि की चिंता करनी है। रश्मि की मदद करनी है कि वह अपने मकसद में कामयाब हो सके। यादवेंद्र कुछ नहीं बोलता। रमन के बार-बार कहने पर भी वह चुनाव में नेताजी की मदद करने नहीं गया। चुनाव के दिन वोट डालने तक की उसकी हिम्मत नहीं हुई। उसके दिमाग में एक ही बात घूमती रहती कि स्मैक को शहर में लाने वाला वह स्वयं है। उसी ने शंभूदीन के कहने पर यह जहर समाज में फैलाया है, इसलिए वह ही बेटे का कातिल है।

क्रमशः