मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 30 Chaya Agarwal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 30

भाग 30

उसने अपने फैसलें की धार को तेज किया। जिसकी चमक उसकी आँखों में साफ दिखाई दे रही थी। दालान के उस हिस्से में पहुँची जहाँ पर फूफी जान और अब्बू जान बैठे गुफ्तगूं कर रहे थे।
"अब्बू जान आज हमने एक फैसला कर लिया है हम अपनी आबरू से खेलने वालों को छोड़ेगें नही। अपने बच्चे के कातिल को आजाद नही घूमने देंगें। हम अपनी ख्वाबों की बिखरी हुई किरचों को फिर से समेटेगें अब्बू जान! , हम हारेगें नही, हमें हराना है। उन्हे जिल्लत की जिन्दगी जब तक नही दे देते हमें चैन नही आयेगा। अब्बू जान, आप हमारा साथ देंगे न?"
एक बड़े पत्थर की तरह अडिग फैसले और आँखों में ह़क की लड़ाई का जुनून फिज़ा के तास्सुरात से साफ झलक रहा था। वह फौलाद की तरह मजबूत दिख रही थी। जिसे देख कर खान साहब की आँखें भीग गईं।
नुसरत की आँख से तो पानी बहने लगा। खान साहब की आँख भी भीगी हुई ही थी। उन्होंने अपनी लख्तेजिगर पर गुरुर महसूस किया। वह कुछ बोलते इससे पहले ही शबीना भी चाय और नाश्ता लेकर अन्दर दाखिल हुई। वहाँ का माहौल देख कर उसे अन्दाजा लग गया था कुछ गम्भीर मसला चल रहा है। वैसे भी किचन वहाँ से ज्यादा दूर नही था। थोड़ी बहुत आवाज़ उसके कान में भी पड़ी थीं। मगर फिर भी उसने जानने की जल्दीबाजी नही की।
शबीना की एक आदत थी वह कभी सवाल-जवाब ज्यादा नही करती थी। चुप रह कर बात को समझने का फ़न उसे बखूबी आता था। दुनियाबी तालीम का इल्म उसे खान साहब से ज्यादा था।
फिज़ा के करीब आकर उसने उसके सिर पर हाथ फेरा और ये यकीन दिलाया कि वह अकेली नही है। ह़क के लिये वह दोनों सारी दुनिया से लड़ जायेगें। जुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाने की हिम्मत हर किसी में नही होती। ज्यादातर लोग ताकतवर लोगों के आगे घुटने टेक देते हैं और फिर सारी जिन्दगी घुटते रहते हैं। जिन्दगी बोझ बन जानी है। खुदा के अलावा और किसी को ये हक़ नही है जो वो किसी की जिन्दगी को अपने हाथ से, अपनी ऐयाशी के लिये, जब चाहे, जैसे चाहे तोड़ कर फेंक दे।
फिज़ा अपनी अम्मी जान से लिपट गई थी। दोनों के दिल को अजीब सी तसल्ली मिल रही थी। फिज़ा को ऐसा लगा जैसे उसने आधी जंग जीत ली हो। तमाम मज़लूम औरते के ह़क के लिये वह हमेशा लड़ी थी फिर आज उसके साथ ही ऐसा हो रहा है? कौन यकीन करेगा उस पर? ये आदिल नही होगा।
वहाँ का माहौल निहायत ही गमग़ीन था। माहौल गमग़ीन जरुर था मगर सुकून भी था। मंजिल की तरफ बढ़ने का रास्ता नजर आने लगा था। जब रास्ता सामने हो तो हौसला, यकीन और अपनों का साथ उस रास्ते को आसान बना देता है। नुसरत और खान साहब ने भी इस मुहीम में आगे बढ़ कर साथ देने का वादा किया। नुसरत ये भी जानती थी ' अगर उसने खुल कर साथ दिया तो ससुराल से बाहर कर दी जायेगी। आखिर आरिज़ और उसके मिँया आपस में फुफेरे भाई थे।' फिर भी उसे अपनी परवाह नही थी। उसे तो सिर्फ फिज़ा के साथ हुये अत्याचार की तल्खी सता रही थी। वह उसके मुस्तकबिल से परेशान थी।
अब एक नये दिन की शुरूआत थी।
अगले दिन अज़र की नमाज़ के बाद ही, वकील साहब आ चुके थे और फिज़ा से केस फाइल करने से पहले कुछ जरुरी पूछताछ कर रहे थे। मुमताज खान और शबीना भी वहाँ बैठे थे। सभी परेशान थे लेकिन उनकी आँखों में एक उम्मीद थी। शायद अब उनकी बेटी को और उस जैसी न जाने कितनी बेटीयों को इन्साफ मिल जायेगा। केस वह जीतें या हारें लेकिन अपने ह़क के लिये लड़ने का हौसला हर लड़की को मिल जायेगा। आखिर किसी को तो पहल करनी होगी?
उन्होने कई बातें ऐसी पूछी थीं जिसे बताने में उसे शर्मिंदगी हो रही थी। उन्होने कहा था- 'केस को मजबूत करना है तो कोई भी बात छुपाना नुकसानदेह हो सकता है।'
फिज़ा ने काफी चीजें उनको बताईं बेशक कुछ चीजों को उसने छुपा लिया था जिसे वह अपने अब्बू जान के सामने नही बता सकती थी। फिज़ा की कशमकश को भाँप कर खान साहब बाहर चले गये थे। कुदरत का ऐसा ही नियम है, जब बेटियाँ बड़ी हो जाती हैं तो अपने ही वालदेन से शर्माने लगती हैं। खास कर अपने अब्बू, ताऊ, चाचा और घर के सभी बड़े मर्दों से।
फिज़ा ने उस घर की ज़हनीयत के बारें में सब सच -सच बता दिया था और ये भी कि- 'वहाँ आरिज़ ही नही सबका यही हाल है। सभी एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। जिनका घर में एक चेहरा और बाहर दूसरा चेहरा लिये घूमते हैं। घर की बड़ी दुल्हन अफसाना भाभी भी बद-से-बदतर जिन्दगी जी रहीं हैं। उनका शौहर भी निहायत गलीच किस्म का इन्सान है। उसने कई बार हमें भी फु़हश नजरों से देखा है। ये तो अल्लाह ताला का शुक्र है वो हमें अपनी हवस का शिकार नही बना पाये। अगर कोई और लड़की होती तो वो ऐसा कर गुजरते। ये बात हम पूरे यकीन से कह सकते हैं। हमारे कमरें के आगे-पीछे वो छुप कर चक्कर लगाते थे। हलाँकि हमने उन्हे कभी रंगे हाथों नही पकड़ा मगर उनकी बीवी का भी यही कहना था।'
सब एक ही साँस में वह कहती चली गयी। इसके आगे भी बहुत कुछ था। वह सोचने लगी कहाँ से शुरु करुँ?- "सुहाग रात से लेकर तलाक तक एक भी दिन सुकून का नही गुजरा था। कभी जहेज़ को लेकर छीँटाकशी, तो कभी उसके रहन-सहन को लेकर, कभी उसके एन. जी. ओ. पर धमकियां तो कभी बेपर्दगी के इल्जाम। हर रोज एक नया और बेहूदा ड्रामा। रोज एक नई चोट। उन लोगों का पूरा दिन सोना और रात को जागना, तब तक, जब तक फ़ज्र की नमाज़ न हो जाये। अजीब किस्म के लोग थे वहाँ के। जिनका मुतालह से कोई वास्ता नही था। गिनती तो अदीबों में होती है उनकी, मगर एकदम गलीच और घटिया सोच के मालिक थे। फिर भी ये एक करिश्मा ही है कि वह लोग शहर के इज्जतदार अदीबों मे शामिल थे। ये उनका इकबाल था।"
फिज़ा साँस लेने के लिये रूकी थी। उसने गिलास से थोड़ा सा पानी पिया। और एक गिलास वकील साहब को भी दिया। वो लोग जरा देर आराम से बात करने के लिये एक दूसरे की तरफ मुखातिब हुये थे।
शबीना अन्दर से एक लिफाफा लेकर आई उसमें फिज़ा की कुछ तस्वीरें थीं। उसने वकील साहब को वो तस्वीरें दिखाईं जिसमें फिज़ा के साथ हुई मार- पीट के पुख्ता सबूत थे। एक में उसकी आँख में खून उतर आया था और बाहोँ पर लाल-लाल बरतें पड़ी हुईं थीं। एक तस्वीर में उसका पूरा चेहरा सूजा हुआ था। ये सब आरिज़ की मार-पीट और बहशीयाना जुम्बिश का नतीजा था। जो उसने अपने फ़ुहश कारनामों को छुपाने के अस्बाब से किया था। जिसे देख कर फिज़ा की ज़हन में वो सभी जिल्लत भरी यादें ताजा हो गयीं और वह आज़र्दाह से तड़प उठी।
शबीना ने उसे खुद से लिपटा लिया। अपने जिस्मानी अश्फ़ाक से उसको टूटने नही दिया। यकीन दिलाया कि उसकी अम्मी हमेशा उसके साथ है। चाहे हालात कैसे भी हों?
खान साहब उन तस्वीरों को देख कर कुछ तल्ख हो गये थे। साथ ही इस वक्त खुद को अपाहिज सा महसूस कर रहे थे। चाह कर भी वह अपने बेटी के मुज़रिम को सजा देने से महरूम थे। उन्हे उम्मीद थी जल्दी ही तख्ता पलटेगा और वह इस लड़ाई में जीतेंगे। गुनाहगार को उसके किये की सजा मिलनी ही चाहिये। चाहे जो भी हो।
क्रमश: