युगांतर - भाग 26 Dr. Dilbag Singh Virk द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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युगांतर - भाग 26

यादवेंद्र की सोच अब विरोधी पार्टी के पूर्व विधायक महेश जैन से दोस्ती गाँठने की थी, लेकिन इसके लिए क्या किया जाए, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। महेश जैन के बारे में प्रचलित धारणा यही थी कि वह सैद्धांतिक आदमी है, लेकिन यादवेंद्र को लगता था कि बाहरी छवि और असलियत में अंतर ज़रूर होगा। पिछली बार जब उनकी पार्टी सत्ता में आई थी, तब महेश जैन को पार्टी में कोई विशेष भूमिका नहीं मिली थी। वह न तो अपने कोई विशेष काम निकाल पाया था और न ही इलाके के काम करवा पाया था, इसलिए जनता उनके खिलाफ हो गई थी। जनता यह तो चाहती है कि उनका नेता ईमानदार हो, लेकिन जब किसी को कोई निजी काम पड़ता है, तब उसकी उम्मीद होती है कि नेता जी सब नियमों को ताक पर रखकर उसके साथ खड़े हो जाएँ। शंभूदीन की लोकप्रियता का कारण यही है। वह अपनी पार्टी वर्करों के हर कार्य के लिए पूरा सहयोग करता, जबकि महेश जैन बहुत से वर्करों को घर से यह कहकर लौटा देता कि तेरा काम तो हो ही नहीं सकता। लोग कहते अगर होनेवाले काम ही करवाने हैं तो आपके पास आने का क्या फायदा। होनेवाले काम तो खुद हो ही जाएँगे। नेता का मतलब है कि वह न होने वाले काम करवाए।
यादवेंद्र कई दिनों तक सोचता रहा कि किसके माध्यम से महेश जैन तक पहुँचा जाए, लेकिन आखिर में उसने निर्णय लिया कि जो होगा, देखी जाएगी, वह सीधा ही जाकर मिलेगा। वह बिना कोई पूर्व सूचना दिए महेश जी के घर जा पहुँचा। उन्हें बाहरी बैठक में बैठाया गया। थोड़ी देर बाद महेश जी उपस्थित हुए। महेश जी यादवेंद्र के इस प्रकार घर आने पर हैरान थे, क्योंकि उनकी पार्टी अब विपक्ष में थी और यादवेंद्र की पार्टी सत्ता में। यूँ तो जब किसी ने दल बदल करना होता है, तो लोग धुर विरोधियों के घर जाते ही हैं, लेकिन यह दल बदल का समय नहीं था। इस समय अगर कोई दल बदलेगा तो वह विपक्षी पार्टी का होगा, सत्ताधारी पार्टी का नहीं, फिर यादवेंद्र क्यों आया, इस बारे में पूर्व विधायक जी कुछ अनुमान नहीं लगा पा रहे थे, फिर भी शिष्टाचार वश उनका स्वागत किया गया। परिवार का हाल चाल पूछा गया। इधर-उधर की बातें करने के बाद महेश जी ने पूछ ही लिया, "यादवेंद्र सिंह जी कहिए किस मकसद से आना हुआ।"
"एक शहर में रहकर क्या बिना मकसद से नहीं मिला जा सकता।" - यादवेंद्र ने ऐसे कहा, जैसे वे पुराने दोस्त हों, लेकिन महेश जी इस प्रकार की बात के लिए न तैयार थे और न ही इससे सहमत। स्पष्टवादी तो वे थे ही, बोले, "यह बात तो दोस्तों के लिए होती है।"
"हम कौन-सा दुश्मन हैं, विधायक जी।"
"दुश्मन तो नहीं, लेकिन विरोधी पार्टी के हैं। मैं नहीं कहता कि विरोधी पार्टी होने के कारण हमें बातचीत नहीं करनी चाहिए, लेकिन इस प्रकार का मिलना तो तभी संभव है, जब कोई विशेष मकसद हो। आप जिस मकसद से आए हैं, वह साफ-साफ कहें तो बेहतर होगा।"
यादवेंद्र इस जवाब को सुनकर घबराया। महेश जैन की जो छवि उसने जानी थी, महेश जैन को वैसा ही पाया। वह समझ नहीं पा रहा था कि अब बात शुरू करे या छोड़ दे। उसे चुप देखकर पूर्व विधायक जी कहने लगे, "कहो यादवेंद्र क्या कहना है।"
यादवेंद्र को कुछ न सूझ रहा था, इसलिए उसने यूँ ही कह दिया "बस एक काम था आपसे।"
"अब सरकार आपकी है, मैं किस लायक।"
"जो काम निजी संबन्ध कर सकते हैं, वह सरकारें नहीं कर सकती।"
"वाह, काफी समझदार हो तुम तो, मैं तो तुम्हें शंभूदीन का लठैत ही समझता था।"
"वक्त आदमी को सिखा देता है।" - यादवेंद्र ने महेश जी की बात का बुरा मानने की बजाए अपनी समझदारी का कारण बताया।
"शंभूदीन से नाराजगी चल रही है क्या?" - महेश जी ने अपना अंदाज़ा लगाया।
"नहीं, नहीं, मंत्री जी का अहसान मैं कैसे भूल सकता हूँ।"
"फिर वक्त ने क्या सिखाया है तुम्हें।"
"वक्त ने यही सिखाया है कि हमें कुएँ के मेंढ़क ही नहीं बने रहना।"
"मैं समझा नहीं।"
"देखो, विधायक जी एक पार्टी तक सीमित रहना तो कुएँ के मेंढ़क होना ही है।"
"राजनीति करनी है तो एक पार्टी से ही जुड़ना होगा। घाट-घाट का पानी पीने वालों को कोई पार्टी भाव नहीं देती।"
"मैं कब कहता हूँ कि हमें एक से ज्यादा पार्टियों की सदस्यता लेनी है।"
"तेरी बात से तो ऐसा ही लगा।"
"विधायक जी मेरे कहने का मतलब है कि एक पार्टी का वर्कर रहते हुए भी हमें दूसरी पार्टी के नेताओं से संबन्ध तो रखने ही चाहिए।"
"अपनी दुश्मनी कभी नहीं रही।" - महेश जैन को यादवेंद्र की बातें बेतुकी सी लग रहीं थीं और वह उससे पीछा छुड़ाना चाहता था।
"ये तो है, लेकिन सत्ता बदलते ही सत्ताधारी पार्टी दूसरी पार्टी के नेताओं पर झूठे-सच्चे केस बनाने लगती है।"
"देख तुझ पर जो केस है, उसमें मेरा कोई योगदान नहीं।" - महेश जैन को लगा यादवेंद्र अपने केस के निपटारे के लिए विरोधियों को विश्वास में लेने की सोच से यहाँ आया है।
"आपने गलत समझा, मैं तो इसलिए आया हूँ कि आगे से हम एक दूसरे के सहयोगी बने, विरोधी नहीं।"
"अलग-अलग पार्टियों में रहते ये कैसे संभव है। तुम आ जाओ हमारे दल में, बना लेंगे सहयोगी।" - महेश जी ने रूखाई से कहा।
"फिर दूसरी पार्टी विरोधी जाएगी।"
"ये तो होगा ही, एक किश्ती पर रहो, दो किश्तियों की सवारी अच्छी नहीं होती।"
"विधायक जी आपका तजुर्बा ज्यादा है, मैं तो अपनी पार्टी का छोटा सा वर्कर हूँ और आप बड़े नेता हैं, लेकिन मैंने जो थोड़े समय में सीखा है, वह यही है कि हमें जनता की नज़र में विरोधी ज़रूर दिखना है, लेकिन वास्तव में विरोधी नहीं होना। अब हमारे दल की सरकार है, तो आपको परेशानी न हो, इसका दायित्व हम लें और जब आपकी सरकार हो, तो हमें परेशानी न हो, इसका दायित्व आप लें, बस इतना सहयोग हम करें तो दोनों का फायदा है।"
"क्या तुम्हें शंभूदीन ने भेजा है?"
"नहीं, नहीं, मैं अपने स्तर पर ही आया हूँ।"
"फिर तू मेरा क्या भला करेगा?" - महेश जी ने यादवेंद्र को उसकी औक़ात जताते हुए कहा। यादवेंद्र ने इसका गुस्सा मानने की बजाए बड़े धैर्यपूर्वक कहा, "जहाँ सूई काम आती है, वहाँ तलवार काम नहीं आती।"
"मतलब...।"
"मतलब यही कि मेरा कद भले आपके बराबर का नहीं, लेकिन ऐसे बहुत से काम हो सकते हैं, जिनमें आपको मेरी ज़रूरत पड़े।"
"जैसे...।"
"राजनीति में हम लोग सिर्फ सेवा के लिए तो आए नहीं। चाहें भी तो भी सिर्फ सेवा से कुछ नहीं होने वाला। चुनावों पर बहुत खर्च होता है। जितना बड़ा नेता उसका रोज़ का खर्च उतना ज्यादा। मैं तो मामूली वर्कर हूँ मगर रोज दो-तीन कार्यक्रमों पर जाता हूँ। कभी कोई सामाजिक संगठन लड़कियों की शादी करवा रहा है, कभी बच्चे टूर्नामेंट करवा रहे हैं, कहीं गौशाला का निर्माण चल रहा है। जहाँ जाते हैं, जेब तो ढीली करनी पड़ती है। पैसे पेड़ों पर तो लगते नहीं। इस खर्च के लिए कमाना तो पड़ेगा।"
महेश जैन यादवेंद्र की बातें सुनकर हैरान था। कल का छोकरा, कितनी व्यावहारिक बातें कर रहा है। महेश जैन ने कभी ज्यादा कमाया नहीं, फिर खर्च भी कैसे करे और बिना खर्च के लोग पीछे नहीं लगते यह यादवेंद्र सिखा रहा था। महेश जैन तीस साल से राजनीति में था और एक बार ही विधायक बन पाया था, वो भी इसलिए कि राज्य में 'जन उद्धार संघ' के खिलाफ लहर चल रही थी। वैसे महेश जैन ऐसा कोई गलत कार्य नहीं करता था, जिससे उसे सरकार का डर हो, लेकिन दोस्ती का हाथ सत्ताधारी दल का वर्कर बढ़ा रहा, इस बात ने उसे सोचने पर मजबूर किया। उसके लहजे में नम्रता आई और बोला, "इससे मुझे क्या लाभ होगा?"
"देखिए विधायक जी, लाभ आपको क्या होगा, कैसे होगा, यह तो आपको सोचना होगा, मगर मैं इतना आश्वासन देता हूँ कि अपने शहर में आपकी तरफ कोई आँख उठाकर नहीं देख सकता। मंत्री जी तो यहाँ कम ही आते हैं। शहर की व्यवस्था देखना मेरा काम है। आप भी कोई दो नम्बर का काम कर लीजिए।"
"यह आप मुझसे क्या कह रहे हैं। आप मुझे जानते नहीं क्या।"
"जानता हूँ, आप बड़े शरीफ और नियमों पर चलने वाले नेता हैं।"
"फिर, तुमने ऐसा सोचा भी कैसे?" - महेश जैन अब गुस्से में थे।
"थोड़ा शांत होकर सोचिए कि क्या यह जनता इस लायक है कि इनके नेता शरीफ हों। हर व्यक्ति आपसे गलत काम करवाने की सिफारिश लेकर आता है। चुनाव के दिन लोग वोट बेचते हैं। जब पूरा तंत्र ही भ्रष्ट है तो...."
"तो हम भी भ्रष्ट हो जाएँ। ऐसे कैसे सुधरेगा देश?"
"देखिए मर्जी आपकी है, मैं नहीं कहता कि आप इतने भ्रष्ट हो जाएँ कि देश खोखला हो जाए, मगर इतने भ्रष्ट तो होना ही होगा कि बिकाऊ लोगों की वोट खरीद सकें।"
"वोट खरीदने ज़रूरी तो नहीं, ये गैरकानूनी है।"
"है, आप नहीं खरीदते लेकिन क्या इससे वोट बिकने बंद हो गए। आप नहीं खरीदोगे, तो कोई और खरीदेगा। जैसा देश वैसा भेष रखने में ही भलाई है। यह देश भेड़तंत्र है और भेड़ों को पीछे लगाए रखने के लिए साधन चाहिए।"
महेश जैन इन चीजों से अनजान तो नहीं था, लेकिन उसके सिद्धांत उसे भटकने नहीं देते थे, लेकिन आज यादवेंद्र जैसे छोटे नेता, जिसे वह राजनीति का नौसिखिया समझकर अहमियत नहीं देना चाहता था, ने उसके सिद्धांतों के किले की नींव हिला दी। उसने सोचने का कहकर यादवेंद्र से विदा ली। यादवेंद्र इससे बहुत खुश था, क्योंकि सोचने का अर्थ है, उसकी बात ने असर किया है। पहली चोट सही पड़ गई है। अब वह दिन भी दूर नहीं, जिस दिन वह महेश जैन का भी वैसा ही नजदीकी होगा, जैसा कि शंभूदीन का है।

क्रमशः