नीलकण्ठ
आज संदेश अपने पुराने दोस्त देविन्दर के घर गया हुआ था। दोनों दोस्त काफी समय के बाद मिले थे इसलिए घर में ही बैठे बस अपनी अन्तरंग बातें शेयर कर रहे थे। देविन्दर की पत्नी जसपिन्दर कौर उन दोनों के लिए पकोड़े तलकर दे रही थी। दोनों पति-पत्नी संदेश की आवभगत में कोई कमी नहीं छोड़ रहे थे - तभी उसके घर पर एक दस्तक हुई। दरवाज़े पर - देविन्दर का बचपन का दोस्त भजिन्दर खड़ा हुआ था। परजाईजी पैराँ पोणी, ओए भजिए किथे हैगा , ओए वेख तुहाडे कोळ कौण आया सी ? ओए किने दिनां बाद मिले असी। चल बैठ सुणां कि हाल है?- ओ प्राजी चंगा, तुसी सुणाओं, ऐथे कि हाल हंै। ओजी बस मेहर है रब दी। संदेश बैठा दोनों बचपन के दोस्तों का मिलना देखता रहा। कितने खुश हो रहे थे। कितना जीवन्त था वो माहौल। बस यूँ ही बात करते हुए देविन्दर ने उसके बचपन के दोस्त भजिन्दर से मेरा परिचय करवाया। अब हम दो के बजाय तीन हो गए थे । तीनों बैठे चाय-पकोड़े का आन्नद ले रहे थे। बीच-बीच में देविन्दर गाँव के हाल-चाल भी पूछता जा रहा था। और सुणा पिण्ड दे कि हाल है, सब चंगा है ना? वो धीरे से बोला- पिण्ड़ दे विच सब चंगा है, हाँ इक गल तुहानु बतावाँ, ओ पिण्ड दे उपरले पासे इक बन्दा नी रहन्दा है, जेड़ा गुरूशरण सिंह नाम है, तुसी जान्दे हो, उणा ही कुड़ी किसी मुण्डे नाल पज गई, प्राजी ऐनी गोरी-चिट्ठी, ऐनी सोणी तां इक काले कलूटे हब्सी से मुण्डे नाल पज गई। की ज़माना आया है जी, ओ जी सच कहुं बड्डा खराब ज़माना है जी। कुड़ी नुं पढ़ाओ, लिखाओ, तां वड्डी होन्दी है तां एैवे ही पज जाए, की इज़्ज़त रह जान्दी है ? की सोच के वो ऐने काले कलूटे....ओजी मैनू लगदा है वो मुण्डा केड़ी नीची जात दा......अब तुसी सोचो ऐवैं कोई करदा है ? प्राजी, रब नू पता, अजकल दे मुण्डे-मुण्डियाँ नू की होन्दा है। आगे वो क्या कह रहा था वो ध्यान नहीं दे रहा था। उसके जहन में एक ही बात तीर की तरह से चुभ गयी थी। इक काले कलूट दे नाल पज गई है। ऐनी गोरी चिट्ठी कुड़ी, ऐनी सोणी कुड़ी, वो मुण्डा केडी नीची जात दा....वो सोच रहा था कितने ही विकसित क्यों ना हो जाएँ हम, तन से कितने ही बदल जाएँ, मन से कभी नहीं बदल सकते हंै। वही सोच, वही विचारधारा, गौरे रंग के प्रति लगाव । जो अंग्रेजों ने हमारी मानसिकता दी है, गौरी मेम आज भी हमारी कल्पनाओं में होती है। काला रंग हमें इतना आकर्षित नहीं करता है। रंगभेद की यह बात केवल हमारे मन में ही हो ऐसा भी नही है। पूरी दुनियाँ में किसी ना किसी रूप में गौरे के प्रति लगाव और काले के प्रति हिकारत की भावना हमारी मानसिकता है। गौरा रंग आँखों को सुहाता है, मन को भाता है, किन्तु कस्तूरी काली होने के बावजूद भी मिलीग्राम में तुलती है, शक्कर नही। राजिया रा दूहा में भी तो यही कहा गया है। आखिर यह काले के प्रति इतना विकर्षण क्यां होता है हमारे मन में ? वो सोचे ही जा रहा था, बिना किसी समाधान पर पहुँचे। वैसे देखा जाए तो समाधान है भी क्या ? पर एक बात तो समझनी ही पडे़गी, और विचारणीय भी है, हमारे धर्म ग्रन्थों में जो अवधारणा रखी गई है भगवान की, उसमें चाहे किसी भी रूप को ले लीजिए, श्रीकृष्ण, राम, शिव आदि सभी देवताओं की कल्पना भी साँवरे या काले रंग के साथ ही की गई है फिर हम क्यों इतना विकर्षण रखते हैं काले रंग के प्रति ? इन्हीं विचारों के बीच देविन्दर की पत्नी जसपिन्दर कौर ने कहा- ओ वीरजी तुसी किथे खोए होजी ? और फिर अपने पति से मुख़ातिब होते हुए कहने लगी- लोजी ए कोई गल हुई, तुसी अपने पिण्ड दे विच खोए हो तां साढे देवरजी ऐथे बोर हो रहे हैंगे जी। ओजी साॅरी, जसूजी मैं सच्ची-मुच्ची पिण्ड दे विच खो गया सी, अज ऐने लम्बे टाईम बाद, सानू पिण्ड दे समाचार मिले सी ना , संदेश ए जो पिण्ड दी मट्टी होन्दी है ना, मौके-बेमौके बन्दे नू याद दिला जान्दी है कि किन्ने ऊपर उठ जाओ, अखीर में तुहानू एं मिट्टी कोळ ही आणा सी, संदेश उसकी ओर देखता रहा, वो सोच रहा था कि देविन्दर अपनी मिट्टी से जुड़कर कितना खुश था। वो बोला- सच कह रहे हो भाई, बिना मिट्टी से जुड़े हमारा कोई अस्तित्व नहीं है, लेकिन हम ही हैं जो अपनी जड़ों को , अपनी मिट्टी को भूल जाते हैं। उसमें भी रंग ढूँढने लगते हंै। ये काली मिट्टी है, ये भूरी मिट्टी है, बालू है या कंकरीली पथरीली है । मिट्टी के ही क्या- हम तो इंसान को भूलकर ,उसके गुणों को भूलकर केवल उसके रंग में उलझ जाते हंै, उसकी जात-पांत में उलझकर रह जाते हंै, ऊँचा है कि नीचा है, बस यही सोचते रहते हंै। भाभी एक बात बताओ, क्या काले रंग के लोगों में अलग खून बहता है, क्या तथाकथित नीची जाति के लोगों में खून का रंग काला होता है ?
ओ नहीं वीरजी, खून दा रंग तो लाल ही होन्दा है । वो बोली ,संदेश फिर से अपने में ही खो सा गया। एक ही रंग-खून का, फिर भी हम जात-पाँत में बंट गए हंै। काले-गोरे में बँट गए है, छूत-अछूत में बँट गए है। मजहब की दीवारें इंसानों के बीच हमने खींच दी हैं । आखिर हम क्या सिद्ध करना चाहते हैं? गोरा रंग काले पर श्रेष्ठ होता है, तो फिर भगवान शिव, कृष्ण और राम को हम श्रेष्ठ क्यों मानते हंै ? तभी उसके ज़हन में एक और बात आयी भजिन्दर ने तो कह दिया’’काले कलूटे हब्सी से मुण्डे नाल पजगी है’’ लेकिन आख़िर वो दोनों जो प्रेम करते हंै आपस में , वो क्या सोच रहें होंगे।...... बस विचारों की ये गुत्थी उलझती ही जा रही थी। भीतर ही भीतर एक आक्रोश पनपता जा रहा था। आख़िर हम कितने ऊँचे उठ गए है कि हमें इंसानों में भी ऊँचा-नीचा नज़र आने लगा है । हमारे ही घरों की सफाई करने वाला, गली-मोहल्ले की सफाई करने वाला अछूत है, एक दिन भी हम अपने गली की सफाई करके देखें तब पता चलेगा कि कौन श्रेष्ठ है ? हम तंज़ करने वाले ,मन के भीतर कितनी ही गन्दगी लिए हुए ,या फिर वो जो बाहर की सारी गन्दगी को साफ करके गली मौहल्ले को साफ रखता है और मन से खुद भी पाक-साफ है।
वो सोचता ही रहा, उसे इस प्रकार विचारों में खोया देख भजिन्दर बोला- प्राजी, साडी कोई गल तुहानु बुरी लगी हो ताँ सानू माफ कर दो जी । ओजी मेरा वो मतलब नहीं था जी, पर तुसी जान्दे हो जी ओ पिण्ड दे विच, गाँवां नाल, ऐनी ऊँच-नीच, जात-पाँत, अज भी होन्दी है। भजिन्दर की बात सुनकर संदेश कुछ कहना ही चाह रहा था कि देविन्दर बोल पड़ा- ओए कोई गल नही, अै जेड़ा संदेश है ना, निकी-निकी गलँं पर सेन्टीमेन्टल हो जान्दा है । तुसी छड़दो जी , पर इक गल है, अै बन्दा ,कहन्दा बिल्कुल सही है, केड़ी छूत-छात, केडी जात-पाँत, केड़ा काला-गोरा ? ओए सानू देख- तुहाड़ी परजाई किनी गोरी-चिट्ठी है ताँ, होण मैंनु देख कि सोच के अै मेरे नाळ आई। बस इतना कहना था कि जसपिन्दर से रहा नहीं गया। वो बोली- ओ वीरजी, सुणो- अ मेरा देवू ह ना-पूरी दुनियाँ विच इक ही है, दूजा तुहानु नहीं मिलैगा, इना दे गुण, इने हैंगे, अज मैं इक-इक गुण पर वारी जावाँ, त लख गोरियाँ चिट्टे नू...........। ओए जसुजी तुसी ग्रेट हो जी, ओ जी आइ लव यू जी । दोनों पति-पत्नी वहीं पर इतने इमोशनल हो गए कि बाँहों में आए बिना नहीं रह पाए। संदेश उनके प्रेम को देख रहा था और भजिन्दर को अपनी ही ग़लती का एहसास हो गया था। तमाम दाग़ काले रंग में दब जाते हंै। भगवान शिव ने भी तो समुन्द्र मंथन से निकले हलाहल को पी कर दुनियाँ को बचाया था। विष का सफाया किया था, ठीक उसी तरह जैसे वो सफाई वाला ,हमारे गली-मोहल्ले की सफाई करता है। वो भी तो एक तरह का विष ही है ,और विष की सफाई करने वाला कोई नीच नहीं हो सकता है । वो तो होता है केवल नीलकण्ठ.....।