गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 93 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 93


जीवन सूत्र 169 सांसारिक फल की प्राप्ति को लेकर की जाने वाली पूजा उत्तम नहीं


गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है -

काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।

क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।।4/12।।

इसका अर्थ है, हे अर्जुन! संसार में कर्मों का फल चाहने वाले लोग देवताओं की पूजा किया करते हैं;क्योंकि इस मनुष्य लोक में कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि जल्दी मिल जाती है।

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मों के फल की प्राप्ति के लिए देवताओं के पूजन और लोगों द्वारा इसके परिणामस्वरूप अभीष्ट सिद्धियों की प्राप्ति की चर्चा की है। वास्तव में संसार में अधिकांश लोगों के सामने दैनिक जीवन में उपयोग आने वाली वस्तुओं की प्राप्ति से लेकर एक स्वस्थ,सुखद नागरिक जीवन जीने की चुनौती होती है। हम जीविकोपार्जन के लिए विभिन्न कार्य करते हैं,चाहे वह नौकरी हो, या स्व-व्यवसाय हो या व्यापार हो।इन सबमें उद्यम की आवश्यकता होती है।जो परिश्रम करते हैं और अपने परिश्रम में निरंतरता बनाए रखते हैं,वे लक्ष्मी जी की कृपा प्राप्त करने के अधिकारी बनते हैं।वहीं कुछ प्राप्त कर लेने के बाद भी उतने ही श्रम की आवश्यकता होती है। या ऐसा कहना अधिक उपयुक्त होगा कि किसी उपलब्धि या प्राप्ति के बाद उसका उचित उपयोग और फिर अपनी सफलता को कायम रखना अधिक चुनौतीपूर्ण होता है।

समाज में अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति और फिर स्वयं के पास अतिरेक धन के जरूरतमंद लोगों तक वितरण के लिए एक अघोषित प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत है।केंद्र से लेकर राज्य सरकारों की सभी कल्याणकारी योजनाएं,करों का संग्रहण और फिर जनता की भलाई के कार्यों में ही उसका वितरण, समाजसेवी संस्थाओं द्वारा नि:स्वार्थ भाव से किए जाने वाले जन सेवा के कार्य ये सब उसी सामूहिक जिम्मेदारी के अंतर्गत आते हैं, जिसमें हमारे पूर्वजों के समय से लेकर अब तक यह चिंतन रहा है कि कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे।

किसी बड़ी सफलता के लिए परिश्रम करना,पद,यश उपलब्धि,धन की कामना करने में भी कोई अनुचित बात नहीं है।


जीवन सूत्र 170 केवल भौतिक लक्ष्य ही ना रहे जीवन का उद्देश्य, सामाजिक जिम्मेदारी भी समझें


इस मामले में भगवान का संकेत यह है कि विभिन्न पूजन पद्धतियों से,हमारी साधना से, कुशलता और चतुराई पूर्वक किए गए हमारे कार्य नियोजन से हमें भौतिक वस्तुओं और सुख समृद्धि की प्राप्ति तो हो जाएगी,लेकिन फिर अगर केवल एक यही उद्देश्य रहे तो फिर इस जीवन के सबसे बड़े लक्ष्य, अपने भीतर झांककर सच्चे मन से ईश्वर के अभिमुख होने और यथासंभव जन कल्याण के लिए अपने को समर्पित करने की भावना खंडित होते रहती है। अगर सांसारिक उपलब्धियों के स्थान पर हमारी सिद्धि उस परम सत्ता की ओर अपने जीवन को मोड़ने वाली हो तो फिर जीवन में वह आनंद छा जाता है जो सांसारिक वस्तुओं,पद प्रतिष्ठा की उपलब्धि से भी प्राप्त नहीं होता।यह वह उपलब्धि नहीं है जो हमें कर्मों के पीछे भागते रहने के कारण बार-बार जन्म लेने और अपनी अतृप्त कामनाओं के साथ इस जीवन के पार भी यात्रा करने को विवश करती रहती है। बल्कि यह उपलब्धि है जिसमें फिर कुछ मांगना शेष नहीं रह जाता।परम सत्ता तो बिन मांगे ही मनुष्य की आवश्यकता समझकर सब कुछ प्रदान कर सकती है।


(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय