जीवन सूत्र 171 मनुष्य के गुणों के आधार पर उनके कर्म निर्धारित
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4/13।।
इसका अर्थ है,हे अर्जुन!मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के विभागपूर्वक चारों वर्णों(ब्राह्मण,क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र)की रचना की गई है।उस सृष्टि-रचना के प्रारंभ का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी(व्यय न होने वाले) को तू अकर्ता मान।
भगवान श्री कृष्ण ने वर्ण व्यवस्था को गुण और कर्मों पर आधारित कहा है।स्पष्ट रूप से प्रारंभ में भारत की प्राचीन वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित थी। प्रारंभ में केवल एक ही वर्ण था।
जीवन स्तोत्र 172 मूल रूप में एक ही है मनुष्य, वर्गीकरण कार्यों में सुविधा के लिए ;मनुष्य - मनुष्य में भेद के लिए नहीं
महाभारत में कहा गया है-
एकवर्ण मिदं पूर्व विश्वमासीद् युधिष्ठिर ।।
कर्म क्रिया विभेदन चातुर्वर्ण्यं प्रतिष्ठितम्॥
प्रारंभ में केवल एक ही वर्ण था और बाद में लोगों के कर्म क्रिया आदि में भेद और उनकी विशिष्ट विशेषताओं के कारण चारों वर्णों की प्रतिष्ठा हुई।श्री कृष्ण ने भी वर्ण व्यवस्था(वर्तमान जाति व्यवस्था)को गुणों और कर्मों पर आधारित बताया है।
जीवन सूत्र 173 जाति समेत किसी भी आधार पर न हो भेदभाव
ऋग्वेद के नवे मंडल के 112 वें सूक्त के तीसरे श्लोक में कहा गया है- हम उत्तम शिल्पों(अर्थात शिल्पकार) का कार्य करने वाले हैं।हमारे पिता और पुत्र चिकित्सक हैं।हमारी माता और पुत्री जौ पीसने का काम करती है।हम सब अलग-अलग कार्य करने वाले हैं। ऋग्वेद काल में इस परिवार के उदाहरण से यह पता लगता है कि एक ही परिवार में अनेक वर्णों का कार्य करने वाले लोग हैं।
जीवन सूत्र 174 मनुष्य अपनी रूचि के अनुसार कार्य करने को है स्वतंत्र
श्रीमद्भागवत के सातवें स्कंध के ग्यारहवें अध्याय के 35 वें श्लोक में भी कहा गया है कि जिस पुरुष के वर्ण को बताने वाले जो-जो लक्षण कहे गए हैं,वे यदि दूसरे वर्ण वाले में भी मिले,उसे भी उसी वर्ण का समझना चाहिए।
ऐसा माना जाता है कि आरंभ में समाज की वर्ण व्यवस्था कर्मों पर आधारित थी और बाद में जाति पर आधारित होने से यह विभिन्न जातियों और उनके लिए निर्धारित समझी जाने वाली विशेषताओं और कार्यों के लिए रूढ़ हो गईं।
जीवन तो 175 प्रगतिशील सोच अपनाना आज के युग की आवश्यकता
आधुनिक लोकतंत्र के युग में जहां समानता और राष्ट्रीय एकता का सिद्धांत लागू है,वहां समाज में प्रगतिशील दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ने और विभिन्न समुदायों के मध्य आंतरिक एकता की भावना का जाग्रत रहना और पालन करना अत्यंत आवश्यक है।हमारे संविधान के अनुसार प्रत्येक मनुष्य समान हैं और कोई छोटा बड़ा नहीं है।प्रत्येक व्यक्ति को अपनी रूचि के अनुसार कार्य चुनने की स्वतंत्रता है और इसमें कोई बंधन नहीं है।
यह सच है कि विविधताओं में एकता हमारे देश की सबसे बड़ी ताकत है और राष्ट्र निर्माण के लिए हममें अगर किसी प्रकार के मतभेद हों तो विभिन्न प्रकार के वैमनस्यता वाले भेदों और बंधनों को टूटना ही चाहिए।अपनी निज वैयक्तिक आस्थाओं से राष्ट्रहित और सामाजिक एकता के सिद्धांत में कभी टकराहट नहीं होनी चाहिए।
भगवान श्री कृष्ण सृष्टि निर्माण के प्रारंभ में तत्कालीन आवश्यकता के अनुरुप गुणों और कर्मों को करने वाले मनुष्यों के समूहों का स्रोत होने पर भी स्वयं को अकर्ता बता रहे हैं अर्थात समाज का संचालन लोगों के आपसी सामंजस्य और सहयोग से ही होते रहना चाहिए और यहां ईश्वर भी अकर्ता की भूमिका में होते हैं।आगे के परिणाम मनुष्यों के अच्छे कर्मों पर आधारित होने चाहिए।
(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय