मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 11 Chaya Agarwal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 11

भाग. 11
"आप सच कह रहे हैं अब्बू जान?" फिज़ा को अपने कानों पर यकीन नही हुआ। उसके आँखों से खुशी के आँसू बहने लगे। उसने खुशी की इंतहा से भरभरा कर कहा- "लाइये हमारी बात करवाईये अमान से।"
अमान ने उसे एतवार दिलाया और कहा- " नैट खोल कर खुद देख लो।" उसने फौरन लैपटाप खोल कर चैक किया। ये सच था। उसने अपना रोल नम्बर डाल कर सर्च किया। सामने स्क्रीन पर उसकी मार्कशीट खुल गई थी। जिसमें वह पास थी। शबीना तो खुशी के मारे कुछ बोल ही नही पाई। उसने फिज़ा को अपने आगोश में ले लिया। वह भी अपनी अम्मी जान के सीने से चिपक गयी। उसके अब्सार से खुशी के अश्कों का रेला फूट पड़ा। शबीना भी डबडबाई आँखों से निहाल हो रही थी। वह उजलत में गुड़ का ढेला ही उठा लाई थी - "लो मुँह मीठा करो सब। ईंशा अल्लाह आज हमारी मन्नत पूरी हुई है। अब देखना हमारी बेटी पूरे खानदान का नाम रौशन करेगी।"
घर में खुशी का माहौल था। खान साहब भी अपनी बेटी पर फक्र महसूस कर रहे थे। उन्होंने फिज़ा के सिर पर हाथ रख कर उसे दुआओं से नवाजा था। उनकी चहल कदमी बता रही थी वह कितना खुश थे। अब्बू जान की एक खास बात थी वह ज्यादा बोलते नही थे उनका खुशी जाहिर करने का अलग ही अन्दाज़ था। हम सब उनके हाव-भाव से अच्छी तरह वाकिफ थे। ख्यावों के रास्ते ऐसे ही बनते हैं और जब उन्हें औलाद पूरा करे तो पैर जमीं पर नही पड़ते। वैसे भी उनके ख्याब एक सीढी चढ़ चुके थे।
फिज़ा की खाला जान चमन खबर मिलते ही आ धमकीं थीं। वह फिज़ा को दिल से चाहती थीं। उन्होंने उसे तमाम दुआओं से नवाजा और खुदा का शुक्रिया भी अदा किया। उनके अन्दर जरा भी बनावट नही थी। जो दिल में है वही बाहर भी, यही बजह थी कि उस घर का हर शख्स उन्हे दिल से चाहता था। हर मौके पर सबसे पहले वही थीं जो आती थीं। शबीना को जब भी जरूरत पड़ती या चमन को कोई काम हो तो दोनों एक दूसरें के लिये तैयार रहतीं। चूकिं वह शबीना से उम्र में चार बरस छोटी थीं इसलिये शबीना भी चमन को तहे दिल से महोब्बत करती थीं। जब से अमान पुणे गया था और फिज़ा भी अपने मुतालाह में लगी थी। घर से बाहर के कामों की दिक्कत न हो इसलिये शबीना और चमन मिल कर बाहर के काम निबटा लेतीं थीं। इसके लिये उन्हे फिज़ा को टोकने की जरूरत नही पड़ती थी। बेटी जब तक मायके में होती है उसकी वालिदा यही चाहती है वो खुश रहे। उसे किसी तरह की कोई तकलीफ न हो। जब वह अपने ससुराल जाये तो मायके की मीठी यादें ही लेकर जाये। उसके बाद तो नाजों से पाली लड़की भी चन्द दिनों की मेहमान हो जाती है। आती बाद में है, पहले जाने की जल्दी रहती है। कुदरती तौर पर उसे अपनी जिम्मेदारियों का अहसास हो जाता है और वह यकायक बड़ी हो जाती है।
अब फिज़ा के ख्यावों की मंजिल करीब थी। सी.ए. के पहले ग्रुप का फार्म उसने भर दिया था। उसके लिये अब सुबह की कोचिंग थी। सुबह छ: से नौ बजे तक की क्लास होती थी। खान साहब ने उसकी स्कूटी दुरूस्त करवा दी थी। वैसे कभी -कभार वो भी उसे कार से छोड़ आया करते थे। मगर लौटते वक्त दिक्कत होती थी। खान साहब काम में फँसे होते तो फिज़ा को रिक्शे से लौटना पड़ता था। जो खान साहब को बिल्कुल पसंद नही था। शहर का माहौल दिन -पर -दिन बिगड़ता जा रहा था। इस बात पता खान साहब को अच्छी तरह था और इसी बात का डर शबीना को भी सताता रहता था।
आज फिज़ा बहुत खूबसूरत लग रही थी। उसने सफेद और काले रंग का छींटदार सलबार कुर्ता पहना था। कोचिंग में भी सबने उसकी तारीफ की थी। तारीफ सुन कर वह सुर्ख हो गयी थी और गाल लाज से दमकने लगे थे। कोचिंग से बाहर आकर फिज़ा ने स्कूटी स्टार्ट की और घर की तरफ चल दी।
अभी कुछ दूर ही पहुँची थी कि तीन लड़कों ने उसकी स्कूटी रोक दी। वैसे तो आवारा और मनचले लड़के अपनी हरकतों से बाज नही आते थे। लड़की देखते ही गोश्त की बू लग जाती और भूखे भेडिओं की तरह मँडराने लगते। मगर आज तो हद ही हो गयी थी। पहले तो फिज़ा घबरा गयी फिर उसने सामने खड़े बुजुर्गबार को देख हिम्मत की और स्कूटी को स्टैंड पर लगा दिया। स्कूटी की डिक्की से फोन निकाला और अपने अब्बू को लगाया ही था कि उसके तेवर देख कर वह तीनों मनचलें आहिस्ता से घिसक लिये।
फिज़ा ने तेज चलती हुई साँसों को थोड़ा थमने दिया। सामने से बुजुर्ग बार जो सब देख रहे थे, करीब आ गये। मुस्कुरा कर कहने लगे- "लाहौल वाकुलवत, क्या जमाना आ गया है? ऐसे आवारा मुशतन्डों को मैं बखूबी जानता हूँ। बेटी तुम फिक्र मत करो और तसल्ली से घर जाओ। कहो तो मैं कुछ दूर तक तुम्हे छोड़ देता हूँ।" इतना कह कर उन बुजुर्ग बार की फुह़श निगाहें फिज़ा के कसे हुये सीने में जा धँसी। वह उसके जिस्म की कसाबट और खूबसूरती में इस कदर खो गया कि वह इस बात से बेपरवाह था निगाहों की दरिंदगी भी पकड़ी जा सकती है। या फिर वह मौंका गँवाना नही चाहता था। उसने ऊपर से नीचें तक उसके पूरे जिस्म का मुआयना कर डाला।
उसकी जिस्मानी जुम्बिश निहायत ही निचले दर्जे की थी। बात करते-करते वह जान बूझ कर बेहद करीब आ गया था। फिज़ा को लगा जैसे वह उसके जिस्म को सूँघने की कोशिश कर रहा हो। वह घबराहट से सिहर उठी।
उसने सकपका कर अपने दुपट्टे को ठीक किया और थोड़ा पीछे हट गयी। उड़ती सी नजर उनके चेहरे पर डाली। बेशक उसकी उम्र का अन्दाजा तो वह नही लगा पाई थी मगर खिजाब लगे हुये सिर के बाल, आँखों के पास की खाल पर पड़ी छुर्रियाँ बता रही थीं कि वह पचास या पचपन बरस के आस-पास ही होगा। उसके चेहरे पर बेखौफ, भूखी मुस्कान, जिसे देख कर फिज़ा को ऊबकाई आ गयी।
वह जल्दी से जल्दी वहाँ से निकल जाना चाहती थी। वह उन दिलफेक आशिकों से उतना नही डरी थी जितना इस गलीच बुढ़ढे से डर गयी थी। कुछ लब्ज़ हलक में थे कुछ जुवान पर, बस इतना ही बोल पाई- "शुक्रिया, मैं चली जाऊँगी।" उसने स्कूटी स्टार्ट की और आगे निकल कर चली गयी। रास्ते भर कई बार ऐसा हुआ जब उसे सामनें से आता हुआ हर बुजुर्ग उस गलीच बुढढे जैसा ही लगा। हर बार उसकी स्कूटी लड़ते-लड़ते बची थी।
फिज़ा जब घर पहुँच गयी तब उसने राहत की साँस ली। फिर एक-एक लब्ज हू-बहू अम्मी जान को बता दिया। बताते वक्त भी उसके ज़हन में वही तर्स था। सबसे पहले शबीना ने उसे एक गिलास में पानी दिया, जिसे वह एक साँस में ही गटक गयी। जैसे-जैसे वह बता रही थी शबीना के चेहरे का रंग बदल रहा था।
शबीना गुस्से से आग बबूला हो गयी थी। इस बात का शक शुब्हा तो उसे पहले से था मगर आज वो हकीकत बन गया था। वैसे भी एक जवान लड़की की वालिदा का दिल होता ही कितना है? बावजूद इसके, उसने फिज़ा को हिम्मत बँधाई - " तू डर मत मेरी बच्ची, कुछ नही होगा। बस तेरे जाने-आने पर तबज्जो देनी होगी। वो भी इसलिये ताकि तेरी सी. ए. की तामील में कोई रुकावट न आये। वैसे तो हम जानते हैं तू हिम्मती है फिर भी कल से तेरे अब्बू जान ही जायेगें तुझे छोड़ने। अगर दिखाई पड़ जाये वह ऐयाश तो मिलवा देना अपने अब्बू जान से, ताकि ऐसे गलीच, नामुराद लोगों को अपनी बेहयाई का सबक मिल सके और वो जान जायें कि बच्चियाँ उनके घर में भी हैं। ऐसे आसिमों को उनकी जुम्बिश की सजा मिलनी ही चाहिये। हद हो गई कमीनेपन की। या अल्लाह कहाँ जायेगा ये जमाना..?" ये बात शबीना ने बिलकुल हल्के -फुल्के लहजे में कही जरुर थी वह भी फिज़ा को दिखाने के लिये, उसे तसल्ली देने के लिये ताकि वह घबरा कर तामील में पिछड़ न जाये। मगर कहीँ-न-कहीँ वह अन्दर-ही -अन्दर खौल रही थी। आज के इस वाक्या ने उसे हिला के रख दिया था। उसे लगने लगा था अब फिज़ा बाहर मह़फूज नही है। जवान तो जवान बुजुर्ग बार ..छि....अब तो इसके लिये कोई फैसला लेना जरूरी हो गया था।
शबीना ने फैसला ले लिया था वह सोचने लगी, वक्त आ गया है जब फिज़ा का निकाह पढ़वाना जरुरी हो गया है। खान साहब से आज ही इसका जिक्र करना होगा। वैसे रिश्तों की तो पहले भी कोई कमी नही थी मगर उन्होने इस बारें में अभी सोचा ही नही था। हमेशा उन्होंने उसके ख्याबों को तरजीह दी और यही चाहा कि उनके बच्चे तरक्की करें नाम रौशन करें। उन्होने कभी नही चाहा कि उनके बच्चे दकियानूसी जिन्दगी को जियें और फिर आगे की तामील ससुराल में भी ली जा सकती है। आजकल तो ज्यादातर लोग इस बात को तैयार हो ही जाते हैं। उन्हे कोई एतराज नही होता। फिर हम रसूखवाला पढ़ालिखा खानदान देखेंगे अपनी बेटी के लिये, जहाँ उसकी तामील पर कोई रोक न लगे। और फिर खुदा के फज्लोकरम से फिज़ा नेकदिल लड़की है। वह सबका ख्याल बखूबी रखेगी तो उन्हें भी कोई गुरेज नही होगा उसके मुतालाह से।
शबीना इन्ही सब उधेड़बुन में फँसी हुई थी।
क्रमश: