घुंघरू Yogesh Kanava द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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घुंघरू

घुंघरू


आज ना जाने क्या हुआ था मुझे, वापस आ तो रहा था लेकिन लग रहा था कि कुछ ना कुछ पीछे छूट गया है। मैं जब गया था तो सोचा भी न था कि इस प्रकार से, इतनी बड़ी सौगात के साथ लौटूगाँ। मैं अपनी गाड़ी चला रहा था लेकिन विचारों में अभी भी वहीं रंगपुर का घुंघरू बैठा था। घुंघरू एक नौजवान जो अपने फन का उस्ताद है। अपनी ही धुन में रहता है, ना कोई लाग-लपेट बस जो कहता है वो सीधे-सपाट तरीके से कह देता है। एक बार तो उसका नाम सुनकर ही लगता है भला यह कैसा नाम है, घुंघरू। घुंघरू तो पैरों में बंधता है, और पैरों में बंधकर ही वो अपना अस्तित्व बताता है। फिर भला एक आदमी का नाम घुंघरू, थोडा-सा अज़ीब सा लगता है।

बस इन्हीं ख़यालों के साथ मैं बढ़ता चला जा रहा था। एक और अनजानी सी डगर की ओर। अनजान जगहों पर जाना, अनजान लोगों से मिलना और उन्हीं में घुलमिल जाना मुझे बहुत ही अच्छा लगता है। बहुत ही आसानी से उन्हीं लोगों जैसा लगने लग जाता हूँ। अगर किसी की संस्कृति को करीब से जानना है तो बिना उनके बीच गए आप नहीं जान सकते हैं। बिना उनके खान-पान में शरीक हुए उनके असली स्वाद को नहीं जान सकते हैं । भला, पाँच सितारा होटलों के सैफ को अगर आप गुलयाणी-या ठेठ देहाती खाने की बात कहेंगे तो उसके लिए वो स्वाद दे पाना नामुमकिन सा हो जाएगा।

वो स्वाद तो आपको मिलेगा उन्हीं लोगों के बीच, उन्हीं के तरीके से बैठना, उन्हीं के तरीके से खाना, रहना, सबकुछ और ये सब तो बहुत अच्छी तरह से जानता था। अपनी धुन का पक्का मैं आज अपने साथ घुंघरू की यादों का मेला लेकर चल रहा था। वाकई आज मैं अकेला नहीं चल रहा था। धीरे-धीरे यादों में डूबता चला गया।

बीकानेर से कोई 150 किलोमीटर दूर रेत के धोरों में एक छोटा सा गाँव रंगपुर। नाम से ही लगता है कि यह गाँव कोई अपनी खूबी ज़रूर लिए है। अपनी गाड़ी में बैठ मैं सोच ही रहा था कि इस गाँव में रुकुं या आगे बढ़ जाऊँ। बस इसी अनिर्णय की स्थिति में अपनी गाड़ी रोक एक चाय की दुकान पर रूक गया। चाय की दुकान क्या थी बस एक छोटी सी टपरी थी। घास-फूस का एक छोटा सा छप्पर जिसके एक कोने में एक चूल्हा और पास ही झाड़ियों की सूखी टहनियाँ और कुछ लकड़ियाँ पड़ी थीं। वहीं पर चूल्हा फूंक रहा वो चाय वाला। अचानक ही आकर रूकी लम्बी-सी गाड़ी और शहरी बाबू को देख वो हाथ जोड़कर खड़ा हो गया, हुकम पधारो सा, कईं आपकै पेशल चाय लेन आउंसा। अठे माचा ऊपरां पोढ़ो सा। मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूं, शायद वो मुझे पास पड़ी चारपाई पर बैठने के लिए ही कह रहा था। मैं पूरी तरह से उसकी बोली समझ नहीं पा रहा था, फिर भी उसकी बाडी लैंग्वेज से मैं समझ गया था कि वो मुझे उस चारपाई पर बैठने के लिए ही कह रहा था। मैं धीरे से उस टूटी सी चारपाई पर बैठ गया।

वो बड़े ही अदब से फिर बोला- कंई सा चाय लेन आऊं। बीकानेरी भुजिया अर बिस्कुट भी है सा, आप कंई लेओ। एक चाय बिलकुल कम चीनी वाली लेकर आओ। कंई सा थोड़ी सी बीकानेरी भुजिया भी लेइन आऊं।, फोसरी है सा, आपरो हुकम होय तो लेअन आऊं......मैं कुछ नहीं बोला बस हूँ ही बोला। शायद वो समझ गया था कि मैं उसकी बोली पूरी तरह से समझ नहीं पा रहा हूँ इसीलिए वो चुपचाप हो गया, एक गिलास में चाय और एक अखबार के टुकड़े में थोड़ी सी बीकानेरी नमकीन लेकर आ गया। मैंने चाय की पहली घूंट ली तो लगा एक अलग ही स्वाद था उस चाय में, लगा जैसे चूल्हे का धुंआ भी उसी चाय में घुल गया था।

पहली बार तो इस अजीब से स्वाद से जायका ही बिगड़ा सा लगा लेकिन बीकानेरी भुजिया के साथ धीरे-धीरे उसका स्वाद बेहद अच्छा लगने लगा। बैठे-बैठे चाय कब ख़त्म हो गई थी मुझे नहीं मालूम, बस यूँ ही उस आदमी को चाय बनाते देख मैं सोच ही रहा था कि अचानक ही बीस-बाईस वर्ष का एक व्यक्ति वहाँ पर आया, ठेठ देहाती लिबास, ऊँची-ऊँची धोती, कुर्ता, कानों में मुरकियाँ और मूछों पर मरोड़। पैरों में भी औरतों की तरह चाँदी का कड़ा लेकिन एक ही पैर में था। वो बोला- अरै चाय लेअन आओनी सा....... हूँ उडीक रियो हूँ नी, अेड़ी देर लगाओ, गाअक तो पाछो जावैनी सा, कंई सा थां बुढ़ा होग्या काकीसा रै नीडे़ जाअन बैठो, और कंई करो।

जैसे ही उस व्यक्ति ने अपनी बात ख़त्म की वो चाय वाला मेरी ओर देखकर बोला बाबूसा एक चाय और लेअन आऊं कई। मैं सिर्फ गरदन हिलाकर हाँ भर पाया, मैं जानना चाहता था वहाँ के रंग, वहाँ के लोकाचार, वहाँ के लोगों के बारें में जानना है तो बैठना तो पड़ेगा ही। तभी चाय वाला, चाय लेकर आ गया, वो बोला, बाबूसा म्हनै नी ठा आप कठैऊं पधार्या हो, पण ओ बैठ्यो है नी, घुंघरू म्हारे अठै बीस गाँवां मायं अंरी जोड़ रो कोई कलाकार नी सा, पण ओ अैबलो है सा- जदां मन करै आप ही आप नाचणै-गाणे लाग जावे, नी मन करै आप-आप लाख रीपिया द्यो तो भी ओ भलो मनख काम नी करै, बोले मूं री कला बेचणै सारू नी है।

मैं थोड़ी कोशिश कर समझना चाह रहा था। मैं सोचने लगा यह व्यक्ति ज़रूर कोई स्वाभिमानी है, कलाकार में जब तक स्वाभिमान ज़िन्दा नहीं रहता है वो आला-दर्जें का कलाकार नहीं बन सकता है। मैं सोच ही रहा था कि वो चाय वाला फिर बोला- बाबूसा आप ईच हमजाओ नी इण मनख नै। मेरे को उसकी पूरी भाषा तो समझ में नहीं आ रही थी लेकिन मैं इतना समझ गया था कि आज मेरी मुलाकात किस्मत से एक कलाकार से हुई है।


कलाकार, साहित्यकार, शिल्पकार, चित्रकार कोई भी हो निश्चय ही संवेदनशील होते हैं । जब भी उनकी संवेदनाएं आहत होती हैं वो नवसृजन करते हैं, लोग उन्हें मूडी, पागल, जुनूनी............ना जाने क्या-क्या कहते हैं पर वो अपनी धुन के पक्के होते हैं। मैंने ना जाने किस भाव से प्रेरित हो उस व्यक्ति से पूछ लिया- तुम्हारा नाम घुंघरू है ? हाँ-सा, है तो घुंघरू ई, बाजणै सारू, काम है नी सा इण जिनगानी मांय यूं बाजतो रूं। मैंने पूछा- यह नाम किसने रखा है तुम्हारा, ओ तो मनै ठा नी सा पर म्हारै नांव रे सागैई मूं री तक़दीर जुड़गी, मूं लारला कई बरसां सूं बस इणीज भांत बाजतो रियो हूँ जिणिज भांत मूं रो नांव है। मैं उसके बोले शब्दों का अर्थ समझने का प्रयास कर रहा था, वो भी शायद मेरे बारे में जानने को उत्सुक था। उसने पूछ ही लिया, आप कठै सुं पधार्या हो सा ?, मैं बोला मैं अभी तो जयपुर से आया हूँ वैसे मैं मुम्बई का हूँ । एक लेखक हूँ और मुझे नए लोगों, नई कला, संस्कृति और कलाकारों से मिलने का शौक है। वो तपाक् से बोला- सां जैपर तो घणो बड़ो सा मूं हिन्दी भी जाणुं सा पण थोड़ी जाणू और फिर मिलीजुली भाषा में अपनी बात बताने लगा।

मैंने उससे कहा मुझे इस इलाके के बारे में बताआगे ? वो बोला- आप कितने दिन रुकेगें, मैंने कहा- पता नहीं एक दिन, दो दिन या फिर दस बारह दिन, अच्छा लगेगा वैसे ही अपना प्लान बनाऊंगा। आपने सबसे पहले कैर सांगरी अर काचरी की सब्जी मेरे घर पर खिलवाता हूँ, बंसरी है ना साहब बहुत अच्छा खाणा बणाती है। मैं समझ गया था कि इसकी पत्नी का नाम बंसरी है। कैसा अज़ब संयोग है यह खुद घुंघरू और पत्नी बंसरी।

अच्छा यह बताओ तुम कलाकार हो, क्या करते हो, गाते हो या बजाते हो। साब मूं नी तो गांऊ अर नी बजाऊं, म्हूँ तो नाचूं सा, आप भवई को तो नाम सुना होगा, मैं भवई नाच नाचूं सा। वो धीरे-धीरे अपने बारे में बताता रहा। मैं शान्त बैठा सुनता रहा, तभी वो अचानक ही बोला- आप इस छोटे से गाँव में कहां रूकेंगे साब ? कोई होटल, धर्मशाला तो है ही नहीं- एक काम करो सा आप म्हारा झोंपु मांय पधारो। मेरे पास दो झोपूं है एक खाली है बापू के चल बसने के बाद बस यूं ही बन्द ही रहता है, बंसरी और मैं एक ही झौंपूं में सो जाते हैं । चलो ना साब, जो भी सेवा कर पाऊँगां, करूंगा साब।

मैं उसकी इस आत्मीयता से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। एकदम अनजान परदेशी को भी इस तरह से अपना बनाना कोई इन लोगों से सीखे, वो मेरा बैग उठाए आगे-आगे चलने लगा था गाड़ी के जाने लायक जगह नहीं थी इसलिए गाड़ी वहीं चाय वाले के पास ही छोड़ दी थी। घर पहुंँच कर वो अपनी पत्नी को आवाज़ देने लगा- बंसरी, अरै बंसरी, कठै गई, अरै देख म्हूँ किण ने लेअर आयो हूँ, अ बाबू साब जैपर सहर सूं आया है अठे धूमणै खातर, अब एक काम कर, म्हूँ साब ने ढ़ाणी दिखाऊं अर तू कैर-सांगरी न काचरी रो साग रांद लै। और बैग एक झोंपू में रख मुझे अपनी ढ़ाणी-खेत और रेत के धोरे दिखाने चल पड़ा।

शाम हो गई थी, यूँ ही घूमते-घूमते, कुछ थकान भी हो गई थी सो हम दोनों वापस उसके घर की ओर चल पड़े। घर पहुँंचकर उसने खाना लगवाया। चारपाई पर बैठ थाली में चूल्हे पर कड़ैली में बनी मोटी रोटी जो घी से भरी थी, कैर-सांगरी की सब्जी और साथ में राजस्थानी कढ़ी। मैं सोचने लगा- कितने जीवन्त हैं ये लोग, कोई जान-पहचान नहीं, कोई रिश्तेदारी नहीं, बस एक अनजान आदमी पर इतना विश्वास! उसके लिए इतना सबकुछ करना, शायद इन्हीं के वश में है। दूर शहर में तो बगल वाले पड़ौसी को भी हम ठीक से नहीं जानते है, वो मर रहा है कि जी रहा है, हमें कोई सरोकार नहीं, बस एक अंधी दौड़ में हम भागे जा रहे हैं। और एक तरफ ये लोग हैं। ना सर ढकने को कोई पक्की छत, ना कोई भौतिक संसाधन, लेकिन फिर भी कितने सुकून की ज़िन्दगी है इनकी। तभी एक आवाज़ ने मुझे चोंका दिया- ‘‘सुनो जी, अ साब तो कीं खाई नी रिया। म्हनै लागै इण नै भा नी रिया। इतनी मीठी सी आवाज़ में थोड़ा सा समझ गया था कि मैंने खाना शुरू नहीं किया था। मैं बोला- नहीं ऐसी कोई बात नहीं है, मैं बस यूँ ही....... धीरे से पहला कोर तोड़ा और मुँह में डाला तो एक अद्भुत स्वाद जो मैंने पहले कभी नहीं चखा था।

वाकई लाज़वाब, उसकी पत्नी धीरे से घुंघरू से बोली- किं ओर बणाऊँ कंई, इण साब ने भा नी रियो लागै। मैं बोला- नहीं भाई इतना अच्छा स्वाद मैंने पहले कभी नहीं खाया है, बस मैं यही सोच रहा था। एक अनजान के लिए आप लोगों के मन में इतना प्रेम, अद्भुत बस अद्भुत। और मैंने पूरा खाना बड़े ही चाव से खाया। जब तक मैंने खाया वो दोनों वहीं खड़े रहे, मैंने कई बार बोला कि वे दोनों भी खा लें तो बस एक ही बात बोलते- नहीं साब पहले मेहमान खा लें तभी खाएँगे। मेहमान भगवान होता है साब, और भगवान सबके घर नहीं आते। बस यूं ही बातें करते रहे। रात में वो वापस आकर कहने लगा- आपको सहर जैसा तो आराम नहीं मिलेगा पण कंई करूं सा, और इन्तज़ाम नी कर सकुं सा। हाँ आप बीकानेर रो कैमल फेस्टीवल देख्यो क ? नी देख्यो । मैंने ना में गर्दन हिलाई तो वो बोला- काल सुबह म्हूँ आपने बीकानेर लेकर चालूं सा, वठै ही म्हारों नाच भी दिखाऊँगां।

अगले दिन हम मेरी गाडी में बैठ बीकानेर चले गए। केमल फेस्टिवल देखने, सजे-धजे ऊँट, रंग-बिरंगे परिधानों में देशी-विदेशी लोग, पगड़ी प्रतियोगिता और भी ना जाने क्या-क्या, लेकिन मेरा मन तो केवल घुंघरू का नाच देखने को ही हो रहा था और फिर रात आई, रेत के धोरों में दूर-दूर तक फैले सन्नाटे के बीच अचानक ही एक मीठी सी तान सुनाई दी- ये तान एक धोरे से आ रही थी। वो बोला- चलिए साब अब टेम हो ग्यो, खंजरी की तान शुरू हो गई है- साब ये खंजरी है, आ इतना मीठा गाती है कि पैर अपने आप ही इसकी तान पर थिरकने लगते हैं। पतो नी भगवान किस्यो जादू दियो है सब नै आपरा बस मैं कर लेवे।

और वो मुझे एक जगह बिठाकर चला गया- वो मीठी सी तान सुनाई देती रही, अचानक ही घुंघरू ड्रेस-अप होकर तम्बू से बाहर आया और खंजरी की तान पर नाचना शुरू हो गया। खंजरी के कण्ठ से निकलते सुर और घुंघरू के पैरों की लय, मानो किसी अद्भुत लोक की रचना कर रहे हों। देर रात तक नाचते रहे और फिर थोड़ी ही देर में घुंघरू के किसी औरत से उलझने की आवाज़ आने लगी- वो औरत उसे गालियाँ निकाल रही थी और घुंघरू चुपचाप मेरे पास आ गया, कुछ नहीं बोला, बस बैठ गया नीचे रेत पर ही। मेरे पूछने पर बस इतना ही बोला- साब आपको नींद आ रही होगी, चलिए आप सो जाओ। कल बताऊँगां। रात वो सोया कि नहीं सोया मालूम नहीं, पर मुझे नींद नहीं आई। मैं लगातार उसके नृत्य और उस औरत से झगड़े के बीच ही उलझा रहा।

बस यूँ ही सुबह हो गई, चाय पी और आगे के लिए वो कहने लगा- पहलां देसनोक चलां, वहाँ पर माता का मन्दिर है साब, पूरी दुनियाँ मायं एकलो मन्दिर है जठै पूरा मन्दिर में ऊन्दरा ई ऊन्दरा सा, मूसा वा कंई कैवो आप, चूहा। कभी-कभी सफेद चूहा दीख जाता है जिसे भी दीखता है वो भाग्यशाली होता है और उसकी मन की मुराद पूरी हो जाती है। मैं उसकी इस बात को सुन आश्चर्य से देख रहा था। देसनोक, करणी माता मन्दिर जाने की इच्छा हो गयी थी। मन्दिर के पूरे रास्ते गुमसुम बस कोई बात नहीं हुई। चुपचाप करणी माता के दर्शन किए और उसके गाँव की ओर चल दिए। वो धीरे से बोला- आप रात में उस औरत से लड़ाई की बात पूछ रहे थे ना साब। वो खंजरी थी जो रात में गा रही थी। खंजरी बहुत अच्छा गाती है और मैं उसके गाने पर ही नाच पाता हूँ, कोई दो साल हुए जब बंसरी का बाप चल बसा था, उसके बाद मेरा नाच बन्द हो गया था, कोई तान देने वाली नहीं थी ना साब, बंसरी तान देती थी और मैं नाचता था लेकिन बाप की मौत ने बंसरी के सुर बांध दिए। उसने गाना बन्द कर दिया, वो अभी भी नहीं गाती है।

इसी तरह आवारगी में एक दिन मैंने खंजरी को गाते सुना और मेरे पैर अपने-आप ही चलने लग गए, और उस दिन जब तक वो गाती रही, मैं पागलों की तरह बस यूँ ही नाचता रहा, न जाने कितनी देर तक, और वो बस मुझे देखती रही। इसी तरह फिर हम दोनों साथ-साथ नाचने-गाने लगे। कोई सालभर पहले एक रात हम दोनों कैमल फेस्टिवल में बीकानेर के धोरों में हमेशा की तरह ही नाच-गा रहे थे, रात ढल चुकी थी, सारे देशी-विदेशी मेहमान अपने-अपने तम्बू में जा चुके थे, उस खुले आसमान के नीचे बस हम दोनों के सिवाय आस-पास कोई नहीं था। खंजरी ने एक पैग और पिया, एक पैग मेरी तरफ बढ़ा दिया। मैं दारू नहीं पीता था साब, उसी दिन पहली बार पी थी, उसके साथ। और फिर वहीं खुले आसमान के नीचे खंजरी और मैं बस एक हो गए......................। उसके बाद तो मुझे लगता मैं खंजरी के बिना अधूरा हूँ। वैसे बीच-बीच में मैं बंसरी से मिल आता था। धीरे-धीरे खंजरी ने मुझ पर बंसरी को छोड़ने का दबाव बनाना शुरू कर दिया।

साब पता नहीं कौनसे अच्छे कर्म किए थे, मैं बंसरी को नहीं छोड़ पाया और खंजरी से दूर हो गया। कल पूरे छः महिने के बाद मिले थे हम दोनों, कल वो फिर मुझे अपने साथ सोने के लिए ज़िद कर रही थी। मैं चुपचाप उसकी कहानी सुनता रहा, लग रहा था किसी फिल्म की कहानी है, इन तीनों के इस त्रिकोण में। मुझे चुप देखकर वो फिर बोला- साब अब आप बताओ ना म्हूँ ग़लत काम करियो कांई, खंजरी न छोड़ अर ? नहीं घुंघरू तुमने ठीक ही किया था पर ये तो बताओ तुम बंसरी को क्यों नहीं छोड़ पाए ? साब कहां खंजरी और कहां बंसरी। बंसरी होठो से लगती है तभी उसमे सुर फूटते हैं , और खंजरी जब तक उसको थाप नहीं पड़ती वो बजती नहीं है, अर इणीज भांत एक बात और सोचो नी साब बंसरी का सुर मीठा लागै अर खंजरी माँ वा बात नी साब। खंजरी नाचणै सारू बजाई जा सकै पण- भगवान री आरती मांय बंसरी ई बाजै।

घुंघरू रो कंई है, इण री तकदीर तो साब थिरकने के लिए ही बणी है, हर बार टूटै, बिखरै अर फेर यूं इनै डोरा सूं बांध पैरों में बांध लेवैं। साब घुंघरू तो ओरों की तान पर ही थिरकते हैं, चाहे वो तान बंसरी की हो या फिर खंजरी की। मैं थिरके बिना नहीं रह सकता हूँ साब। या थिरकन यो नाच मेरो जीवण है सा, मैं बीच मां न बन्द करियो पण म्हारो जी घुटबा लाग्यो, लागै घुंघरू ख़तम होणै लाग्यो तभी साब मैं घर से भाग गया। कहाँ-कहाँ नहीं भटका, घुंघरू की तक़दीर भटकन, टूटन और थिरकन ही तो है। थिरकने के रूकने पर समझो घुंघरू खतम। मैं अब समझ गया हूँ साब, खंजरी कै साथ म्हारी बरबादी ई है, भलो नी व्है सके। बंसरी म्हारी जोड़ायत तो पछै है पैली पोत वा घुंघरू री तान है, इण री सांस है, जब ही तो साब घुंघरू लौट-लौट कर वापस बंसरी के पास ही आता है।

साब आप बुरो मत मानो पण आप ही सोचो बंसरी म्हनै कदे ही दारू वास्ते नी कयो, पण वा खंजरी म्हनै दारू पीवणो सिखायो अर बार-बार खोटो काम, नहीं साब नहीं, बस काल इणी बात री लड़ाई हो री। उसकी बातें सुनकर मैं बोला- तुम बंसरी को वापस गाने के लिए तैयार क्यों नहीं करते हो? साब वा कैवे म्हारो बाप म्हारी आवाज़ लै न चलो ग्यो। आप ही बताओ साब मर्योड्या मिनख रे लारै कोई साथ मर्यो जावै कंई, पण वा बावळी इण बात ने समझै कौनी।

बस इसी तरह बातें करते-करते ही हम लोग घुंघरू के गाँव वापस पहुंच गए थे। आज उसके यहाँ पर रूके चौथा दिन था। मैं वक़्त की नज़ाकत समझ बंसरी से बोला- सुनो घुंघरू बता रहा था तुम बहुत अच्छा गाती हो ? ज़रा सुनाओ ना ! नी सा म्हूँ नी गाऊँ, ए तो बावळी बातां करै। अच्छा ये तो बताओ तुमने कभी भी गाया नहीं क्या, मेरे इतना कहते ही वो चुप हो गई। वहीं खड़ी पैर के अंगूठे से ज़मीन कुरेदने लगी। मैं बोला- देखो तुम अच्छा गा सकती हो, और अच्छा ही नहीं बहुत अच्छा गा सकती हो, तुम गाओगी तो घुंघरू के पैर चलेगें। वो धीरे-धीरे सुबकने लगी। कुछ नहीं बोली। बस धीरे से उठी और चूल्हे के पास जा खाना परोसने लगी। वो हम दोनों के लिए दो थालियाँ ले पास ही बिना बोले खड़ी हो गई।

मैंने पहली बार उसके चेहरे की तरफ देखा, खंजरी की तुलना में कितनी ज़्यादा सुन्दर और शालीन, वाकई बंसरी है, उसकी तरफ देख मैं विचारों में मग्न हो गया। वो धीरे से बोली- साब, खाणो खा ल्यो, खाणो खायां पछै आज बंसरी फेरयूं गासी सा। मेमान भगवान व्है, आप बड़भागी, म्हूंरै घरां पधार्या, भगवान आईग्यौ, म्हूँ भगवान नै नाराज़ नी कर सकूं।

आप जीमो, पछै म्हैं गाऊँ। और फिर सचमुच खाना ख़त्म होते-होते बंसरी की तान फूट पड़ी। सचमुच कोयल से भी मीठी तान और फिर उसकी तान पर मदमस्त घुंघरू थिरक पड़ा। देर रात तक दोनों की जुगलबन्दी चलती रही और फिर सारे दुःख-दर्द भूल दोनों अपने-आप में ही खो गए।

मुझे लगा, घुंघरू की लय केवल बंसरी की तान के साथ ही हो सकती है, भले ही खंजरी बजती रहे पर जो माधुर्य बंसरी और घुंघरू में है, वो खंजरी में कहाँ। अचानक ही मेरे पैरों ने तेजी से गाड़ी के ब्रेक लगाए, मुझे आभास ही नहीं था कि मैं कहीं और जाने के बजाय सीधा अपने घर पहुंच गया था। घुंघरू और बंसरी की यादों की सौगात के साथ।

--- योगेश कानवा