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कोरड़ी

बरसाती बादलों के उमड़ आते ही पुरानी छोटे अक्सर सालती हैं । उनमें दर्द उभरता है , कुछ याद दिलाता है कि बचपन में लड़कपन में जो बार-बार पेड़ की डाल से कूदते थे , दीवार फान्दते जब अमिया चुराते और अचानक ही ठाकुर दादा के गुर्गे वहां आकर हमारे को पकड़ने दौड़ते थे । जब पकड़े जाते थे तो कान मरोड़े जाते थे, कान मरोड़ने के डर से हम उसी दीवार को फान्दते थे । कई बार चोट लगती थी तो कई बार बचकर भाग निकलते थे । ठाकुर के गुर्गे जिस किसी को पहचान लेते थे उसी के घर जाकर उसके मां -बाप, दादा- दादी को भला-बुरा कहकर धमकी देकर अपनी ड्यूटी निभाते थे ।

देश को आज़ाद हुए 25 वर्ष हो चुके थे ना रजवाड़े थे ना कोई कोरडी । कोरडी हां गांव के ठाकुर की हवेली या गांव के ठाकुर का घर जो बड़े ठाकुर का घर है वही कोरडी है लेकिन आज भी उसी ठाकुर कोरड़ी में ज्यादातर गांव वाले अपना शीश झुकाने को जाते ही थे । जाना भी पड़ता था रजवाड़ी ना सही पर रजवाड़ी मानसिकता तो थी ही ना । तो वहीं पर प्रजा की मानसिकता से भी उभर नहीं पाए थे लोग अभी तक । अभी ठाकुर दादा को अन्नदाता ही मानते थे । गांव में जब भी कोई ब्याह शादी होती तो दूल्हे को ठाकुर दादा का आशीर्वाद लेने के लिए नंगे पैर ही जाना पड़ता था । घोड़ी का तो सवाल ही पैदा नहीं होता और वह भी नीची जाति वालों के लिए संभव ही नहीं था । तब मेरा बालमन यह सब नहीं समझता था । कोई आदमी आता था और दादाजी से कहता - ठाकुर साहब बुलाए छे। अबार ही चालणो पड़सी । और दादा जी जो भी काम कर रहे होते थे उस काम को छोड़कर ठाकुर कोरडी में हाजिर हो जाते थे । वहां क्या होता था मुझे नहीं मालूम हां एक बात बार जिद कर के दादाजी के साथ में भी गया था तो ठाकुर दादा ने मुझे गुड़ की डली दी थी। और मैं खुश हो गया था गुड़ की डली लेकर ।

एक बार एक दूल्हे ने गांव के ठाकुर की कोरडी में जाने से इनकार कर दिया था । मैं तो छोटा ही था पर गांव में खूब हंगामा हो गया था । मेरी जात वाले विरोध में खड़े हो गए थे । वह दूल्हा मेरे चाचा जी थे कोरड़ी में दादाजी को बुलाया गया था लेकिन दादाजी नहीं गए थे । ठाकुर कुछ नहीं कर पाया था । करता भी क्या मुझे याद है , ठाकुर के घर कहते हैं पहले महफिल लगती थी । रोजाना दारूडी और मारुड़ी दोनों ही होती थी । ठाकुर दादी समझदार थी । ठाकुर दादी समय की नब्ज को पहचान चुकी थी । ठाकुर दादा की दारूडी की लत के कारण पहले ही लगभग सारी जमीन गिरवी रखी जा चुकी और फिर धीरे-धीरे जेवर और गहने भी सब गिरवी रखे गये । गिरवी रकने जाने पर ठकुराइन दादी खूब रोती थी । कहते हैं एक दिन ठाकुर दादा और ठकुराइन में यह बहस कोरड़ी के बाहर तक सुनाई दी थी । कोरड़ी में एक दाना भी नहीं था और ठाकुर दादा दारू पीकर रोटी बोटी मांग रहे थे । बोटी कहां से आती जब रोटी ही नहीं थी । उस रात पहली बार ठाकुर दादा को अपनी गलती का एहसास हुआ । उन्हें पहली बार देश आज़ाद होने की बात समझ में आई । यह वही दिन था जिस दिन मेरे चाचा रे दूल्हा बनने के बाद कोरड़ी में धोक देने जाने से इनकार कर दिया था और कहा था - क्यों जाऊं मैं कोरडी में । ठाकुर जिसके पास खुद खाने को दाने नहीं है हर पांच - साथ दिन में ठकुराइन दादी का संदेशा आता है और दादा जी चुपचाप ढूमले में चुन (आटा ) डाल अंगोछे में ढक कर रात में कोरड़ी में पहुंचा दिया करते थे ।

बारात घर वापस आ गई चाची आ गई थी घर में अब एक बार फिर से बहस चल निकली थी कि चाची को तो ठकुराइन दादी को मुंह दिखाने के लिए जाना ही पड़ेगा । मोहल्ले की सारी औरतें अड़ गई थी । लेकिन चाचा जी अभी भी उसी जिद पर अड़े थे यह कोरडी नहीं जाएगी । अब देश आज़ाद है, हम किसी के गुलाम या किसी की प्रजा नहीं है और ना ही वह हमारे अन्नदाता है । कैसे हो सकते हैं वो अन्नदाता जिनको हल तक चलाना नहीं आता । जिनको यह तक मालूम नहीं कि गेहूं में और सरसों में कितने बार पानी दिया जाता है । भला वो अन्नदाता कैसे हो सकते हैं ।

और उसी रात एक काली कंबल ओढ़े हमारे घर एक साया आया था । घुप अंधेरे के बीच वह साया दादाजी के सामने और दादा जी की बूढी पारखी आंखों ने उस साए को पहचान लिया । ठकुराइन सा यह कैसा अनर्थ किया आपने , कोरडी छोड़कर ठकुराइन बाहर इस तरह निकला नहीं करती है । ठकुराइन सा कोई हल्कारा भेज देते तो मैं खुद ही कोरडी आ जाता । "नहीं सा हल्कारा भेजने की गुंजाइश नहीं थी । ठाकुर साहब के ठाकुर की मरोड़ के कारण वह आपके पास नहीं आ सकते थे । मै जानती हूं अंदर से वो पूरी तरह टूट चुके हैं । बाहर पौळी में मेहमान आए हुए हैं । और घर में हमेशा की तरह चून नहीं है" । घर में चून नहीं है यह बात ठाकुर से जानते हैं लेकिन मेहमानों के सामने कह नहीं सकते । "कोरडी की आबरू हमेशा आप ने बचाई है । एक और बात आज आपने घर नहीं बीनणी है । मुंह दिखाई रो नेग तो देणो भी जरूरी हो । मैं जानू जमाना बदल गया । जमाने के साथ ठाकुरों ने कदम नहीं मिलाए इसलिए आज यह दुर्दशा है हमारी । और हां खुशी की बात है ठाकुर साहब ने दारू पीनी छोड़ दी । आप एक काम करो सा एक ढूंमलो चून को लावो जब तक मैं नहीं बीनणी ने मुंह दिखाई दे आउं ।" बस इतना कहकर ठकुराइन दादी हमारे घर में दादी के पास चली गई । मैंने दादी को बाहर छुपकर सारी बातें सुनते हुए देख लिया था । ठकुराइन दादी के पैर छूने को झुकी तो ठकुराइन ने पहली बार दादी को गले लगाया था । लग रहा था मानो नीची जाति वालों को ठाकुरों के सीने‌ तक पहुंचने का हक मिल गया था और ठकुराइन दादी बस इतना ही कह पाई "नहीं पैर तो मुझे छूने चाहिए आपके । हमारी कोरडी की आबरु हर बार केवल आपकी वजह से बचती आई हैं। आपका‌ भेजा अन्न ही कोरडी की लाज रख पाया है। असली अन्नदाता हम‌ नही आप लोग‌ हैं" ,और फिर वह कुछ बिना आगे बोले ही ढूंमला चून ले कर चुपचाप उसी काले कंबल में लिपटे चली गई । कोरड़ी की आबरू उसी काले कंबल की थी । वो‌ मैली नहीं हुई थी एक नीची जात वाले के घर के भीतर जाने और मेरी दादी को सीने से भी।

 

 

 

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