तलाश - 8 डा.कुसुम जोशी द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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तलाश - 8


तलाश-8
(गंताक से आगे)

विभत्स से थे ये शब्द ...एक पल के लिये कविता को लगा कि सारी धरती घूम रही है तेज ...बहुत तेज और वो गिरने को हो आई , सम्भाला उसने अपने आप को ,
वो जानती थी ..कुछ भी बोलेगी तो परिणाम कुछ ऐसा ही होगा, पर लम्बी चुप्पी अपने लिये ही तो घातक थी, और आज उसने मन की घुटन को जाहिर कर दिया, अब यहां पर एक पल भी खड़ा होना मुश्किल लग रहा था, उसने एक उड़ती सी नजर मेज पर डाली जहां पर उसे उपहार में मिले कुछ लाल और नीले वेलवेट वाले ज्वैलरी बॉक्स रखे थे,जो मां ने अथक परिश्रम से जोड़े थे,
फिर बिना कुछ कहे, सामान लिये बिना ही वह निस्तेज कदमों के साथ अपने कमरे में आ बैठी, लगा मन मस्तिष्क कुछ भी काम नही कर रहा है, कुछ देर चुपचाप बैठी रही, फिर अनायास रुलाई फूट पड़ी, जी भर के रो चुकी कविता का मन हल्का हो आया, उसे लगा अब वो दुनिया से लड़ने के लिये तैयार है,
तभी दुर्गा उस सामान को लेकर आई जिसे वे मांजी के कमरे में छोड़ कर आई थी,पंलग में रखते हुए बोली "मांजी ने ये सामान भिजवाया है...पर बिटिया मुझे समझ में नही आ रहा है कि हो क्या रहा है"? फिर कुछ देर उत्तर की प्रतीक्षा में कविता को देखते रही, पर कविता का हर शब्द हलक में अटक गया था वह एकटक दुर्गा को देखते रही, फिर अनायास ही उसकी आंखें डबडबा आई,
हां बहू इस घर में हर कुछ ठीक नही है.. पर मेरी ये हैसियत तो नही कि हर बात मुझे पता हो या मैं उसे ठीक कर पाऊं...,
नहीं..नहीं.. दुर्गा दी ऐसा कुछ नही हुआ कि तुम परेशान हो..आप मुझे एक गिलास पानी पिला दो, ये कह कविता ने उन्हें कमरे से बाहर भेज दिया,वह अकेले रहना चाहती थी इस समय, अपने जीवन की दिशा और दशा को तय कर सके,कुछ देर सोचती रही, दुर्गा पानी दे गई थी कविता को गम्भीर चुप्पी में देख वह चुपचाप बाहर चली गई,
उसने पंलग के एक छोर में रखे अपने गहनों पर नजर डाली, उसे याद था कि उसने नौकरी करने के कारण अपनी मर्जी से कुछ हल्के फुल्के गहनों को अपने पास रख कर बाकि सब मांजी को सम्भालनें को दे दिये थे,उस दिन भी पहले 'वो' मना करती रही, कि मैं ये जिम्मेदार नही ले सकती...लॉकर लो और वहां रखो..फिर बोली कि जो हमने चढ़ाया है वही दो, खैर कविता ने जल्दी लॉकर लेने की बात कही थी, पर उसके बाद बात आई गई हो गई, पर आज उसमें ससुराल से मिला कोई भी सामान उसमें नही था,
तभी शमित आया और उस सामान के ऊपर एक लिफाफा रखने लगा..कविता से रहा नही गया गुस्से से बोली "अब इसमें क्या है?"
"तुम्हारे घर से मिला शगुन है" सपाट शब्दों में शमित बोला,
अब सब बात हो चुकी है ...जाने का आदेश भी मिल चुका..पर मेरा कसूर क्या है ये आज तक पता नही है मुझे...
शमित ने हैरानी भरी नजरें कविता पर डाली और कमरे से बाहर जाने लगा...फिर कुछ सोच कर वापस लौट आया
क्रमश:
डॉ. कुसुम जोशी
गाजियाबाद, उ.प्र.